(त्रिलोकसार ग्रन्थ से)
इदानीं त्रिलोकस्थिताकृत्रिमचैत्यालयानां सामान्येन व्यासादिकमाह—
आयामदलं वासं उभयदलं जिणघराणमुच्चत्तं।
दारुदयदलं वासं आणिद्दाराणि तस्सद्धं।।९७८।।
आयामदलं व्यासं उभयदलं जिनगृहाणामुच्चत्वं।
द्वारोदयदलं व्यास: अणुद्वाराणि तस्यार्धं।।९७८।।
आवाम । उत्कृष्टादिचैत्यालयानामायामा १०० । ५०। २५ धैं तेषां व्यासः ५०। २५। २५/२ आयामव्यासयोरुभयो उ० १५० म० ७५ ज० ७५/२ दलं जिनगृहाणामुच्चत्वं ७५ । ७५/२ । ७५/४ तेषां द्वारोदयः १६ । ८ । ४ दलं द्वार व्यासः ८ । ४ । २ क्षुल्लकद्वाराणि वृहद्द्वारार्धोदयव्यासानि।।९७८।।
अब त्रैलोक्यस्थित अकृत्रिम चैत्यालयों का सामान्य से व्यासादिक कहते हैं—
गाथार्थ :—उत्कृष्ट आदि चैत्यालयों के आयाम के अर्ध भाग प्रमाण उनका व्यास है तथा आयाम और व्यास के योग का अर्ध भाग प्रमाण उन जिनालयों का उदय (ऊँचाई) है। द्वारों की ऊँचाई के अर्धभाग प्रमाण द्वारों का व्यास (चौड़ाई) है तथा बड़े द्वारों के व्यासादि से छोटे द्वारों का व्यासादिक अर्ध अर्ध प्रमाण है।।९७८।।
विशेषार्थ :—उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य जिनालयों का आयाम क्रम से १०० योजन, ५० योजन और २५ योजन प्रमाण है। इन्हीं जिनालयों का व्यास (चौड़ाई) आयाम के अर्ध भाग प्रमाण अर्थात् ५० योजन, २५ योजन और १२ १/२ योजन प्रमाण है तथा इनकी ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई के अर्धभाग प्रमाण अर्थात् (१००±५०)·१५० ´ २ · ७५ योजन, (५० ± २५)·७५ ´ २ · ३७ १/२ योजन और (२५ ± १२ १/२)· ७५ / २ ² २ · १८ ३/४ योजन प्रमाण है। उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य जिनालयों के द्वारों की ऊँचाई क्रम से १६ योजन, ८ योजन और ४ योजन प्रमाण है तथा इन्हीं द्वारों की चौड़ाई, ऊँचाई के अर्धभाग प्रमाण अर्थात् ८ योजन, ४ योजन और २ योजन प्रमाण है। छोटे-छोटे द्वारों का उदय एवं व्यास बड़े द्वारों के उदय एवं व्यास से अर्ध अर्ध प्रमाण है। अर्थात् उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य जिनालयों में जो छोटे-छोटे दरवाजे हैं उनकी ऊँचाई क्रम से ८ योजन, ४ योजन और और २ योजन है तथा उनका व्यास (चौड़ाई) ४ योजन, २ योजन और एक योजन प्रमाण है।।
उक्तार्थमेव विशेषतो गाथाद्वयेनाह—
वरमज्झिमअवराणं दलक्कमं भद्दसालणंदणगा।
णंदीसरगविमाणगजिणालया होंति जेट्ठा हु।।९७९।।
सोमणसरुजगकुंडलवक्खारिसुगारमाणुसुत्तरगा।
कुलगिरिगा वि य मज्झिम जिणालया पांडुगा अवरा।।९८०।।
वरमध्यमावराणां दलक्रमं भद्रशालनन्दनकाः।
नन्दीश्वरकविमानगजिनालया भवन्ति ज्येष्ठाः हि।।९७९।।
सौमनसरुचककुण्डलवक्षोरष्वाकारमानुषोत्तरगाः।
कुलगिरिगा अपि च मध्यमा जिनालया पाण्डुगा अवराः।।९८०।।
वर। उत्कृष्टमध्यमजघन्यचैत्यालयानां व्यासादिकमर्धार्धक्रमं जानीहि। भद्रशालनन्दननन्दीश्वरविमानगतजिनालया जयेष्ठाः खलु भवन्ति।।९७९।।
सोमण। सौमनसरुचककुण्डलवक्षारेष्वाकारमानुषोत्तरगाः कुलगिरिगता अपि च जिनालयाः मध्यमा, पाण्डुकवनगता जघन्याः।।९८०।।
इस कहे हुए अर्थ को ही विशेष-दो गाथाओं द्वारा कहते हैं :—
गाथार्थ :—उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य जिनालयों का व्यासादिक क्रम से आधा आधा है। भद्रशाल वन, नन्दन वन, नन्दीश्वर द्वीप और वैमानिक देवों के विमानों में जो जिनालय हैं, ये उत्कृष्ट व्यासादिक प्रमाण वाले हैं तथा सौमनस् वन, रुचकगिरि, कुण्डलगिरि, वक्षार, इष्वाकार, मानुषोत्तर पर्वत और कुलाचलों पर जो जिनालय हैं, उनका व्यासादिक मध्यम और पाण्डुक वन स्थित जो जिनालय हैं, उनका व्यासादिक जघन्य प्रमाण वाला है।।९७९-९८०।।
विशेषार्थ :—उत्कृष्ट जिनालयों के व्यासादिक से मध्यम जिनालयों का व्यासादिक अर्धभाग प्रमाण है और मध्यम से जघन्य जिनालयों का व्यासादिक अर्धभाग प्रमाण है। भद्रशाल वन, नन्दन वन, नन्दीश्वर द्वीप और देवों के विमानगत जो जिनालय हैं, वे उत्कृष्ट प्रमाण वाले हैं। सौमनस् वन, रुचकगिरि, कुण्डलगिरि, वक्षार, इष्वाकार, मानुषोत्तर पर्वत और कुलाचलों पर जो जिनालय हैं, वे मध्यम तथा पाण्डुक वनस्थ जिनालय जघन्य प्रमाण वाले हैं।
तदनन्तरं, ज्येष्ठजिनालयानामायामागाढद्वारोत्सेधानाह ;—
जोयणसय आयामं दलगाढं सोलसं तु दारुदयं।
जेट्टाणं गिहपासे आणिद्दाराणि दो द्दो दु।।९८१।।
योजनशतमायामः दलावगाढः षोडश तु द्वारोदयः।
ज्येष्ठानां गृहपार्श्वे अणुद्वारे द्वे द्वे तु।।९८१।।
जोयण। ज्येष्ठजिनालयानामायामो योजनशतं अधंयोजनावगाढः षोडश-योजनानि तद्द्वारोदयः तज्जिनगृहपार्श्वे द्वे द्वे क्षुल्लकद्वारे भवतः।।९८१।।
उत्कृष्टादिविशेषणविरहितानां वसतीनामायामः कियानित्युक्ते आह—
वेयड्ढजंबुसामलिजिणभवणाणं तु कोस आयामं।
सेसाणं स्रगजोग्गं आयामं होदि जिणदिट्ठं।।९८२।।
विजयार्धजम्बूशाल्मलिजिनभवनानां तु क्रोश आयामः।
शेषाणां स्वकयोग्यः आयामो भवति जिनदृष्टः ।।९८२।।
वेयड्ढ । विजयार्धगिरौ जम्बूवृक्षे शाल्मलीवृक्षे च जिनभवनानामायामः एकक्रोशः शेषाणां भवनादिजिनालयानां स्वयोग्यायामो जिनैर्दृष्टः।।९८२।।
इसके बाद उत्कृष्ट जिनालयों का आयाम, गाध (नींव) और द्वारों की ऊँचाई कहते हैं—
गाथार्थ :—उत्कृष्ट जिनालयों का आयाम सौ योजन प्रमाण और गाध अर्ध योजन प्रमाण है। इनके द्वारों की ऊँचाई सोलह योजन प्रमाण है। उत्कृष्ट द्वारों के दोनों पार्श्व भागों में दो-दो छोटे द्वार हैं।।९८१।।
विशेषार्थ :—उत्कृष्ट जिनालयों की लम्बाई १०० योजन और अवगाढ अर्ध योजन प्रमाण है। इन जिनालयों के उत्कृष्ट द्वारों की ऊँचाई १६ योजन प्रमाण है। उत्कृष्ट द्वारों के दोनों पार्श्व भागों में दो-दो छोटे दरवाजे हैं।
उत्कृष्टादि विशेषण से रहित जिनालयों का आयाम कितना है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं :—
गाथार्थ :—विजयार्ध पर्वत, जम्बू और शल्मली वृक्षों पर स्थित जिनालयों का आयाम एक कोस प्रमाण है तथा अवशेष जिनालयों (भवनवासियों के भवनों एवं व्यन्तरदेवों के आवासों में स्थित) का अपने-अपने योग्य आयामादिक का प्रमाण जिनेन्द्र देव के द्वारा देखा हुआ है अर्थात् अनेक प्रकार का है अतः यहाँ कहा नहीं जा सकता ।।९८२।।
उक्तानां जिनभवनानां परिकरं गाथासप्तकेनाह—
चउगोउरमणिसालति वीहिं पडि माणथंभ णवथूहा।
वणधयचेदियभूमी जिणभवणाणं च सव्वेिंस।।९८३।।
चतुर्गोपुरमणिशालत्रयं वीथीं प्रति मानस्तम्भानवस्तूपाः।
वनध्वजाचैत्यभूमयः जिनभवनानां च सर्वेषां।।९८३।।
चउ । सर्वेषां जिनभवनानां चतुर्गोपुरयुक्तमणिमयशालत्रयं प्रतिवीथ्येवैâक-मानस्तम्भाः। नव नव स्तूपाश्च भवन्ति। तच्छालत्रयान्तराले बाह्यादारभ्य क्रमेण वनध्वजचैत्य भूमयो भवन्ति।।९८३।।
जिणभवणे अट्ठसया गब्भगिहा रयणथंभवं तत्थ।
देवच्छंदो हेमो दुगअडचउवासदीहुदओ।।९८४।।
जिनभवनेषु अष्टशतानि गर्र्भगृहाणि रत्नस्तम्भवान् तत्र।
देवच्छंदो हैमः द्विकाष्टचतुर्व्यासदीर्घोदयः।।९८४।।
जिण। तेषु जिनभवनेष्यष्टोत्तरशतप्रमितानि गर्भगृहाणि सन्ति। तत्र जिनभवनमध्ये रत्नस्तम्भवान् हेममयद्विकाष्टचतुर्योजनव्यासदीर्घोदयो देवच्छन्दोऽस्ति।।९८४।।
िंसहासणादिसहिया विणीलकुंतल सुवञ्जमयदंता।
विद्दुमअहरा किसलयसोहायरहत्थपायतला।।९८५।।
दसतालमाणलक्खणभरिया पेक्खंत इव वदंता वा।
पुरुजिणतुंगा पडिगा रयणमया अट्ठअहियसया।।९८६।।
िंसहासनादिसहिता विनीलकुन्तलाः सुवङ्कामयदन्ताः।
विद्रुमाधराः किसलयशोभाकरहस्तपादतलाः।।९८५।।
दशतालमानलक्षणभरिताः प्रेक्ष्यमाणा इव वदंत इव।
पुरुजिनतुङ्गाः प्रतिमाः रत्नमय्यः अष्टाधिकशताः।।९८६।।
िंसहासणादि। िंसहासनादिसहिता विनीलकुन्तलाः सुवङ्कामयदन्ताः विद्रुमाधराः किसलयशोभाकरहस्तपादतलाः।।९८५।।
दस। दशतालमानलक्षण भरिताः प्रेक्षमाणा इव वदंत इव पुरुषजिनतुङ्गाः ५०० रत्नमय्यः अष्टाधिकशतप्रमिताः जिनप्रतिमास्तेषु गर्भगृहेष्वेकेकाः सन्ति।।९८६।।
ताः कथम्भूता :—
चमरकरणागजक्खगबत्तीसंमिहुणगेहि पुह जुत्ता।
सरिसीए पंतीए गब्भगिहे सुट्ठु सोहंति।।९८७।।
सिरिदेवी सुददेवी सव्वाण्हसणक्कुमारजक्खाणं।
रूवाणि य जिणपासे मंगलमट्ठविहमवि होदि।।९८८।।
िंभगारकलसदप्पणवीयणधयचामरादवत्तमहा।
सुवइट्ठ मंगलाणि य अट्ठहियसयाणि पत्तेयं।।९८९।।
चमरकरनागयक्षगद्वािंत्रशन्मिथुनैः पृथव्â युक्ताः।
सदृश्या पंक्त्या गर्भगृहे सुष्ठु शोभन्ते।।९८७।।
श्रीदेवी श्रुतदेवी सर्वाह्नसनत्कुमारयक्षाणां।
रूपाणि च जिनपार्श्वे मङ्गलमष्टविधमषि भवति।।९८८।।
भृङ्गारकलशदर्पणवीजनध्वजचामरातपत्रमथ।
सुप्रतिष्ठं मङ्गलानि च अष्टाधिकशतानि प्रत्येकम् ।।९८९।।
चमर। चमरकरनागयक्षगतद्वात्रिशन्मिथुनैः पृथव्â-पृथव्â गर्भगृहे सदृश्या पंक्त्या युक्ताः सुष्ठु शोभन्ते।।९८७।।
सिरि। तज्जिनप्रतिमापार्श्वे श्रीदेवी श्रुतदेवी सर्वाह्नसनत्कुमारयक्षाणां रूपाणि अष्टविधानि मङ्गलानि च भवन्ति।।९८८।।
िंभगार। भृङ्गारकलशदर्पणवीजनध्वजचामरातपत्रसुप्रतिष्ठान्यष्टमङ्गलानि। तानि मङ्गलानि पुनः प्रत्येकमष्टाधिकशतप्रमितानि भवन्ति।।९८९।।
ऊपर कहे हुए जिनालयों का परिवार सात गाथाओं द्वारा कहते हैं :—
गाथार्थ :—समस्त जिनभवनों के चार गोपुर द्वारों से संयुक्त मणिमय तीन कोट हैं। प्रत्येक वीथी में एक-एक मानस्तम्भ और नव-नव स्तूप हैं। उन कोटों के अन्तरालों में क्रम से वन, ध्वजा और चैत्यभूमि हैं।।९८३।।
विशेषार्थ :—समस्त जिनभवनों के चारों ओर चार गोपुर द्वारों से संयुक्त मणिमय तीन कोट हैं। प्रत्येक वीथी में एक-एक मानस्तम्भ और नव-नव स्तूप हैं। बाहर से प्रारम्भ कर प्रथम और द्वितीय कोट के अन्तराल में वन हैं। द्वितीय और तृतीय कोट के अन्तराल में ध्वजाएँ तथा तृतीय कोट के बीच चैत्यभूमि है।
गाथार्थ :—उन समस्त जिन भवनों में प्रत्येक में एक सौ आठ गर्भगृह हैं तथा जिनभवनों के मध्य में रत्नों के स्तम्भों से युक्त स्वर्णमय एक-एक मण्डप है जिसकी लम्बाई ८ योजन, चौड़ाई दो योजन और ऊँचाई चार योजन प्रमाण है।
गाथार्थ :—उन गर्भगृहों के मध्य में िंसहासनादि से सहित तथा विशेष नीले केश, सुन्दर वङ्कामय दाँत, मूँगा सदृश ओंठ तथा नवीन कोंपल की शोभा को धारण करने वाले हैं हाथ और पैर के तलभाग जिनके दश ताल प्रमाण लक्षणों से भरी हुईं, देख रही हों मानों, बोल ही रहीं हों मानों और आदिनाथ भगवान् के बराबर है (५०० धनुष) ऊँचाई जिनकी ऐसी रत्नमय एक सौ आठ प्रतिमाएँ हैं।।९८५-९८६।।
विशेषार्थ :—उन १०८ गर्भगृहों के मध्य में िंसहासनादि से सहित रत्नमय १०८, १०८ प्रतिमाएँ हैं। जिनके विशेष नीले केश, सुन्दर वङ्कामय दाँत, मूँगा सदृश ओंठ तथा नवीन कोंपल की शोभा को धारण करने वाले हाथ पैर के तल भाग हैं। जो दश ताल प्रमाण लक्षण से भरी हुई हैं। जो देखती हुई के सदृश, बोलती हुई के सदृश एवं आदिनाथ भगवान के सदृश ५०० धनुष ऊँची हैं।
वे प्रतिमाएँ वैâसी हैं ?
गाथार्थ :—वे जिन प्रतिमाएँ, चमरधारी नागकुमारों के बत्तीस युगलों और यक्षों के बत्तीस युगलों सहित, पृथव्â-पृथव्â एक-एक गर्भगृह में सदृश पंक्ति से भली प्रकार शोभायमान होती हैं। उन जिन प्रतिमाओं के पार्श्व भाग में श्रीदेवी, श्रुतदेवी, सर्वाण्ह यक्ष और सानत्कुमार यक्ष के रूप अर्थात् प्रतिमाएँ हैं तथा अष्टमङ्गल द्रव्य भी होते हैं। झारी, कलश, दर्पण, पङ्खा, ध्वजा, चामर, छत्र और ठोना ये आठ मंगल द्रव्य हैं। ये प्रत्येक मंगल द्रव्य १०८, १०८ प्रमाण होते हैं।।९८७-९८८-९८९।।
विशेषार्थ :—वे जिन प्रतिमाएँ चौंसठ चमरों से वीज्यमान हैं। अर्थात् हाथों में हैं चमर जिनके ऐसे नागकुमार के ३२ युगलों और यक्षों के ३२ युगलों से सहित हैं। पृथव्â-पृथव्â एक-एक गर्भगृह में सदृश पंक्ति से भली प्रकार शोभायमान होती हैं। उन प्रतिमाओं के पार्श्वभाग में श्री (लक्ष्मी) देवी, श्रुत (सरस्वती) देवी, सर्वाह्व यक्ष और सानत्कुमार यक्ष की प्रतिमाएँ तथा अष्ट मंगल द्रव्य हैं। झारी, कलश, दर्पण, पङ्खा, ध्वजा, चामर, छत्र और ठोना ये आठ मङ्गल द्रव्य हैं। ये प्रत्येक मंगल द्रव्य एक सौ आठ, एक सौ आठ प्रमाण होते हैं।
इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती में भी कहा है :—
सिरिसुददेवीणतहासव्वाण्हसणक्कुमार जक्खाणं।
रुवाणिं पत्तेक्कं पडि वररयणाइरइदाणिं।।१८८१।। (चतुर्थ अधिकार)
अर्थ :—प्रत्येक प्रतिमा के प्रति उत्तम रत्नादिकों से रचित श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाण्ह व सानत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ रहती हैं।।१८८१।।
अथ गर्भगृहाद्वाह्यस्वरूपं गाथाचतुष्टयेनाह—
मणिकणयपुप्फसोहियदेवच्छंदस्स पुव्वदो मज्झे।
वसईए रूप्पकंचणघडासहस्साणि बत्तीसं।।९९०।।
महदारस्स दुपासे चउवीससहस्साणि धूवघडा।
दारबहिं पासदुगे अट्ठसहस्साणि मणिमाला।।९९१।।
तम्मज्झ हेममाला चउवीसं वदणमंडवे हेमा।
कलसामाला सोलस सोलसहस्साणि धूवघडा।।९९२।।
महुरझणझणणिणादा मोत्तियमणिणिम्मिया सकिंकिणिया।
बहुविहघंटाजाला रइदा सोहंति तम्मज्झे।।९९३।।
मणिकनकपुष्पशोभितदेवच्छन्दस्य पूर्वतो मध्ये।
वसत्यां रूप्यकाञ्चनघटसहस्राणि द्वात्रिंशत्।।९९०।।
महाद्वारस्य द्विपार्श्वे चतुर्विंशसहस्रं सन्ति धूपघटाः।
द्वारबहिः पार्श्वद्वये अष्टसहस्राणि मणिमालाः।।९९१।।
तन्मध्ये हेममाला चतुर्विंशतिः वदनमण्डपे हेमाः।
कलशमालाः षोडश षोडशसहस्राणि धूपघटाः।।९९२।।
मधुरझनझननिनादाः मौक्तिकमणिनिर्मिताः सकिज्र्णििकाः।
बहुविधघण्टाजाला रचिताः शोभन्ते तन्मध्ये।।९९३।।
मणि। मणिकनकपुष्पशोभितदेवच्छन्दस्य पूर्वतो वसत्यां मध्ये रूप्यकाञ्च-नमयानि द्वात्रिंशद्घटसहस्राणि भवन्ति।।९९०।।
मह। महाद्वारस्य द्वयोः पार्श्वयोश्चतुा\वशतिसहस्राणि २४००० धूपघटाः सन्ति। तद्द्वारबाह्ये पार्श्वद्वये अष्टसहस्राणि ८००० मणिमालाः सन्ति।।९९१।।
तम्म। तासां मणिमालानां मध्ये चतुर्विंशतिसहस्राणि २४००० हेममालाः सन्ति। मुखमण्डपे पुनर्हेममयानि कलशानि तन्मयमालाश्च षोडशषोडशसहस्राणि सन्ति १६०००। १६००० तत्रैव पुनः षोडशसहस्राणि १६००० धूपघटाश्च सन्ति।।९९२।।
महु । तन्मण्डपस्यैव मध्ये पुनर्मधुरझणझणनिनादा मौक्तिकमणिनिर्मिताः साकिज्र्णििकाः बहुविधघंटाजाला अनेकरचनायुक्ताः शोभन्ते।।९९३।।
तद्वसतेः क्षुल्लकद्वारादिस्वरूपमाह—
वसईमज्झगदक्खिणउत्तरतणुदारगे तदद्धं तु।
तप्पुट्ठे मणिकञ्चणमालडचउवीसगसहस्सं।।९९४।।
वसतिमध्यगदक्षिणोत्तरतनुद्वारे तदर्धं तु।
तत्पृष्ठे मणिकाञ्चनमाला अष्टचतुर्विंशकसहस्राणि।।९९४।।
वसई । तद्वसतेर्दक्षिणोत्तरपार्श्व मध्यगतक्षुल्लकद्वारे मुख्यद्वारोक्तविधानं सर्वमर्धार्धं भवति तद्वसतेः पृष्ठभागे पुनर्मणिमालाः काञ्चनमालाश्चाष्टसहस्राणि ८००० चतुर्विंशतिसहस्राणि २४००० च स्युः।।९९४।।
उक्तस्य मुखमण्डपादेर्व्यासादिकं ततः पुरस्तात् स्थितानां सर्वेषां स्वरूपं गाथापञ्चदशकेनाह—
जिनगिहवासायामो तप्पुरदो सोलसोच्छिओ होदि।
मुहमंडओ तदग्गे पिक्खण चउरस्स मंडवओ।।९९५।।
सदवित्थारो साहियसोलुदओ हेमपीडियं पुरदो।
चउरस्सं जोयणदुगसमुच्छयं सीदिवित्थारं।।९९६।।
तम्मज्झे चउरस्सो मणिमय चउिंवदवास सोलुदओ।
अट्ठाणमंडओ तप्पुरदो तालुदयथुवमणिवीढं।।९९७।।
तं पुण चउगोउरजुदबारंबुजवेदियाहि संयुत्तं।
मज्झे मेहलतियजुद चउघणदीहुदयवास बहुरयणो।।९९८।।
थूहो जिणिंवबचिदो णवण्हमेवं कमेण तप्पुरदो।
वासायामसहस्सं बारसवेदिजुद हेममयपीठं।।९९९।।
तिंह चउदीहिगिवासक्खंधा बहुमणिमया ससालतिया।
बारहजोयण आयदचउमहसाहा अणेयतणुसाहा।।१०००।।
बारहयोजणवित्थडसिहरा सिद्धत्थचेत्तणामतरू।
णाणादलपुप्फफला पंचहियापउमपरिवारा।।१००१।।
जिनगृहव्यासायामः तत्पुरतः षोडशोच्छ्रितो भवति।
मुखमण्डपः तदग्रे प्रेक्षणः चतुरस्रः मण्डपः।।९९५।।
शतविस्तारः साधिकषोडशोदयः हेमपीठं पुरतः।
चतुरस्रं योजनद्विकसमुच्छ्रयं अशीतिविस्तारं।।९९६।।
तन्मध्ये चतुरस्रः मणिमयः चतुर्वृन्दव्यासः षोडशोदयः।
आस्थानमण्डपः तत्पुरतः चत्वािंरशदुदयस्तूपमणिपीठं।।९९७।।
तत् पुनः चतुर्गोपुरयुतद्वादशाम्बुजवेदिकाभिः संयुक्तं।
मध्ये मेखलात्रययुतः चतुर्घनदीर्घोदयव्यासः बहुरत्नः।।९९८।।
स्तूपः जिनबिम्बचितः नवानामेवं क्रमेण तत्पुरतः।
व्यासायामसहस्रं द्वादशवेदीयुतं हेममयपीठं।।९९९।।
तस्मिन् चतुर्दीर्घैकव्यासस्कन्धौ बहुमणिमयौ सशालत्रयौ।
द्वादशयोजनायतचतुर्महाशाखौ अनेकतनुशाखौ।।१०००।।
द्वादशयोजनविस्तृतशिखरौ सिद्धार्थचैत्यनामतरू।
नानादलपुष्पफलौ पञ्चाधिकपद्मपरिवारौ।।१००१।।
जिण। जिनगृहव्यासा ५० यामः १०० षोडश १६ योजनोच्छ्रितो मुखमण्डपः तज्जिनगृहपुरतो भवन्ति। तस्याग्रे चतुरस्रप्रेक्षणमण्डपश्च स्यात् ।।९९५।।
सद । स च कियानिति चेत् शतयोजन १०० विस्तारः साधिक षोडश १६ योजनोदयः। तत्प्रेक्षणमण्डपस्य पुरतो योजनद्विकसमुच्छ्रयमशीतियोजन ८० विस्तारं चतुरस्रं हेममयपीठमस्ति।।९९६।।
तम्म। तत्पीठमध्ये चतुरस्रो मणिमयश्चतुर्घन ६४ व्यासः षोडश १६ योजनोदय आस्थानमण्डपः स्यात् । तत्पुरतः पुनश्चत्वािंरश ४० द्योजनोदय स्तूपस्य मणिमयं पीठमस्ति।।९९७।।
तं पुण । तत्पीठं पुनश्चतुर्गोपुरयुतद्वादशाम्बुजवेदिकाभिः संयुक्तं। तत्पीठमध्ये मेखलात्रययुतश्चतुर्घन ६४ दीर्घोदयव्यासो बहुरत्नः।।९९८।।
थूहो । जिनबिम्बचितः स्तूपोऽस्ति नवानां स्तूपानामेवं क्रमेण स्वरूपं स्यात्। ततः स्तूपस्य पुरतो व्यासायामसहस्रं द्वादश १२ वेदीयुतं हेममयपीठ-मस्ति।।९९९।।
तिंह । तस्मिन् पीठे चतुर्योजनदीर्घैकयोजनव्यासस्कन्धौ बहुमणिमयौ शालत्रयसहितौ द्वादशयोजनायतचतुर्महाशाखौ अनेकतनुशाखौ।।१०००।।
बारह । द्वादशयोजनविस्तृतशिखरौ नानादलपुष्पफलौ पञ्चाधिकपद्मपरिवारौ सिद्धर्थचैत्यनामानौ तरू स्तः।।१००१।।
मूलगपीठणिसण्णा चउद्दिसं चारि सिद्धजिणपडिमा।
तप्पुरदो महकेदू पीठे चिट्ठंति विविहवण्णणगा।।१००२।।
मूलगपीठनिषण्णा चतुर्दिक्षु चतस्रः सिद्धजिनप्रतिमाः।
तत्पुरतः महाकेतवः पीठेतिष्ठन्ति विविधवर्णनकाः।।१००२।।
मूलग । तत्तरुमूलगतपीठनिषव्णाश्चतुर्दिक्षु चतस्रः सिद्धतरुमूले सिद्ध-प्रतिमाश्चैत्यतरुमूले जिनप्रतिमाः सन्ति। तत्पुरतः पीठे विविधवर्णनका महाकेतवस्तिष्ठन्ति।।१००२।।
सोलुदय कोसवित्थड कणयत्थंभग्गगा हु रयणमया।
चित्तवडछत्ततिदया बहुगा जणणयणमणरमणा।।१००३।।
तप्पुरदो ज्िानभवणं तच्चउदिस विविहकुसुम चउ दहगा।
दसगाढसयदलायदवासा मणिकणयवेदिजुदा।।१००४।।
पुरदो सुरकीडणमणिपासाददु होंति वीहिपासदुगे।
पण्णुदयं दलवासो तप्पुरदो तोरणं होदि।।१००५।।
तं मणिथंभग्गठियं मुत्ताघंटासुजाल पण्णुदयं।
तद्दलजोयणवासं जिणबिंबकदंवरमणिज्जं।।१००६।।
पुरदो पासाददुगं फलिहादिमसालदारपासदुगे।
अब्भंतरे सदुदयं दलवासं रयणसंघडियं।।१००७।।
जं परिमाणं भणिदं पुव्वगदारम्हि मंडवादीणं।
दक्खिणउत्तरदारे तदद्धमाणं गहीदव्वं।।१००८।।
वंदणभिसेयणच्च णसंगीयवलोयमंडवेहिं जुदा।
कीडणगुणणगिहेहि य विसालवरपट्टसालेहिं।।१००९।।
षोडशोदयाः क्रोशविस्ताराः कनकस्तम्भाग्रगा हि रत्नमयाः।
चित्रपटछत्रत्रितया बहुका जननयनमनोरमणाः।।१००३।।
तत्पुरतः जिनभवनं तच्चतुर्दिक्षु विविधकुसुमाः चत्वारो ह्रदाः।
दशावगाधशतदलायतव्यासाः मणिकनकवेदीयुताः।।१००४।।
पुरस्तात् सुरक्रीडनमणिमयप्रासादद्वयं भवन्ति वीथिपार्श्वद्वये।
पञ्चाशदुदयं दलव्यासं तत्पुरतस्तोरणं भवति।।१००५।।
तत् मणिस्तम्भाग्रस्थितं मुक्ताघण्टासुजालं पञ्चाशदुदयं।
तद्दलयोजनव्यासं जिनबिम्बकदम्बरमणीयं।।१००६।।
पुरतः प्रासादद्वयं स्फटिकादिमशालद्वारपार्श्वद्वये।
अभ्यन्तरे शतोदयं दलव्यासं रत्नसङ्घटितम् ।।१००७।।
यत् परिमाणं भणितं पूर्वद्वारे मण्डपादीनाम् ।
दक्षिणोत्तरद्वारे तदर्धमानं ग्रहीतव्यं।।१००८।।
वन्दनाभिषेकनर्तनसङ्गीतावलोकमण्डपैः युतानि।
क्रीडनगुणनगृहैश्च विशालवरपट्टशालैः।।१००९।।
सोलुदय । षोडश १६ योजनोदया एकक्रोशविस्ताराः तत् केतूनां कनकस्तम्भाः तेषामग्रगा रत्नमया बहुकाः जननयनमनोरमणाश्चित्रपटछत्रत्रया शोभन्ते।।१००३।।
तप्पुर । तद्ध्वजात्पुरतो जिनभवनमस्ति तस्य चतुर्दिक्षु विविधकुसुमाः दशयोजनावगाधाः शतयोजनायतास्तदर्ध ५० व्यासा मणिकनकवेदीयुताश्चत्वारो ह्रदाः सन्ति।।१००४।।
पुरदो । ततः पुरस्ताद्वीथीपार्श्वदये पञ्चाश ५० द्योजनोदयं तद्दल २५ व्यासं सुरक्रीडनमणिमयप्रासादद्वयं भवति। तस्य पुरतस्तोरणं भवति।।१००५।।
तं मणि । तत्तोरणं मणिस्तम्भाग्रस्थितं मुक्ताघण्टासुजालं पञ्चाश ५० द्योजनोदयं तद्दल २५ योजनव्यासं जिनबिम्बकदम्बरमणीयं भवति।।१००६।।
पुरदो । तत्तोरणस्य पुरतः स्फटिकमयादिमशालस्याभ्यन्तरे द्वारपार्श्वद्वये शतयोजनोदयं तद्दल ५० व्यासं रत्नघटितं प्रासादद्वयमस्ति।।१००७।।
जं परि । पूर्वस्मिन् द्वारे मण्डपादीनां यत्परिमाणं भणितं तस्यार्धप्रमाणं दक्षिणद्वारे उत्तरद्वारे च ग्रहीतव्यम् ।।१००८।।
वंदण । तानि चैत्यालयानि पुनर्वन्दनाभिषेकनर्तनसङ्गीतावलोकनमण्डपैर्युतानि क्रीडनगुणनगृहैश्च विशालवरपट्टशालैश्च युतानि भवन्ति।।१००९।।
साम्प्रतं प्रथमद्वितीयशालयोरन्तरालस्वरूपमाह—
सिहगयवसहगरुडसिहिंदिणहंसारविंदचक्कधया।
पुह अट्ठसया चउदिसमेक्केक्के अट्ठसय खुल्ला।।१०१०।।
िंसहगजवृषभगरुडशिखींद्विनहंसारविन्दचक्रध्वजाः।
पृथव्â अष्टशतानि चतुर्दिशमेवैâकस्मिन् अष्टशतं क्षुल्लाः।।१०१०।।
सिह । िंसहगजवृषभगरुडशिखींद्विनहंसारविन्दचक्रध्वजाः पृथव्â पृथगष्टोत्तरशतानि। एवं प्रत्येकं चतुर्दिक्षु भवन्ति। अत्रैवैâकस्मिन् मुख्यध्वजे अष्टोत्तरशतक्षुल्लकध्वजा भवन्ति।।१०१०।।
द्वितीयप्राकारबाह्ययोरन्तरालस्वरूपं गाथात्रयेणाह—
चउवणमसोयसत्तच्छदचंपयचूदमेत्थ कप्पतरू।
कणयमयकुसुमसोहा मरगयमयविविहपत्तड्ढा।।१०११।।
वेलुरियफला विद्दुमविसालसाहा दसप्पयारा ते।
पल्लंकपाडिहेरग चउदिसमूलगय जिणपडिमा।।१०१२।।
सालत्तयपीढत्तयजुत्ता मणिसाहपत्तपुप्फफला।
तच्चउवणमज्झगया चेदियरुक्खा सुसोहंति।।१०१३।।
चतुर्वनमशोकसप्तच्छदचम्पकचूतमत्र कल्पतरवः।
कनकमयकुसुमशोभाः मरकतमयविविधपत्राठ्याः।।१०११।।
वैडूर्यफला विद्रुमविशालशाखाः दशप्रकारास्ते।
पल्यज्र्प्रातिहार्यगाः चतुर्दिशामूलगता जिनप्रतिमाः।।१०१२।।
शालत्रयपीठत्रययुक्ताः मणिशाखापत्रपुष्पफलाः।
तच्चतुर्वनमध्यगताः चैत्यवृक्षाः सुशोभन्ते।।१०१३।।
चउ । अशोकसप्तच्छदचम्पकचूतमयानि चत्वारि वनानि सन्ति। अत्र पुनः कनकमयकुसुमशोभिताः मरकतमयविविधपत्राठ्याः कल्पतरवश्च सन्ति।।१०११।।
वेलुरिय। ते च पुनः वैडूर्यफला विद्रुमविशालशाखाः दशप्रकाराः स्युः। तत्रैव वने पुनः पल्यज्र्प्रातिहार्ययुक्तचतुर्दिग्मूलगतजिनप्रतिमाः।।१०१२।।
साल । शालत्रयपीठत्रययुक्ताः मणिमयशाखापत्रपुष्पफलास्तच्चतुर्वनमध्य-गताश्चैत्यवृक्षाः सुशोभन्ते।।१०१३।।
नन्दादिवापीनां मानस्तम्भानां च विशेषस्वरूपमाह—
णंदादीय तिमेहल तिवीढया भंति धम्मविहवावि।
पडिमाधिट्ठियमुड्ढा वणभूचउवीहिमज्झम्हि।।१०१४।।
नन्दादिकाः त्रिमेखलाः त्रिपीठका भान्ति धर्मविभवा अपि।
प्रतिमाधिष्ठितमूर्धानः वनभूचतुर्वीथीमध्ये।।१०१४।।
णंदा । प्रागुक्ता नन्दादिषोडशवाप्यस्त्रिमेखलायुक्ता भान्ति। वनभूप्रणिधि-चतुर्वीथीमध्ये प्रतिमाधिष्ठितमूर्धानः धर्मविभवा अपि मानस्तम्भा इत्यर्थः, त्रिपीठयुक्ता भान्ति१।।१०१४।।
।।समाप्तम्।।
अब गर्भगृह से बाह्य का स्वरूप चार गाथाओं द्वारा कहते हैं :—
गाथार्थ :—मणि और स्वर्ण के पुष्पों से सुशोभित देवच्छन्द के पूर्व में आगे जिनमन्दिर है, उसके मध्य में चाँदी और स्वर्ण के बत्तीस हजार घड़े हैं। महाद्वार के दोनों पार्श्व भागों में चौबीस हजार धूपघट हैं तथा उस महाद्वार के दोनों बाह्य पार्श्वभागों में आठ हजार मणिमय मालाएँ हैं। उन मणिमय मालाओं के मध्य में चौबीस हजार स्वर्णमय मालाएँ हैं तथा मुखमण्डप में स्वर्णमय सोलह हजार कलश, सोलह हजार मालाएँ और सोलह हजार धूपघट हैं तथा उसी मुखमण्डप का मध्य भाग मोती और मणियों से बनी हुईं मधुर झण झण शब्द करने वाली छोटी-छोटी किंकिणियों से युक्त नाना प्रकार के घन्टा जालों की रचना से शोभायमान हैं।।।९९०-९९३।।
विशेषार्थ :—मणि और स्वर्ण के पुष्पों से सुशोभित जो देवच्छन्द है, उसके पूर्व में आगे जिनमन्दिर का मध्य चाँदी और स्वर्ण के बत्तीस हजार घड़ों से युक्त है। मन्दिर के महाद्वार के दोनों पार्श्व भागों में २४००० धूपघट हैं तथा उसी महाद्वार के दोनों बाह्य पार्श्व भागों में ८००० मणिमय मालाएँ हैं और उन्हीं मणिमय मालाओं के मध्य में २४००० स्वर्णमय मालाएँ हैं तथा उस महाद्वार के आगे मुखमण्डप का मध्य भाग, मोती एवं मणियों से बनी हुई मधुर झन-झन शब्द करने वाली छोटी-छोटी किंकिणियों से संयुक्त नाना प्रकार के घंटाओं के समूह की रचना से शोभायमान है।
उस मन्दिर के छोटे द्वारों का स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ :—जिनमन्दिर के दक्षिणोत्तर पार्श्व भागों में छोटे-छोट द्वार हैं। उनकी मालादिक का प्रमाण महाद्वार के प्रमाण से अर्धभाग प्रमाण है। उस मन्दिर के पृष्ठभाग में आठ हजार मणिमय मालाएँ और २४००० स्वर्णमय मालाएँ हैं।।९९४।।
ऊपरि कथित मुखमण्डपादिकों का व्यास आदि तथा उनके आगे स्थित रचना का स्वरूप पन्द्रह गाथाओं द्वारा कहते हैं :—
गाथार्थ :—जिनमन्दिर के आगे जिनमन्दिर सदृश ही व्यास एवं आयाम वाला और १६ योजन ऊँचा मुखमण्डप है। उस मुखमण्डप के आगे चौकोर प्रेक्षण मण्डप है, जिसका व्यास सौ योजन और ऊँचाई साधिक सोलह योजन है। उस प्रेक्षण मण्डप के आगे दो योजन ऊँचा, अस्सी योजन चौड़ा, चौकोर और स्वर्णमय पीठ है। उस पीठ के मध्य में चार के घन (६४ योजन) प्रमाण चौड़ा और सोलह योजन ऊँचा, चौकोर मणिमय आस्थान मण्डप है। उसके आगे चालीस योजन ऊँचे स्तूप का मणिमय पीठ है। जो चार द्वारों और बारह पद्मवेदियों से संयुक्त है। उस पीठ के मध्य में तीन मेखलाओं कटनियों से सहित, चार के घन प्रमाण अर्थात् ६४ योजन लम्बा, ६४ योजन चौड़ा और ६४ योजन ऊँचा, बहुरत्नों से रचित और जिनबिम्ब से उपचित स्तूप है। नवों स्तूपों का स्वरूप इसी क्रम से है। उस स्तूप के आगे हजार योजन लम्बा, हजार योजन चौड़ा बारह वेदियों से संयुक्त स्वर्णमय पीठ है। उस पीठ के ऊपर मणिमय तीन कोटों से संयुक्त सिद्धार्थ और चैत्य नाम के दो वृक्ष हैं। उन वृक्षों के स्कन्ध ४ योजन लम्बे और एक योजन चौड़े हैं। बारह योजन लम्बी चार महाशाखाएँ एवं अनेक छोटी शाखाएँ हैं। उन वृक्षों का उपरिम भाग बारह योजन चौड़ा है। वे वृक्ष नाना प्रकार के पत्र, फूल और फलों से सहित हैं। उनके परिवार वृक्षों की संख्या पद्मद्रह के मुख्य कमल के परिवार कमलों के प्रमाण से पाँच अधिक है।।९९५ से १००१ तक।। (सप्तक)
विशेषार्थ :—जिनमन्दिर के आगे जिनमन्दिर के ही सदृश १०० योजन लम्बा, ५० योजन चौड़ा और १६ योजन ऊँचा मुखमण्डप है। उस मुखमण्डप के आगे चौकोर प्रेक्षण मण्डप है। जो १०० योजन चौड़ा, १०० योजन लम्बा और साधिक १६ योजन ऊँचा है। उस प्रेक्षण मण्डप के आगे ८० योजन लम्बा, ८० योजन चौड़ा और दो योजन ऊँचा (चौकोर) स्वर्णमय पीठ है। चबूतरे का नाम पीठ है। उस पीठ के मध्य में चौकोर, मणिमय, ६४ योजन लम्बा, चौड़ा और १६ योजन ऊँचा आस्थान मण्डप है। सभामण्डप का नाम आस्थान मण्डप है। इस आस्थान मण्डप के आगे ४० योजन ऊँचे स्तूप का मणिमय पीठ है। वह पीठ चार गोपुर द्वारों एवं बारह पद्म वेदियों से सहित है। उस पीठ के मध्य में तीन मेखलाओं अर्थात् कटनी से सहित ६४ योजन लम्बा, चौड़ा और १६ योजन ऊँचा आस्थान मण्डप है। सभामण्डप का नाम आस्थान मण्डप है। इस आस्थान मण्डप के आगे ४० योजन ऊँचे स्तूप का मणिमय पीठ है। वह पीठ चार गोपुर- द्वारों एवं बारह पद्म वेदियों से सहित है। उस पीठ के मध्य में तीन मेखलाओं अर्थात् कटनी से सहित ६४ योजन लम्बा, ६४ योजन चौड़ा और ६४ योजन ऊँचा, बहुरत्नों से रचित और जिनबिम्ब से उपचित स्तूप है। इसी प्रकार के नव स्तूप हैं। अर्थात् नव ही स्तूपों के स्वरूपों का वर्णन इसी स्तूप सदृश है। इन स्तूपों के ऊपर जिनबिम्ब विराजमान हैं। इस स्तूप के आगे अर्थात् चारों ओर १००० योजन लम्बा, १००० योजन चौड़ा बारह वेदियों से संयुक्त स्वर्णमय पीठ है। उस पीठ के ऊपर सिद्धार्थ और चैत्य नाम के दो वृक्ष हैं। जिन वृक्षों का स्कन्ध ४ योजन लम्बा और एक योजन चौड़ा है। जिनके चार-चार महाशाखाओं की लम्बाई १२ योजन प्रमाण है। इनमें छोटी शाखाएँ अनेक हैं। इनका उपरिम भाग अर्थात् शिखर १२ योजन चौड़ा है। ये वृक्ष नाना प्रकार के पत्र पुष्प और फलों से सहित हैं। इनके परिवार वृक्षों की संख्या पद्मद्रह के मुख्य कमल के परिवार कमलों के प्रमाण से ५ अधिक हैं अर्थात् एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस हैं।
गाथार्थ :—चारों दिशाओं में उन वृक्षों के मूल में जो पीठ अवस्थित हैं उन पर चार सिद्ध प्रतिमाएँ और चार अरहन्त प्रतिमाएँ विराजमान हैं। उन प्रतिमाओं के आगे पीठ हैं जिनमें नाना प्रकार के वर्णन से युक्त महाध्वजाएँ स्थित हैं।।१००२।।
विशेषार्थ :—चारों दिशाओं में स्थित सिद्धार्थवृक्ष की पीठ-कटनी पर सिद्ध प्रतिमाएँ और चैत्यवृक्ष की पीठ-कटनी पर अरहन्त प्रतिमाएँ विराजमान हैं। उन प्रतिमाओं के आगे पीठ हैं जिनमें नाना प्रकार के वर्णन से युक्त महाध्वजाएँ स्थित हैं।
शंका :—सिद्ध प्रतिमा और अरहन्त प्रतिमा में क्या अन्तर है ?
समाधान :—अरहन्त प्रतिमा अष्टप्रातिहार्य संयुक्त ही होती हैं, किन्तु सिद्ध प्रतिमा अष्ट प्रातिहार्य रहित होती हैं।। यथा :—
१. वसुनन्दि प्रतिष्ठा पाठ तृतीय परिच्छेद :—
प्रातिहार्याष्टकोपेतं, सम्पूर्णावयवं शुभम् ।
भावरूपानुविद्धाङ्गं, कारयेद् बिम्बमर्हता।।६९।।
प्रातिहार्यैर्विना शुद्धं, सिद्धं बिम्बमपीदृशः।
सूरीणां पाठकानां च, साधूनाम् च यथागमम् ।।७०।।
अर्थ :—अष्टप्रातिहार्यों से युक्त, सम्पूर्ण अवयवों से सुन्दर तथा जिनका सन्निवेष (आकृति) भाव के अनुरूप है ऐसे अरहन्त बिम्ब का निर्माण करें।।६९।।
सिद्ध प्रतिमा शुद्ध एवं प्रातिहार्य से रहित होती हैं। आगमानुसार आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं की प्रतिमाओं का भी निर्माण करें।।७०।।
२. जयसेन प्रतिष्ठा पाठ के बिम्ब निर्माण प्रकरण में भी कहा है कि—
सल्लक्षणं भावविवृद्ध हेतुकं, सम्पूर्ण शुद्धावयवं दिगम्बरं।
सत्प्रातिहार्य्यैर्निजचिन्हभासुरं, संकारये बिम्बमथार्हतः शुभम् ।।१८०।।
सिद्धेश्वराणां प्रतिमाऽपियोज्या, तत्प्रातिहार्यादि विना तथैव।
आचार्य सत्पाठक साधु सिद्ध , क्षेत्रादिकानामपि भाववृद्धयै।।१८१।।
अर्थ :—प्रशस्त हैं लक्षण जिनके, जो भावों की विशुद्धि में कारण हैं, निर्दोष सर्व अवयवों से सहित, नग्न दिगम्बर, सुन्दर प्रतिहार्य एवं स्वकीय चिह्न से समन्वित हैं ऐसे मनोहर अरहन्त बिम्ब का निर्माण करावें। उसी प्रकार भावों की विशुद्धि के लिए प्रातिहार्य बिना सिद्धों की (आगमानुसार) आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं की भी प्रतिमाओं का निर्माण करावें। सिद्धक्षेत्र आदि की आकृतियों की भी स्थापना करें।।१८०,१८१।।
३. श्री आशाधर प्रतिष्ठा सारोद्धार के प्रथम अध्याय में भी कहा है कि :—
शान्तप्रसन्नमध्यस्थ, नासाग्रस्था विकार दृव्।
सम्पूर्णभावरूपानु, विहाङ्ग लक्षणान्वितम्।।६३।।
रौद्रादिदोष निर्मुक्तं, प्रातिहार्याज्र्यक्षयुव्।
निर्माप्य विधिना पींठे, जिनबिम्बं निवेशयेत्।।६४।।
अर्थ :—शान्त, प्रसन्न, मध्यस्थ, नासाग्र और अविकार दृष्टि, सम्पूर्ण भावानुरूप, स्वकीय लक्षण से समन्वित, रौद्रादि (क्रूर आदि) दृष्टि से रहित तथा यक्ष यक्षणी सहित जिनबिम्ब का निर्माण कराकर विधिपूर्वक वेदिका में विराजमान करें।। ६३, ६४।।
गाथार्थ :—उन ध्वजाओं के स्वर्णमय स्तम्भ सोलह योजन ऊँचे और एक कोश चौड़े हैं। उन स्वर्ण स्तम्भों के अग्रभाग रत्नमय एवं मनुष्यों के नेत्र और मन को सुन्दर लगने वाले बहुत से नाना प्रकार के ध्वजा रूप वस्त्रों एवं तीन छत्रों से शोभायमान हैं। उस ध्वजापीठ के आगे जिनमन्दिर हैं, जिनकी चारों दिशाओं में नाना प्रकार के फूलों से एवं मणिमय और स्वर्णमय वेदियों से संयुक्त, सौ योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े और दश योजन गहरे चार द्रह हैं। इन द्रहों के आगे जो वीथी (मार्ग) हैं उनके दोनों पार्श्व भागों में देवों के क्रीडा करने के मणिमय दो प्रासाद हैं, जिनकी ऊँचाई ५० योजन और चौड़ाई २५ योजन है। इन प्रासादों के आगे तोरण हैं। वे तोरण मणिमय स्तम्भों के अग्र भाग में स्थित, मोतीमाल और घन्टाओं के समूह से युक्त तथा जिनबिम्बों के समूह से रमणीक हैं। उनकी ऊँचाई पचास योजन और चौड़ाई पच्चीस योजन प्रमाण है। उस तोरण के आगे स्फटिकमय प्रथम कोट है। उस कोट द्वार के दोनों पार्श्व भागों में कोट के भीतर सौ योजन ऊँचे और ऊँचाई के अर्धभाग प्रमाण अर्थात् ५० योजन चौड़े रत्ननिर्मापित दो मन्दिर हैं। पूर्वद्वार में मण्डपादिक का जो प्रमाण कहा था उसका अर्ध प्रमाण दक्षिणोत्तर द्वारों में ग्रहण करना चाहिए।
वे दोनों मन्दिर वन्दना मण्डप, अभिषेक मण्डप, नर्तन, संगीत और अवलोकन मण्डपों से तथा क्रीड़ागृह, गुणनगृह (शास्त्राभ्यास आदि का स्थान) और विशाल एवं उत्कृष्ट पट्टशाला से संयुक्त हैं।।१००३ से १००९।।
विशेषार्थ :—उन ध्वजाओं के स्वर्णमय स्तम्भ १६ योजन ऊँचे और एक कोश चौड़े हैं। उन ध्वजाओं के स्वर्णमय स्तम्भों के अग्रभाग रत्नमय एवं मनुष्यों के मन और नेत्रों को रमणीक लगने वाले तथा नाना प्रकार के ध्वजा रूप वस्त्रों से युक्त बहुत सी ध्वजाओं और तीन छत्रों से शोभायमान हैं। सम्पूर्ण ध्वजाएँ रत्नमय हैं अर्थात् पुद्गल का ही परिणमन वस्त्र रूप हुआ है। उस ध्वजा पीठ के आगे जिनमन्दिर हैं, जिनकी चारों दिशाओं में विविध प्रकार के फूलों से एवं मणिमय और स्वर्णमय वेदियों से संयुक्त, सौ योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े ओर दश योजन गहरे चार द्रह हैं। इन द्रहों के आगे जो मार्ग हैं, उनके दोनों पार्श्व भागों में देवों के क्रीड़ा करने के मणिमय दो प्रासाद हैं जिनकी ऊँचाई ५० योजन और चौड़ाई २५ योजन है। इन प्रासादों के आगे तोरण हैं, जो मणिमय स्तम्भों के अग्रभाग में स्थित, मोतीमाल और घण्टाओं के समूह से युक्त एवं जिनबिम्बों के समूह से रमणीक है। उनकी ऊँचाई ५० योजन और चौड़ाई २५ योजन प्रमाण है। उन तोरणों के आगे स्फटिकमय प्रथम कोट है। उस कोट द्वार के दोनों पार्श्व भागों में कोट के भीतर १०० योजन ऊँचे और ५० योजन चौड़े रत्ननिर्मापित दो मन्दिर हैं। पूर्वद्वार में मण्डपादिक का जो प्रमाण कहा था उसका अर्ध प्रमाण दक्षिण और उत्तर द्वारों में ग्रहण करना चाहिए। वे दोनों मन्दिर वन्दना मण्डप, अभिषेक मण्डप, नर्तन मण्डप, संगीत मण्डप और अवलोकन मण्डपों से तथा क्रीड़ागृह, गुणनगृह (शास्त्राभ्यास आदि का स्थान) और विशाल एवं उत्कृष्ट पट्टशाला (चित्राम आदि दिखाने का स्थान) से संयुक्त हैं।
अब प्रथम और द्वितीय कोटों के अन्तराल का स्वरूप कहते हैं :—
गाथार्थ :—प्रत्येक जिनमन्दिर की चारों दिशाओं में िंसह, हाथी, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, कमल और चक्र के आकार की १०८, १०८ ध्वजाएँ हैं तथा इन १०८, १०८ मुख्य ध्वजाओं में प्रत्येक की १०८, १०८ छोटी ध्वजाएँ हैं।।१०१०।।
विशेषार्थ :—प्रत्येक जिनमन्दिर की चारों दिशाओं में िंसह, हाथी, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, कमल और चक्र के चिह्नों से चिह्नित १०८, १०८ मुख्य ध्वजाएँ हैं तथा इन १०८, १०८ मुख्य ध्वजाओं में प्रत्येक की १०८, १०८ ही छोटी ध्वजाएँ हैं।
प्रथम और द्वितीय कोट के बीच के अन्तराल में ध्वजाएँ हैं। प्रत्येक जिनमन्दिर की, एक दिशा में िंसह चिह्नाज्र्ति ध्वजाएँ १०८, हाथी चिह्नाज्र्ति १०८ इसी प्रकार वृषभादि चिह्नाज्र्ति भी १०८, १०८ मुख्य ध्वजाएँ हैं। अर्थात् मन्दिर की एक दिशा में िंसह आदि दश प्रकार के चिह्नों को धारण करने वाली (१०८ ² १०) · १०८० मुख्य ध्वजाएँ हैं। एक दिशा में १०८० हैं, अतः चार दिशाओं में (१०८०²४) · ४३२० मुख्य ध्वजाएँ हुईं। एक मुख्य ध्वजा की छोटी परिवार ध्वजाएँ १०८ हैं अतः ४३२० मुख्य ध्वजाओं की (४३२० ² १०८) · ४६६५६० परिवार ध्वजाओं का प्रमाण है और एक मन्दिर सम्बन्धी सम्पूर्ण ध्वजाओं का प्रमाण (४६६५६०±४३२०) · ४७०८८० है। ये ध्वजाएँ प्रथम और द्वितीय कोट के अन्तराल में हैं।
अब द्वितीय कोट और तृतीय (बाह्य) कोट के अन्तराल का स्वरूप तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं :—
गाथार्थ :—द्वितीय और तृतीय कोट के अन्तराल में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र के चार वन हैं। उन वनों में भोजनाङ्गादि दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं, जो स्वर्णमय फूलों से सुशोभित, मरकत मणिमय नाना प्रकार के पत्रों से सहित, वैडूर्य रत्नमय फलों से युक्त और विद्रुम मूँगामय डालियों से संयुक्त हैं। उन चारों वनों के मध्य में तीन कोट और तीन पीठ से संयुक्त तथा मणिमय डाली, पत्र, पुष्प और फलों से युक्त चैत्यवृक्ष शोभायमान होते हैं। उन चैत्यवृक्षों के मूल की चारों दिशाओं में पल्यज्रसन और प्रातिहार्यों से युक्त जिनबिम्ब विराजमान हैं।।।१०११-१०१३।।
विशेषार्थ :—दूसरे और तीसरे कोट के अन्तराल में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र के चार वन हैं। उन वनों में स्वर्णमय फूलों से सुशोभित, मरकत मणिमय नाना प्रकार के पत्रों से सहित, वैडूर्यरत्नमय फलों से युक्त और विद्रुम मूँगामय डालियों से संयुक्त भोजनाङ्गादि दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं। उन चारों वनों के मध्य में तीन कोट एवं तीन पीठ से संयुक्त तथा मणिमय डाली, पत्र, पुष्प और फलों से युक्त चार चैत्यवृक्ष शोभायमान होते हैं। उन चैत्यवृक्षों के मूल की चारों दिशाओं में पल्यज्रसन एवं छत्र, चमरादि प्रातिहार्यों से युक्त जिनबिम्ब विराजमान हैं।
नन्दादि वापियों और मानस्तम्भों का विशेष स्वरूप कहते हैं :—
गाथार्थ :—नन्दादि सोलह वापिकाएँ तीन कोटों से संयुक्त हैं तथा वन की भूमि के निकट चतुर्थ वीथी के मध्य में तीन पीठों युक्त जिनप्रतिमा से अधिष्ठित हैं, ऊर्ध्व (अग्र) भाग जिनका तथा जो धर्म रूपी वैभव से युक्त हैं ऐसे मानस्तम्भ शोभायमान होते हैं।।१०१४।।
विशेषार्थ :—पूर्वोक्त नन्दादि सोलह वापिकाएँ तीन कोटों से संयुक्त शोभायमान होती हैं और उन्हीं वनों की भूमि के निकट चतुर्थ वीथी के मध्य में, तीन पीठों से युक्त उपरिम भाग पर जिन प्रतिमा से अधिष्ठित तथा धर्म रूपी वैभव से युक्त मानस्तम्भ शोभायमान होते हैं।
।। समाप्त ।।