सभी नारकी जीवों के परिणाम हमेशा अशुभतर ही होते हैं, एवं लेश्यायें भी अशुभतर होती हैंं। उनके शरीर भी अशुभ नाम कर्म के उदय से हुंडक संस्थान वाले वीभत्स और अत्यन्त भयंकर होते हैं। यद्यपि उनका शरीर वैक्रियक है फिर भी उसमें मल, मूत्र, पीव आदि सभी वीभत्स सामग्री रहती हैं। कदाचित् कोई नारकी जीव सोचते हैं कि हम शुभ कार्य करें, परन्तु कर्मोदय से अशुभ ही होता है। वे दु:ख दूर करने के लिए जितने भी उपाय करते हैं उनसे दूना दु:ख ही बढ़ता जाता है। कषायों के उदय से अनुरंजित मन, वचन काय की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। उसके ६ भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल। प्रारंभ की तीन लेश्यायें अशुभ हैं एवं आगे की तीन लेश्यायें शुभ हैं। नरक में सर्वदा अशुभतर और अशुभतम ही लेश्यायें रहती हैं।
प्रथम और द्वितीय नरक में – कापोतलेश्या।
तृतीय नरक में – ऊपर कापोत और नीचे नील लेश्या।
चौथे नरक में – नील लेश्या।
पाँचवें नरक में – ऊपर भाग में नील और नीचे भाग में कृष्ण
छठे नरक में – कृष्ण लेश्या
सातवें नरक में – परमकृष्ण लेश्या होती है।