जैनशासन में नवदेवता माने गये हैं—अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और जिनचैत्यालय।
यद्यपि आगम ग्रन्थों में प्राचीनकाल से इन नव देवताओं का वर्णन था, किन्तु सन् १९७६ में जबसे पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने ‘‘नवदेवता पूजन’’ लिखकर भक्तों को प्रदान की है तबसे प्रत्येक मन्दिर में उस पूजा के स्वर गूँजते पाये जाते हैं।
इस नवदेवता पूजा को लिखने में पूज्य माताजी का प्रमुख उद्देश्य यह रहा है कि एक ही पूजन के माध्यम से भक्तगण देव, शास्त्र, गुरु के साथ—साथ समस्त कृत्रिम-अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं एवं जिनालयों की भक्ति-वन्दना कर सकते हैं।
नवदेवता पूजा की शेर छन्द में निबद्ध जयमाला जहाँ भक्तों को भक्तिरस से सराबोर कर देती है वहीं पूजा के अष्टक में दोहराई जाने वाली ये दो पंक्तियाँ भी संसारी प्राणियों को परम्परा से मुक्तिपथ की राह दिखाती हैं—
यथा— नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकांता वरें।।
अर्थात् जिनेन्द्रभक्ति में निमग्न भक्तगण परम्परा से मोक्ष के अधिकारी होते हैं और उससे पूर्व उन्हें इन्द्रादि के वैभव, चक्रवर्ती का साम्राज्य आदि सांसारिक सुख भी प्राप्त हो जाते हैं। इन्हें देवता क्यों कहा गया ? वर्तमान में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिर्वासी और कल्पवासी इन चार निकाय में उत्पन्न जीवधारी प्राणियों को ‘‘देव’’ संज्ञा से सम्बोधित किया गया है किन्तु तीर्थंकर भगवन्तों एवं अर्हंत, सिद्ध आदि परमेष्ठियों को भी हमारे आचार्यों ने ‘‘देवता’’ कहकर परम पूज्यता का दर्जा प्रदान किया है। जैसे श्री समन्तभद्राचार्य ने तीर्थंकर धर्मनाथ भगवान् की स्तुति में कहा है—
मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्, देवतास्वपि च देवता यतः।
इस रथोद्धता छन्द में भगवान् को परम—उत्कृष्ट देवता बतलाते हुए कहा है कि हे नाथ! चूँकि आप मानुषी प्रकृति को—मानव स्वभाव को अतिक्रांत कर गये हैं और देवताओं में भी देवता हैं—पूज्यतम हैं अतः हे धर्मजिन! आप हमारे कल्याण के लिए प्रसन्न होवें। अर्थात् यहाँ देवता शब्द का अर्थ स्वर्ग के देवताओं से न होकर उत्कृष्ट पूज्यता का ही प्रतीक माना गया है। षट्खण्डागम ग्रन्थ में पाँचों परमेष्ठियों को देवता कहा है— षट्खण्डागम ग्रन्थ भाग-१ की ‘‘धवला’’ टीका में पृ. ५३ पर मंगलाचरण णमोकार महामंत्र का अर्थ बताते हुए श्रीवीरसेनाचार्य ने कहा है—
इसका अर्थ है कि सर्व नमस्कारों में यहाँ सर्व और लोक इन दो शब्दों को अन्त्यदीपक न्याय के अनुसार अध्याहार कर लेना चाहिए, जो सम्पूर्ण क्षेत्रगत तीनों कालों में होने वाले अर्हन्तादि देवताओं के प्रणमन के सूचक हैं। इसी प्रकार ‘‘णमो अरिहंताणं’’ पद की व्याख्या से पूर्व टीकाकार ने पृ. ४३ पर प्राकृत में सूचित करते हुए लिखा है—
‘‘इदाणिं देवता-णमोक्कार-सुत्तसत्थो उच्चदे’’
अर्थात् ‘‘अब देवता नमस्कार सूत्र का अर्थ कहते हैं।’’ पुनः आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठियों में भी देवपना घटित करते हुए शंका-समाधान के रूप में विषय को स्पष्ट किया है—
‘‘देवो हि ना त्रीणि रत्नानि स्वभेदतोऽनन्तभेदभिन्नानि,
अर्थात् ‘‘अपने-अपने भेदों से अनन्त भेदरूप रत्नत्रय ही देव है अतएव रत्नत्रय से युक्त जीव भी देव हैं अन्यथा यदि रत्नत्रय की अपेक्षा देवपना न माना जाय तो सम्पूर्ण जीवों को देवपना प्राप्त होेने की आपत्ति आ जाएगी इसीलिए यह सिद्ध हुआ कि आचार्य आदि भी रत्नत्रय के यथायोग्य धारक होने से देव हैं।’’ इसी षट्खण्डागम में निबद्ध और अनिबद्ध मंगल का स्वरूप बतलाते हुए परमेष्ठियों को ‘‘देवता’’ संज्ञा से अभिहित किया है।
यथा— जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण ण णिबद्धो देवदा-णमोक्कारो तमणिबद्ध मंगलं।
इसका अर्थ है कि ‘‘ग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्थकार के द्वारा जो देवतानमस्काररूप मंगल निबद्ध नहीं किया जाता है वह अनिबद्ध मंगल है। प्रथम सूत्र के पहले ‘‘णमो अरिहंताणं’’ इत्यादि रूप से देवता नमस्कार निबद्धरूप देखने में आता है। उपर्युक्त समाधान के द्वारा श्रीवीरसेनाचार्य ने पुष्पदन्ताचार्य के द्वारा अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में संग्रहीत किये गये महामंत्र को निबद्ध मंगल में ही सम्मिलित किया है। आगे इसी प्रकरण में देवतानमस्कार को धर्मध्यान का ही अंग मानते हुए लिखा है—
‘‘शुक्लध्यानान्मोक्षः न च देवतानमस्कारः शुक्लध्यानमिति।’’
अर्थात् ‘‘मोक्ष की प्राप्ति शुक्लध्यान से होती है परन्तु देवतानमस्कार शुक्लध्यान नहीं है।’’ इस प्रकार षट्खण्डागम ग्रन्थ में पंचपरमेष्ठी भगवन्तों को ‘‘देवता’’ शब्द से सम्बोधित करके उन्हें परम पूज्यता की श्रेणी में लिया है जो सविकल्प धर्मध्यान की अवस्था में प्रत्येक प्राणी के लिए आराध्य, पूजनीय और वन्दनीय हैं किन्तु शुक्लध्यानी महामुनि इनका अवलम्बन भी छोड़कर मात्र स्वशुद्धात्मा में लीन होकर ही मोक्ष प्राप्त करते हैं।
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने षट्खण्डागम ग्रन्थ की प्रथम पुस्तक की ‘‘सिद्धान्तचिन्तामणि’’ टीका में भी यथास्थान उपर्युक्त प्रमाणों को उद्धृत किया है जो पठनीय है। श्री गौतम गणधर एवं आचार्य श्री पूज्यपाद के शब्दों में नवदेवताओं का क्रम आज से लगभग ६९-७० वर्ष पूर्व भगवान् महावीर स्वामी के प्रथम गणधर श्री इन्द्रभूति गौतम स्वामी ने चैत्यभक्ति में नवदेवताओं का क्रम इस प्रकार दिया है—
अर्थात् पंचपरमेष्ठी के पश्चात् जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और चैत्यालय की वंदना करके इष्ट बोधि की प्राप्ति की प्रार्थना इसमें निहित है। श्री पूज्यपाद आचार्य ने अपने द्वारा रचित अभिषेक पाठ में पूजाविधि के अन्तर्गत यही क्रम दर्शाया है।
इसका अर्थ है कि चन्दन आदि के द्वारा आठ दल का कमल बनाकर कर्णिका में श्री जिनेन्द्रदेव को स्थापित कर पूर्व दिशा में सिद्धों को, शेष तीन दिशाओं में आचार्यों, उपाध्याय और साधु को विराजमान करके पुनः विदिशा के दलों में क्रम से जिनधर्म, जिनागम, जिनप्रतिमा और जिनमन्दिर को लिखकर बाहर में चूर्ण से और धुले हुए उज्जवल चावल आदि से पंचवर्णी मंडल बना लेवें। उपर्युक्त क्रम के अनुसार ही पूज्य माताजी ने नवदेवता पूजन के मंत्र बनाए हैं तथा अनेक जिनमन्दिरों में इसी क्रमानुसार निर्मित नवदेवताओं की प्रतिमाएँ विराजमान देखी जाती हैं।
प्रतिष्ठा ग्रन्थ में नवदेवता—
श्रीनेमिचन्द्र विरचित प्रतिष्ठालिक ग्रन्थ में निश्चय पूजा के अन्तर्गत ‘‘पीठयंत्राराधना’’ में भी नवदेवताओं की आराधना है—
आगे इसी में मंत्र दिया है कि— ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्रः अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय धर्मश्रुतचैत्यालयाख्यनवदेवता अत्रागच्छत २ संवौषट् इनकी स्थापना के पश्चात् जलादिक अष्ट द्रव्यों से पूजा करने का संकेत है। ध्वजारोहण की विधि में भी एक जगह आया है—
अर्थात् इसमें तीर्थंकर, नवदेवता आदि से निर्विघ्न सर्वसंपन्नता की प्रार्थना की गई है। इस प्रतिष्ठातिलक ग्र्रन्थ में वर्णित यागमण्डल विधान में भी सभी नवदेवताओं की पूजा गर्भित है,
अर्थात् अर्हन्त भगवान् जिसमें मुख्य हैं उन सोलह भेदयुक्त देवताओं की मैं सिद्धिसुख की प्राप्ति हेतु महाघ्र्य के द्वारा पूजा करता हूँ।
उन सोलह देवताओं के नाम इस प्रकार हैं—
1. पाँच परमेष्ठी,
2. भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान कालसम्बन्धी तीर्थंकरों की तीन चौबीसी,
3. अर्हंतमंगल, अर्हंतलोकोत्तम, अर्हंतशरण, सिद्धमंगल, सिद्धलोकोत्तम, सिद्धशरण, साधुमंगल, साधुलोकोत्तम, साधुशरण, धर्ममंगल, धर्मलोकोत्तम, धर्मशरण ये ४,
4. जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य, जिनचैत्यालय
ये कुल मिलाकर ५ + ३ + ४ + ४ = १६ देवता होते हैं।
इस प्रकार उत्कृष्ट पूज्यता के प्रतीक देवताओं में तीर्थंकर भगवान् और अर्हंत, सिद्धों की गणना उसके अवमूल्यन का सूचक कदापि नहीं है ऐसा समझकर उनकी आराधना कर अपनी आत्मा को भी देवता की श्रेणी में लाना चाहिए। जैसा कि नवदेवता पूजन की जयमाला के अन्त में कहा भी है