जिस प्रकार दुष्ट व्याघ्र मृग के बच्चे को देखकर उसके ऊपर टूट पड़ता है, उसी प्रकार क्रूर पुराने नारकी उस नवीन नारकी को देखकर धमकाते हुए उसकी ओर दौड़ते हैं। जिस प्रकार कुत्तों के झुंड एक दूसरे को दारुण दु:ख देते हैं उसी प्रकार नारकी नित्य ही परस्पर दुस्सह पीड़ादिक दिया करते हैं। वे नारकी जीव चक्र, बाण, शूली, तोमर, मुद्गर, करोंत, भाला, सुई, मूसल और तलवार आदि शस्त्र, अस्त्र, वन एवं पर्वत की आग तथा भेड़िया, व्याघ्र, तरक्ष, शृगाल, कुत्ता, बिलाव और सिंह इन पशुओं के अनुरूप परस्पर में सदैव अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं। ये नारकी गहरे बिल, धुंआ, वायु, खप्पर, यन्त्र, चूल्हा, चक्की, बर्छी आदि के आकार रूप अपने-अपने शरीर की विक्रिया करते हैं और तो क्या ये नारकी दूसरों को दु:ख देने के लिये दावानल, अग्नि, सड़े रक्त और कीड़ों से युक्त नदी, सरोवर, कूप और वापी आदि रूप में अपने-अपने शरीर की ही विक्रिया करते हैं। इन नारकियों के पृथक् विक्रिया नहीं होती, अपृथक् विक्रिया ही होती है।
कोई नारकी व्याघ्र सिंहादिक बनकर अन्य नारकी को खाने लगते हैं। कोई नारकी किसी नारकी के द्वारा हजारों यन्त्रों में पेले जाते हैं। कोई किसी को खम्भों में बांधकर लोहे के संबल से मारते हैं, कोई जाज्वल्यमान दुष्प्रेक्ष्य अग्नि में फेंके जाते हैं, कोई नारकी आरों से चीरे जाते हैं, कोई भयंकर भालों से बेधे जाते हैं। कितने ही नारकी जीव लोहे की कड़ाहियों के तपे हुए तेल में डाले जाते हैं और कितने ही अग्नि में तपाये जाते हैं। कभी-कभी कोयले और उपलों की आग में झुलसे हुए ये नारकी जीव शीतल जल समझ कर वैतरणी नदी में प्रवेश करते हैं। उसमें उनका शरीर अनेक रोगों से पूर्ण हो जाता है। क्योंकि वह वैतरणी सड़े हुए खून, पीव से भरी और असंख्य जीवों से व्याप्त रहती है। वहां के नारकी ही इन विक्रियाओं को करते हैं क्योंकि वहाँ पर विकलत्रय जीव पैदा नहीं होते हैं। उस वैतरणी में वैंâची के समान तीक्ष्ण जल के आकार से परिणत हुए नारकी अन्य नारकियों के शरीरों को दुस्सह अनेक प्रकार की पीड़ाओं को पहुँचाते हैं। वैतरणी नदी के जल में नारकी कछुआ, मेंढक और मगर प्रभृति जल जीवों के विविध रूपों को धारण कर एक दूसरे का भक्षण करते हैं। पश्चात् वे नारकी विस्तीर्ण शिलाओं के बीच में बिलों को देखकर झटपट उनमें प्रवेश करते हैं, परन्तु वहाँ पर सहसा विशाल ज्वालाओं वाली महान अग्नि उठती है। जिस अग्नि से उन नारकियों के सम्पूर्ण अङ्ग तीक्ष्ण ज्वालाओं से जल जाते हैं। पुन: वे ही नारकी शीतल छाया की आशा से असिपत्र वन में प्रवेश करते हैं।
वहाँ पर भी वङ्कादण्ड और तलवार की धार के समान पैने उन वृक्षों के पत्ते नारकियों के शरीर को विदीर्ण करके खण्ड-खण्ड कर देते हैं। उसी प्रकार से वहाँ चक्र, बाण, तोमर, मुद्गर, तलवार, भाला, मूसल तथा और भी अस्त्र-शस्त्र उनके सिर पर गिरते हैं, अनंतर जिनके शिर छिद गये हैं, हाथ, पैर आदि अङ्ग खण्डित हो गये हैं, जिनके नेत्र और आंतों के समूह बाहर निकल पड़े हैं, ऐसे वे नारकी अशरण होकर उस वन को छोड़कर भागते हैं। तब गृद्ध, गरुड़, काक आदि वङ्कामय मुख वाले व तीक्ष्ण दाँतों वाले पक्षी बन करके नारकी उन नारकियों के शरीर को भक्षण करने लगते हैं। कोई-कोई नारकी उन नारकियों के अंग और उपांगों को प्रचण्डघातों से चूर्णकर घावों पर क्षार पदार्थ-तेजाब आदि डाल देते हैं। घावों में क्षार-पदार्थों के डालने से वे नारकी करुणा पूर्ण विलाप करते हैं और दु:ख देने वाले नारकी के चरणों में पड़ते हैं। फिर भी वे निर्दयी नारकी उन्हें खण्ड-खण्ड करके चूल्हे में डाल देते हैं। कोई नारकी पर स्त्री में आसक्त होने वालों के शरीरों में तप्तायमान लोहपुतली को चिपका देते हैं। पूर्व भव में माँस भक्षण प्रेमी नारकी के शरीर के ही माँस को काट-काटकर, कोई नारकी उन्हीं के मुख में जबरन डालते हैं। मधु और मद्य के सेवन करने वाले प्राणियों को अन्य नारकी अत्यन्त तपे हुए द्रवित लोहे को जबरदस्ती पिला देते हैं। जिससे उनके अवयव समूह भी पिघल जाते हैं। जिस प्रकार तलवार के प्रहार से भिन्न हुआ कुँए का जल फिर वापस मिल जाता है उसी प्रकार अनेकानेक शस्त्रों से छिन्न-भिन्न किया गया नारकियों का शरीर भी फिर से मिल जाता है। तात्पर्य यह है कि नारकियों की आयु पूरी हुए बिना अकाल मरण नहीं होता है।
नरक की भूमि तप्तायमान लोहे के सदृश दु:खद स्पर्शवाली, सुईं के समान तीखी दूब से व्याप्त है, उस पृथ्वी से इतना दु:ख होता है कि जैसे एक साथ ही हजारों बिच्छुओं ने डंक मारा हो। उन नारकियों के उदर, नेत्र, मस्तक आदि सभी अवयव करोड़ोें रोगों से जर्जरित रहते हैं। नरक में नारकियों के साथ ही ५ करोड़ ६८ लाख ९९ हजार ५ सौ ८४ रोग उदय में बने रहते हैं।