पुण्य और पाप के एकांत का निराकरण एवं स्याद्वाद की सिद्धि
(कारिका ९२ से ९५ तक)
भाग्य दो प्रकार का है-एक पुण्य और दूसरा पाप। वही प्राणियों के सुख और दु:ख का कारण है।
‘‘सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यं, इतरत्पापं’’ सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और उच्च गोत्र, ये पुण्य रूप हैं और इनसे विपरीत असातावेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम और नीच गोत्र तथा चारों घातिया कर्म, ये पापरूप हैं।कोई एकान्त से कहता है कि पर जीवों में दु:ख उत्पन्न करने से पाप एवं पर में सुख उत्पन्न करने से पुण्य ही होता है। तो आचार्य कहते हैं कि यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार की मान्यता से तो अचेतन दूध, घी आदि पदार्थ अन्य जीवों को सुख उत्पन्न करते हैं इसलिए उनके पुण्यबंध मानना पड़ेगा और विष, कंटक आदि पदार्थ दु:ख उत्पन्न करते हैं, उनके पाप बंध मानना पड़ेगा। यदि आप कहें कि चेतन ही बंध के योग्य हैं, अचेतन नहीं तो भी वीतरागी मुनिराज के पर के सुख-दु:ख के निमित्त से कर्मों का बंध होने लगेगा, अर्थात् कोई महामुनि ध्यान में लीन हैं उन्हें देखकर भक्तजन प्रसन्न हो जाते हैं और अज्ञानीजन निंदा करते हैं, उनसे दु:ख अनुभव करते हैं एतावता ये परजीवों के सुख-दु:ख में निमित्त तो हो रहे हैं किन्तु स्वयं वीतरागी हैं इनके भी कर्मबंध मानना पड़ेगा। यदि आप कहें कि उन मुनिराज का वैसा सुख-दु:ख देने का मानो अभिप्राय नहीं है, तब तो पर में सुख-दु:ख करने से ही पुण्य बंध होता है, ऐसा आपका एकान्त कहाँ रहा ?
इससे विपरीत कोई कहता है कि अपने में दु:ख को उत्पन्न करने से पुण्य एवं सुख को उत्पन्न करने से पाप बंध ही होता है। इस पर भी आचार्य कहते हैं कि ऐसा एकान्त भी श्रेयस्कर नहीं है। देखो! यदि ऐसा ही एकांत मानोगे तो वीतरागी मुनिराज त्रिकाल योग के अनुष्ठान से और उपवास आदि से अपने में दु:ख उत्पन्न करते हैं, तो इन्हें पुण्य बंध हो जावेगा और विद्वान् मुनिजन तत्त्वज्ञान से संतोष लक्षण सुख को अपने में प्राप्त करते हैं तो उन्हें पाप का बंध मानना पड़ेगा। यदि आप कहें आसक्ति नहीं है अतएव ये वीतरागी और विद्वान् मुनिराज पुण्य पाप से नहीं बंधते हैं, तब तो तुम्हारा एकांत समाप्त हो जाता है और यदि एकांत लेते ही हो, तब तो कषाय रहित वीतराग छद्मस्थ महामुनि को भी बंध होने लगेगा, पुन: कदाचित् भी पुण्य-पाप का अभाव न होने से किसी को भी मुक्ति नहीं मिल सकेगी।कोई-कोई लोग एकांत से परस्पर निरपेक्ष उपर्युक्त दोनों बातों को मानते हैं, इस पर भी आचार्यश्री का कहना है कि यह उभयैकात्म्य भी परस्पर में विरुद्ध होने से ठीक नहीं है। उसी प्रकार से कोई लोग इन पुण्यपाप के बंध की व्यवस्था को एकांत से अवाच्य कह देते हैं सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि एकांत से अवाच्य के मानने पर पुन: उसे ‘अवाच्य’ इस शब्द से वाच्य कर देने पर तो स्ववचन बाधित दोष आता है अत: यह अवाच्य एकांत पक्ष भी गलत ही है।अब आचार्य इन पुण्य-पाप के विषय में सही मान्यता को स्पष्ट करते हैं-
विशुद्धि के कारण, कार्य और स्वभाव ये विशुद्धि के अंग कहलाते हैं और संक्लेश के कारण, कार्य तथा स्वभाव संक्लेश के अंग कहे जाते हैं। इस विशुद्धि के निमित्त से होने वाला सुख अथवा दुख चाहे निज में हो, चाहे पर में हो अथवा चाहे उभय में हो, वही पुण्यास्रव का हेतु है। उसी प्रकार संक्लेश के निमित्त से होने वाला सुख अथवा दु:ख चाहे अपने में हो या चाहे उभय में हो, वही पापास्रव का हेतु है।
प्रश्न-संक्लेश क्या है ? एवं विशुद्धि क्या है ?
उत्तर-आर्त और रौद्र ध्यान को संक्लेश कहते हैं एवं धर्म तथा शुक्लध्यान को विशुद्धि कहते हैं। उनमें भी आर्तध्यान के इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदनाजन्य और निदान ऐसे चार भेद हैं और रौद्र ध्यान के भी हिंसानंदी, मृषानंदी, चौर्यानंदी और परिग्रहानंदी ऐसे चार भेद हैं तथा ‘मिथ्यादर्शन१, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बंध के हेतु कहे गये हैं। ये पाँचों ही संक्लेश परिणाम वाले कहलाते हैं। संक्लेश के अभाव में सम्यग्दर्शन आदि के निमित्त से विशुद्धि होती है। उन धर्म शुक्लध्यानरूप विशुद्धि के द्वारा आत्मा में स्थिरता का होना संभव है।
‘‘विवाद की कोटि को प्राप्त काय आदि की क्रियाएँ स्व पर में सुख अथवा दु:ख हेतुक संक्लेश की कारण हैं या कार्य हैं या स्वभाव स्वभाव हैं, तो वे प्राणियों में अशुभ फलदायी पुद्गल परमाणुओं के संबंध में हेतु हैं, क्योंकि वे संक्लेश की कारण हैं जैसे-विषभक्षण आदि। वैसे ही ‘‘विवाद की कोटि को प्राप्त कायादि क्रियाएँ स्व पर में सुख या दु:ख हेतुक भले ही हों, यदि वे विशुद्धि की कारण हैं या कार्य हैं या स्वभाव हैं तो वे प्राणियों को शुभ फलदायी पुद्गलवर्गणाओं का संबंध कराने में हेतुक हैं, क्योंकि वे विशुद्धि का अंग हैं, जैसे पथ्य आहार आदि’’।
अब आचार्य सप्तभंगी प्रक्रिया के द्वारा स्याद्वाद को सिद्ध करते हैं-
कथंचित् स्व पर में स्थित सुख या दु:ख पुण्यास्रव के हेतु हैं, क्योंकि वे विशुद्धि के अंग हैं।
कथंचित् स्व पर में स्थित सुख या दु:ख पापास्रव के हेतु हैं, क्योंकि वे संक्लेश के अंग स्वरूप हैं।
कथंचित् स्व पर में स्थित सुख और दु:ख पुण्यास्रव और पापास्रव दोनों में हेतु हैं, क्योंकि क्रम से दोनों की विवक्षा है।
कथंचित् अवक्तव्य रूप हैं क्योंकि युगपत् दोनों को कह नहीं स्ाकते हैं।
कथंचित् पुण्यास्रव हेतुक और अवक्तव्यरूप हैं, क्योंकि क्रम से विशुद्धि की और एक साथ दोनों की विवक्षा है।
कथंचित् पापास्रव हेतुक और अवक्तव्य हैं, क्योंकि क्रम से संक्लेश की और युगपत् दोनों की विवक्षा है।
कथंचित् उभय रूप और अवक्तव्यरूप हैं, क्योंकि क्रम से दोनों की और युगपत् दोनों की अपेक्षा है।
यहाँ निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि धर्मध्यान आदिरूप विशुद्ध परिणामों से किसी को या अपने को दु:ख भी हो जाता है, जैसे-उपवास आदि कराने में या शिष्यों को हित के लिए फटकारने में दु:ख भी है फिर भी पुण्यास्रव ही होगा और यदि आर्त-रौद्र ध्यान के निमित्त से परिणामों में संक्लेश हो रहा है तो चाहे अपने में चाहे पर को सुख भी क्यों न हो, परन्तु उससे पाप का आस्रव ही होता है इसलिए परिणामों को विशुद्ध बनाना चाहिए।