वर्ष में तीन बार आष्टान्हिक पर्व आता है। उन्हीं पर्वों में एक दिन पहले से यह व्रत किया जाता है। जैसे कि आषाढ़ शुक्ला सप्तमी से आषाढ़ शु. पूर्णिमा तक। कार्तिक शु. सप्तमी से पूर्णिमा तक एवं फाल्गुन शु. ७ से पूर्णिमा तक, ऐसे वर्ष में तीन बार यह व्रत करना चाहिए। अधिकतम यह व्रत नव वर्ष तक २७ बार अथवा कम से कम तीन वर्ष ३²३·९ बार यह व्रत किया जाता है। इस व्रत में पूर्व में कहे गये मंत्रों की क्रम से जाप्य करना चाहिए एवं ‘नवग्रह शांति पूजा विधान’ से एक-एक पूजाएं करना चाहिए। व्रत पूर्ण होने पर यथाशक्ति उद्यापन करना चाहिए।इस प्रकार जो इन नवग्रहों की शांति के लिए जाप्य, पूजा एवं व्रत आदि करते हैं वे निश्चित ही अपने सर्व ग्रहों को अनुकूल, सिद्धिकारक बनाकर संसार के सर्वसुखों को प्राप्त कर परंपरा से मोक्ष को भी प्राप्त करेंगे।