वर्ष में तीन बार आष्टान्हिक पर्व आता है। उन्हीं पर्वों में एक दिन पहले से यह व्रत किया जाता है जैसे कि आषाढ़ शुक्ला सप्तमी से आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा तक। कार्तिक शु. सप्तमी से पूर्णिमा तक एवं फाल्गुन शु.७ से पूर्णिमा तक ऐसे वर्ष में तीन बार यह व्रत करना चाहिए। अधिकतम यह व्रत नौ वर्ष तक (२७ बार), मध्यम में ७ वर्ष तक (१८ बार) एवं कम से कम तीन वर्ष ३²३·९ बार किया जाता है। इस व्रत में आगे कहे गए मंत्रों की क्रम से जाप्य करना चाहिए एवं ‘नवग्रह पूजा विधान’ से एक-एक पूजाएँ करना चाहिए। व्रत पूर्ण होने पर यथाशक्ति उद्यापन करना चाहिए। व्रत की जाप्य—ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्ट निवारक श्री नवतीर्थंकरेभ्यो नम:।
प्रत्येक व्रत के पृथक्-पृथक् मंत्र— १.ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टशांतिकराय श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नम:। २.ॐ ह्रीं सोमग्रहारिष्टशांतिकराय श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय नम:। ३.ॐ ह्रीं मंगलग्रहारिष्टशांतिकराय श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय नम:। ४.ॐ ह्रीं बुधग्रहारिष्टशांतिकराय श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय नम:। ५.ॐ ह्रीं गुरुग्रहारिष्टशांतिकराय श्री महावीर जिनेन्द्राय नम:। ६.ॐ ह्रीं शुक्रग्रहारिष्टशांतिकराय श्री पुष्पदंतनाथ जिनेन्द्राय नम:। ७.ॐ ह्रीं शनिग्रहारिष्टशांतिकराय श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय नम:। ८.ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टशांतिकराय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम:। ९.ॐ ह्रीं केतुग्रहारिष्टशांतिकराय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नम:।
इस प्रकार जो इन नवग्रहों की शांति के लिए जाप्य, पूजा एवं व्रत आदि करते हैं वे निश्चित ही अपने सर्व ग्रहों को अनुकूल, सिाqद्धकारक बनाकर संसार के सर्व सुखों को प्राप्त कर परम्परा से मोक्ष को भी प्राप्त करेंगे।