निर्मल तपोमय व्यक्तित्व के साक्षात् दर्पण जागृतिकारी संत उपाध्याय नयनसागर जी महाराज
त्याग, बलिदान और अध्यात्म की इस पावन धरती पर युगों-युगों से अनेकों संत विचरण करते आ रहे हैं जिन्होंने अन्धकार की कालरात्रि में पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह उदय होकर अपने अध्यात्म, अहिंसा और अनुशासन का आलोक बिखेरा है। ऐसे ही विलक्षण और निर्मल, कोमल व्यक्तित्व के स्वामी परम पूज्य उपाध्याय श्री नयनसागर मुनिराज जन-जन के हृदय में परमात्मा के रूप में विराजमान हैं। 24 मार्च सन् 1972। बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक का प्रथम चरण, अन्धकार के वक्ष को चीरकर स्वर्ण रश्मियों ने जब इस धरा को छुआ तो महाराष्ट्र प्रान्त में स्थित सोनगीर (धूलिया) अनिर्वचनीय आभा से भर उठा जहाँ माता श्रीमती मनोरमादेवी की कुक्षि से, पिता श्री सोनालाल जी के आँगन में एक दिव्य प्रतिभा सम्पन्न बालक ने जन्म लिया। जिन्हें नाम मिला संजयकुमार। शस्य श्यामला धरती आभापूर्ण हो उठी। समग्र भारत की अपार कीर्ति में वृद्धि हुई और ऐतिहासिक जगत् में सदा सर्वदा के लिए सम्मिलित होकर अमर हो गया यह दिन जिसने न केवल माता-पिता को अनुपम गौरव प्रदान किया अपितु पूरा भारत ही धन्य हो उठा। बालक संजयकुमार का बचपन अनेक विलक्षणताओं का संगम रहा। बुद्धि इतनी तीक्ष्ण कि एक के बाद एक परीक्षा उत्तीर्ण करते गये और शीघ्र ही पड़ोसियों, सहपाठियों तथा शिक्षकों के बीच लोकप्रिय हो गये। सभी के दुःख-दर्द में आगे रहते, स्कूल में इच्छित वस्तु प्रदान कर अपने सहपाठियों को अध्यापक के दंड से बचा लेते, भूखे को भोजन करा देते। संसार में व्याप्त बुराई, असमानता और कष्टों को देख उनका हृदय विह्वल हो उठता तथा नित्य सुबह-सायं मन्दिर में जाकर भगवान से इन कष्टों से मुक्ति का रास्ता पूछते। जिनेन्द्र भगवान मुस्कराते हुए मानो कह रहे हों संजय ! तुम्हें भोगों से विरक्त होकर योग की ओर मुक्ति की राह पकड़नी है, तुम्हें आत्मकल्याण के साथ असीम मानवता को अध्यात्म कर्म का पाठ पढ़ाकर समष्टि कल्याण करना है, अपने आध्यात्मिक परिश्रम की बूँदों से मिट्टी को सींचकर अनेकों कल्पवृक्ष उत्पन्न करने हैं और शिवशंकर की तरह समाज में व्याप्त बुराइयों का विषपान कर अध्यात्म और सुख-समृद्धि का अमृृत प्रदान करना है। संजय भीतर ही भीतर अनेकों अनुत्तरित प्रश्नों का समाधान खोजते रहते थे। जब कभी माता से संसार की निस्सारता के विषय में प्रश्न करते तो वह भीतर ही भीतर काँप उठती। कहीं पुत्रा संसार त्याग का मन न बना ले उसे और अधिक सुख-सुविधाएं देती। परन्तु संजय को देखने से ही प्रतीत होता यह कोई ऐसी दिव्यात्मा है जो अपने पूर्व जन्म के शेष कार्य को पूर्ण करने के लिए ही इस धरा पर अवतरित हुई है। किशोरावस्था सृजन का महकता गुलदस्ता बनकर बिखरी जब यौवन की दहलीज पर पाँव रखने से पूर्व ही पीडि़त मानवता के उत्थान के दृढ़ संकल्प ने इन्हें मानवता का मसीहा बना दिया। जिस प्रकार राख में दबे अँगारे एक फूँक मात्रा से पुनः दहक उठते हैं उसी प्रकार संजय के अन्तःकरण में दबी वैराग्य की चिंगारी पर फूँक मारने का कार्य किया परमपूज्य आचार्य श्री निर्मलसागर महाराज ने जिनके मुख से निःसृत बहुमूल्य शब्द रूपी मंत्रा ने ‘‘क्या आपको अपने आप पर विश्वास नहीं है तुम भी मुभ जैसे बन सकते हो’’ संजय के हृदय को झकझोर डाला और वैराग्य का सागर हिलोरें लेने लगा। उसी समय ‘‘नेमि राजुल’’ नाटक के प्रदर्शन से तो उनके हृदय में वैराग्य का सूर्य पूरी तेजस्विता के साथ उदय हो उठा और वे इतने भावविभोर हो गये कि सम्पूर्ण समाज के समक्ष सारे कपड़े उतार फेंक निर्वस्त्रा हो गये। माता-पिता हतप्रभ, आखिर क्या कमी थी संजय को? पिता का दुलार, माँ की ममता, बहन भाई का स्नेह सुख वैभव सभी कुछ तो था। लेकिन जिसे लाखों करोडों बुझे दिलों का रोशन चिराग बनना था, जिसका अवतरण ही पीडि़त मानवता के उत्थान के लिए हुआ हो और जिसे पहले ही आखिरी साँस लेती, दम तोड़ती भारतीय संस्कृति ने अपने उत्थान के लिए बाँध लिया हो वह भला सांसारिक मोहपाश में कैसे बँध पाता? इसलिए 28 सितम्बर सन् 1987 को मात्रा 15 वर्ष की अल्पायु में वह अखण्ड ब्रह्मचर्य धारण कर समस्त सुख वैभव को ठोकर मारकर शूल कंकरों की परवाह किये बिना, तलवार की तेज धार पर नंगे पाँव चल पड़ा मोक्ष पथ का पथिक मुक्ति पथ की ओर। मात्रा 25 दिनों में 500 कि.मी. की पदयात्रा की, आचार्य श्री निर्मलसागर जी महाराज के पावन चरणों में अहमदाबाद पहुँचे और कर दी गुरुवर से याचना क्षुल्लक दीक्षा की। आचार्य श्री हतप्रभ मात्रा 15 वर्ष की अल्पायु और दीक्षा परन्तु शीघ्र ही उनकी पारखी दृष्टि पहचान गई कि उनके समक्ष कोई अल्पायु किशोर बालक नहीं एक ऐसा दृढ़ संकल्पित महान योगी खड़ा है जो चन्दन की तरह महक कर समस्त विश्व को अपने अध्यात्म के मधुर सौरभ से महकाकर रख देगा, मोमबत्ती की तरह अपने देह को नष्ट कर अन्धकार से अंतिम क्षण तक संघर्ष करते हुए विश्व को ज्योतिर्मय कर देगा, और निग्र्रन्थ परम्परा में एक नया कीर्तिमान स्थापित कर नया इतिहास रचकर रख देगा। इसलिए आचार्य श्री ने अपना आशीष भरा हाथ संजय के सिर पर रख दिया और 6 मार्च सन् 1988 को संजय क्षुल्लक दीक्षा धारण कर परमपूज्य सुकौशलसागर महाराज कहलाए। समस्त गुजरात प्रान्त के इतिहास ने करवट ली और वहाँ के श्रेष्ठीजनों द्वारा इन्हें ‘बालरत्न’ की उपाधि से विभूषित किया गया। वैराग्य के विभिन्न स्तरों से गुजरते हुए एत्मादपुर, आगरा में 30 दिसम्बर 1992 का वह दिन दिगम्बर परम्परा में स्वर्ण अक्षरों में अंकित हो गया जब ज्ञान के अगाध सागर पूज्य श्री गिरनार गौरव आ. श्री निर्मलसागर जी महाराज जी ने आपको मुक्ति पद पर आसीन कर मुनि श्री नयनसागर जी महाराज के नाम से नामकरण किया तथा अभय संस्कृति को मिल गया एक स्तुत्य संरक्षक। तब से लगातार हजारों किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए जन-जन के हृदय में अहिंसा की प्राण प्रतिष्ठा करते हुए, आध्यात्मिक पुनरुत्थान की प्रचण्ड गंगा प्रवाहित कर रहे। पूज्य श्री के द्वारा शाकाहार रथ प्रवर्तन तो इतना प्रभावी प्रमाणित हुआ कि भारत में ही नहीं बल्कि भारत की सीमाओं को लाँघकर पूरे विश्व में गूँज उठा। विश्व के अनेकों देशों में बढ़ती शाकाहार प्रवृत्ति इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। पूज्य श्री इसी प्रकार रत्नमय गंगा प्रवाहित करते हुए जन-मानस के हृदय में छाये विषाद रूपी अन्धकार को तिरोहित करते हुए सुख समृद्धि और शान्ति के पुष्प पल्लवित कर मुझे भी धर्म प्रभावना का शुभाशीष प्रदान करें। इन्हीं मंगल भावनाओं के साथ पूज्य श्री के चरणों में कोटिशः नमन।