१. पड़गाहन करना २. उच्च आसन देना ३. पाद प्रक्षालन करना ४. अष्टद्रव्य से पूजन करना ५. पंचांग नमस्कार करना ६. मनशुद्धि ७. वचनशुद्धि ८. कायशुद्धि और ९. भोजनशुद्धि कहना ये नवधा भक्ति हैं।
जब श्रावक नवधाभक्ति करके ‘‘हे स्वामिन् ! आहार ग्रहण कीजिये।’’ ऐसी प्रार्थना करके शुद्ध गरम जल से साधु के हाथ धुला देते हैं तब साधु वहीं चौके में पूर्व दिन के ग्रहण किये हुए आहार के त्यागरूप प्रत्याख्यान या उपवास की निष्ठापन क्रिया करते हैं। जैसा कि अनगार धर्मामृत और आचारसार आदि ग्रंथों में लिखा है-
‘‘हेयं-त्याज्यं साधुना निष्ठाप्यमित्यर्थ:। किं तत्? प्रत्याख्यानादि-प्रत्याख्यान-मुपोषितं वा। क्व? अशनादौ-भोजनारंभे। कया? सिद्धभक्त्या। किं विशिष्टया? लघ्व्या।
अर्थ-साधु चौके में भोजन प्रारंभ करते समय लघु सिद्धभक्ति के द्वारा पूर्व दिन के ग्रहण किये गये प्रत्याख्यान या उपवास का निष्ठापन करें-त्याग कर देवें।
कोई साधु मंदिर में या गुरु के पास ही सिद्धभक्ति पूर्वक प्रत्याख्यान की निष्ठापना करके आहार को जाते हैं। सो समझ में नहीं आया, ऐसा कहीं आगम में विधान नहीं है।
पुनः वहीं आहार के अनंतर मुखशुद्धि करके तत्क्षण ही प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेवें। सो ही देखिये-
‘‘आदेयं च लघ्व्या सिद्धभक्त्या प्रतिष्ठाप्यं साधुना। किं तत् ? प्रत्याख्यानादि। क्व? अंते प्रक्रमाद्—भोजनस्यैव प्रांते। कथं? आशु—शीघ्रं भोजनानंतरमेव। आचार्यासन्निधावेतद्विधेयं।’’
साधु शीघ्र ही-भोजन के अनंतर ही आचार्य की अनुपस्थिति में-वहीं चौके में ही लघु सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण कर लेवें अर्थात् अगले दिन आहार ग्रहण के पूर्व तक चतुर्विध आहार का त्याग कर देवें या अगले दिन उपवास करना है तो उपवास ग्रहण कर लेवें।