मार्ग और अवस्थिति- यह एक अतिशय क्षेत्र है। ऋषभदेव से लगभग ४० किमी. दूर बीछीवाड़ा नगर है। नियमित बस सेवा है। बीछीवाड़ा से मैस्वो नदी तक १० किमी. लम्बी पहाड़ी सड़क है जो पत्थरों के टुकड़े डालकर बनायी गयी है। बीछीवाड़ा होती हुई बस लगभग ६ किमी. तक जाती है। वहाँ से काफी चढ़ाई और उतराई है। अत: पैदल ही यात्रा की जा सकती है। मैस्वो नदी पर पहुँचकर, मौदर गाँव से पूर्व ही नदी के किनारे बायीं ओर लगभग एक फर्लांग चलकर पहाड़ के ऊपर मंदिर दिखाई देने लगता है। मंदिर तक जाने के लिए लगभग ५० सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। जहाँ सीढ़ियाँ प्रारंभ होती हैं, वहाँ एक जलकुण्ड है। पहाड़ के कई स्रोतों से जल निरन्तर आता रहता है और एक गोमुख से इस कुण्ड में गिरता रहता है। इसी कुण्ड का जल पीने और भगवान के अभिषेक के काम में आता है। कहते हैं, कभी-कभी यहाँ सिंह आदि वन्य पशु भी जल पीने आ जाते हैं। यह स्थान राजस्थान प्रान्त के डूंगरपुर जिले में है। प्राचीनकाल में क्षेत्र के निकट बस्ती थी।
क्षेत्र-दर्शन- पहाड़ी के ऊपर मंदिर बना हुआ है। मंदिर में गर्भगृह और उसके आगे खेला मण्डप है। मूलनायक प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है। किन्तु पार्श्वनाथ की यह स्वतंत्र प्रतिमा नहीं है। अपितु पार्श्वनाथ के सेवक धरणेन्द्र के शीर्ष पर पार्श्वनाथ की लघु प्रतिमा विराजमान है। यह काफी घिस गई है जिससे प्रतीत होता है कि प्रतिमा काफी प्राचीन है। भगवान के सिर पर सप्तफण मण्डप बना हुआ है। इनमें तीन फण खण्डित हैंं। धरणेन्द्र ललितासन में बैठे हुए हैं। उनके दायें हाथ में पुष्प है तथा बायाँ हाथ जंघा पर रखा है। उनके हाथों में दस्तबन्द, भुजाओं में भुजबन्द तथा गले में रत्नहार है। धोती की चुन्नटों का अंकन बड़ा भव्य बन पड़ा है। बायें हाथ के नीचे उत्तरीय लटका हुआ है। इस प्रतिमा का वर्ण श्याम है। अवगाहना २ फुट २ इंच है। प्रतिमा की चरण चौकी के ऊपर कोई लेख नहीं है। मस्तक का पृष्ठभाग खण्डित है। यही प्रतिमा जनता में नागफणी पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। नागफणी पार्श्वनाथ की दायीं ओर मल्लिनाथ की कृष्णवर्ण वाली और १ फुट ४ इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। बायीं ओर पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। यह कृष्ण वर्ण है, पद्मासन है और १ फुट ३ इंच उन्नत है। मल्लिनाथ प्रतिमा के पादपीठ पर इस प्रकार लेख अंकित है-‘‘श्री मूलसंघे १६३७ वर्षे वैशाख वदि ८ बुधे भट्टारक श्री गुणकीर्ति गुरुपदेशात्’’। वेदी पर धातु के पार्श्वनाथ और एक चौबीसी विराजमान है। गर्भगृह के द्वार पर पार्श्वनाथ भगवान की एक मूर्ति है। मूर्ति-लेख के अनुसार इसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् २००८ ज्येष्ठ कृष्णा ५ को हुई थी। खेला मण्डप के तीन ओर छड़दार किवाड़ें लगी हुई हैं। यहाँ का दृश्य बिल्कुल तपोवन जैसा लगता है। मण्डप के आगे दोनों ओर ऊँची पर्वतमालाएँ और हरे-भरे वृक्षों की कतारें हैंं। पर्वतों के मध्य चौरस भाग में मैस्वो नदी है। यह नदी बरसाती है। ग्रीष्म ऋतु में यह सूखी पड़ी रहती है। यह स्थान बिल्कुल निर्जन है। इसका निकटवर्ती मौदर गाँव यहाँ से प्राय: दो फर्लांग दूर है।
अतिशय- जैन एवं जैनेतर जनता में अतिशय क्षेत्र के रूप में इस क्षेत्र की मान्यता है। भक्तजन मनोकामनाएँ लेकर यहाँ आते हैं। ग्रामवासियों के पशु पहाड़ पर चरने जाते हैंं। कभी कोई पशु चरते-चरते दूर निकल जाता है और संध्या को बहुत ढूँढ़ने पर भी जब नहीं मिलता तो पशु का मालिक नागफणी बाबा की दुहाई देकर बोलता है-‘‘बाबा! अगर मेरा जानवर सुबह घर आ जायेगा तो मैं तेरे ऊपर दूध चढ़ाऊँगा।’’ कहते हैं, इस पहाड़ पर सिंह दम्पत्ती रहता है। किन्तु आज तक कभी भी सिंह ने यहाँ किसी पशु का शिकार नहीं किया। यहाँ के आदिवासियों का यह दृढ़ विश्वास है कि नागफणी बाबा की छत्रछाया में कभी भी उनकी कोई हानि नहीं हो सकती।
धर्मशाला- मंदिर के दोनों पाश्र्वों में धर्मशाला बनी हुई है। मंदिर की दायीं बाजू में नीचे ऊपर हाल बने हुए हैं। बायें पाश्र्व में नीचे तीन कमरे और ऊपर एक और हाल बना हुआ है। यात्रियों के लिए गद्दे, रजाइयाँ और बर्तनों की सुविधा उपलब्ध हैं, जल की सुविधा प्रकृति ने कर ही दी है।
प्रतिमा का इतिहास और किंवदन्ती- नागफणी पार्श्वनाथ प्रतिमा की प्राप्ति के संबंध में एक अद्भुत किंवदन्ती प्रचलित है। कहते हैं पहले यह प्रतिमा ऊपर पहाड़ पर पेड़ों के झुरमुट में पड़ी हुई थी। एक महिला किसी कार्यवश पहाड़ पर जा रही थी। जब वह इस प्रतिमा के निकट से गुजरी तो अकस्मात् उसकी दृष्टि प्रतिमा के ऊपर पड़ी। भगवान के दर्शन पाकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने मनौती मनायी-‘‘बाबा! अगर मेरी कामना पूर्ण हो जाये तो मैं प्रतिदिन तेरी सेवा-पूजा किया करूँगी।’’ जब इस भक्त महिला की कामना पूर्ण हो गई तो वह अपनी प्रतिज्ञानुसार प्रतिदिन वहाँ आकर भगवान की सेवा-पूजा करने लगी। एक दिन उस भक्त महिला ने अपने भगवान से कहा-‘‘बाबा! मैं बूढ़ी औरत ठहरी। मुझमें हर रोज इतना ऊँचा चढ़कर आने की शक्ति नहीं है। तुम नीचे आ जाओ, वरना मैं कल से नहीं आऊँगी।’’ भक्त के निश्छल हृदय की पुकार थी यह। फलत: रात्रि मेें देव ने स्वप्न में उसे उपाय बताया-‘‘तू सरकण्डे की गाड़ी बना और कच्चे सूत की गुण्डी बना। तू मुझे गाड़ी पर रखकर ले जाना। लेकिन पीछे मुड़कर न देखना।’’ वह वृद्धा स्वप्न में बताये गये उपाय का स्मरण कर बड़ी प्रसन्न हुई। प्रात:काल होते ही उसने सरकण्डों की गाड़ी बनायी, कच्चे सूत से उसे कसा और गाड़ी लेकर अपने भगवान को लेने पहुँची। उसके मन में खुशी समा नहीं पा रही थी कि आज भगवान उसके घर पर पधारेंगे। उसने भगवान की अगवानी के लिए बड़ी तैयारियाँ की थीं। उसने अपनी झोंपड़ी को सजाया-सँवारा था। गोबर से उसे लीपा था। आज त्रिलोकीनाथ भगवान अपनी इच्छा से उसकी झोंपड़ी में आने वाले थे। तीनोें लोकों में कौन इतना भाग्यशाली होगा। ऐसी हुमस लिये गाड़ी लेकर वह भगवान के पास पहुंची। उसके शरीर पर पड़ी हुई झुर्रियों में आज उमंग, उत्साह और शक्ति की अलौकिक विद्युत् प्रवाहित हो रही थी। उसके भाग्य से स्पर्धा करने की क्षमता आज किसी में नहीं थी। उसने जाकर अपने भगवान के आगे हाथ जोड़े, साष्टांग नमस्कार किया और उठकर आदेश के स्वर में बोली-‘‘अब चलो भगवान!’’ योें कहकर उसने भगवान को उठाया। लगा कि भगवान तो चलने के लिए जैसे बड़े उत्सुक हों। उस वृद्धा का जरा सा सहारा मिला कि भगवान गाड़ी में सवार हो गये। गाड़ी खींचती हुई भगवान को ले चली। गाड़ी खींचने में उसे कोई जोर नहीं लगाना पड़ रहा था। गाड़ी ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी रास्ते पर ऐसे चली जा रही थी, मानो कोई चिकनी सीमेण्ट की सड़क हो। गाड़ी एक झरने के निकट आयी। वह पहाड़ से उतर आयी थी। अब तक वह वृद्धा हर्ष और भक्ति से विह्वल मानो बेसुध बनी चली आ रही थी। झरने पर आकर उसके मन में संदेह जागा-‘‘गाड़ी इतनी हल्की कैसे लग रही है। भगवान तो बहुत भारी हैं, किन्तु गाड़ी तो भारी नहीं लगती। कहीं भगवान रास्ते में ही तो नहीं गिर गये।’ उसने मुड़कर देखा। बड़ी प्रसन्न हुई कि भगवान तो गाड़ी पर बैठे हैं। फिर उसी उमंग से उसने गाड़ी खींची, किन्तु गाड़ी टस से मस नहीं हुई। भक्ति के जिस सम्बल के सहारे वह भगवान को यहाँ तक लाने में सफल हुई थी, संदेह होते ही भक्ति का सम्बल हाथ से छूट गया था। आदिवासी गाजे-बाजे लेकर भगवान की अगवानी के लिए वहाँ आये। उन सभी ने मिलकर भगवान को ले जाने के अनेक उपाय किये किन्तु सब व्यर्थ सिद्ध हुए। वृद्धा अपनी भूल पर बहुत रोयी, किन्तु बाद में यह अनुभव कर उसने संतोष धारण किया कि भक्ति के प्रवाह में यदि थोड़ा सा भी संदेह का अंश बना रहता है तो वह भक्ति फलदायी नहीं होती। नागफणी पार्श्वनाथ तब से उसी स्थान पर विराजमान हैं। तभी से इनकी ख्याति दिनोंदिन बढ़ती गई और उसने तीर्थक्षेत्र का रूप धारण कर लिया। सरकार ने मंदिर के चारों ओर पहाड़ पर १० बीघा जमीन मंदिर को भेंट स्वरूप प्रदान की है।
वार्षिक मेला- यहाँ प्रत्येक पूर्णिमा को मेला भरता है। किन्तु यहाँ आषाढ़ पूर्णिमा को बड़ा मेला भरता है। इस दिन कई हजार जैन और जैनेतर जनता यहाँ एकत्रित होती है।
व्यवस्था- क्षेत्र की व्यवस्था के लिए एक प्रबंधक समिति बनी हुई है। सन् १९७४ के पश्चात्-आवागमन के साधनों में बीछीवाड़ा बस स्टैण्ड से बस सुबह से शाम तक मिलती है तथा प्रति घंटे जीप की काफी सुविधा है। यात्रियों की सुविधा के लिए मंदिर की तलहटी में पहाड़ को काटकर ११३²३३ लम्बाई, चौड़ाई में तीन मंजिल की डीलक्स फ्लैट्स की धर्मशाला है। नीचे भोजनशाला है, जिसमें यात्रियों के भोजन की सुविधा है। क्षेत्र बहुत ही रमणीय है। प्रात: पानी गरम सा रहता है, चिड़ियों की चहचहाहट एवं पानी की कल-कल आवाज मन को अद्भुत आल्हाद प्रदान करती है। कहा जाता है कि प्रात:कालीन झरने से आने वाले गर्म पानी के उपयोग से तथा मंदिर की १०८ प्रदक्षिणा देने से रोग निवारण होता है। क्षेत्र पर उपलब्ध सुविधाएँ-क्षेत्र पर कुल २५ कमरे हैं, जिसमें ९ कमरे डीलक्स हैं, ३ हॉल हैं। भोजनशाला नियमित और सशुल्क है।