मोहाशक्त प्राणी संसार से भयाकुलित रहता है, अनेक प्रकार की आकुलताओं से घिरा रहता है, परिजन-पुरजन, इष्ट संयोग आदि में सुखानुभूति करता है। असाताकर्म के मन्दोदय में, साता वेदनीय के उदय में अपने आप को पूर्णतः सुखी मानकर पूजापाठ आदि को, भगवान को, गुरु को भूल जाता है किन्तु असाता के उदय में आने पर भाग-दौड़ करता है भगवान की शरण खोजता है गुरु की शरण में सुख को खोजता है। निश्चयनय की अपेक्षा एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-हर्ता नहीं है, कोई किसी को सुख-दुख दे नहीं सकता है, सब कुछ पूर्वोर्पािजत कर्माधीन है। किन्तु श्री भद्रबाहु मुनिराज ने भद्रबाहु संहिता में सटीक वर्णन किया है कि कर्म के उदय में ग्रह-नक्षत्र भी कष्टकारक योग बना देते हैं। ग्रह, नक्षत्र प्रतिसमय गतिमान हैं, उन्हीं की चाल से हमारे जन्मकुण्डली के ग्रह आदि प्रभावित होते हैं और सुख-दुःख देने में निमित्त होते हैं। आज मानव टेन्सनों को लेकर जन्म लेता है और टेन्सन लेकर संसार से दूसरी पर्याय के लिए विदा लेता है। ‘‘टेन्सन’’ आधुनिक सांसारिक रोग है। इन टेन्सनों से बचने के लिए, मुक्ति पाने के लिए, सुख की चाह के लिए कुगुरु-कुदेव-कुधर्म की ओर आर्किषत होता है, झूठे चमत्कारों से चमत्कृत होकर मिथ्यात्व को ग्रहण कर अनंत संसार का बंध कर लेता हे, किन्तु सच्चे सुख को प्राप्त करने का सम्यव्â उपाय नहीं करता। पुण्योत्पादक क्रियायें सांसारिक सुखों को प्रदान करने वाली हैं ही, परम्परा से मोक्ष-सुख प्रदान करने में भी निमित्तभूत हैं। मोक्ष के इच्छुक अपने आप को सम्यक्त्वोपासक कहने वाले, कहते हुए पाए जाते हैं कि ‘नवग्रह शांति विधान’ मित्थात्व को पोषण करना है। उनके लिए अज्ञानता कहा जाय अथवा दुराग्रह जहाँ चौबीस तीर्थंकर भगवंतों की भक्ति उपासना की जा रही है वह मिथ्यात्व हो ही नहीं सकता। इस युग के अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी मुनिराज ने नवग्रह शांति स्तोत्र के माध्यम से चर्तुिवंशति भगवंतों की स्तुति करने की प्रेरणा दी है। संसारी प्राणी मिथ्यात्व के गहन अंधकार में भट नहीं
जगद्गुरुं नमस्कृत्य श्रुत्वा सद्गुरुभाषितम्।
ग्रहशांतिं प्रवक्ष्यामि लोकानां सुखहेतवे।।
लिखकर सुख का मार्ग प्रशस्त किया। इसी सन्दर्भ में जिनसागर सूरी द्वारा रचित नवग्रह स्तोत्र भी है। प्राचीन कवि ‘‘मनसुख’’ द्वारा रचित भी नवग्रह पूजन प्रचलन में है। यद्यपि जैनागम में कर्म व्यवस्था को सर्वोपरि मानकर कर्मनाश करने का उपाय तीर्थंकर भगवंतों ने बताया है फिर भी व्यवहारिक जीवन में ग्रह, नक्षत्र आदि का भी महत्त्वपूर्ण स्थान माना है। सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु और केतु ये नवग्रह ज्योतिष के चक्र को संचालित करते हैं और हमारे दैनिक जीवन के प्रभावित करते हैं इन्हीं गृह-गोचरों की स्थिति हमारे सुख-दुख के निमित्त बनते हैं, आरोग्य, धन, यश, उच्चपद, धनादि की प्राप्ति कराते हैं किन्तु जब ये ग्रह मित्रता के अभाव में विपरीत स्थान पर होते हैं तो धनहानि, अपयश-कलह, शारीरिक और मानसिक कष्टकारक बन जाते हैं और इसी कारण संसारी मानव इनकी शांति के उपाय करते हैं।
जैसे— (१) रविग्रह की शांति के लिए श्री पद्मप्रभ भगवान की पूजा। (७००० जाप्य)
(२) चन्द्रग्रह की शांति के लिए श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र पूजन (११००० जाप्य)
(३) मंगलग्रह की शांति के लिए श्री वासुपुज्य भगवान की पूजा (१०००० जाप्य)
(४) बुधग्रह की शांति के लिए श्री मल्लिनाथ भगवान पूजा (८००० जाप्य)
(५) गुरूग्रह शांति हेतु श्री महावीर भगवान की पूजा (११००० जाप्य)
(६) शुत्रग्रह की शांति हेतु श्री पुष्पदंत भगवान की पूजा (११००० जाप्य)
(७) शनिग्रह शांति हेतु श्री मुनिसुव्रतनाथ की पूजा (२३००० जाप्य)
(८) राहुग्रह शांति हेतु श्री नेमीनाथ जी की पूजा (१८००० जाप्य)
(९) केतुग्रहारिष्ट निवारण के लिए श्री पाश्र्वनाथ की पूजा (७००० जाप्य) का विधान है।
भगवान की पूजन के साथ-साथ उपरोक्त ग्रहों की शांति हेतु जाप्य भी करने का विधान है। कुछ ग्रंथों में इन ग्रहों के निवारणार्थ रत्न धारण करने का भी विधान है
जैसे— (१) सूर्यग्रह शांति हेतु-माणक-सोना या तांबा, रविवार को प्रात:अनामिका उंगली में धारण करना।
(२) चन्द्रग्रह शांति के लिए-मोती-चाँदी की अंगूठी में सोमवार संध्याकाल कनिष्ठा उंगली में धारण करना।
(३) मंगलग्रह शांति हेतु-मूंगा-सोना या तांबा धातु में मंगलवार संध्याकाल अनामिका उंगली में धारण करना।
(४) बुधग्रह शांति हेतु—पन्ना रत्न-सोने की अंगूठी में बुधवार को मध्याह्न कनिष्ठा उंगली में धारण करना।
(५) गुरुग्रह शांति के लिए—पुखराज-सोना धातु में गुरुवार सुबह तर्जनी उंगली में धारण करना।
(६) शुक्रग्रह शांति हेतु—हीरा-चाँदी या सोना धातु में शुक्रवार सूर्योदय के समय अनामिका उंगली में धारण करना।
(७) शनिग्रह शांति के लिए—नीलम-पंचधातु की अंगूठी में शनिवार दोपहर मध्यमा उंगली में धारण करना।
(८) राहुग्रह शांति हेतु—गोमेदरत्न-पंचधातु की अंगूठी में शनिवार दोपहर मध्यमा उंगली में धारण करना।
(९) केतुग्रह शांति के लिए—लहसुनिया-पंचधातु की अंगूठी में शनिवार दोपहर मध्यमा उंगली में धारण करना।
प्रत्येक ग्रह की पूजा के पश्चात् उस मंत्र की जाप करना इष्ट होता है। उपरोक्त सभी रत्नों का वजन सवाया या ड्योढ़ा होना चाहिए जैसे ३-१/४ रत्ती या ३-१/२ रत्ती आदि। नवग्रह शांति विधान पूजन वर्तमान में कई रचनाकारों के प्रचलित हैं किन्तु वर्तमान में सर्वाधिक प्राचीन दीक्षित एवं लगभग ३०० ग्रन्थों की लेखिका शारदा स्वरूपा परम पूज्य गणिनीप्रमुख र्आियका शिरोमणी श्री ज्ञानमती माताजी की मर्यादा शिष्योत्तमा-प्रज्ञाश्रमणी र्आियकारत्न श्री चन्दनामती माताजी की रचना ‘‘नवग्रह शांति विधान’’ एक ऐसी रचना है जिसमें शब्द संयोजना, माधुर्य, ओज आदि गुणों का समायोजन, प्राचीन एवं आधुनिक लयों का समन्वय, भावपूर्ण आध्यात्मिक साधना से ओत-प्रोत एवं अर्थ की गहनता का समावेश है। विधान की सुमधुर पंक्तियों को सुनकर अनायास लोगों के कदम रुक जाते हैं। पूज्य माताजी ने तीर्थंकर भगवंतों की भक्ति से अर्चना करते हुये अनादिकालीन कर्मों से ग्रसित प्राणी को कर्म निग्रह की भावना से पूजन के माध्यम से पुण्योपार्जन करते हुये कर्मशृंखला के बंधन को शिथिल करने का मार्ग प्रशस्त किया है।
काल अनादि से कर्मों के, ग्रह ने मुझे सताया है।
उनका निग्रह करने का अब, भाव हृदय में आया है।।
इसीलिए ग्रह शांति हेतु, पूजापाठ रचाया है।
तीर्थंकर प्रभु के अर्चन को, मैंने थाल सजाया है।।
पूज्य माताजी ने भगवंतों की पूजन की उपयोगिता का दिग्दर्शन कराते हुये मानव जन्म, जैन कुल आदि की दुर्लभता बताते हुए भगवत्-भक्ति में लीन होने की प्रेरणा दी। यही भक्ति सांसारिक सुखों को प्रदान कर देती है। पुष्प की भावना का प्रदर्शन बडा ही भाव-पूर्ण शब्दों में व्यक्त किया है—
हो गया जन्म सार्थक मेरा, प्रभु पद में जब स्थान मिला।
मैं धूल में गिरकर मिट जाता, लेकिन यह तो सौभाग्य खिला।।
विधान के माध्यम से प्रतिदिन देवदर्शन की प्रेरणा देते हुए देवदर्शन के महत्त्व का वर्णन लाखों उपवास करने के फल के समान बतलाकर संस्कृति के रक्षण संवर्धन की भावना जाग्रत की है। आज की राष्ट्रीय समस्या ‘पर्यावरण प्रदूषण’ पर भी पूज्य र्आियका श्री ने विधान के माध्यम से ध्यान आकृष्ट किया है—
बेला चंप चमेली की कलियाँ जहाँ, खिल जाती तो वातावरण महक रहा।
उन पुष्पों की अंजलि भर पूजा करूँ, पर्यावरण प्रदूषण दूर किया करूँ।।
निश्चयनय की अपेक्षा एक जीव दूसरे जीव का कर्ता-हत्र्ता नहीं, प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है, सभी द्रव्यों का परिणमन क्रम नियमित है किन्तु हमारे पूर्वाचार्यों ने’’ परस्परोपगृहो जीवानाम्’’ परस्पर में एक जीव दूसरे का उपकारी है, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का उपकार करता है यह भी दृष्टव्य है, इसी भावना को पूज्य माताजी ने कुछ इस प्रकार से व्यक्त करके संदेश दिया है।
जिन प्रतिमा भले अचेतन है, फिर भी चेतन को फल देती।
‘‘जिन प्रतिमा भले ही पाषाण-धातु-काष्ठरूप है फिर भी हमारी आत्मा में अनंत शांति-सुख सामंजस्य, अनंतगुणी कर्मनिर्जरा एवं आत्मा के परिणामों में विशुद्धता प्रदान करती है। जिनवरों की पूजन से सम्यक्त्व गुण हमारा विशुद्ध होता है। ‘‘यह जिनवरों की अर्चना, सम्यक्त्व क्रिया है’’ पूज्य र्आियका रत्न चन्दनामती माताजी वर्तमान साहित्यकारों में अपनी रचनाओं के कारण अग्रपंक्ति की ओर अग्रसर हो रही हैं। इसी साहित्य साधना-अवदान का मूल्यांकन करते हुए तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय ने पी. एच. डी (विद्यावाचस्पति) की उपाधि प्रदान कर विश्वविद्यालय को महद् गौरव दिलाया है। पूर्वाचार्यों एवं वर्तमान में आचार्यों-मुनिराजों एवं र्आियका माताओं ने नवग्रह-शांति के लिए जिनेन्द्र पूजन को माध्यम बनाकर पुण्योपार्जन करने की प्रेरणा देते हुए सुखी बनाने का मार्ग दर्शाया है। वर्तमान में कतिपय लोगों ने ‘‘कुलदेवता’’ की पूजन को बताते हुये ‘‘कुलदेवता’’ का मंदिर निर्माण सम्बन्धी दुराग्रह किया है यह आगमोक्त नहीं है क्योंकि इनके नामादि वैष्णव परम्परा के हैं अतः स्वीकार नहीं करना चाहिए, यह अति दुराग्रह है। हमारे चौबीस तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षी अर्थात् शासन-देव-देवी इन्हें कुल देवता मानकर पूजार्चना करें। संसार में प्राणी अपने दुःखों से भयाक्रान्त होकर कुदेव-कुधर्म-कुगुरु की शरण में सुख को न खोजें इसी बात को ध्यान में रखकर जिनेन्द्र देव एवं जिनधर्म सेवक ऐसे यक्ष-यक्षिणियों की पूजनादि करने को कहा है। इसमें हमारा सम्यक्त्वगुण चलित नहीं होता अपितु पुण्र्याजन होता है, तदरूप सुखों की प्राप्ति होती है।
चूँकि यह सुख वास्तविक सुख शाश्वत सुख नहीं है फिर भी इससे सच्चा सुख प्राप्त करने का मार्ग मिलता है अतः यह कथंचित् उपादेय ही है। आज विश्व में गणिनीप्रमुख र्आियका शिरोमणी श्री ज्ञानमती माताजी एक महान् आश्चर्य हैं। अदम्य साहस, दृढ़इच्छा शक्ति, उग्र आत्मबल, तपोःपूत साध्वी हैं। आपके चेहरे पर तपस्या का तेज हर समय झलकता रहता है, सदैव साहित्य साधना में तत्पर, अनेक साधु-साध्वियों की गुरु, जिनके शब्दकोश में असंभव शब्द नहीं है ऐसी गुरूमाता की शिष्य-परम्परा भी तद्रूप ही है। उनमें ही गुरु माता की आज्ञा के अनुरूप मर्यादा शिष्योत्तमा, र्आियकारत्न प्रज्ञाश्रमणी श्री चन्दनामती माताजी ने अपने गुरू से आज्ञा लेकर शताधिक ग्रन्थों की रचना की है। ‘‘षट्खंडागम जैसे सिद्धान्त ग्रंथ की हिन्दी-टीका की, अनेक विधान, हजारों की संख्या में भक्तिपूर्ण भजन, सम-सामयिक आलेख लिखकर जैन समाज पर उपकार किया है। पूज्य प्रज्ञाश्रमणी जी की ‘‘दीक्षा रजत जयंती’’ इसी वर्ष राष्ट्रीय स्तर पर भव्य रूप में मनाई जा रही है। पूज्य माताजी साहित्य-साधना करते हुए जैन समाज, मानव समाज का दिशा-निर्देश करती रहे एवं सूर्य चन्द्रमा, समुद्रादि का जब तक अस्तित्व रहे तब तक आपका साहित्य हमारा मार्गदर्शन करे इसी भावना के साथ, भावपूर्ण विनयाञ्जली पूर्वक त्रिकाल वंदामि। वंदामि।। वंदामि।।
विशेष :— पूज्य लेखिका द्वारा लिखित प्रस्तावना एवं इससे पूर्व पूज्य गणिनी प्रमुख द्वारा लिखित-संकलित ‘‘नवग्रह शांतिकारक मंत्र विशेष पठनीय है। अनेक शंकाओं का निराकरण होता है।