(स्थापना)
-कुसुमलता छंद-
काल अनादि से कर्मों के, ग्रह ने मुझे सताया है।
उनका निग्रह करने का अब, भाव हृदय में आया है।।
इसीलिए ग्रह शान्ति हेतू, पूजा पाठ रचाया है।
तीर्थंकर प्रभु के अर्चन को, मैंने थाल सजाया है।।१।।
-दोहा-
आह्वानन स्थापना, सन्निधिकरण महान।
अष्टद्रव्य से पूर्व में, यह विधि करें प्रधान।।२।।
ॐ ह्रीं नवग्रहारिष्टनिवारक श्रीनवतीर्थंकर समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं नवग्रहारिष्टनिवारक श्रीनवतीर्थंकर समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं नवग्रहारिष्टनिवारक श्रीनवतीर्थंकर समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
अष्टक-शंभु छंद
मुनिमनसम निर्मल जल लेकर, प्रभु पद में धारा करना है।
जर जन्म मरण को निर्बल कर, अब आत्मचिन्तवन करना है।।
नव तीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहार सिद्धि के साथ-साथ, परमार्थ सिद्धि भी वरना है।।१।।
ॐ ह्रीं नवग्रहारिष्टनिवारक श्रीनवतीर्थंकरेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर मिश्रकर केशर की, सुरभि को और बढ़ाना है।
श्रद्धा से उसको जिनवर के, चरणों में आज चढ़ाना है।।
नव तीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहार सिद्धि के साथ-साथ, परमार्थ सिद्धि भी वरना है।।२।।
ॐ ह्रीं नवग्रहारिष्टनिवारक श्री नवतीर्थंकरेभ्यो चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती सम श्वेत तंदुलों को, गजमोती समझ चढ़ाना है।
अपने आतम में छिपे गुणों के, मोती अब प्रगटाना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहार सिद्धि के साथ-साथ, परमार्थ सिद्धि भी वरना है।।३।।
ॐ ह्रीं नवग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरकल्पवृक्ष के पुष्प समझ, यह पुष्प अंजली भरना है।
जिनवर के सम्मुख श्रद्धा से, अब इन्हें समर्पित करना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहारसिद्धि के साथ-साथ, परमार्थसिद्धि भी वरना है।।४।।
ॐ ह्रीं नवग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतमय इन पकवानों में, दिव्यामृत अनुभव करना है।
जिनवर चरणों में भेंट चढ़ा, क्षुधरोग निवारण करना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहारसिद्धि के साथ-साथ, परमार्थसिद्धि भी वरना है।।५।।
ॐ ह्रीं नवग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत के लघु दीपक में रत्नों का, दीप प्रकल्पित करना है।
प्रभु की आरति करके अन्तर का, दीप प्रज्वलित करना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहारसिद्धि के साथ-साथ, परमार्थसिद्धि भी वरना है।।६।।
ॐ ह्रीं नवग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन व अगरु की धूप में मलयागिरि का अनुभव करना है।
प्रभु सम्मुख अग्नि में खेकर के, नष्ट कर्म सब करना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहारसिद्धि के साथ-साथ, परमार्थसिद्धि भी वरना है।।७।।
ॐ ह्रीं नवग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर सेव बादाम आदि, फल से प्रभु अर्चन करना है।
इनमें ही कल्पतरु के सच्चे, फल का अनुभव करना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहारसिद्धि के साथ-साथ, परमार्थसिद्धि भी वरना है।।८।।
ॐ ह्रीं नवग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो फलं निर्वपामीति स्वाहा।
ले अष्ट द्रव्य का थाल नाथ को, अर्घ्य समर्पित करना है।
‘‘चन्दनामती’’ नवग्रह की शांति के, लिए अर्चना करना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहारसिद्धि के साथ-साथ, परमार्थसिद्धि भी वरना है।।९।।
ॐ ह्रीं नवग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
नवग्रहों की तपन से, है संतप्त शरीर।
शांतीधारा मैं करूँ, बनूँ शीघ्र अशरीर।।
शांतये शांतिधारा।
आत्मसुरभि के हेतु ले, पुष्पांजलि का थाल।
पुष्प बिखेरूं प्रभु निकट, ग्रह हों मेरे शांत।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
नवग्रहों की शांति हेतु अलग-अलग ९ अर्घ्य
सूर्यग्रह अरिष्ट निवारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र का अर्घ्य
पद्मप्रभ तीर्थंकर की, पूजा सब पाप नशाएगी।
रविग्रह से होने वाली ग्रह-बाधा तुरन्त भग जाएगी।।
जल चन्दन अक्षत पुष्प और, नैवेद्य दीप वर धूप लिया।
फल आदि आठ द्रव्यों से युत, मैंने शुभ अर्घ्य का थाल लिया।।
प्रभु चरणों में अर्पण करते ही, आश मेरी फल जाएगी।
रविग्रह से होने वाली ग्रह-बाधा तुरन्त भग जाएगी।।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारकश्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्रग्रह अरिष्ट निवारक श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र का अर्घ्य
-शंभुछंद-
हे प्रभु! कुछ कर्म असातावश, ग्रह सोम मुझे दुख देता है।
तन में व्याधी को पैदाकर, मुझको अशान्त कर देता है।।
इसलिए तुम्हारी भक्ती में, आठों ही द्रव्य समर्पित हैं।
सर्वदा सोमग्रह शांति हेतु, भावों का अर्घ्य समर्पित है।।
ॐ ह्रीं सोमग्रहारिष्टनिवारक श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंगलग्रह अरिष्ट निवारक श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र का अर्घ्य
आवो हम सब करें अर्चना, वासुपूज्य भगवान की।।
मंगलग्रह की बाधानाशक, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।टेक.।।
काल अनादी से कर्मों का, ग्रह आत्मा के संग लगा।
आत्मनिधी को भी न ‘‘चन्दनामती’’, जीव कर प्राप्त सका।।
इसीलिए अब पूजन कर लूँ, मिले राह निर्वाण काr।
मंगलग्रह की बाधा नाशक, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्, वन्दे जिनवरम् ।।
ॐ ह्री मंगलग्रहारिष्टनिवारक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बुधग्रह अरिष्ट निवारक श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्र का अर्घ्य
हे मल्लिनाथ! तुम चरणों में, ग्रहशांति हेतु हम आए हैं।
भगवान्……भगवान् तुम्हारे सम्मुख हम, यह अर्घ्य चढ़ाने आए हैं।।टेक.।।
यह बात सुनी हमने, तुम बुधग्रह स्वामी हो।
तुम उसके निग्रह में, सक्षम प्रभु ज्ञानी हो।।
हम आज तुम्हारी पूजन से, सब संकट हरने आए हैं।
भगवान्…….भगवान् तुम्हारे सम्मुख हम, यह अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।
ॐ ह्रीं बुधग्रहारिष्टनिवारक श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुग्रहारिष्ट निवारक श्री महावीर जिनेन्द्र का अर्घ्य
महावीर प्रभू के चरणों में, श्रीफलयुत अर्घ्य चढ़ाएँ हम।
श्रद्धा से प्रभु पद कमलों में, भावों के कुसुम चढ़ाएँ हम।।
यदि जन्मकुंडली में गुरुग्रह, कुछ निम्नश्रेणी में रहता है।
गुण भी अवगुण की तरह बनें, अपमान भी सहना पड़ता है।।
‘‘चन्दनामती’’ ग्रह कष्ट न दें, बस यही भावना भाएँ हम।
श्रद्धा से प्रभु पदकमलों में, भावों के कुसुम चढ़ाएँ हम।।
ॐ ह्रीं गुरुग्रहारिष्टनिवारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शुक्रग्रहारिष्ट निवारक श्री पुष्पदन्तनाथ जिनेन्द्र का अर्घ्य
नाथ की पूजन करते हैं-२,
अष्टद्रव्य की थाली प्रभू के, चरणों में धरते हैं।।नाथ की……।।टेक.।।
जब अशुभ कर्म के कारण, तन में व्याधी आती है।
धनहानि कलह आदिक से, मन में आंधी आती है।।
नाथ की पूजन करते हैं।।१।।
प्रभु पुष्पदंत तीर्थंकर, ग्रहशुक्र के स्वामी माने।
वे इस ग्रह की शान्ती को, करने में प्रमुख हैं माने।।
नाथ की पूजन करते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं शुक्रग्रहारिष्टनिवारक श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शनिग्रहारिष्ट निवारक श्रीमुनिसुव्रत जिनेन्द्र का अर्घ्य
भगवान् तुम्हारी भक्ती से, भव के बन्धन खुल जाते हैं।
मुनिसुव्रत प्रभु की भक्ती से, शनि के क्रन्दन धुल जाते हैं।।
इस ग्रह के कारण हे स्वामी!, तन धन की हानि सही मैंने।
सहने में हो असमर्थ नाथ, अब तुमसे व्यथा कही मैंने।।
यह सुना बहुत तुम चिन्तन से, अवरुद्ध मार्ग खुल जाते हैं।
मुनिसुव्रत प्रभु की भक्ती से, शनि के क्रन्दन धुल जाते हैं।।१।।
नवग्रह में सबसे क्रूर शनी, इसको कर शान्त सुखी कीजे।
निजनाममंत्र की एक मणी, स्वामी अब मुझको दे दीजे।।
जिनवर भक्ती की युक्ती से, शिव के पथ भी खुल जाते हैं।
मुनिसुव्रत प्रभु की भक्ती से, शनि के क्रन्दन धुल जाते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
राहुग्रहारिष्ट निवारक श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्र का अर्घ्य
हे नेमिनाथ भगवान् मेरे, तन में बढ़ गई असाता है।
होती है अरुचि धर्म में भी, शूगर का रोग सताता है।।
तुम भक्ति में कुछ रुचि बनी, इसलिए विनय यह है मेरी।
राहु ग्रह की बाधा हरकर, सर्वथा व्याधि हर लो मेरी।।१।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
केतुग्रहारिष्ट निवारक श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र का अर्घ्य
कर लो पारस प्रभु का ध्यान, तुम पारस बन जाओगे।
तुम पारस बन जाओगे, मुक्ति श्री पा जाओगे।। कर लो.।।टेक.।।
ग्रह केतु अरिष्ट की शान्ति, होवे तब मिटे अशान्ति।
भय भागें सब इक क्षण में, नहिं चोट लगे मेरे तन में।।
‘‘चन्दना’’ करो गुणगान, तुम पारस बन जाओगे।। कर लो.।।१।।
ॐ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं नवग्रहारिष्ट निवारक श्रीनवतीर्थंकरेभ्यो नम:।
(९, २७ या १०८ बार पढ़ें)
हे नाथ! आपके चरणों में, जयमाल गूँथकर लाए हम।
ग्रह शांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ्य का लाए हम।।टेक.।।
कभी तन में व्याधि हुई मेरे, सिर आँख कान में दर्द हुआ।
कभी उदर में शूल उठी मेरे, कभी हाथ पैर में दर्द हुआ।।
उस बेचैनी में भी प्रभुवर, तुमको नहिं कभी भुलाएँ हम।
ग्रह शांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ्य का लाए हम।।१।।
व्यापार में हानि हुई कभी, कभी चोरों ने धन लूट लिया।
कभी छापा पड़ने के कारण, मन में संताप व शोक हुआ।।
इन हानि-लाभ के क्षण में भी, जिनधर्म में ध्यान लगाएँ हम।
ग्रह शांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ्य का लाए हम।।२।।
कुल पाँच करोड़ व अड़सठ लाख, निन्यानवे सहसरु पाँच शतक।
इक्यासी रोगों की संख्या, हो सकती तन में सर्वाधिक।।
नरकों में प्रगट होते ये सब, उस नर्क में कभी न जाएँ हम।
ग्रह शांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ्य का लाए हम।।३।।
नभ में रहने वाले नवग्रह, मानव के संग जब लग जाते।
तब कर्म असाता के कारण, वे मानव नाना दुख पाते।।
तुम पूजन फल से उन सबको, शुभरूप सहज कर पाएँ हम।
ग्रहशांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ्य का लाए हम।।४।।
रवि, शशि, मंगल, बुध, गुरु एवं, वे शुक्र, शनि कहलाते हैं।
राहु, केतु मिल नवग्रह ये, ज्योतिष का चक्र चलाते हैं।।
इनमें से अशुभ ग्रहों से प्रभु!, नहिं कभी सताए जाएँ हम।
ग्रहशांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ्य का लाए हम।।५।।
‘‘चन्दनामती’’ बस इसीलिए, यह पूजा पाठ रचाया है।
पूजा के माध्यम से प्रभुवर, भावों को शुद्ध बनाया है।।
हो चरम लक्ष्य की सिद्धि नाथ! पूजन फल ऐसा पाएँ हम।
ग्रहशांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ्य का लाए हम।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलिः।
-दोहा-
नवग्रह पूजन से सभी, ग्रह हो जाते शांत।
करो अर्चना से सभी, भव की व्यथा समाप्त।।
इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलि: ।
आरती नवग्रह स्वामी की-२
ग्रह शांति हेतू तीर्थंकरों की, सब मिल करो आरतिया।।टेक.।।
आत्मा के संग अनादी, से कर्मबंध माना है।
उस कर्मबंध को तजकर, परमातम पद पाना है।
आरती नवग्रह स्वामी की।।१।।
निज दोष शांत कर जिनवर, तीर्थंकर बन जाते हैं।
तब ही पर ग्रहनाशन में, वे सक्षम कहलाते हैं।
आरती नवग्रह स्वामी की।।२।।
जो नवग्रह शांती पूजन, को भक्ति सहित करते हैं।
उनके आर्थिक-शारीरिक, सब रोग स्वयं टरते हैं।
आरती नवग्रह स्वामी की।।३।।
कंचन का दीप जलाकर, हम आरति करने आए।
‘‘चन्दनामती’’ मुझ मन में, कुछ ज्ञानज्योति जल जाए।।
आरती नवग्रह स्वामी की।।४।।
(इस ‘नवग्रहशांति स्तोत्र’ में चौबीसों तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा नवग्रहों की शांति का वर्णन किया गया है। यह संस्कृत के नवग्रह शांति स्तोत्र का पद्यानुवाद है।)
त्रैलोक्यगुरू तीर्थंकर प्रभु को, श्रद्धायुत मैं नमन करूँ।
सत्गुरु के द्वारा प्रतिभासित, जिनवर वाणी को श्रवण करूँ।।
भवदुःख से दुःखी प्राणियों को, सुख प्राप्त कराने हेतु कहूँ।
कर्मोदय वश संग लगे हुए, ग्रह शांति हेतु जिनवचन कहूँ।।१।।
नभ में सूरज चन्दा ग्रह के, मंदिर में जो जिनबिम्ब अधर।
निज तुष्टि हेतु उनकी पूजा, मैं करूँ पूर्ण विधि से रुचिधर।।
चन्दन लेपन पुष्पाञ्जलि कर, सुन्दर नैवेद्य बना करके।
अर्चना करूँ श्री जिनवर की, मलयागिरि धूप जलाकर के।।२।।
ग्रह सूर्य अरिष्ट निवारक श्री, पद्मप्रभु स्वामी को वन्दूँ।
श्री चन्द्र भौम ग्रह शांति हेतु, चन्द्रप्रभु वासुपूज्य वन्दँॅू।।
बुध ग्रह से होने वाले कष्ट, निवारक विमल अनंत जिनम्।
श्री धर्म शान्ति कुन्थू अर नमि, सन्मति प्रभु को भी करूँ नमन।।३।।
प्रभु ऋषभ अजित जिनवर सुपार्श्व, अभिनन्दन शीतल सुमतिनाथ।
गुरुग्रह की शांति करें संभव, श्रेयांस जिनेश्वर अभी आठ।।
ग्रह शुक्रअरिष्टनिवारक भगवन्, पुष्पदंत जाने जाते।
शनि ग्रह की शांती में हेतू, मुनिसुव्रत जिन माने जाते।।४।।
श्री नेमिनाथ तीर्थंकर प्रभु, राहू ग्रह की शांती करते।
श्री मल्लि पार्श्व जिनवर दोनों, केतू ग्रह की बाधा हरते।।
ये वर्तमानकालिक चौबिस, तीर्थंकर सब सुख देते हैं।
आधी व्याधी का क्षय करके, ग्रह की शांती कर देते हैं।।५।।
आकाशगमन वाले ये ग्रह, यदि पीड़ित किसी को करते हैं।
प्राणी की जन्मलग्न एवं, राशी के संग ग्रह रहते हैं।।
तब बुद्धिमान जन तत्सम्बन्धित, ग्रह स्वामी को भजते हैं।
जिस ग्रह के नाशक जो जिनवर, उन नाम मंत्र वे जपते हैं।।६।।
इस युग के पंचम श्रुतकेवलि, श्री भद्रबाहु मुनिराज हुए।
वे गुरु इस नवग्रह शांती की, विधि बतलाने में प्रमुख हुए।।
जो प्रातः उठकर हो पवित्र, तन मन से यह स्तुति पढ़ते।
वे पद-पद पर आने वाली, आपत्ति हरें शांती लभते।।७।।
-दोहा-
नवग्रह शांती के लिए, नमूँ जिनेश्वर पाद।
तभी ‘‘चन्दना’’ क्षेम सुख, का मिलता साम्राज्य।।८।।
नवग्रहशांति स्तोत्र
रचयित्री-आर्यिका चन्दनामती
-शंभु छन्द-
सिद्धों का वंदन इस जग में, आतम सिद्धि का कारण है।
इनकी भक्ति से भक्त करें, दुर्गति का सहज निवारण है।।
सब तीर्थंकर भगवंत एक दिन, सिद्धि प्रिया को पाते हैं।
इसलिए सभी ग्रह की शांति में, वे निमित्त बन जाते हैं।।१।।
नभ में जो सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरू व शुक्र, शनि ग्रह माने।
राहू केतू मिलकर नवग्रह, ज्योतिषी देव के ग्रह माने।।
मानव के जन्म समय से ये, सब जन्मकुण्डली में रहते।
शुभ-अशुभ आदि फल देने में, राशी अनुसार निमित बनते।।२।।
जब ग्रह अनिष्टकारी होवे, तब प्रभु भक्ती रक्षा करती।
जिनसागर सूरि ने बतलाया, नवग्रह में नव प्रभु की भक्ती।।
श्रीपद्मप्रभ भगवान सूर्य ग्रह, के अरिष्ट को शांत करें।
ग्रह सोम का जब होवे प्रकोप, तब भक्त चन्द्रप्रभु याद करें।।३।।
निज मंगल ग्रह की शांति हेतु, प्रभु वासुपूज्य को नमन करो।
बुधग्रह जब देवे कष्ट तुरत, प्रभु मल्लिनाथ अर्चन कर लो।।
महावीर प्रभू गुरु ग्रह से होने, वाले कष्ट मिटाते हैं।
निज गुरुबल तेजस्वी करने हित, वर्धमान को ध्याते हैं।।४।।
श्री पुष्पदंत भगवान शुक्र ग्रह, के शांतिकारक माने।
शनिग्रह अति उग्र हुआ तो भी, मुनिसुव्रत प्रभु उसको हानें।।
ग्रह राहु अगर होवे अरिष्ट, तो नेमिनाथ का मंत्र जपो।
प्रभु पार्श्वनाथ के चरणों में, ग्रह केतु शांति हेतू प्रणमो।।५।।
ये नव तीर्थंकर नवग्रह की, शांति में हेतू माने हैं।
है दुख का मूल असाता ही, पर बाह्य निमित ग्रह माने हैं।।
जिन भक्ति असाता कर्मों को, साता में परिवर्तित करती।
ग्रह से उत्पन्न सभी बाधा, तब ही तो शांत हुआ करती।।६।।
पूजन-अर्चन के साथ-साथ, ग्रहशांति मंत्र का जाप करो।
जितनी संख्या जिस मंत्र की है, उसको कर मन संताप हरो।।
अपने प्रभु के अतिरिक्त कहीं, मिथ्यामत में मत भरमाना।
दुख संकट आने पर भी कभी, जिनधर्म को भूल नहीं जाना।।७।।
नवग्रहशांति की पूजन कर, नवग्रह का कभी विधान करो।
तीर्थंकर प्रभु के गुण गाकर, निज आतम गुण भंडार भरो।।
निज जन्मकुण्डली में स्थित, ग्रह को भी उच्चस्थान करो।
फिर सूर्य-चन्द्र सम शुभ प्रकाश से, जीवन का उत्थान करो।।८।।
बीसवीं सदी की प्रथम बालसति, गणिनी माता ज्ञानमती।
उनकी शिष्या ‘‘आर्यिका चन्दनामति’’ ने यह स्तुती रची।।
पच्चिस सौ तीस वीर संवत्, तिथि फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी।
निजशांति हेतु ग्रहशांति हेतु, प्रभु पद में अर्पित काव्यकृती।।९।।