-रोला छंद-
जय जय अष्टम द्वीप, चारों दिश में जानों।
इकसौ त्रेसठ कोटि, लाख चुरासी मानो।।
इतने योजन मान, विस्तृत चारों दिशि है।
तेरह तेरह अद्रि, मानें चारों दिशि है।।१।।
गोलाकार महान, वेदी उपवन सोहें।
सुरनर किन्नर आन, जिनगुण से मन मोहें।।
ज्योतिष व्यंतर देव, भावन सुरगण आवें।
विविध कुसुम की माल, नाना फल भी लावें।।२।।
कल्पवासि सुर आय, पूरब दिश जिन वंदे।
भावनसुर दक्षीण, दिश में जिनवर वंदे।।
पश्चिम में सुरवृंद, व्यंतर नमन करे हैं।
उत्तर में सुरवृंद, ज्योतिष भक्ति भरे हैं।।३।।
पौर्वाण्हिक दो प्रहर, दो प्रहरी अपराण्हे।
पूर्वरात्रि दो प्रहर, अपररात्रि दो जान्हे।।
क्रम से चउ विध देव, भक्ति नित्य करें हैं।
पुन: प्रदक्षिणरूप, दिश परिवर्त करें हैं।।४।।
इस विध मास असाढ़, कार्तिक फाल्गुन जानो।
शुक्ल अष्टमी लेय, पूनम तक तिथि जानो।।
असंख्यात सुरवृंद, अतिशय भक्ति करे हैं।
आठ दिनों हि अखंड, वंदत पुण्य भरे हैं।।५।।
सुवरण कलश सुगंध, नीर प्रपूर्ण भरे हैं।
जिनप्रतिमा अभिषेक, करते पाप हरे हैं।।
कुंकुम चंदन गंध, मिल कर्पूर सुगंधी।
कालागरु अर अन्य बहु विध वस्तु सुगंधी।।६।।
गंध बनाकर इंद्र, मूर्ति विलेप करे हैं।
चंदन से जिन चर्च कर्मकलंक हरे हैं।।
तंदुल सुम पकवान, दीप सुधूप फलों से।
जिनबिंबों को वंद्य, छुटते कर्म मलों से।।७।।
चंदवा चंवर विचित्र, इनसे सदन सजावें।
ढोरत चंवर सफेद, भेरी आदि बजावें।।
सुर अप्सरियाँ नृत्य, करतीं जिनगुण गावें।
जिनवर चरित विशेष, नाटक कर हर्षावें।।८।।
इस विध बहुत प्रकार, भक्ति प्रगाढ़ करे हैं।
समकितनिधि को पाय, सिंधु अथाह तरे हैं।।
मैं भी प्रभु तुम पास, आय यही अब मांगूँ।
रत्नत्रय निधि पाय, विषय कषाय कु त्यागूँ।।९।।
और नहीं कुछ आश, नाथ! रही अब मेरी।
ऐसा करो उपाय, मिटे तिहूँ जग फेरी।।
तम अज्ञान हटाय ‘‘ज्ञानमती’’ कर पूरी।
नाथ सुनो अब शीघ्र, ना हो मांग अपूरी।।१०।।
-दोहा-
नंदीश्वर वरद्वीप में, बावन जिनवर धाम।
पुन: पुन: शिर नायके, उनको नित्य प्रणाम।।११।।