श्री पद्मप्रभ स्तुति
(सूर्य ग्रहारिष्ट निवारक)
तव विश्ववंद्य चरणारविंद, संकल्पमात्र शुभ फलदायक।
गणधर मुनिगण नुत देव! सदा, मनवचतन से प्रणमूँ सुखप्रद।।
तव पादयुगल की भक्ती से, मानव संसार जलधि तिरते।
पद्मा से आलिंगित मूर्ति, पद्मप्रभ! मुझको सम कीजे।।१।।
कौशाम्बी के नृप ‘धरण’ पिता, औ प्रसू सुसीमा ख्यात जगत्।
इक्ष्वाकुवंश के ओ भास्कर!, पद्मा के आलय तव पदयुग।।
इक सहस हाथ ऊँचा तनु था, औ तीस लक्ष पूर्वायू थी।
प्रभु लाल कमल समदेह कांति, औ लाल कमल था चिन्ह सही।।२।।
प्रभु माघवदी षष्ठी तिथि में, गर्भागम मंगल प्राप्त किया।
कार्तिक कृष्णा तेरस१ के दिन, त्रैलोक्य विभाकर उदित हुआ।।
उस ही तिथि में तप लक्ष्मी से, आलिंगित पृथ्वी पर विहरे।
सित चैत पूर्णिमा के दिन ही, निज ज्ञान पूर्ण करके निखरे।।३।।
फाल्गुन वदि चौथ दिवस मुक्ति, लक्ष्मी के साथ निवास किया।
कृतकृत्य निरंजन सिद्ध हुए, निज आत्मजनित पीयूष पिया।।
मेरे मन के सब ही दु:ख को, निश्चित तुमने जाना भगवन् !
अब शीघ्र हरो दु:ख ‘‘ज्ञानमती’’ श्री, मम मुझको देना भगवन्।।४।।
श्री चंद्रप्रभजिन स्तुति
(सोम ग्रहारिष्ट निवारक)
भव वन में घूम रहा अब तक, किंचित् भी सुख नहिं पाया हूँ।
प्रभु तुम सब दु:ख के ज्ञाता हो, अतएव शरण में आया हूँ।।
सुरपति गणपति नरपति नमते, तव गुणमणि की बहुभक्ति लिए।
मैं भी नत हूँ तव चरणों में, अब मेरी भी रक्षा करिये।।१।।
काशी में चंद्रपुरी सुन्दर, रत्नों की वृष्टि खूब हुई।
भू धन्य हुई जन धन्य हुए, पितु-मात के हर्ष की वृद्धि हुई।।
राका शशांक सम कांत तनु, धवलोज्ज्वल कांति यशोधारी।
चिंतित फलदाता चिंतामणि, औ कल्पतरू भी सुखकारी।।२।।
तिथि चैत्रवदी पंचमी कही, औ पौष वदी ग्यारस सुखदा।
फिर पौष वदी ग्यारस उत्तम, औ फाल्गुन वदि सप्तमी शुभा।।
फाल्गुन सुदि सप्तमि ये तिथियाँ, क्रम से पाँचों कल्याणक की।
चन्द्रप्रभ! पंचकल्याणकपति! मुझको दें पंचम सिद्धगती।।३।।
जिस वन में ध्यान धरा प्रभु ने, उस वन की शोभा क्या कहिए।
जहाँ शीतल मंद पवन बहती, षट् ऋतु के कमल खिले लहिए।।
सब जात विरोधी गरुड़ सर्प, मृग सिंह खुशी से झूम रहे।
सुर खेचर नरपति आ आकर, मुकुटों से जिन पद चूम रहे।।४।।
महासेन पिता भी पूज्य हुए, जननी लक्ष्मणा पवित्र हुईं।
दशलाख वर्ष पूर्वायू थी, छह सौ करतुंग शरीर सही।।
शशि लांछनयुत भ्रम तम हरते, यश ज्योत्सना पैâली जग में।
निज ‘‘ज्ञानमती’’ संपति देवो, मैं नमूँ सदा तव चरणों में।।५।।
श्री वासुपूज्यजिन स्तुति
(मंगल ग्रहारिष्ट निवारक)
आत्मा औ तनु के अन्तर को, कर तनु से निर्मम हो जाऊँ।
मैं शुद्ध बुद्ध परमात्मा हूँ, यह समझ स्वयं में रम जाऊँ।।
इन्द्रिय बल आयू श्वास चार, प्राणों को धर-धर मरता हूँ।
निश्चय नय से नहिं जन्म-मरण, फिर भी निश्चय नहिं करता हूँ।।१।।
मैं इन प्राणोें से भिन्न सदा, पुद्गल से भिन्न निराला हूँ।
सुख सत्ता दर्शन ज्ञान वीर्य, चेतनमय प्राणों वाला हूँ।।
हे वासुपूज्य! तव चरण कमल, की भक्ती से यह मिल जावे।
जो खोई शक्ति अनन्त मेरी, तव नाम मंत्र से प्रगटावे।।२।।
चंपापुर में वसुपूज्य पिता, औ प्रसू जयावति इन्द्र नमित।
आषाढ़ वदी छठ को प्रभु ने, माँ गर्भ प्रवेश किया सुरनत।।
फाल्गुन वदि चौदस जन्म लिया, इस तिथि को ही जिनवेश धरा।
सित माघ द्वितीया के प्रभु को, केवल लक्ष्मी ने स्वयं वरा।।३।।
भादों सुदि चौदस को प्रभुवर, चम्पापुर से शिव धाम गये।
बाहत्तर लक्ष वर्ष आयू, दो सौ अस्सी कर तुंग कहे।।
कल्हार कमल छवि महिष चिन्ह, फिर भी तनुमुक्त अनन्तगुणी।
वासवगण पूजित वासुपूज्य! दो ‘‘ज्ञानमती’’ सम्पत्ति घनी।।४।।
श्री मल्लिनाथजिन स्तुति
(बुध ग्रहारिष्ट निवारक)
जिन काम मोह यमराज मल्ल, तीनोें को जीत विजेता हैं।
वे मल्लिजिनेश्वर मेरे भी, दुष्कर्म मल्ल के भेत्ता हैं।।
मिथिला नगरी के कुंभराज, औ प्रजावती मंगलकारी।
शुभ चैत्र सुदी एकम के दिन, था हुआ गर्भ मंगल भारी।।१।।
मगसिर सुदि ग्यारस के प्रभु को, सुरशैल शिखर पर ले जाके।
सुरदेवी सह इंद्रादिकगण, अभिषेक किया गुण गा-गा के।।
मगसिर सित ग्यारस दीक्षा ली, वदि पौष दूज१ ध्यानाग्नि जला।
सब घाति कर्म को भस्म किया, उस ही क्षण ज्ञान प्रभात खिला।।२।।
सौ हाथ देह काँचन कांती, थिति पचपन सहस वर्ष जानो।
मल्लिका कुसुम सम सुरभिततनु, कलशा लाञ्छन से पहचानो।।
फाल्गुन सित पंचमि तिथि आई, सम्मेदगिरी पर ध्यान धरा।
पंचम गति की लक्ष्मी आई, उसने प्रभु को था स्वयं वरा।।३।।
हे मल्लि प्रभो! मेरे त्रय विध, मल को हरिए निर्मल करिए।
मुरझाई सुखवल्ली मेरी, वचनामृत से पुष्पित करिये।।
मैं परमानंद सुखामृत के, झरने का अनुभव प्राप्त करूँ।
दो ‘‘ज्ञानमती’’ संपति मुझको, निज का आह्लाद विकास करूँ।।४।।
श्री वीरजिन स्तुति
(गुरु ग्रहारिष्ट निवारक)
महावीर वीर सन्मति भगवन् ! अतिवीर सदा मंगल करिये।
हे वर्धमान! भव वारिधि से, अब मुझको पार तुरत करिये।।
वह कुंडलपुरि जग पूज्य हुई, सिद्धार्थ दुलारे जन्मे थे।
प्रियकारिणि माँ की गोदी में, त्रिभुवन के गुरुवर खेले थे।।१।।
आषाढ़ सुदी छठ पूज्य हुई, जब गर्भ में प्रभु अवतार लिया।
माता त्रिशला की सेवा का, सुर ललनाओं ने भार लिया।।
शुभ चैत्र सुदी तेरस का दिन, है धन्य धन्य वह सुखद घड़ी।
जब वर्द्धमान ने जन्म लिया, नभ से सुर पंक्ती उमड़ पड़ी।।२।।
प्रभु शैशव में अहिपति फण पर, चढ़कर संगम सुर जीता था।
नहिं ब्याह किया नहिं राज्य किया, जनता का मन भी फीका था।।
मगसिर वदि दशमी धन्य हुई, जब केशलोंच कीना तुमने।
नृप कूल ने प्रथम आहार दिया, पंचाश्चर्य किया देवों ने।।३।।
कौशाम्बी में चन्दनबाला, सिरमुंडित जकड़ी बेड़ी में।
प्रभु दर्शन से बेड़ियाँ झड़ीं, तनु सुंदर हुआ एक क्षण में।।
कोदों भोजन हो गया खीर, प्रभु को आहार दे धन्य हुईं।
यह महिमा तीर्थंकर प्रभु की, पंचाश्चर्यों की वृष्टि हुई।।४।।
अतिमुक्तक वन में ध्यान लीन थे, भव ने आ उपसर्ग किया।
तब अचलित प्रभु को देख स्वयं, भार्या सह पूजा भक्ति किया।।
वैशाख सुदी दशमी तिथि में, केवल रवि किरणें प्रकट हुईं।
शुभ समवसरण था रचा हुआ, दिव्यध्वनि फिर भी खिरी नहीं।।५।।
श्रावण श्यामा एकम उत्तम, गौतम गणधर जब आए हैं।
विपुलाचल पर ध्वनि प्रगट हुई, मुनिगण सुर नर हर्षाए हैं।।
हे वीर प्रभो! तव शासन में, मुझको रत्नत्रय निधी मिली।
मैं भक्ति सहित प्रणमूँ तुमको, मेरी मन कलियाँ आज खिलीं।।६।।
तनु सात हाथ कांचन कांति, आयू बाहत्तर वर्ष कही।
है चिन्ह मृगेन्द्र प्रभो! तेरा, जो ध्यावे पावे मोक्ष मही।।
कार्तिक वदि चौदस रात्रि अंत, आमावस का प्रत्यूष कहा।
सब कर्म नाश प्रभु मोक्ष गए, स्वात्मोत्थ सहज आनंद लहा।।७।।
पावापुरि के उपवन में जो, सरवर है कमल खिले उसमें।
प्रभु के निर्वाण कल्याणक से, अब तक भी कमल खिले सच में।।
देवों ने आकर पूजा की, महावीर प्रभू त्रिभुवन पति की।
अंधियारी में दीपक ज्वाले, तब से ही दीपावली हुई।।८।।
हे वीर प्रभो! मंगलमय तुम, लोकोत्तम शरणभूत तुम ही।
भव भव के संचित पाप पुँज, इक क्षण में नष्ट करो सब ही।।
मैं बारम्बार नमूँ तुमको, भगवन्। मेरे भव त्रास हरो।
‘‘सज्ज्ञानमती’’ सिद्धी देकर, स्वामिन् ! अब मुझे कृतार्थ करो।।९।।
श्री पुष्पदंतजिन स्तुति
(शुक्र ग्रहारिष्ट निवारक)
त्रैलोक्यपति देवेन्द्र नमित, साधूगण वंद्य सदा जिनवर।
सुख आत्माधीन अचल तव है, स्थान भ्रमण विरहित सुस्थिर।।
तव कीर्तिलता त्रिभुवन व्यापी, औ सिद्धि रमा तव चरणरता।
तव दिव्यसुधावच भव जलधि, से तिरने को उत्तम नौका।।१।।
काकंदी में सुग्रीव पिता, माता जयरामा जग पूजित।
फाल्गुनवदि नवमी के दिन प्रभु, गर्भावतरण मंगल मंडित।।
मगसिर शुक्ला प्रतिपद तिथि थी, जब जन्में थे भगवान् यहाँ।
उन पुष्पदन्त की दिव्यकथा, हरती है भवमय त्रास महा।।२।।
मगसिर सुदि एकम के प्रभु ने, जिनमुद्रा धर मोहारि हना।
कार्तिक सुदि दूज दिवस केवल-लक्ष्मी ने आन लिया शरणा।।
भादों सुदि अष्टमि के दिन प्रभु, सम्मेदाचल से सिद्ध हुए।
सुखस्वात्मसुधारस पान तृप्त, त्रिभुवन के अग्र विराज गये।।३।।
चउशतकर तुंग मकर लांछन, दो लाख वर्ष पूर्वायु कही।
शशिकांत देह भी पुष्पदंत! अंतक के अन्तक तुम्हीं सही।।
निश्चय व्यवहार रत्नत्रय से, भूषित शिवकांता वरण किया।
मुझ ‘‘ज्ञानमती’’ का रत्नत्रय, बस पूर्ण करो मैं शरण लिया।।४।।
श्री मुनिसुव्रतजिन स्तुति
(शनि ग्रहारिष्ट निवारक)
मुनिसुव्रत! सुव्रत के दाता, भव हर्ता मुक्ति विधाता हो।
मैं नमूँ तुम्हें मेरे स्वामी, मुझको भी सिद्धि प्रदाता हो।।
यह राजगृही नगरी धन है, त्रैलोक्य गुरू यहाँ थे जन्में।
हैं धन्य सुमित्र पिता माता, सोमा भी धन्य हुईं जग में।।१।।
श्रावण वदि दूज गर्भ बारस१, वैशाख वदी में जन्म लहा।
वैशाख वदी दशमी नवमी, क्रम से दीक्षा औ ज्ञान लहा।।
अस्सी कर तुंग शरीर कहा, प्रभु नील वर्ण अतिशय सुन्दर।
थी तीस हजार वर्ष आयू, कच्छप२ के चिन्ह से जानें पर।।२।।
फाल्गुन वदि बारस को गिरि पर, प्रभु ने सब कर्म विनाशा था।
सुरगण ने आकर के तत्क्षण, शिव हेतु नमाया माथा था।।
भगवन्! मैं वर्ण स्पर्श गंध, औ रस से रहित अरूपी हूँ।
बस तव भक्ती से व्यक्ती हो, मैं एक स्वयं चिद्रूपी हूँ।।३।।
हे देव! तुम्हारी भक्ती का, फल एक यही बस मिल जावे।
प्रतिपल प्रतिक्षण अन्तिम क्षण तक, तव नाम मंत्र जिह्वा गावे।।
नहिं पीड़ा हो नहिं हो कषाय, बस कंठ अकुंठित बना रहे।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में बस ‘‘ज्ञानमती’’ मन रमा रहे।।४।।
श्री नेमिजिन स्तुति
(राहु ग्रहारिष्ट निवारक)
भव वन में भ्रमते-भ्रमते अब, मुझको कथमपि विज्ञान मिला।
हे नेमि प्रभो! अब नियम बिना,नहिं जाने पावे एक कला।।
मैं निज से पर को पृथक् करूँ, निज समरस में ही रम जाऊँ।
मैं मोह ध्वांत का नाश करूँ, निज ज्ञान सूर्य को प्रकटाऊँ।।१।।
शौरीपुरि में प्रभु जन्में तक, रत्नों की वर्षा खूब हुई।
धन धन्य समुद्रविजय राजा, कृतकृत्य शिवा देवी भी थी।।
कार्तिक सुदि छठ के गर्भागम, श्रावण सुदि छट्ठ जन्म लीना।
यौवन में राजमती के संग, परिजन ने ब्याह रचा दीना।।२।।
पशु बंधन को देखा प्रभु ने, तत्क्षण सब बंधन तोड़ दिया।
राजीमति मोह परिग्रह तज, तपश्री से नाता जोड़ लिया।।
श्रावण सुदि छट्ठ सुखद प्यारी, सिरसा वन में जा ध्यान धरा।
आश्विन सुदि एकम आते ही, वैâवल्यश्री ने आन वरा।।३।।
तब राजमती भी दीक्षा ले, आर्या में गणिनी मान्य हुई।
प्रभु ने शिव का पथ दर्शाया, धर्मामृत वर्षा खूब हुई।।
तनु चालिस हाथ प्रमाण कहा, प्रभु आयू एक हजार वर्ष।
वैडूर्य१ मणी सम कांति अहो, प्रभु शंख चिन्ह से हैं चिन्हित।।४।।
प्रभु समवसरण में कमलासन पर, चतुरंगुल से अधर रहें।
चउदिश में प्रभु का मुख दीखे, अतएव चतुर्मुख ब्रह्मा हैं।।
प्रभु के विहार में चरण कमल तल, स्वर्ण कमल खिलते जाते।
बहु कोसों तक दुर्भिक्ष टले, षट् ऋतुज फूल फल खिल जाते।।५।।
तरुवर अशोक था शोक रहित, सिंहासन रत्न खचित सुन्दर।
छत्रत्रय मुक्ताफल लंबित, भामंडल भवदर्शी मनहर।।
सुरदुंदुभि बाजे बाज रहे, ढुरते हैं चौंसठ श्वेत चमर।
सुर पुष्पवृष्टि नभ से बरसे, दिव्यध्वनि पैâले योजन भर।।६।।
आषाढ़ सुदी सप्तमि तिथि थी, प्रभु ऊर्जयंत से सिद्ध हुए।
श्रीकृष्ण तथा बलदेव आदि, तुम पूजें ध्यावें भक्ति लिए।।
हे भगवन्! तुम बाह्याभ्यंतर, अनुपम लक्ष्मी के स्वामी हो।
दो मुझे अनंतचतुष्टय श्री, ‘‘सज्ज्ञानमती’’ सिद्धिप्रिय जो।।७।।
श्री पार्श्वजिन स्तुति
(केतु ग्रहारिष्ट निवारक)
भवसंकट हर्ता पार्श्वनाथ! विघ्नों के संहारक तुम हो।
हे महामना हे क्षमाशील! मुझमें भी पूर्ण क्षमा भर दो।।
यद्यपि मैंने शिव पथ पाया, पर यह विघ्नों से भरा हुआ।
इन विघ्नों को अब दूर करो, सब सिद्धि लहूँ निर्विघ्नतया।।१।।
वाराणसि नगरी धन्य हुई, धन धन्य हुए सब नर नारी।
हे अश्वसेननंदन१! तुम से, वामा माँ भी मंगलकारी।।
वैशाख वदी वह दूज भली, माता उर आप पधारे थे।
श्री आदि देवियों ने आकर, माता से प्रश्न विचारे थे।।२।।
शुभ पौष वदी ग्यारस तिथि थी, जब आए प्रभु साक्षात् यहाँ।
शैशव में सुर संग खेल रहे, अहियुग२ को दीना मंत्र महा।।
तब नागयुगल धरणेन्द्र तथा, पद्मावति होकर भक्त बने।
शुभ पौष वदी ग्यारस के दिन, प्रभु दीक्षा ले मुनि श्रेष्ठ बने।।३।।
तत्क्षण मनपर्ययज्ञानी हो, सब ऋद्धी से परिपूर्ण हुए।
इक समय सघन वन के भीतर, प्रभु निश्चल ध्यानारूढ़ हुए।।
कमठासुर ने उपसर्ग किया, अग्नी ज्वाला को उगल-उगल।
पत्थर फेंके मूसलधारा, वर्षायी आंधी उछल-उछल।।४।।
निष्कारण ही कमठासुर ने, दश भव तक बैर निकाला था।
प्रभु को दुख दे देकर उसने, खुद को दुर्गति में डाला था।।
प्रभु महासहिष्णू क्षमासिंधु, भव-भव से सहते आये हैं।
तन से ममता को छोड़ दिया, नहिं किंचित् भी घबराये हैं।।५।।
उस ही क्षण धरणीपति पद्मावति, आ करके बहु भक्ति किया।
प्रभु को मस्तक पर धारणकर, ऊपर से फण का छत्र किया।।
प्रभु क्षपक श्रेणि में चढ़ करके, मोहनी कर्म का नाश किया।
फिर शेष अघाती भी विघात, वैâवल्यश्री को वरण किया।।६।।
पृथ्वी से बीस हजार हाथ, ऊपर पहुँचे अर्हन्त बने।
इन्द्रों के आसन कांप उठे, प्रभु समवसरण गगनांगण में।।
वदि चैत्र चतुर्थी तिथि१ उत्तम, जब प्रभु में ज्ञान प्रकाश हुआ।
उस स्थल का उस ही क्षण से, ‘अहिच्छत्र’ तीर्थ यह नाम हुआ।।७।।
नव हाथ देह सौ वर्ष आयु, मरकतमणि सम आभाधारी।
अहि२ चिन्ह सहित वे पार्श्वप्रभो! मुझको हों नित मंगलकारी।।
श्रावण सुदि सप्तमि तिथि के दिन, सिद्धीकांता से प्रीति लगी।
मैं नमूँ तुम्हें पल-पल क्षण-क्षण, मेरी हो केवल ‘‘ज्ञानमती’’।।८।।