जैनाचार्यों ने तत्त्वाधिगम के उपायों में प्रमाण के साथ नय का भी उल्लेख किया है; क्योंकि नय के द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान होता है। नय के स्वरूप को जानने के लिए उसके व्युत्पत्तिपरक लक्षणों को समझना अत्यावश्यक है अत: सर्वप्रथम उसके व्युत्पत्तिपरक लक्षणों का विवेचन किया जाता है।
‘नय’ शब्द ‘णी’ प्रापणे धातु से कृदन्त का ‘अच्’ प्रत्यय लगाने पर सिद्ध होता है, जिसकी व्युत्पत्ति कर्तृ—वाच्य में ‘नयति प्राप्नोति, जानाति वस्तु स्वरूपं य: स: नय:’ इस रूप से और कर्म वाच्य में ‘नीयते, गम्यते, परिच्छिद्यते, ज्ञायतेऽनेन येन वा अर्थ: स: नय:’ इस रूप से की जाती है।
विभिन्न आचार्यों द्वारा नय विषयक परिभाषाएँ—आचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने ‘नय’ शब्द का कर्तृवाच्यपरक व्युत्पत्ति का उल्लेख करते हुए उसका विश्लेषण किया है; ‘अनेक गुण और पर्यायों सहित अथवा उनके द्वारा एक परिणाम से दूसरे परिणाम में, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में और एक काल से दूसरे काल में अविनाशी स्वभाव रूप से रहने वाले द्रव्य को जो ले जाता है अर्थात् उसका ज्ञान कराता है, उसे नय कहते हैं। नय किसी विवक्षित धर्म द्वारा ही द्रव्य का बोध कराता है अथवा जो अनेक धर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म का ज्ञान कराता है वह नय है।
आचार्य श्री देवसेन स्वामी ने भी ‘नय’ की व्युत्पत्ति कर्तृवाच्य में की है ‘जो नाना स्वभावों से हटाकर एक स्वभाव में वस्तु को ले जाता है, प्राप्त कराता है, उसे स्थापित कराता है या उसका ज्ञान कराता है, उसे नय कहते हैं’ अर्थात् अनेक गुण—पर्यायात्मक द्रव्य का किसी एक धर्म की मुख्यता से निश्चय कराने वाले ज्ञान को नय कहते हैं।
इसी प्रकार अन्य आचार्यों ने भी ‘नय’ शब्द की कर्तृवाच्यपरक अनेक व्युत्पत्तियाँ की हैं।
आचार्य श्री विद्यानन्द स्वामी ने ‘नय’ शब्द की कर्मवाच्यपरक व्युत्पत्ति करते हुए कहा है; जो श्रुतप्रमाण द्वारा जाने गये अर्थ के किसी एक अंश या धर्म का कथन करता है वह नय है।
इसी प्रकार श्री मल्लिषेण सूरि और श्री वादिदेव सूरि ने भी कर्मवाच्यपरक व्युत्पत्तियाँ की हैं।
श्रुतज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ का एक धर्म, अन्य धर्मों को गौण करके जिस अभिप्राय से जाना जाता है, वक्ता का वह अभिप्राय नय कहलाता है अर्थात् श्रुतज्ञान रूप प्रमाण अनन्त धर्म वाली वस्तु को ग्रहण करता है। उन अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म को जानने वाला ज्ञान नय कहलाता है। नय जब वस्तु के एक धर्म को जानता है तब वस्तु में रहे हुए शेष धर्मों को गौण कर देता है। इस प्रकार केवल एक धर्म को मुख्य करके उसे जानने वाला ज्ञान नय है।
आचार्य श्री समन्तभद्र ने श्रुतज्ञान का ‘स्याद्वाद’ शब्द से निर्देश करते हुए स्याद्वाद अर्थात् श्रुतज्ञान द्वारा गृहीत अनेकान्तात्मक पदार्थ के धर्मों का अलग—अलग कथन करने वाले ज्ञान को नय कहा है।
श्रुतप्रमाण के विकल्प, भेद या अंश को भी नय कहा गया है; क्योंकि श्रुतज्ञान में ही नय रूप अंश या भेद होते हैं।
आचार्य श्री अकलंकदेव ने नय सामान्य का लक्षण करते हुए कहा है-‘प्रमाण से गृहीत, अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनन्तधर्मात्मक जीवादि पदार्थों के जो विशेष धर्म हैं, उनका निर्दोष कथन करना नय कहलाता है।
यह नय प्रमाण सापेक्ष होता है इसीलिए आचार्य श्री विद्यानन्द ने प्रमाण के विषयभूत ‘स्व’ और ‘पर’ यानि पदार्थ के एकदेश या अंश का जिसके द्वारा निर्णय किया जावे उसे नय कहा है। तात्पर्य यह है कि प्रमाण से जानी गयी वस्तु के एकदेश में वस्तुत्व की विवक्षा का नाम नय है। प्रमाण से गृहीत वस्तु में जो एकान्त रूप व्यवहार होता है वह नयमूलक है अत: समस्त व्यवहार नय के आधीन है।
आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी ने ‘अनेक धर्मात्मक वस्तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्य विशेष की यथार्थता के प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहा है।
आचार्य श्री अमृचन्द्र ने ‘प्रमाण के द्वारा अभिव्यक्त स्वरूप वाली अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एकदेश को जानने वाले ज्ञान’ को नय कहा है।
श्री माइल्ल धवल ने भी ‘श्रुतज्ञान का आश्रय लिये हुए ज्ञानी का जो विकल्प वस्तु के एक अंश को ग्रहण करता है उसे नय कहा है।
यह नय श्रुतज्ञान का भेद है इसलिए श्रुत के आधार से ही नय की प्रवृत्ति होती है। श्रुत प्रमाण होने से वस्तु के सभी धर्मों को जानने वाला है और नय वस्तु के अंश या धर्म को ग्रहण करने वाला है। इसी से नय विकल्प रूप है। इस प्रकार श्रुतज्ञान के द्वारा जाने गये अर्थ का अंश जिसके द्वारा जाना जाता है, उसे नय कहते हैं।
आचार्य श्री प्रभाचन्द्र ने भी ‘नित्यानित्य, एकानेक, सदसदादि परस्पर विरोधी अनेक धर्मों वाली वस्तु के विरोधी धर्मों का निराकरण न करते हुए उस वस्तु के किसी एक अंश या धर्म को ग्रहण करने वाले ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा है।
आचार्य श्री यतिवृषभ ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहकर ज्ञाता के हृदय के अभिप्राय को नय कहा है।
इसी प्रकार के अभिप्राय को अभिव्यक्त करते हुए श्वेताम्बर आचार्य श्री यशोविजयगणी ने भी ‘श्रुतप्रमाण के द्वारा गृहीत अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एकदेश या धर्म को ग्रहण करने वाले किन्तु उस गृहीत धर्म से इतर धर्मों का निषेध न करने वाले अभिप्राय विशेष को नय कहा है।’
२. अनेकात्मात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय है—उक्त सभी आचार्यों की नयविषयक परिभाषाओं के कथन का निष्कर्ष यह है कि जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले सत्-असत्, नित्य—अनित्य, एक—अनेक आदि धर्मस्वरूप है अत: वह अनेकान्तात्मक या अनेक धर्मात्मक कही जाती है और इसीलिए जैनदर्शन को भी अनेकान्तवादी दर्शन कहा जाता है।
वस्तु न सर्वथा सत् ही है, न सर्वथा असत् ही, न सर्वथा नित्य ही है, न सर्वथा अनित्य ही, न सर्वथा एक ही है, न सर्वथा अनेक ही, न सर्वथा भेदरूप ही है, न सर्वथा अभेद रूप ही, न सर्वथा सामान्य रूप ही है, न सर्वथा विशेष रूप ही किन्तु दृष्टिभेद से या कथंचित् या किसी अपेक्षा से सत् है तो किसी अपेक्षा से असत्, किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य, किसी अपेक्षा से सामान्य रूप है तो किसी अपेक्षा से विशेष रूप, किसी अपेक्षा से वाच्य है तो किसी अपेक्षा से अवाच्य। इस प्रकार परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले सत्-असत् आदि धर्मों का तादात्म्यरूप ही वस्तु है। यह अनेकान्तात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय है। यह प्रमाण अनन्त धर्म वाली वस्तु को समग्र भाव से ग्रहण करता है इसीलिए प्रमाण को सकलादेशी कहा गया है किन्तु इस अनन्त धर्म वाली वस्तु के किसी एक धर्म की मुख्यता से वक्ता अपने अभिप्रायानुसार कथन करता है। जैसे-देवदत्त व्यक्ति किसी का पिता और किसी का पुत्र है, किसी का मामा और किसी का भानजा है। इस प्रकार अपने नाना सम्बन्धियों की अपेक्षा से वह नाना सम्बन्ध वाला है किन्तु उन नाना सम्बन्धों में से पुत्रत्व धर्म की विवक्षा से उसका पिता उसे पुत्र कहता है, पितृत्व धर्म की विवक्षा से उसका पुत्र उसे पिता कहता है, मातुलत्व धर्म की अपेक्षा से उसका भानजा उसे मामा कहता है और भगिनेयत्व धर्म की विवक्षा से उसका मामा उसे भानजा कहता है। इस तरह विवक्षा भेद से जो वस्तु के एक धर्म का कथन किया जाता है वह नय है। नय वस्तु के किसी एक विवक्षित धर्म का ग्राहक है अर्थात् उसका ज्ञान कराने वाला है इसीलिए नय को विकलादेशी कहा गया है। समस्त लोकव्यवहार नयाधीन है; क्योंकि ज्ञाता पूर्ण वस्तु को जानकर भी अपने अभिप्राय के अनुसार उसका कथन करता है। इसी से ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं और प्रमाण से गृहीत वस्तु के एक देश में वस्तु का निश्चय ही अभिप्राय है। नय ज्ञान ज्ञाता के अभिप्राय से सम्बन्ध रखता है। उसमें ज्ञाता के अभिप्रायानुसार वस्तु प्रतिबिम्बित होती है अत: ज्ञाता का वह अभिप्राय—विशेष नय है, जो प्रमाण के द्वारा जानी गयी वस्तु के एकदेश को स्पर्श करता है। जो प्रमाण द्वारा निश्चित किये गये अनेक धर्मात्मक वस्तु के एक—एक अंग का ज्ञान मुख्यता से कराता है, वह नय है। नय वस्तु का सापेक्ष निरूपण करता है। इसी से नय सापेक्ष होने पर ही सम्यक््â कहे जाते हैं; क्योंकि प्रत्येक नय दृष्टिभेद से वस्तु के एक धर्म को ग्रहण करता है। अनन्त धर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म की अपेक्षा से उसके अन्य धर्मों का निषेध न करते हुए किन्तु उनको गौण करते हुए उस वस्तु का विवेचन करना नय है। नय किसी वस्तु में अपने अपेक्षित धर्म को सिद्ध करते हुए अन्य धर्मों में उदासीन होकर उस वस्तु का विवेचन करता है। अत: अनेकान्तात्मक वस्तु का जिस धर्म की विवक्षा से वक्ता कथन करता है उसके उसी अभिप्राय को जानने वाले ज्ञान को नय कहा जाता है। वस्तु में अनन्त धर्म हैं इसलिए उनके अवयव अनन्त तक हो सकते हैं और इसीलिए अवयव के ज्ञानरूप नय भी अनन्त हो सकते हैं। यह नय व्यवस्था प्रमाण में ही होती है अप्रमाण में नहीं, दूसरी बात यह है कि नय हमेशा प्रमाण का अंशरूप ही रहता है, पूर्ण रूप नहीं। यदि अप्रमाण में भी नय व्यवस्था मान ली जाए तो किसी भी वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती है और सर्वत्र अव्यवस्था या अनवस्था उपस्थित हो जाएगी।
प्रमाण और नय दोनों ज्ञान ही हैं अर्थात् जितना भी समीचीन ज्ञान है, वह प्रमाण और नय दो भागों में बंटा हुआ है परन्तु उन दोनों में अन्तर यह है कि नय वस्तु के एक अंश का बोध कराता है और प्रमाण सर्व अंशों का। प्रमाण वस्तु के पूर्ण रूप को ग्रहण करता है और नय प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश या धर्म का ज्ञान कराता है।
आचार्य श्री सिद्धसेन ने कहा है; ‘अनेकान्तात्मक या अनेक धर्मात्मक वस्तु प्रमाण स्वरूप ज्ञान का विषय है और उन अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म से विशिष्ट वस्तु नय का विषय माना गया है।
वस्तु में अनेक धर्म होते हैं, उनमें से जब किसी एक धर्म के द्वारा वस्तु का निश्चय किया जाय तब वह नय है। जैसे—नित्यानित्यात्मक वस्तु में नित्यत्व धर्म द्वारा ‘आत्मा या प्रदीपादि वस्तुएँ नित्य हैं’ ऐसा निश्चय करना नय है और अनेक धर्म द्वारा वस्तु का अनेक रूप से निश्चय किया जाय, जैसे नित्यत्व, अनित्यत्व आदि धर्मों द्वारा ‘आत्मा या प्रदीपादि वस्तुएँ नित्यानित्यादि अनेक रूप हैं ‘ऐसा निश्चय करना करना प्रमाण है अथवा दूसरे शब्दों में यह समझना चाहिए कि ‘नय’ यह प्रमाण का एक अंशमात्र है और ‘प्रमाण’ यह अनेक नयों का समूह है; क्योंकि नय वस्तु को एक दृष्टि से ग्रहण करता है और प्रमाण उसे अनेक दृष्टियों से ग्रहण करता है।
अंश—अंशी या धर्म—धर्मी का भेद किये बिना वस्तु का जो अखण्ड ज्ञान होता है, वह प्रमाण ज्ञान है तथा धर्म—धर्मी का भेद करके किसी एक धर्म द्वारा वस्तु का जो ज्ञान होता है, वह नय ज्ञान है।
१. चार ज्ञान मूक और एक ज्ञान अमूक है—मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान—ये चार ज्ञान मूक हैं अत: ये धर्म—धर्मी का भेद किये बिना वस्तु को जानते हैं इसलिए ये सब के सब प्रमाण ज्ञान हैं और श्रुतज्ञान अमूक है अतएव विचारात्मक होने से उसमें कभी धर्म—धर्मी का भेद किये बिना वस्तु प्रतिभासित होती है और कभी धर्म—धर्मी का भेद होकर वस्तु का बोध होता है। जब—जब धर्म—धर्मी का भेद किये बिना वस्तु प्रतिभासित होती है तब—तब वह श्रुतज्ञान प्रमाणज्ञान कहलाता है और जब—जब उसमें धर्म—धर्मी का भेद होकर किसी एक धर्म द्वारा वस्तु का ज्ञान होता है तब—तब वह नय ज्ञान कहलाता है। इसी कारण से नयों को श्रुतज्ञान का भेद कहा गया है। उदाहरणार्थ-‘जीव है’, ऐसा मन का विकल्प प्रमाण ज्ञान है। यद्यपि जीव का व्युत्पत्त्यर्थ ‘जो जीता है, वह जीव है’-इस प्रकार होता है तथापि जिस समय ‘जीव’ है’, यह विकल्प मन में आया उस समय विकल्प द्वारा ‘जो चेतनादि अनन्त गुणों का पिण्ड है’ वह पदार्थ समझा गया इसलिए यह ज्ञान ‘प्रमाण ज्ञान’ ही है; तथा नित्यत्व धर्म द्वारा ‘आत्मा नित्य है’ ऐसा मन का विकल्प नय ज्ञान है; क्योंकि यहाँ धर्म—धर्मी का भेद होकर एक धर्म द्वारा धर्मी का बोध हुआ। इसी प्रकार इन्द्रिय और मन की सहायता से या इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना जो पदार्थ का ज्ञान होता है, वह सबका सब प्रमाण ज्ञान है किन्तु उसके बाद उस पदार्थ के विषय में उसकी विविध अवस्थाओं की अपेक्षा क्रमश: जो विविध मानसिक विकल्प होते हैं वे सब नय ज्ञान हैं। नय ज्ञान विश्लेषणात्मक होता है। नय से अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक धर्म का बोध होता है और जो बोध होता है वह यथार्थ होता है।
२. प्रमाण ज्ञान—प्रमाण ज्ञान अनन्त धर्म वाली वस्तु को समग्र भाव से ग्रहण करता है, उसमें अंश विभाजन करने की ओर उसका लक्ष्य नहीं होता। जैसे-अयं घट:’ ‘यह घड़ा है’, इस ज्ञान में प्रमाण घड़े को अखण्ड भाव से उसके रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा कनिष्ठ—ज्येष्ठ आदि अनन्त गुण धर्मों का विभाग न करके पूर्ण रूप में जानता है, जबकि कोई भी नय उसका विभाजन करके ‘रूपवान् घट:’ ‘रसवान् घट:’ आदि रूप में उसे अपने—अपने अभिप्राय के अनुसार जानता है। प्रमाण और नय ज्ञान की ही वृत्तियाँ हैं। दोनों ज्ञानात्मक पर्याय हैं। जब ज्ञाता की सकल धर्मों को ग्रहण करने की दृष्टि होती है तब उसका ज्ञान ‘प्रमाण ज्ञान’ कहलाता है और जब उसी प्रमाण से गृहीत वस्तु को खण्डश: ग्रहण करने का अभिप्राय होता है तब वह अंशग्राही अभिप्राय ‘नय’ कहलाता है। प्रमाणज्ञान नय की उत्पत्ति के लिए भूमिका तैयार करता है।
जब ज्ञान पूरी वस्तु को ग्रहण करता है तब वह प्रमाण कहा जाता है तथा जब वह उसी वस्तु के एक अंश को जानता है तब नय कहा जाता है। पर्वत के एक भाग द्वारा पूरे पर्वत का अखण्ड भाव से ज्ञान प्रमाण है और उसी अंश का ज्ञान नय है। अखण्ड वस्तुग्राही यथार्थ ज्ञान प्रमाण होता है, इस स्थिति में वस्तु को खण्डश: जानने वाला विचार नय। प्रमाण का चिह्न है ‘स्यात्’ और नय का चिह्न है ‘सत्’। प्रमाणवाक्य को ‘स्याद्वाद’ कहा जाता है और नय वाक्य को ‘सद्वाद’। वास्तविक दृष्टि से प्रमाण स्वार्थ होता है और नय पदार्थ और परार्थ दोनों। एक साथ अनेक धर्म कहे नहीं जा सकते इसलिए प्रमाण का वाक्य नहीं बनता। वाक्य बने बिना परार्थ वैâसे बने ?
३. प्रमाणवाक्य से जो परार्थ बनता है, उसके दो कारण हैं—(१) अभेदवृत्ति प्राधान्य। (२) अभेदोपचार।
द्रव्यार्थिक अर्थात् द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है अथवा केवल द्रव्य को विषय करने वाले नय के अनुसार द्रव्य के धर्मों में अभेद होता है और पर्यायार्थिक अर्थात् पर्याय या अवस्था ही जिसका प्रयोजन है अथवा केवल पर्याय या अवस्था को विषय करने वाले नय की दृष्टि से उनमें भेद होने पर भी अभेदोपचार किया जाता है। इन दो निमित्तों से वस्तु के अनन्त धर्मों को अभिन्न मानकर एक गुण की मुख्यता से जब अखण्ड वस्तु का प्रतिपादन विवक्षित हो, तब प्रमाण वाक्य बनता है। जैनदर्शन में यह वाक्य सकलादेश कहा जाता है इसलिए इसमें वस्तु को विभक्त करने वाले अन्य गुणों की विवक्षा नहीं होती।
४. वस्तु प्रतिपादन के भेद—वस्तु प्रतिपादन के दो प्रकार हैं-क्रम और यौगपद्य। इनके सिवाय तीसरा मार्ग नहीं है। इनका आधार है-भेद और अभेद की विवक्षा। यौगपद्य-पद्धति प्रमाण वाक्य है। भेद की विवक्षा में एक शब्द एक काल में एक धर्म का ही प्रतिपादन कर सकता है। यह अनुपचरित पद्धति है। यह क्रम की मर्यादा में परिवर्तन नहीं ला सकती इसलिए इसे विकलादेश कहा जाता है, जो नयाधीन है। विकलादेश का अर्थ है-निरंश वस्तु में गुण भेद से अंश की कल्पना करना। अखण्ड वस्तु में काल आदि की दृष्टि से विभिन्न अंशों की कल्पना करना अस्वाभाविक नहीं है। तात्पर्य यह है कि प्रमाण ज्ञात वस्तु भाग द्वारा सकल वस्तु को ग्रहण करता है जबकि नय उसके विकल अर्थात् एक अंश को ग्रहण करता है। जैसे-आँख से घट के रूप को देखकर रूपमुखेन पूर्ण घट का ग्रहण करना ‘सकलादेश’ है और घट में ‘रूप’ है, इस रूपांश को जानना ‘विकलादेश’ है।
५. श्री वीरसेन स्वामी आदि अनेक आचार्यों द्वारा सकलादेश और विकलादेश का विश्लेषण—आचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने सकलादेश और विकलादेश का विश्लेषण बड़े सुन्दर ढंग से किया है। उन्होंने सकलादेश का विवेचन करते हुए कहा है-
‘कथंचित् घट है, कथंचित् घट नहीं है, कथंच्िात् घट अवक्तव्य है, कथंचित् घट है और नहीं है, कथंचित् घट है और अवक्तव्य है, कथंचित् घट नहीं है और अवक्तव्य है, कथंचित् घट है, नहीं है और अवक्तव्य है, इस प्रकार ये सातों भंग सकलादेश कहे जाते हैं क्योंकि ये सातों सुनय वाक्य किसी एक धर्म को प्रधान करके साकल्यरूप से वस्तु का प्रतिपादन करते हैं इसलिए ये सकलादेश रूप हैं क्योंकि साकल्य रूप से जो पदार्थ का कथन करता है, वह सकलादेश कहा जाता है।
इससे आगे उन्होंने विकलादेश के स्वरूप का कथन किया है—
‘घट है ही, घट नहीं ही है, घट अवक्तव्य रूप ही है, घट है ही और नहीं ही है, घट है ही और अवक्तव्य ही है, घट नहीं ही है और अवक्तव्य ही है, घट है ही, नहीं ही है और अवक्तव्य रूप ही है, इस प्रकार यह विकलादेश है क्योंकि ये सातों वाक्य एक धर्म विशिष्ट वस्तु का ही प्रतिपादन करते हैं इसलिए ये विकलादेश रूप हैं।
जिस प्रकार सुनय वाक्यों से अर्थात् अनेकान्त के अवबोधक वाक्यों से श्रोता को प्रमाण ज्ञान ही उत्पन्न होता है, उसी प्रकार दुर्नय वाक्यों से अर्थात् एकान्त के अवबोधक वाक्यों से भी श्रोता को प्रमाण रूप ही ज्ञान होता है क्योंकि इन सातों दुर्नय वाक्यों से एकान्त को विषय करने वाला बोध नहीं होता है अर्थात् ये सातों वाक्य अर्थ का कथन एकान्त रूप ही करते हैं तथापि उनसे जो ज्ञान होता है वह अनेकान्त रूप ही होता है। यह विकलादेश नयाधीन है अर्थात् नय के वशीभूत है या नय से उत्पन्न होता है।
ठीक यही विवेचन आचार्य श्री अकलंकदेव, श्री प्रभाचन्द्र आदि ने भी किया है। इन सबने प्रमाण सप्तभंगी को सकलादेश स्वभाव वाला और नय सप्तभंगी को विकलादेश स्वभाव वाला कहा है क्योंकि ये दोनों प्रकार के सप्तभंगी अर्थात् प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी क्रम से प्रमाण और नय के अधीन होने के कारण सकलादेश और विकलादेश स्वभाव वाले हैं।
सकलादेश और विकलादेश के विषय में आचार्य श्री विद्यानन्द जी ने भी कहा है—
‘अनन्त धर्मात्मक वस्तु को कालादि के द्वारा अभेद की प्रधानता से अथवा अभेद का उपचार करके एक साथ प्रतिपादन करने वाला वचन सकलादेश कहलाता है; क्योंकि वह प्रमाण के अधीन है और वस्तु स्वरूप को भेद की प्रधानता से अथवा भेद के उपचार से क्रम से प्रतिपादन करने वाला वचन विकलादेश है क्योंकि वह नय के अधीन है।’
श्री वादिदेव सूरि ने ‘प्रमाण से जानी हुई अनन्त धर्मों वाली वस्तु को काल आदि के द्वारा अभेद की प्रधानता से अथवा अभेद के उपचार से एक साथ प्रतिपादन करने वाले वचन को सकलादेश और सकलादेश से विपरीत वाक्य को विकलादेश कहा है।
‘वस्तु में अनन्त धर्म हैं’, यह बात प्रमाण से सिद्ध है अतएव किसी भी एक वस्तु का पूर्णरूपेण प्रतिपादन करने के लिए अनन्त शब्दों का प्रयोग करना चाहिए क्योंकि एक शब्द एक ही धर्म का प्रतिपादन कर सकता है। मगर ऐसा करने से लोकव्यवहार नहीं चल सकता है अतएव हम एक शब्द का प्रयोग करते हैं। वह एक शब्द मुख्य रूप से एक धर्म का प्रतिपादन करता है और शेष बचे हुए धर्मों को उस एक धर्म से अभिन्न मान लेते हैं। इस प्रकार एक शब्द से एक धर्म का प्रतिपादन हुआ और उससे अभिन्न होने के कारण शेष धर्मों का भी प्रतिपादन हो गया। इस उपाय से एक ही शब्द एक साथ अनन्त धर्मों का अर्थात् सम्पूर्ण वस्तु का प्रतिपादक हो जाता है। इसी को सकलादेश कहते हैं।
शब्द द्वारा साक्षात् रूप से प्रतिपादित धर्म से शेष धर्मों का अभेद काल आदि द्वारा होता है। काल आदि आठ हैं—१. काल, २. आत्मरूप, ३. अर्थ, ४. सम्बन्ध, ५. उपकार, ६. गुणी-देश, ७. संसर्ग, ८. शब्द। जैसे—मान लीजिए, हमें अस्तित्व धर्म से अन्य धर्मों का अभेद करना है तो वह इस प्रकार होगा-जीव में जिस काल में अस्तित्व धर्म है उसी काल में अन्य धर्म भी हैं अत: काल की अपेक्षा अस्तित्व धर्म से अन्य धर्मों का अभेद है। इसी प्रकार शेष सात की अपेक्षा भी अभेद समझना चाहिए। इसी को अभेद की प्रधानता कहते हैं। द्रव्यार्थिक नय को मुख्य और पर्यायार्थिक नय को गौण करने से अभेद की प्रधानता होती है। जब पर्यायार्थिक नय मुख्य और द्रव्यार्थिक नय गौण होता है तब अनन्त गुण वास्तव में अभिन्न नहीं हो सकते, अतएव उन गुणों में अभेद का उपचार करना पड़ता है। इस प्रकार अभेद की प्रधानता और अभेद के उपचार से एक साथ अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करने वाला वाक्य सकलादेश कहलाता है तथा नय के विषयभूत वस्तुधर्म का काल आदि द्वारा भेद की प्रधानता अथवा भेद के उपचार से क्रम से प्रतिपादन करने वाला वाक्य विकलादेश कहलाता है। सकलादेश में द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता के कारण वस्तु के अनन्त धर्मों का अभेद किया जाता है और विकलादेश में पर्यायार्थिक नय कहता है—एक ही काल में, एक ही वस्तु में नाना धर्मों की सत्ता स्वीकार की जाएगी तो वस्तु भी नाना रूप ही होगी, एक ही रूप नहीं। इसी प्रकार नाना गुणों सम्बन्धी आत्मरूप भिन्न—भिन्न ही हो सकता है एक नहीं। इसी प्रकार अन्य भेदों को भी समझना चाहिए।
श्वेताम्बर मुनि श्री यशोविजय गणी ने जिन काल आदि के आधार पर एक धर्म का अन्य धर्मों से अभेद या भेद किया जाता है, उनका विश्लेषण बड़े सुन्दर ढंग से किया है—
(१) ‘कथंचित् जीवादि वस्तु है ही’ यहाँ जिस काल में जीवादि में अस्तित्व है उसी काल में उनमें शेष अनन्त धर्म भी हैं, यह काल से अभेद वृत्ति है।
(२) जीवादि का गुण होना, जैसे-अस्तित्व का आत्मस्वरूप है, उसी प्रकार अन्य अनन्त गुणों का भी यही आत्मरूप है, यह आत्मरूप से अभेद वृत्ति है।
(३) जो द्रव्यरूप अर्थ अस्तित्व का आधार है वही अन्य धर्मों का भी आधार है।
(४) जीवादि के साथ अभेद रूप जो सम्बन्ध अस्तित्व का है वही सम्बन्ध अन्य धर्मों का भी है। यह सम्बन्ध से अभेद वृत्ति है।
(५) अस्तित्व धर्म जीवादि का जो उपकार करता है-अपने से युक्त बनाता है, वही उपकार अन्य धर्म भी करते हैं, यह उपकार से अभेद वृत्ति है।
(६) अस्तित्व धर्म जीवादि में जिस देश में रहता है उसी में अन्य धर्म भी रहते हैं, यह गुणिदेश से अभेद वृत्ति है।
(७) अस्तित्व का जीवादि के साथ एक वस्तु रूप से जो संसर्ग है वही अन्य धर्मों का भी संसर्ग है, यह संसर्ग से अभेद वृत्ति है।
(८) ‘अस्ति’ यह शब्द अस्तित्व धर्मात्मक वस्तु का वाचक है वही अन्य अनन्त धर्मात्मक वस्तु का भी वाचक है, यह शब्द से अभेद वृत्ति है।
यह अभेद वृत्ति पर्यायार्थिक नय को गौण और द्रव्यार्थिक नय को मुख्य करने पर होती है।
जब द्रव्यार्थिक नय गौण और पर्यायार्थिक नय मुख्य होता है तब अभेद वृत्ति सम्भव नहीं है क्योंकि—
(१) एक ही काल में एक वस्तु में नाना गुण सम्भव नहीं हैं। अगर सम्भव हों तो उससे आधारभूत वस्तु में भी भेद हो जाएगा।
(२) नाना गुणों सम्बन्धी आत्मरूप भिन्न-भिन्न होता है। अगर भिन्न न हो तो गुणों में भेद नहीं हो सकता।
(३) नाना गुणों का आधारभूत पदार्थ भी नाना रूप ही हो सकता है। वह नाना रूप न हो तो नाना गुणों का आधार भी नहीं हो सकता।
(४) सम्बन्धियों की भिन्नता से सम्बन्ध में भी भेद देखा जाता है। सम्बन्धी अनेक हों और उनका सम्बन्ध एकत्र और एक हो, यह नहीं हो सकता।
(५) अनेक धर्मों के द्वारा किया जाने वाला उपकार अलग-अलग होने से अनेक रूप ही होता है क्योंकि अनेक उपकारियों द्वारा किया जाने वाला उपकार एक नहीं हो सकता।
(६) प्रत्येक गुण का गुणि देश पृथक््â—पृथक््â ही होता है। अगर अनेक गुणों का गुणिदेश अभिन्न माना जाए तो भिन्न—भिन्न पदार्थों के गुणिदेश में भी अभेद मानना पड़ेगा।
(७) संसर्गी के भेद से संसर्ग में भी भेद होता है। संसर्ग में भेद न हो तो संसर्गियों (गुणों) में भी भेद नहीं हो सकता।
(८) विषय के भेद से शब्द में भी भेद होता है। यदि समस्त गुण एक ही शब्द के वाच्य हों तो संसार के समस्त पदार्थ भी एक ही शब्द के वाच्य हो जायें। इस प्रकार काल आदि से भिन्न गुणों में अभेद का उपचार किया जाता है।
इसी तरह भेद वृत्ति और भेद का उपचार भी समझ लेना चाहिए।
जो वचन कालादि की अपेक्षा अभेद वृत्ति की प्रधानता से या अभेदोपचार से प्रमाण के द्वारा स्वीकृत अनन्त धर्मात्मक वस्तु का एक साथ कथन करता है उसे सकलादेश कहते हैं और जो वचन कालादि की अपेक्षा भेद वृत्ति की प्रधानता से या भेदोपचार से नय के द्वारा स्वीकृत वस्तु धर्म का क्रम से कथन करता है उसे विकलादेश कहते हैं अत: वचन प्रयोग करते समय वक्ता यदि उस वचन से एक धर्म के कथन द्वारा अखण्ड वस्तु का ज्ञान कराता है तो वह वचन सकलादेश है और यदि वक्ता उस वचन के द्वारा अन्य धर्मों का निराकरण न करके एक धर्म का ज्ञान कराता है वह वचन विकलादेश है। वचन प्रयोग की अपेक्षा सकलादेश और विकलादेश की व्यवस्था वक्ता के अभिप्राय से बहुत कुछ सम्बन्ध रखती है।
२. सुनय वाक्य और दुर्नय वाक्य—सकलादेश और विकलादेश के सम्बन्ध में सबसे बड़ा मौलिक भेद यह है कि कुछ आचार्य सकलादेश के प्रतिपादक वचनों को प्रमाण वाक्य और कुछ आचार्य सुनयवाक्य कहते हैं तथा विकलादेश के प्रतिपादक वचनों को कुछ आचार्य नय वाक्य और कुछ आचार्य दुर्नय वाक्य कहते हैं। सकलादेश सुनय वाक्य होते हुए भी प्रमाण अधीन है, क्योंकि उसके द्वारा अशेष वस्तु कही जाती है और विकलादेश दुर्नय वाक्य होते हुए भी नयाधीन क्योंकि उसके द्वारा कथंचित् एकान्त रूप वस्तु कही जाती है। विकलादेश के प्रतिपादक वचन को दुर्नय वाक्य इसलिए कहा है कि उसमें सर्वथा एकान्त का निषेध करने वाला ‘स्यात्’ शब्द नहीं पाया जाता है और नयाधीन इसलिए कहा है कि उसके द्वारा वक्ता का अभिप्राय सर्वथा एकान्त के कहने का नहीं रहता है।
३. प्रकारान्तर से नय और प्रमाण में अन्तर—उक्त प्रमाण और नय के अन्तर का विवेचन जैनदर्शन में प्रकारान्तर से भी किया गया है-वस्तु में सामान्य (द्रव्य) और विशेष (पर्याय) धर्म पाये जाते हैं अर्थात् वस्तु सामान्य विशेषात्मक या द्रव्य पर्यायात्मक है क्योंकि सामान्य विशेष या द्रव्य-पर्याय आदि अनेक धर्मों का समूह ही वस्तु है।
अनेक पदार्थों में ऐसी प्रतीति उत्पन्न करने वाला और उन्हें एक ही शब्द का वाच्य बनाने वाला अनुवृत्त प्रत्यय धर्म सामान्य कहलाता है। जैसे-अनेक गायों में ‘यह गौ है’, यह ‘गौ’ है-इस प्रकार का ज्ञान और शब्द प्रयोग (अनुवृत्त प्रत्यय कराने वाला ‘गोत्व’ धर्म सामान्य है। इससे विपरीत एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में भेद कराने वाला व्यावृत्त प्रत्यय धर्मविशेष कहलाता है। जैसे-उन्हीं अनेक गायों में यह ‘श्यामा’ है, यह ‘नीली’ है, यह ‘चितकबरी’ है—आदि व्यवहारविशेष कहलाता है। एक बात यह भी है कि सामान्य और विशेष या द्रव्य और पर्याय जैसे वस्तु के स्वभाव हैं उसी प्रकार और भी अनेक धर्म उसके स्वभाव हैं। प्रमाणज्ञान इस प्रकार भी सामान्य-विशेषात्मक या द्रव्य—पर्यायात्मक पूर्ण वस्तु को ग्रहण करता है जबकि नय केवल सामान्य अंश को या विशेष अंश को अथवा केवल द्रव्य अंश को या किसी पर्याय (अवस्था विशेष रूप) अंश (धर्म) को ग्रहण करता है। यद्यपि केवल सामान्य या केवल विशेष रूप ही वस्तु नहीं है, जैसा कि अद्वैतवादी और सांख्यमतावलम्बी पदार्थ को केवल सामान्यात्मक ही मानते हैं। बौद्ध पदार्थ को केवल विशेष रूप ही मानते हैं। नैयायिक, वैशेषिक सामान्य को एक स्वतन्त्र पदार्थ मानते हैं और विशेष को भी एक स्वतन्त्र पदार्थ मानते हैं तथा उनका द्रव्य के साथ समवाय सम्बन्ध मानते हैं तथापि नय वस्तु को अंश या भेद करके ग्रहण करता है; क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म या अंश को लेकर और उस वस्तु के अन्य धर्मों को गौण करके उसका प्रतिपादन करना नय का काम है।
४. जैन दार्शनिकों के अनुसार नय और प्रमाण में अन्तर—इस प्रकार प्रमाण और नय में अन्तर या भेद स्पष्ट कर देने पर भी जैन दार्शनिकों के समक्ष एक और बड़ा ही जटिल, साथ ही गम्भीर प्रश्न था कि नय क्या है ? नय प्रमाण है अथवा अप्रमाण ? यदि वह प्रमाण है तो प्रमाण से भिन्न क्यों ? और यदि वह अप्रमाण है तो वह मिथ्याज्ञान होगा और मिथ्याज्ञान के लिए विचारजगत् में क्या कहीं स्थान होता है ?
इन सभी प्रश्नों का मौलिक समाधान जैन दार्शनिकों ने बड़ी गम्भीरता और सतर्कता से किया है। नय के प्रमाण और अप्रमाणविषयक प्रश्न तथा उनके तर्कसम्मत समाधान आचार्य श्री विद्यानन्द स्वामी ने ‘तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक’ में अपनी अनूठी दार्शनिक शैली द्वारा प्रस्तुत किये हैं, जो उनसे पूर्व की रचनाओं में भी उपलब्ध नहीं होते।
उक्त विषय को लेकर सर्वप्रथम यह प्रश्न उपस्थित होता है कि स्व (अपने) और बाह्य अर्थ के निश्चायक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। नय भी स्व और बाह्य अर्थ का निश्चायक है, वह अपने को तथा बाह्य अर्थ को जानता है अत: वह प्रमाण ही है। ऐसी स्थिति में प्रमाण और नय में कोई भेद नहीं है किन्तु इस प्रकार का मन्तव्य ठीक नहीं है क्योंकि स्व और अर्थ के एक देश को जानना नय का लक्षण है। तात्पर्य यह है कि नय स्व अर्थात् अपने और बाह्य अर्थ के एक देश का निश्चायक है और प्रमाण सर्व देश का इसीलिए कहा गया है प्रमाण सकल वस्तुग्राही होता है और नय विकलवस्तुग्राही अत: प्रमाण स्वार्थ निश्चायक है और नय स्वार्थ के एकदेश का निश्चायक है। यही दोनों में भेद है।
यदि वहाँ पुन: आशंका की जाती है कि स्व और अर्थ का एकदेश वस्तु है या अवस्तु ? यदि वस्तु है तो वस्तु का ग्राहक होने से नय प्रमाण ही हुआ और यदि अवस्तु है तो अवस्तु का ग्राहक होने से नय मिथ्याज्ञान कहा जाएगा; क्योंकि अवस्तु को जानने वाला ज्ञान मिथ्याज्ञान होता है। इसका सीधा सा समाधान है कि वस्तु का एकदेश न तो वस्तु है और न अवस्तु। जैसे—समुद्र के एक अंश को न तो समुद्र कहा जाता है और न असमुद्र। यदि समुद्र का एक अंश समुद्र है तो शेष अंश असमुद्र हो जाएगा और यदि समुद्र का प्रत्येक अंश समुद्र है तो बहुत से समुद्र हो जाएँगे और ऐसी स्थिति में समुद्र का ज्ञान कहाँ से हो सकता है ?
जैसे समुद्र का एक देश या बूँद न तो समुद्र ही है और न असमुद्र ही, वैसे ही नय के द्वारा जाना गया वस्तु का अंश न तो वस्तु ही है और न अवस्तु ही। यदि समुद्र के एकदेश या बूँद को ही समुद्र कहा जाएगा तो समुद्र के शेष देश या बूंदें असमुद्र हो जाएँगे। या फिर एक—एक देश या बूँद को समुद्र मानने से बहुत से समुद्र हो जाएँगे और यदि समुद्र के एकदेश या बूंद को असमुद्र कहा जाएगा तो समुद्र के शेष देश या बूंदें भी असमुद्र कहलाएंगे और ऐसी स्थिति में कहीं भी समुद्रपने का व्यवहार नहीं बन सकेगा अत: समुद्र का एकदेश न तो समुद्र है और न असमुद्र, किन्तु समुद्र का अंश है। इसी प्रकार नय के द्वारा जाना गया स्वार्थ का एकदेश न तो वस्तु है क्योंकि स्वार्थ के एकदेश को वस्तु मानने से उसके अन्य देशों के अवस्तुत का प्रसंग आता है या वस्तु के बहुत्व का प्रसंग आता है। नय से जाना गया वस्तु का एक देश अवस्तु भी नहीं है, क्योंकि यदि वस्तु के एकदेश को अवस्तु माना जाएगा तो उसके शेष देश भी अवस्तु कहे जाएँगे और ऐसी स्थिति में कहीं भी वस्तु की व्यवस्था नहीं बन सकेगी अत: नय के द्वारा जाना गया वस्तु का एकदेश वस्तु का अंश ही है।
५. नय प्रमाण से भिन्न है—इस प्रकार प्रमाण के द्वारा जानी गयी वस्तु के एक अंश को प्रधान करके जो वस्तु का निर्णय किया जाता है वह प्रमाण नहीं नय है। यद्यपि प्रमाण भी ज्ञान है और नय भी ज्ञान है, दोनों ही ज्ञान है तथापि नय प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश में प्रवृत्ति करता है अत: उसे प्रमाण न कहकर नय कहते हैं। यही दोनों में अन्तर है।
यदि पुन: यह कहा जाय कि जैसे अंशी (वस्तु) में प्रवृत्ति करने वाले ज्ञान को प्रमाण माना जाता है वैसे ही वस्तु के अंश में प्रवृत्ति करने वाले अर्थात् जानने वाले नय को प्रमाण क्यों नहीं माना जाता ? अत: नय प्रमाणस्वरूप ही है।
उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि जैसे वस्तु का एक देश न वस्तु है और न अवस्तु किन्तु वस्तु का एक अंश है उसी तरह अंशी न वस्तु है न अवस्तु, वह तो केवल अंशी है, वस्तु तो अंश—अंशी के समूह का नाम है अत: जैसे अंश को जानने वाला ज्ञान नय है वैसे ही अंशी को जानने वाला ज्ञान भी नय है। यदि ऐसा नहीं है तो जैसे अंशी को जानने वाला ज्ञान प्रमाण है वैसे ही अंश को जानने वाला ज्ञान भी प्रमाण ही कहा जाएगा। ऐसी स्थिति में नय प्रमाण से भिन्न नहीं है किन्तु उक्त कथन समीचीन नहीं है; क्योंकि जब सम्पूर्ण धर्मों को गौण करके अंशी को ही प्रधान रूप से जानना इष्ट होता है तो उसमें द्रव्यार्थिक नय का ही मुख्य रूप से व्यापार माना गया है, प्रमाण का नहीं किन्तु जब धर्म—धर्मी के समूह को प्रधान रूप से जानना इष्ट होता है तो उसमें प्रमाण का व्यापार होता है। तात्पर्य यह है कि अंशों को प्रधान और अंशी को गौण रूप से अथवा अंशी को प्रधान और अंशों को गौण रूप से जानने वाला ज्ञान नय है तथा अंश—अंशी दोनों को प्रधान रूप से जानने वाला ज्ञान प्रमाण है अत: नय प्रमाण से भिन्न है।
धर्म-धर्मी के समूह का नाम वस्तु है। जो ज्ञान धर्म या केवल धर्मी को ही मुख्य रूप से जानता है, वह ज्ञान नय है और जो दोनों को ही मुख्यरूप से जानता है वह प्रमाण है। चूँकि प्रमाण ‘सकलादेशी’ है, उसका विषय पूर्ण वस्तु है और नय ‘विकलादेशी’ है, उसका विषय या तो मुख्य रूप से मात्र धर्मी होता है या मात्र धर्म होता है। जो धर्मों को गौण करके मात्र धर्मी की मुख्यता से वस्तु को जानता है, वह द्रव्यार्थिक नय है और जो धर्मी को गौण करके मुख्यरूप से धर्म को ही जानता है, वह पर्यायार्थिक नय है तथा जो धर्म और धर्मी दोनों की मुख्यता से सम्पूर्ण वस्तु को जानता है, वह प्रमाण है अत: नय प्रमाण से भिन्न है।
यदि नय प्रमाण से भिन्न है तो वह अप्रमाण ही हुआ और अप्रमाण होने से मिथ्याज्ञान की तरह नय वस्तु को जानने का साधन वैâसे हो सकता है ? किन्तु इस प्रकार की विचारधारा ठीक नहीं है; क्योंकि नय न तो अप्रमाण है और न प्रमाण है किन्तु ज्ञानात्मक है अत: प्रमाण का एकदेश है। इसमें किसी प्रकार का कोई विरोध नहीं है।
१. प्रमाणैकदेशता—यदि नय प्रमाण से भिन्न है तो वह अप्रमाण ही हुआ; क्योंकि प्रमाण से भिन्न अप्रमाण ही होता है। एक ज्ञान प्रमाण भी न हो और अप्रमाण भी न हो ऐसा तो सम्भव नहीं है क्योंकि किसी को प्रमाण न मानने पर अप्रमाणता अनिवार्य है और अप्रमाण न मानने पर प्रमाणता अनिवार्य है, दूसरी कोई गति ही नहीं है। इसका समाधान करते हुए आचार्य श्री विद्यानन्द स्वामी कहते हैं—‘प्रमाणता और अप्रमाणता के अतिरिक्त भी एक तृतीय गति है, वह है प्रमाणैकदेशता। प्रमाण का एकदेश न तो प्रमाण ही है; क्योंकि वह प्रमाण से सर्वथा अभिन्न नहीं है और न अप्रमाण ही है; क्योंकि प्रमाण का एकदेश प्रमाण से सर्वथा भिन्न भी नहीं है। देश और देशी में कथंचित् भेद माना गया है।’
नय न प्रमाण है और न अप्रमाण किन्तु प्रमाण का एकदेश या अंश है। सिन्धु का बिन्दु न सिन्धु है और न असिन्धु अपितु सिन्धु का एक अंश है। एक सैनिक को सेना नहीं कह सकते परन्तु उसे असेना भी तो नहीं कह सकते; क्योंकि वह सेना का एक अंश तो है ही। इस प्रकार अखण्ड वस्तु के निश्चय की अपेक्षा नय प्रमाण नहीं है। वह वस्तु खण्ड को यथार्थ रूप से ग्रहण करता है इसलिए अप्रमाण भी नहीं है। अप्रमाण तो है ही नहीं, पूर्णता की अपेक्षा प्रमाण भी नहीं है इसलिए इसे प्रमाणांश या प्रमाण का एकदेश कहना चाहिए।
२. नय व प्रमाण का विषय—प्रमाण नय नहीं है; क्योंकि प्रमाण का विषय अनेकान्त या अनेक धर्मात्मक वस्तु है और न नय प्रमाण है; क्योंकि नय का विषय एकान्त है। प्रमाण का विषय एकान्त नहीं है’ क्योंकि एकान्त नीरूप होने से अवस्तु है और जो अवस्तु है वह ज्ञान का विषय नहीं होता, इसी तरह नय का विषय अनेकान्त नहीं है; क्योंकि नय दृष्टि में अनेकान्त अवस्तु है और अवस्तु में वस्तु का आरोप हो नहीं सकता।’
‘प्रमाण के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ के एकदेश में वस्तु का जो अध्यवसाय होता है वह ज्ञान प्रमाण नहीं है; क्योंकि वस्तु के एक अंश को प्रधान करके वस्तु का जो अध्यवसाय होता है वह वस्तु के एक अंश को अप्रधान करके होता है इसलिए ऐसे अध्यवसाय को प्रमाण मानने में विरोध आता है। दूसरे, नय भी प्रमाण नहीं है; क्योंकि नय के द्वारा जो वस्तु का अध्यवसाय होता है वह प्रमाण व्यपाश्रय है अर्थात् नय प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश में ही प्रवृत्ति करता है अत: उसे प्रमाण मानने में विरोध आता है तथा ‘सकलादेश प्रमाण के अधीन है और विकलादेश नय के अधीन है’ इस प्रकार दोनों के कार्य भिन्न—भिन्न दिखायी देते हैं इसलिए भी नय प्रमाण नहीं है।
प्रमाण ज्ञान धर्मभेद से वस्तु को ग्रहण नहीं करता है, वह तो सभी धर्मों के समुच्चय रूप से ही वस्तु को जानता है और नय ज्ञान धर्मभेद से ही वस्तु को ग्रहण करता है। वह सभी धर्मों के समुच्चय रूप वस्तु को ग्रहण न करके केवल एक धर्म के द्वारा ही वस्तु को जानता है। यही कारण है कि प्रमाण ज्ञान दृष्टिभेद से परे हैं और नयज्ञान जितने भी होते हैं वे सभी सापेक्ष होकर ही सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं; क्योंकि नयज्ञान में धर्म, दृष्टि या भेदप्रधान है इसीलिए सापेक्षता के बिना सभी नयज्ञान मिथ्या होते हैं। गुण या धर्म जहाँ किसी वस्तु की विशेषता को व्यक्त करता है वहाँ उस वस्तु को उतना ही समझ लेना मिथ्या है; क्योंकि प्रत्येक वस्तु में व्यक्त या अव्यक्त अनन्त धर्म पाये जाते हैं और उन सबका समुच्चय ही वस्तु है। नयज्ञान और प्रमाणज्ञान ये दोनों यद्यपि ज्ञानसामान्य की अपेक्षा एवâ हैं फिर भी इनमें विशेष की अपेक्षा भेद है। नयज्ञान जहाँ जानने वाले के अभिप्राय से सम्बन्ध रखता है, वहाँ प्रमाणज्ञान जानने वाले का अभिप्राय विशेष न होकर ज्ञेय का प्रतिबिम्ब मात्र है। नयज्ञान में ज्ञाता के अभिप्रायानुसार वस्तु प्रतिबिम्बित होती है पर प्रमाणज्ञान में वस्तु जो कुछ है वह प्रतिबिम्बित होती है इसीलिए प्रमाण सकलादेशी और नय विकलादेशी कहा जाता है। इस प्रकार नयज्ञान प्रमाण नहीं माना जा सकता है, फिर भी वह सम्यग्ज्ञान तो है ही। इस प्रकार प्रमाण और नय में भेद है।
३. नय प्रमाण क्यों नहीं है ?—नय प्रमाण नहीं है; क्योंकि वह एकान्तरूप होता है और प्रमाण में अनेकान्त रूप के दर्शन होते हैं, इसलिए भी नय प्रमाण नहीं है।
इस विषय में आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी का कथन है—‘प्रमाण और नय से सिद्ध होने वाला अनेकान्त रूप है। प्रमाण की अपेक्षा से वस्तु के सभी धर्मों को एक साथ जानने वाला वह अनेकान्त अर्थात् अनेक धर्म स्वरूप है अर्थात् अनेक धर्म स्वरूप वस्तु अनेक धर्मस्वरूप ही दिखती है और वही अनेक धर्मस्वरूप वस्तु जब किसी विशेष नय की अपेक्षा से देखी जाती है तब किसी एक धर्म स्वरूप ही दिखती है, उस समय अन्य धर्म गौण होते हैं अत: वह एकान्तस्वरूप कही जाती है। नय वस्तु के अनन्त धर्मों में से किसी एक को मुख्य करके और उसी समय दूसरे को गौण करके वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करता है जबकि प्रमाण अनन्त धर्मों से विशिष्ट वस्तु का प्रतिपादन करता है।
४. प्रमाण और नय के भेद श्री राजमल्ल जी द्वारा—प्रमाण और नय के भेद को स्पष्ट करते हुए श्री राजमल्ल ने भी कहा है—
‘नय भी ज्ञान विशेष है और प्रमाण भी ज्ञान विशेष है किन्तु दोनों में विषय विशेष की अपेक्षा से भेद है, वस्तुत: ज्ञान की अपेक्षा से दोनों में कोई भेद नहीं है। इस प्रकार प्रमाण और नय में विषय विशेष का भेद है। द्रव्य के अनन्त गुणों में से कोई सा एक विवक्षित अंग नय का विषय है और वह अंश तथा अन्य सभी अंश अर्थात् अनन्त गुणात्मक समस्त ही वस्तु प्रमाण का विषय है। जैसे किसी ने कहा—‘स्यादस्ति घट:’ तो यह नय समर्थन करता है कि अपने स्वरूपचतुष्टय (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) की अपेक्षा से घट है और परस्वरूप चतुष्टय की अपेक्षा से घट नहीं है।
५. श्री समन्तभद्राचार्य द्वारा नय का विषय—नय के विषय का दृष्टान्त द्वारा समर्थन करते हुए आचार्य समन्तभद्र ने कहा है—‘वस्तु अनेक धर्मों से रहित नहीं है, वह अनेक धर्मात्मक है। उन धर्मों में से जो विवक्षित धर्म होता है अर्थात् वक्ता जिसको कहना चाहता है, वह धर्म मुख्य करके नय के द्वारा कहा जाता है तथा जो धर्म अविवक्षित है अर्थात् वक्ता जिसको प्रधान करके नहीं कहना चाहता है उसको गौण या अप्रधान कर दिया जाता है। जैसे—एक व्यक्ति एक ही समय में किसी का शत्रु होने से शत्रुपना व किसी का मित्र होने से मित्रपना व किसी का शत्रु या मित्र कोई न होने से उदासीनपना इत्यादि अनेक धर्मों को रखने वाला है। उनमें से किसी एक धर्म को एक समय में प्रयोजनवश कहा जाएगा ? जैसे—अमुक व्यक्ति सोहन का शत्रु है, मोहन का मित्र है और हमारा न तो शत्रु है न मित्र। इस प्रकार जगत् का प्रत्येक पदार्थ दो परस्पर विरोधी धर्मों को एक साथ एक ही काल में रखता है तब ही वह कार्यकारी है, प्रयोजन की सिद्धि कर सकता है।
इस प्रकार नय विवक्षा भेद से वस्तु के अनेक धर्मों को मुख्य-गौण करके उसका प्रतिपादन करता है जबकि प्रमाण अनेक धर्मात्मक वस्तु को अखण्ड रूप से एक साथ ग्रहण करता है।
इसके अतिरिक्त प्रमाण केवल विधि (सत्) को नहीं जानता, क्योंकि यदि वह केवल विधि को ही जाने तो एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ से भेद ग्रहण न करने पर घट के स्थान पर पट में भी प्रवृत्ति कर सकेगा और ऐसी स्थिति में जानना न जानने के समान ही हो जाएगा तथा प्रमाण केवल प्रतिषेध को ही ग्रहण नहीं करता; क्योंकि विधि को जाने बिना ‘यह इससे भिन्न है’ ऐसा ग्रहण नहीं किया जा सकता तथा प्रमाण में विधि और प्रतिषेध दोनों परस्पर में अलग—अलग भी प्रतिभासित नहीं होते; क्योंकि ऐसा होने पर ऊपर केवल विधि पक्ष में और केवल निषेध पक्ष में कहे गये दोनों दोषों का प्रसंग आता है अत: विधि प्रतिषेधात्मक वस्तु प्रमाण का विषय है। इसलिए प्रमाण का विषय एकान्त नहीं है और नय का विषय अनेकान्त नहीं है।
६. जयधवला टीका के अनुसार नय एवं प्रमाण—जयधवला टीका में भी कहा गया है—‘प्रमाण ज्ञान समग्र वस्तु को विषय करता है और वस्तु विधि प्रतिषेधात्मक है। वस्तु न केवल विधि रूप है और न केवल प्रतिषेध रूप अतएव केवल विधि को विषय करने वाला और केवल प्रतिषेध को विषय करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता; क्योंकि विषय के अभाव में विषयी का सद्भाव मानने में विरोध आता है। इसी प्रकार विधि प्रतिषेधात्मक वस्तु को विषय करने वाला ज्ञान भी नय नहीं; क्योंकि विधि प्रतिषेधात्मक वस्तु अनेकान्त रूप होती है इसलिए वह प्रमाण का विषय है, नय का नहीं और नय अनेकान्त रूप नहीं है।
इसी विषय को आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने युक्तिसंगत ढंग से कहा है—‘प्रतिषेध रूप धर्म के साथ तादात्म्य को प्राप्त हुआ विधि अर्थात् विधि—निषेधात्मक पदार्थ प्रमाण का विषय है, अत: वह प्रमाण है और इन विधि निषेध रूप धर्मों में से किसी एक को वक्ता के अभिप्राय से मुख्य करके और दूसरे को गौण करके मुख्य धर्म के नियमन करने में जो हेतु है, वह नय है। नय किसी एक धर्म को मुख्य करके और उसी समय अन्य धर्म को गौण करके वस्तु के एकदेश या स्वभाव का कथन करता है। वह नय विधि निषेध रूप दोनों धर्मों में से किसी एक को मुख्य करके बताने के नियम का साधक है। इसके विषय का दृष्टान्त द्वारा समर्थन होता है।
जगत् का प्रत्येक पदार्थ विधि निषेध रूप या अस्ति—नास्ति रूप है। कोई भी पदार्थ कभी भी इन दोनों धर्मों से शून्य नहीं हो सकता है। जहाँ स्वचतुष्टय अर्थात् अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से वस्तु का अस्तित्व है वहाँ परचतुष्टय अर्थात् पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से वस्तु का नास्तित्व भी है। इन दोनों विरोधी धर्मों को एक साथ बतलाने वाला प्रमाण है और दोनों को अलग—अलग कभी मुख्य और कभी गौण करके बतलाने वाला नय है। नय जब वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्यता से बताता है तब दूसरे को गौण कर देता है। ‘सुनने वाला शिष्य वस्तु स्वरूप को ठीक प्रकार से समझ जाए’ इसलिए वक्ता वस्तु के धर्मों को एक—एक करके समझाता है। जैसे वक्ता कहता है—‘स्यात् अस्ति’ तब शिष्य समझता है कि ‘वस्तु में किसी अपेक्षा से अस्तिपना है अर्थात् स्वचतुष्टय (स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) की अपेक्षा से वस्तु में ‘अस्तिपना’ है। यहाँ ‘स्यात्’ पद का अर्थ ‘कथंचित्’ है, जिसका अर्थ होता है—वस्तु में ‘अस्ति’ के अतिरिक्त अन्य धर्म भी हैं। जब वक्ता पुन: कहता है—‘स्यात् नास्ति’ तब शिष्य समझता है—वस्तु परचतुष्टय (पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) की अपेक्षा से ‘नास्तिरूप’ है। ‘स्यात्’ शब्द बताता है कि वस्तु सर्वथा ‘नास्ति रूप’ नहीं है, उसमें ‘अस्तिपना’ भी है। शिष्य को दृढ़ करने के लिए वक्ता पुन: कहता है—‘स्यात् अस्ति—नास्ति’ अर्थात् वस्तु में किसी अपेक्षा से दोनों ही धर्म हैं, ‘अस्ति’ भी है और ‘नास्ति’ भी है। वस्तु में ये दोनों धर्म एक ही काल में रहते तो अवश्य हैं किन्तु वचन में ऐसी शक्ति नहीं है जिससे वस्तु के ये दोनों धर्म एक ही काल में, एक ही साथ कहे जा सकें। इसलिए वक्ता फिर कहता है—‘स्यात् अवक्तव्य’ अर्थात् ‘नास्ति अवक्तव्य’, ‘स्यात् अस्ति-नास्ति ‘अवक्तव्य।’ यद्यपि एक समय में एक ही साथ इन तीनों धर्मों को कहने की शक्ति वचन में न होने से वस्तु अवक्तव्य है तथापि वस्तु ‘अस्तिस्वभाव रूप’ अवश्य है या ‘नास्ति स्वभाव रूप’ अवश्य है या ‘अस्ति—नास्तिस्वभाव रूप’ अवश्य है। इसी को स्याद्वाद नय या सप्तभंगी नय कहते हैं। इस प्रकार नय वस्तु के एक—एक धर्म का अलग—अलग करके कथन करता है। नय वह ज्ञान प्रकार है जिसके द्वारा वस्तु के एक—एक धर्म को अलग—अलग दृष्टिकोण या अपेक्षा से समझाया जा सके। इस प्रकार नयों के द्वारा जब शिष्य वस्तु स्वरूप को भलीभाँति समझ जाता है तब उसका ज्ञान प्रमाण रूप हो जाता है। इतना समझने के बाद वह शिष्य पदार्थ में ‘अस्तित्व’ तथा ‘नास्तित्व’—ये दोनों धर्म एक ही साथ, एक ही काल में विद्यमान रहते हैं, ऐसा यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेता है।
उक्त प्रमाण और नय के भेदविषयक कथन का निष्कर्ष यह है कि प्रमाण नय नहीं है और नय प्रमाण नहीं है किन्तु प्रमाण से जानी गयी वस्तु के एकदेश में वस्तुत्व की विवक्षा का नाम नय है, दूसरी बात यह भी है कि नय प्रमाण से सर्वथा भिन्न भी नहीं है और अभिन्न भी नहीं है; क्योंकि प्रमाण का अर्थ है—जिस ज्ञान से वस्तु तत्त्व का निश्चय किया जाय अर्थात् सर्वांशग्राही बोध को प्रमाण कहते हैं और नय का अर्थ है—जिस ज्ञान के द्वारा अनन्त धर्मों में से किसी विवक्षित एक धर्म का निश्चय किया जाय अर्थात् अनेक दृष्टिकोणों से परिष्कृत वस्तु तत्त्व के एकांशग्राही ज्ञान को नय कहते हैं।
१. प्रमाण और नय के पारस्परिक संबंध और भेद के विषय में तथ्य—अन्त में संक्षेप करते हुए प्रमाण और नय के पारस्परिक सम्बन्ध और भेद के विषय में यही कहा जा सकता है कि प्रमाण यदि अंग है तो नय उपांग, प्रमाण यदि अंशी है तो नय अंश, प्रमाण यदि समुद्र है तो नय तरंग—निकर, प्रमाण यदि सिन्धु है तो नय उसका बिन्दु, प्रमाण यदि सूर्य है तो नय रश्मि—जाल, प्रमाण यदि वृक्ष है तो नय शाखा—समूह, प्रमाण यदि व्यापक है तो नय व्याप्य, प्रमाण नय में समाविष्ट नहीं है बल्कि नय ही प्रमाण में समाविष्ट है। प्रमाण का सम्बन्ध पाँचों ज्ञानों से है जबकि नय का सम्बन्ध केवल श्रुतज्ञान से ही है अर्थात् पाँचों ज्ञानों को प्रमाण कहते हैं जबकि नय श्रुतज्ञान रूप प्रमाण का अंश विशेष है।
२. स्वचतुष्टय और परचतुष्टय का विवेचन—प्रत्येक वस्तु का अपना स्वरूप होता है जो अन्य वस्तुओं के स्वरूप से भिन्न होता है। इसी प्रकार उसका अपना क्षेत्र, अपना काल और अपना भाव अर्थात् स्वभाव भी होता है। इन्हीं चारों को स्वरूपादि चतुष्टय कहते हैं। अपने स्वरूपादि से भिन्न जो पर पदार्थों के स्वरूपादि चतुष्टय हैं वे पररूपादि चतुष्टय कहलाते हैं।
द्रव्य का अर्थ होता है—गुण और पर्यायों का समूह अथवा गुण-पर्यायों का अधिष्ठान द्रव्य कहलाता है। अपने गुण और पर्यायों के समूह की अपेक्षा किसी वस्तु का होना ही द्रव्य की अपेक्षा सत् या अस्तित्व कहलाता है। जैसे—‘घट’ घट रूप से सत् (भाव रूप) है और पट रूप से असत् (अभावरूप) है अर्थात् घड़ा, घड़ा ही है, कपड़ा नहीं है अत: कहना चाहिए कि हर एक वस्तु स्वद्रव्य की अपेक्षा से है और परद्रव्य्ा की अपेक्षा से नहीं है।
द्रव्य के अंशों को क्षेत्र कहते हैं अथवा द्रव्य का संस्थान या आकृति उसका स्वक्षेत्र है। घड़े के अंश या अवयव या संस्थान या आकृति ही घड़े का क्षेत्र है। घड़े का क्षेत्र वह नहीं है, जहाँ घड़ा रखा है, वह तो उसका व्यावहारिक क्षेत्र या स्थान है। इस अवयव रूप क्षेत्र की अपेक्षा होना ही घड़े का स्वक्षेत्र की अपेक्षा होना है।
३. काल, स्वकाल एवं भाव—वस्तु के परिणमन को काल कहते हैं अथवा उसकी पर्यायें ही उसका स्वकाल है। प्रत्येक वस्तु का परिणमन पृथक््â—पृथक््â है। घड़े का अपने परिणमन की अपेक्षा होना ही स्वकाल की अपेक्षा होना कहलाता है; क्योंकि यही उसका स्वकाल है। घंटा, घड़ी, मिनट, सेकेण्ड आदि वस्तु का स्वकाल नहीं है, वह तो व्यावहारिक काल है। वस्तु के गुण को भाव कहते हैं। प्रत्येक वस्तु का गुण या स्वभाव अलग—अलग होता है। घड़ा अपने ही स्वभाव की अपेक्षा से है। वह अन्य पदार्थों के स्वभाव की अपेक्षा से वैâसे हो सकता है ?
४. सत् एवं असत्—प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टय अर्थात् स्व-द्रव्य, स्व—क्षेत्र, स्व—काल और स्व—भाव की अपेक्षा से सत् है और परचतुष्टय अर्थात् पर—द्रव्य, पर—क्षेत्र, पर—काल और पर—भाव की अपेक्षा से असत् है। वस्तु इस चतुष्टय से गुम्फित एक रस रूप है। कहने मात्र के लिए ही ये चार हैं, वास्तव में एक ही है; क्योंकि तीन काल में भी कभी ये बिखर कर वस्तु से पृथक््â नहीं हो सकते या यों कह लीजिए कि इनसे शून्य वस्तु ‘असत्’ है।
यदि वस्तु को स्वद्रव्य की तरह पर द्रव्य से भी सत् माना जाय तो द्रव्यों के प्रति नियम में विरोध आता है तथा पर—द्रव्य की तरह यदि स्वद्रव्य से भी वस्तु को असत् माना जाय तो समस्त द्रव्यों के निराश्रय होने का प्रसंग आता है।
वस्तु को स्वक्षेत्र की तरह परक्षेत्र से भी सत् मानने पर किसी वस्तु का कोई प्रतिनियत क्षेत्र व्यवस्थित नहीं हो सकता और पर—क्षेत्र की तरह स्व—क्षेत्र से भी वस्तु को असत् मानने पर वस्तु की नि:क्षेत्रता की आपत्ति आती है अर्थात् उसका कोई क्षेत्र ही नहीं रहेगा।
यदि वस्तु को स्वकाल की तरह परकाल में भी सद्रूप माना जाय तो वस्तु का कोई सुनिश्चित काल ही नहीं हो सकेगा तथा परकाल की तरह स्वकाल से भी यदि वस्तु को असत् माना जाय तो समस्त काल में वस्तु के न होने का प्रसंग आएगा और ऐसी स्थिति में किसी वस्तु का कोई सुनिश्चित स्वरूप व्यवस्थित न हो सकने से इष्ट और अनिष्ट तत्त्व की व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी।
सामान्य रूप से जीव का स्वरूप उपयोग (आत्मा के चैतन्य गुण से सम्बन्ध रखने वाला परिणाम विशेष जानना—देखना आदि) है। उपयोग से भिन्न अनुपयोग जीव का पर रूप है अत: जीव स्वरूप (उपयोग) से सत् है। और पर रूप (अनुपयोग) से असत् है। इसी तरह प्रत्येक द्रव्य और पर्याय का जो स्वरूप है वह उसी की अपेक्षा सत् है, उससे भिन्न जो पर रूप है उसकी अपेक्षा वह असत् है।
५. सुनय एवं दुर्नय—नय जब अनेक धर्मात्मक वस्तु के विवक्षित धर्म को ग्रहण करके भी इतर धर्मों का निराकरण नहीं करता है, उनके प्रति तटस्थ रहता है अथवा उन्हें मुख्य या गौण करके वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करता है तब सुनय कहलाता है और जब वही किसी एक धर्म का आग्रह करके दूसरे धर्मों का निराकरण करने लगता है तब वह दुर्नय हो जाता है।
जैनदर्शन के अनुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु अस्तित्व—नास्तित्व, नित्यत्व—अनित्यत्व, एकत्व—अनेकत्व, भेदत्व—अभेदत्व, सामान्य—विशेष आदि अनन्त धर्मात्मक है या यों कहिए कि अनन्त धर्मों का पिण्ड ही वस्तु है; क्योंकि वस्तु में इन अनन्त धर्मों का अस्तित्व माने बिना उसके अस्तित्व की कल्पना ही सम्भव नहीं है। उस अनन्त धर्मात्मक वस्तु के पूर्ण रूप को ग्रहण करने वाला प्रमाण है और उसके उन अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म का बोधक ज्ञाता का अभिप्राय या ज्ञान विशेष नय है। यद्यपि अनेकान्तात्मक वस्तु के एक—एक अन्त अर्थात् धर्मों को विषय करने वाले अभिप्राय विशेष प्रमाण की ही सन्तान हैं पर इनमें यदि सुमेल, परस्पर प्रीति और सापेक्षता है तो ही ये सुनय हैं अन्यथा दुर्नय हैं। नय सदा सापेक्ष कथन करता है और दुर्नय निरपेक्ष। सुनय अनेकान्तात्मक वस्तु के किसी एक अंश को मुख्य भाव से ग्रहण करके भी अन्य अंशों का निराकरण नहीं करता किन्तु उनकी ओर तटस्थ भाव रखता है और दुर्नय अन्य अंशों का निराकरण करता है, उनकी उपेक्षा करता है।
प्रमाण वस्तु के अनेक धर्मों का ग्राहक होता है और नय किसी एक धर्म का; किन्तु एक धर्म को ग्रहण करता हुआ भी नय दूसरे धर्मों का न निषेध करता है और न विधान ही। निषेध करने पर वह दुर्नय हो जाता है और विधान करने पर प्रमाण कोटि में परिगणित हो जाता है। वह धर्मान्तर सापेक्ष एक धर्म का ज्ञान कराता है और इतर धर्म निरपेक्ष एक ही धर्म का ज्ञान कराने पर वह दुर्नय कहा जाता है।
जैन न्याय के प्रतिष्ठापक, महान् दार्शनिक विद्वान् श्री अकलंकदेव ने प्रमाण, नय और दुर्नय का तर्कसम्मत विवेचन किया है
‘अनेक धर्मात्मक पदार्थ के ज्ञान को प्रमाण और उसके एक अंश से धर्मान्तर सापेक्ष ज्ञान को नय कहते हैं तथा धर्मान्तर का निराकरण करने वाला एक अंश का ज्ञान दुर्नय है।’
नय सापेक्ष होता है और दुर्नय निरपेक्ष। अर्थात् वस्तु का सापेक्ष कथन करना सुनय और निरपेक्ष कथन करना दुर्नय है तथा वस्तु के पूर्ण धर्मों को ग्रहण करना प्रमाण है।
इसी का विश्लेष्ाण करते हुए आचार्य श्री विद्यानन्द जी ने कहा है—
‘प्रमाण तत् और अतत् सभी अंशों से परिपूर्ण वस्तु को जानता है, नय से केवल तत् (विवक्षित) अंश की प्रतिपत्ति या ज्ञान होता है और दुर्नय अपने अविषय अंशों का निराकरण करता है। प्रमाण वस्तु के सभी धर्मों को ग्रहण करता है, नय धर्मान्तरों की उपेक्षा करता है जबकि दुर्नय धर्मान्तरों की हानि अर्थात् निराकरण करने की दुष्टता करता है।’
निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं और वे ही दुर्नय कहलाते हैं। सापेक्ष नय सम्यक््â होते हैं और वे ही कार्यकारी होते हैं।
महान् तार्किक आचार्य श्री सिद्धसेन का कथन है—‘वे सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं जो अपने ही पक्ष का आग्रह करते हैं, पर का निषेध करते हैं किन्तु जब वे ही परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यक्त्व के सद्भाव वाले होते हैं, सम्यग्दृष्टि होते हैं।’
जिस तरह अनेक लक्षण और गुणवाली वैडूर्य आदि मणियाँ बहुमूल्य होने पर भी अलग—अलग बिखरी हुई हों, एक सूत्र में पिरोई हुई न हों तो ‘रत्नावली’ या ‘हार’ का नाम नहीं पा सकतीं उसी तरह सभी नय अपने—अपने पक्ष में अधिक निश्चित होने पर भी आपस में एक दूसरे के साथ निरपेक्ष होने से ‘सम्यग्दर्शन’ या सम्यक्त्वपने के व्यवहार को नहीं पा सकते और जिस प्रकार वे ही मणियां एक डोरे में पिरोई जाएँ तो ‘रत्नावली’ या ‘रत्नहार’ कहलाती हैं और अपना भिन्न—भिन्न नाम छोड़ देती हैं उसी तरह सभी नय यथोचित रूप से सुसंकलित होकर या परस्पर सापेक्ष होकर सम्यक््âपने को प्राप्त हो जाते हैं और वे सुनय कहलाते हैं। वे अन्त में कहते हैं—‘जो वचन विकल्प रूपी नय परस्पर सम्बद्ध होकर स्वविषय का प्रतिपादन करते हैं, वह उनकी स्वसमय प्रज्ञापना है अर्थात् जैन दृष्टि की देशना है तथा अन्य निरपेक्ष वृत्ति तीर्थंकर की आसादना है।
तात्पर्य यह है कि निरपेक्ष नयों की देशना वस्तु का सम्पूर्ण स्वरूप प्रकाशित नहीं करती अत: वह अधूरी और मिथ्या है। इससे विपरीत एक दूसरे की मर्यादा को स्वीकार करके प्रवृत्त होने वाले नयों की सापेक्ष दृष्टि वस्तु का सम्पूर्ण स्वरूप प्रकट करती है अत: वह पूर्ण और यथार्थ है। ऐसी दृष्टि में से जो विचार या वाक्य फलित होते हैं वे ही जैन देशना हैं। जैसे—आत्मा के नित्यत्व के विषय में विचार किया जाय तो वह अपेक्षा विशेष से नित्य भी है और अनित्य भी है; मूर्तत्व के विषय में वह कथंचित् मूर्त है और कथंचित् अमूर्त है; शुद्धत्व के विषय में वह कथंचित शुद्ध और कथंचित् अशुद्ध है; परिमाण के विषय में वह कथंचित् व्यापक और कथंचित् अव्यापक है; संख्या के विषय में वह कथंचित् एक और कथंचित् अनेक है—ऐसे अनेक मुद्दों के विषय में वाक्य और विचार सुनय है।
आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने इसी तत्त्व को बड़े मार्मिक ढंग से समझाया है—‘स्वसमयी व्यक्ति दोनों नयों के वक्तव्य को जानता तो है पर किसी एक नय का तिरस्कार करके दूसरे नय के पक्ष को ग्रहण नहीं करता, वह एक नय को द्वितीय सापेक्ष रूप से ही ग्रहण करता है।
आचार्य श्री हेमचन्द्र ने प्रमाण, नय और दुर्नय के विषय का विवेचन करते हुए कहा है—प्रमाण ‘सत्’ अर्थात् वस्तु सत् स्वरूप है। इस प्रकार से वस्तु स्वरूप का विवेचन करता है और नय ‘स्यात् सत्’ वस्तु कथंचित् अर्थात् किसी अपेक्षा से सत् है’ इस प्रकार सापेक्ष रूप से वस्तु स्वरूप का निरूपण करता है जबकि दुर्नय ‘सत् एव’ ‘पदार्थ सत् ही है’ ऐसा ‘एवकार’ (ही) द्वारा अवधारण कर उसके अन्य धर्मों का निराकरण या निषेध करता है।
६. नय, दुर्नय नहीं सम्यक् है—प्रमाण वस्तु को समग्र रूप से ग्रहण करता है और नय किसी वस्तु में अपने इष्ट धर्म को सिद्ध करते हुए उसके अन्य धर्मों में उदासीन होकर उसका विवेचन करता है जबकि दुर्नय किसी वस्तु में अन्य धर्मों का निषेध करके अपने अभीष्ट एकान्त अस्तित्व को सिद्ध करने की चेष्टा करता है। जैसे—‘अस्ति एव घट:’ ‘यह घट ही है’। यहाँ ‘एवकार’ अन्य नास्तित्व आदि धर्मों का निषेध करता है। वस्तु में अभीष्ट धर्म की प्रधानता से अन्य धर्मों का निषेध या निराकरण करने के कारण दुर्नय को मिथ्या कहा गया है। नय में दुर्नय की तरह एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध या निराकरण नहीं किया जाता है इसलिए नय को दुर्नय न कहकर सम्यक््â ही कहा जाता है। नय का सम्यक््âपना यही है कि वह वस्तु के सभी सापेक्षिक धर्मों को लेकर ही वस्तु का विवेचन करता है इसीलिए जैनदर्शन में नय को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है; क्योंकि वह समस्त विवादों को दूर कर निर्विवाद वस्तु स्वरूप को सामने रखता है। नय को समझे बिना दुर्नय का परिज्ञान नहीं हो सकता है और न ही नय से दुर्नय का भेद किया जा सकता है।
आचार्य श्री वादिदेव सूरि ने नय और दुर्नय का प्रतिपादन किया है—श्रुतज्ञान प्रमाण से जाने हुए पदार्थ का एक अंश अन्य अंशों को गौण करके जिस अभिप्राय से जाना जाता है, वक्ता का यह अभिप्राय विशेष नय कहलाता है और अपने अभीष्ट अंश (धर्म) के अतिरिक्त वस्तु के अन्य अंशों (धर्मों) का अपलाप या निषेध करने वाला नयाभास अर्थात् दुर्नय कहलाता है।
श्रुतज्ञान रूप प्रमाण अनन्त धर्म वाली वस्तु को ग्रहण करता है और नय उन अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म को जानता है। नय जब वस्तु के एक धर्म को जानता है तब शेष रहे हुए धर्म भी वस्तु में विद्यम्ाान तो रहते ही हैं किन्तु उन्हें गौण कर दिया जाता है। इस प्रकार केवल एक धर्म को मुख्य करके उसे जानने वाला ज्ञान नय है। जबकि वस्तु के अनन्त अंशों (धर्मों) में से एक अंश को ग्रहण करके शेष समस्त अंशों का अभाव मानने वाला अथवा उनका निराकरण करने वाला नय ही नयाभास या दुर्नय है। नय एक अंश को ग्रहण करता है पर उस अंश के सहचर अन्य अंशों पर उपेक्षा भाव रखता है और नयाभास या दुर्नय उन अंशों का निषेध करता है। यही नय और दुर्नय में अन्तर है।
१. सुनय और दुर्नय की सापेक्षता और निरपेक्षता—सुनय और दुर्नय की सापेक्षता एवं निरपेक्षता का विवेचन करते हुए स्वामि कुमार ने कहा है—‘जो वस्तु अनेकान्त रूप है वही सापेक्ष दृष्टि से एकान्त रूप भी है। श्रुतज्ञान की अपेक्षा वस्तु अनेकान्त रूप है और नयों की अपेक्षा एकान्त रूप है। बिना अपेक्षा के वस्तु का स्वरूप देखा ही नहीं जा सकता है।
२. प्रमाण सकलग्राही और नय विकलग्राही है—श्रुतज्ञान रूप प्रमाण से जानी हुई वस्तु में अपेक्षा भेद से किसी एक धर्म को ग्रहण करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। प्रमाण से अनेक धर्मात्मक वस्तु को जानकर ऐसा जानना कि वस्तु स्वचतुष्टय अर्थात् अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा सत् स्वरूप है तथा परचतुष्टय अर्थात् परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से असत् स्वरूप है, यही नय है। इसी से प्रमाण को सकलग्राही और नय को विकलग्राही कहा है। यदि एक नय दूसरे नय की अपेक्षा को गौण रखकर वस्तु को जाने तभी वह नय सुनय कहलाएगा और तभी वस्तु धर्म की ठीक प्रतीति होगी किन्तु यदि कोई नय वस्तु को केवल सत् स्वरूप ही सिद्ध करना चाहता है और उसके असत् स्वरूप का निराकरण करता है तो यह नय सुनय न होकर दुर्नय कहा जाएगा अत: वस्तु के इतर धर्मों का निषेध न करके उसके किसी एक धर्म की मुख्यता से और उसी समय उसके अन्य धर्मों की गौणता से उसके स्वरूप को जानने से ही उसकी ठीक प्रतीति होती है।
३. नय की उपयोगिता—आचार्य श्री देवसेन स्वामी ने भी एक उद्धरण द्वारा नय की उपयोगिता सिद्ध करते हुए कहा है— ‘प्रमाण से नाना स्वभाव वाले द्रव्य को जानकर सापेक्ष सिद्धि के लिए उसको कथंचित् नयों से मिश्रित अर्थात् युक्त करना चाहिए।’
जगत् के पदार्थों का जैसा स्वरूप है वैसा ही ज्ञान से जाना जाता है और वैसा ही लोक में माना जाता है। नय भी उसे वैसा ही जानते हैं। अन्तर केवल इतना है कि प्रमाण वस्तु के सब धर्मों को ग्रहण करके ज्ञाता पुरुष अपने अभिप्राय के अनुसार उनमें से किसी एक धर्म की मुख्यता से वस्तु का कथन करता है, यही नय है। इसी से ज्ञाता के अभिप्राय को भी नय कहा है। जो नाना स्वभावों को छोड़कर वस्तु के एक स्वभाव का कथन करता है वह नय है और जो वस्तु का प्रतिपक्षी धर्म से निरपेक्ष एकान्त रूप से कथन करता है वह दुर्नय है। दुर्नय से वस्तुस्वरूप की सिद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि वस्तु सर्वथा एक रूप ही नहीं है अत: जो प्रतिपक्षी धर्मों की अपेक्षा रखते हुए वस्तु के एक धर्म का कथन करता है वही सुनय है और इसी से वस्तु स्वरूप की सिद्धि होती है।
इस प्रकार नय की उपयोगिता न केवल सैद्धान्तिक और आध्यात्मिक दृष्टि से है किन्तु जीवन जगत् के लौकिक व्यवहारों में भी प्रतिक्षण इसकी उपयोगिता सिद्ध होती है। यह समस्त प्रकार के विवादों, मतभेदों और संघर्षों को समाप्त कर जीवन को प्रशस्त बनाता है। यही जैनदर्शन का नय निरूपण है।