(रेशंदीगिरि-ऋषीन्द्रगिरि) जिला छतरपुर (मध्यप्रदेश)
यह सिद्धक्षेत्र मध्यप्रदेश के १२ सिद्धक्षेत्रों में से शाश्वत प्राचीनतम सिद्धक्षेत्र है।
बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के काल में मोक्ष पधारे वरदत्तादि पंच मुनिराजों की निर्वाण भूमि, तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का लगभग २९०० वर्ष पूर्व समवसरण यहाँ आया था।
खुदाई करने पर १३ जिन प्रतिमाओं से युक्त मन्दिर प्राप्त हुए थे। सर्वाधिक प्राचीन जिनालय ११०९ एवं सन् १०४२ का है। सन् १९५५-५६ में भगवान् पार्श्वनाथ की खड़गासन ९ हाथ की अति मनोज्ञ प्रतिमा एवं चौबीसी जिनालय की पंच कल्याणक प्रतिष्ठा हुई।
यह क्षेत्र सहस्त्रों वर्षों के प्राच्य धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को संजोय अपनी गौरव गाथा गा रहा है।
यहाँ पर चालीस हजार साल पुराने शैल चित्रों से सुशोभित सिद्धशिला है। जो नैनागिरि के इतिहास, संस्कृति, परम्परा की धरोहर है।
इसी क्षेत्र में बाबा दौलतरामजी वर्णी द्वारा १९०२ को गोम्मटसार ग्रन्थ का हिन्दी पद्यानुवाद पूर्ण किया गया तथा १९०४ को नैनागिरि पूजन की रचना भी की।
आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा वर्ष १९७७ से १९८७ के दशक में नैनागिरि में ७२ साधुओं / आर्यिकाओं को दीक्षा प्रदान की गई। इसी क्षेत्र से आचार्यश्री ने आर्यिका दीक्षाएँ देना प्रारम्भ की थीं ।
वर्ष १९७८ में आचार्यश्री ने नैनागिरि तीर्थ पर भयंकर ज्वर और सशस्त्र डाकुओं के उपसर्ग पर विजय प्राप्त की तथा साथ चलने वाले सर्प को सम्बोधित किया।
आचार्य श्री ने यहाँ पर तीन चातुर्मास और तीन शीतकाल किए। उन्हीं की प्रेरणा से वर्ष १९८१ से १९८६ के बीच समवसरण मंदिर बना तथा सन् १९८७ में गुरुदेव के सान्निध्य में पञ्च-कल्याणक प्रतिष्ठा गज महोत्सव पूर्वक सम्पन्न हुआ।
यहाँ ३८ मन्दिर पहाड़ी पर, १३ मन्दिर तलहटी में, २ मन्दिर पारस सरोवर में स्थित हैं। मंदिर नंबर ३५ में विराजमान महावीर स्वामी के अभिषेक एवं प्रक्षाल के समय ओंकार ध्वनि सुनाई देती है।
यहाँ के जैन विद्यालय के सुविकसित परिसर में २६५ बच्चे अध्ययन करते हैं।