प्रमाण से जाने हुए पदार्थ के एक देश को ग्रहण करने वाले ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को नय१ कहते हैं।
नय के नव भेद हैं-
द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत।
१. द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थिक नय है। इसके १० भेद हैं-कर्मों की उपाधि से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। जैसे-संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्ध हैं। सत्ता ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय, जैसे जीव नित्य है। भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय, जैसे द्रव्य अपने गुण-पर्याय स्वरूप होने से अभिन्न है। कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय, जैसे आत्मा कर्मोदय से क्रोधादि भावरूप है। उत्पाद, व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय, जैसे एक ही समय में द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप हैं। भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय, जैसे आत्मा के ज्ञान दर्शन आदि गुण हैं। अन्वय द्रव्यार्थिक नय से गुण-पर्याय स्वभाव वाला द्रव्य होता है। स्वचतुष्टय ग्राहक द्रव्यार्थिक-जैसे स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा द्रव्य अस्तिरूप है। परचतुष्टय ग्राहक द्रव्यार्थिक-जैसे पर द्रव्य, क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा द्रव्य नास्तिरूप है। परभाव ग्राहक द्रव्यार्थिक-जैसे आत्मा ज्ञान स्वरूप है।
२. पर्याय को ग्रहण करने वाला पर्यायार्थिक नय है। उसके ६ भेद हैं- अनादि नित्य पर्यायार्थिक-जैसे सुमेरु पर्वत आदि पुद्गल पर्याय नित्य हैं। सादि नित्य पर्यायार्थिक नय-जैसे सिद्ध पर्याय नित्य है। उत्पाद व्यय ग्राहक पर्यायार्थिक नय-जैसे पर्याय क्षण-क्षण में नष्ट होती है। सत्ता सापेक्ष पर्यायार्थिक नय-जैसे पर्याय एक ही समय में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप है। पर उपाधि निरपेक्ष शुद्ध पर्यायार्थिक नय-जैसे संसारी जीवों की पर्याय सिद्ध भगवान के समान शुद्ध है। कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध पर्यायार्थिक नय-जैसे संसारी जीवों का जन्म और मरण होता है।
३. संकल्प मात्र से पदार्थ को जानने वाला नैगम नय है। उसके तीन भेद हैं-भूत, भावी और वर्तमान। जहाँ पर भूतकाल में वर्तमान का आरोपण किया जाता है। उसे भूत नैगम नय कहते हैं। जैसे आज दीपमालिका के दिन वर्धमान स्वामी मोक्ष गये हैं। भविष्य का वर्तमान में आरोपण करना-जैसे अर्हन्त भगवान को सिद्ध कहना। प्रारंभ हुए कार्य को सम्पन्न हुआ कहना-जैसे रसोई में अग्नि जलाते समय कहना मैं भात पका रहा हूँ।
४. पदार्थों को संगृहीत रूप से जानने वाला संग्रहनय है। उसके दो भेद हैं- सामान्य संग्रह-जैसे समस्त पदार्थ द्रव्यत्व की अपेक्षा समान हैं, परस्पर अविरोधी हैं। विशेष संग्रह-जैसे सभी जीव जीवत्व की अपेक्षा समान हैं परस्पर में अविरोधी हैं।
५. संग्रह नय के द्वारा जाने गये पदार्थ को विधिपूर्वक भेद करके जानना व्यवहार नय है। इसके भी दो भेद हैं। सामान्य व्यवहार-सामान्य संग्रह के द्वारा गृहीत वस्तु में भेद करना-जैसे द्रव्य के दो भेद हैं-जीव और अजीव। विशेष व्यवहार-विशेष संग्रह से गृहीत वस्तु में भेद करना-जैसे जीव के दो भेद हैं-संसारी और मुक्त।
६. वर्तमान काल को ग्रहण करने वाला ऋजुसूत्र नय है। इसके भी दो भेद हैं। सूक्ष्म ऋजुसूत्र-एक समयवर्ती पर्याय को ग्रहण करने वाला सूक्ष्म ऋजुसूत्र है। स्थूल ऋजुसूत्र-मनुष्य आदि पर्यार्यों को आयु पर्यन्त काल प्रमाण कहना स्थूल ऋजुसूत्र है।
७. संख्या, लिंग आदि का व्यभिचार दूर करके शब्द के द्वारा पदार्थ को ग्रहण करना शब्दनय है। जैसे-विभिन्न लिङ्गवाची दारा (पु.), भार्या (स्त्रीलिंङ्ग), कलत्र (न.) शब्दों द्वारा स्त्री का ग्रहण होना।
८. एक शब्द के अनेक अर्थ होने पर किसी प्रसिद्ध एक रूढ़ अर्थ को शब्द द्वारा कहना समभिरूढ़ नय है। जैसे-गो शब्द के (संस्कृत भाषा में) पृथ्वी, वाणी, किरण आदि अनेक अर्थ हैं फिर भी गो शब्द से गाय को ही जानना।
९. शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार उसी क्रिया में परिणत पदार्थ को उस शब्द द्वारा ग्रहण करना एवंभूतनय है। जैसे-‘गच्छति इति गौ:’ व्युत्पत्ति के अनुसार चलते समय ही गाय को ‘गो’ शब्द द्वारा जानना। इस प्रकार से नयों में द्रव्यार्थिक के १०±पर्यायार्थिक के ६±नैगम के ३±संग्रह के २± व्यवहार के २±ऋजुसूत्र के २± शब्द का १± समभिरूढ़ का १± और एवंभूत का १ मिलकर २८ भेद होते हैं। इस प्रकार संक्षेप से नयों का स्वरूप कहा है। नय की शाखा को उपनय कहते हैं। अथवा जो नयों के समीप हों-नय सदृश मालूम पड़ें वे उपनय हैं। इसके तीन भेद हैं-सद्भूत व्यवहार नय, असद्भूत व्यवहार नय और उपचरित असद्भूत व्यवहारनय।
(१) सद्भूत व्यवहारनय के दो भेद हैं- शुद्ध सद्भूत व्यवहार-जो शुद्ध गुण-गुणी और शुद्ध पर्याय-पर्यायी में भेद का कथन करे जैसे-सिद्धों के केवलज्ञान, दर्शन आदि गुण हैं और सिद्धत्व आदि पर्यायें हैं। अशुद्धसद्भूतव्यवहार-जो अशुद्ध गुण-गुणी और अशुद्ध पर्याय-पर्यायी में भेद कथन करे जैसे-संसारी जीव के मतिज्ञानादि गुण और मनुष्य आदि पर्यायें हैं।
(२) असद्भूत व्यवहार नय के तीन भेद हैं- स्वजाति असद्भूत व्यवहार-जैसे परमाणु बहुप्रदेशी हैं। विजाति असद्भूत व्यवहार-जैसे मतिज्ञान मूर्तिक है। क्योंकि मूर्तिक मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ है। स्वजाति विजाति असद्भूत व्यवहार-जैसे ज्ञेयस्वरूप जीव तथा ज्ञेयस्वरूप अजीव दोनों में ज्ञान है क्योंकि सभी ज्ञेय ज्ञान के विषय हैं।
(३) उपचरित असद्भूत व्यवहार नय के भी तीन भेद हैं। स्वजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार-जैसे पुत्र, स्त्री आदि मेरे हैं। विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहार-जैसे मकान, वस्त्र आदि पदार्थ मेरे हैं। स्वजाति विजाति असद्भूत व्यवहार-जैसे देश, राज्य, दुर्ग आदि मेरे हैं। इस प्रकार से सद्भूत के २, असद्भूत के ३ और उपचरित असद्भूत के ३, ऐसे ८ उपनय माने गये हैं।
अध्यात्म भाषा में नयों के मूल दो भेद हैं-निश्चय और व्यवहार। निश्चयनय अभेदोपचार से पदार्थ को जानता है अर्थात् अभेद को विषय करता है। व्यवहारनय भेदोपचार से पदार्थ को जानता है अर्थात् भेद को विषय करता है।
(१) निश्चयनय के दो भेद हैं-शुद्ध निश्चयनय, अशुद्ध निश्चयनय। कर्मों की उपाधि से रहित गुण और गुणी में अभेद को विषय करने वाला शुद्ध निश्चयनय है जैसे केवलज्ञानादि गुण ही जीव है। कर्मों की उपाधि को विषय करने वाला अशुद्ध निश्चयनय है जैसे मतिज्ञानादि रूप जीव है।
व्यवहार के दो भेद हैं-सद्भूत व्यवहारनय और असद्भूत व्यवहारनय।
(क) एक ही वस्तु को भेद रूप ग्रहण करे वह सद्भूत व्यवहार है। इसके दो भेद हैं-उपचरित सद्भूत व्यवहार और अनुपचरित सद्भूत व्यवहार। उपचरित सद्भूत-जो उपाधि सहित गुण-गुणी को भेदरूप ग्रहण करे। जैसे-मतिज्ञानादि गुण जीव के हैं। अनुपचरित सद्भूत व्यवहार-जो उपाधि रहित गुण-गुणी में भेद करे। जैसे-केवलज्ञानादि गुण जीव के हैं।
(ख) जो भिन्न वस्तुओं को संबंध रूप से ग्रहण करे वह असद्भूत व्यवहार है। इसके भी दो भेद हैं-उपचरित असद्भूत और अनुपचरित असद्भूत। उपचरित असद्भूत व्यवहार-संबंधरहित वस्तु को संबंध रूप ग्रहण करना। जैसे-देवदत्त का धन। अनुपचरित असद्भूत व्यवहार-संबंध सहित वस्तु को संबंधरूप ग्रहण करना। जैसे-जीव का शरीर इत्यादि। प्रकारान्तर से निश्चय-व्यवहार नयों का वर्णन देखा जाता है।
(१) जो पदार्थ के शुद्ध अंश का प्रतिपादन करता है वह निश्चयनय है।
जैसे-जीव अपने चेतना प्राण से त्रिकाल में जीवित रहता है।
(२) जो पदार्थ के मिश्रित रूप का प्रतिपादन करता है वह व्यवहारनय है।
जैसे-जीव इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास रूप दश प्राणों से जीता है। ये सभी नय आंशिक ज्ञानरूप हैं। ये तभी सत्य हैं जब कि अन्य नयों की अपेक्षा रखते हैं। यदि वे अन्य नयों की अपेक्षा न रखें तो मिथ्या हो जावे। कहा भी है-
‘‘जो नय परस्पर निरपेक्ष हैं वे मिथ्या हैं। यदि वे ही नय परस्पर की अपेक्षा करते हैं तो सम्यक्-सुनय कहे जाते हैं और उन्हीं से पदार्थों का वास्तविक बोध हो सकता है।’’
जैसे द्रव्यार्थिक नय जीव को नित्य कहता है और पर्यायार्थिक नय अनित्य कहता है। यदि ये दोनों नय एक दूसरे की अपेक्षा न रखें तो बात गलत हो जावे। वास्तव में द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य ही है क्योंकि द्रव्य का त्रिकाल में नाश नहीं होता है। पर्याय दृष्टि से वही जीव अनित्य है क्योंकि मनुष्य आदि पर्यार्यों का विनाश होकर देवादि पर्यायों का उत्पाद देखा जाता है अत: जीव कथंचित् नित्य है कथंचित् अनित्य है। यह बात सिद्ध हो गई।