अनादिनिधन मूलमंत्र
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
(१)
शौरीपुर का उद्यान तो कुमार वसुदेव की क्रीड़ा से आलोकित था ही, वे नगर की जिन गलियों से निकल जाते थे वहीं स्त्रियों की असीमित भीड़ वसुदेव को देखने हेतु एकत्र हो जाती थी। स्त्रियाँ घर के कामकाज तो क्या ? बालकों को भी अव्यवस्थित छोड़कर भाग निकलती थीं, क्योंकि वसुदेव का रूप ही कामदेव के समान सुन्दर था।
युवावस्था को प्राप्त होते ही अनेक राजकन्याओं के साथ वसुदेव का पाणिग्रहण हो गया। ये वीणावादन की कला में अतिशय निपुण थे अत: चम्पापुर नगरी में गन्धर्वदत्ता के स्वयंवर में उपस्थित होकर वसुदेव ने कहा कि हस्तिनापुर में अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर करने वाले विष्णुकुमार मुनिराज की देवों ने जिन चार देवोपुनीत वीणाओं को बजाकर पूजन की थी उनमें से घोषवती नाम की एक वीणा आपके इस वंश में प्राप्त हुई थी अत: आप वही शुभ वीणा मेरे लिये मंगाइये। इस प्रकार वह वीणा बजाकर वसुदेव ने अपने मधुर गीत से सारे स्वयंवर मण्डप को आश्चर्यचकित कर दिया। गंधर्वदत्ता ने उस महापुरुष के गले में तुरन्त ही वरमाला डालकर उसको अपने पति के रूप में वरण कर लिया था।
रोहिणी का वरण-
एक समय वसुदेव ने अपने कला कौशल द्वारा अरिष्टपुर नामक नगर में राजा रुधिर की कन्या रोहिणी के स्वयंवरमण्डप में जाकर उसका वरण किया और दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक व्यतीत करने लगे।
बलदेव का जन्म-
किसी समय रोहिणी अपने पति वसुदेव के साथ कोमल शय्या पर शयन कर रही थी। रात्रि के पिछले प्रहर में उसने चार शुभ स्वप्न देखे-सफेद हाथी, समुद्र, पूर्ण चन्द्रमा और अपने मुख में प्रवेश करता हुआ सफेद सिंह। प्रात:काल पतिदेव से स्वप्नों का फल ज्ञात हुआ कि तुम्हें शीघ्र ही अद्वितीय वीर पुत्र प्राप्त होगा। फलस्वरूप नौ महीने पूर्ण होने पर रोहिणी ने शुभ नक्षत्र में एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम रखा गया ‘राम’। इन्हीं को आगे चलकर ‘बलराम’ के नाम से जाना गया है। ये बलराम नारायण श्रीकृष्ण के बड़े भाई थे।
वसुदेव और कंस का सम्बन्ध वैâसे जुड़ा ?-
सूर्यपुर नगर में कुमार वसुदेव जी अनेक राजपुत्रों को धनुर्विद्या सिखा रहे थे। उन शिष्यों में कंस नाम का एक युवक भी धनुर्विद्या सीख रहा था। किसी दिन वसुदेव अपने कंस आदि शिष्यों के साथ राजा जरासंध को देखने की इच्छा से राजगृह नगर गए। वहाँ जरासंध ने घोषणा कर रखी थी कि मेरे शत्रु िंसहपुर के राजा सिंहरथ को बन्दी बनाकर जो मेरे सामने लावेगा उस परम वीर को मैं अपनी जीवद्यशा नाम की पुत्री तथा इच्छित राज्य समर्पित करूँगा।
वसुदेव इस घोषणा को सुनते ही कंस के साथ युद्धस्थल में पहुँच गये। उसी समय कंस ने अपने गुरु वसुदेव की आज्ञा से उछलकर शत्रु को बाँध लिया। कंस की चतुराई से प्रसन्न होकर वसुदेव बोले-‘हे वत्स! तूने शीघ्र ही युद्धकला में निपुणता प्राप्त कर ली है जिसके फलस्वरूप आज दुर्जेय शत्रु को भी बाँध लिया है। मैं तेरे रणकौशल से अतीव प्रसन्न हूँ। तू वर माँग ले, आज तू जो कुछ भी माँगेगा वही मिलेगा।’ कंस ने उत्तर दिया-‘हे आर्य गुरुवर! वर को अभी आप धरोहर में रखिये मैं समय आने पर उसे माँग लूँगा।’
वसुदेव ने शत्रु राजा िंसहरथ को ले जाकर राजा जरासंध के समक्ष प्रस्तुत किया और उसे अर्धचक्री जरासंध की दासता स्वीकार करने को बाध्य कर दिया। बंधनों में बंधा शत्रु अब कर भी क्या सकता था ? उसने जरासंध को प्रणाम कर उसकी आज्ञानुसार राज्य संचालन करना स्वीकार कर लिया।
एक राजाधिराज को इससे अधिक और चाहिये भी क्या ? जरासंध ने प्रसन्न होकर िंसहरथ को बन्धनमुक्त करके उसका स्वागत सत्कार किया और ससम्मान उसके राज्य के लिये विदाई दी।
राजा सिंहरथ के प्रस्थान के पश्चात् जरासंध प्रसन्न होकर वसुदेव से बोले-‘हे मित्र! अब आप मेरी प्रतिज्ञानुसार मेरी पुत्री जीवद्यशा का वरण करें।’ इसके उत्तर में वसुदेव ने कहा-‘शत्रु को मैंने नहीं, मेरे शिष्य कंस ने पकड़ा है, इसलिये आपकी कन्या का वरण मैं नहीं कर सकता।’
अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करने हेतु जरासंध ने कंस को अपनी पुत्री देने से पूर्व उसकी जाति, कुल, गोत्र आदि की शुद्धि के बारे में पूछा। कंस ने कहा कि ‘हे राजन! मेरी माता का नाम मंजोदरी है। वह कौशाम्बी में रहती है और मदिरा बनाने का कार्य करती है।’
यह परिचय सुनकर राजा को कुछ संदेह हुआ। वे सोचने लगे कि शराब बनाने वाली स्त्री का पुत्र युद्धकला में इतना प्रवीण वैâसे हो गया ? अथवा यदि वास्तव में उस महिला का पुत्र है तो इस प्रकार से कलारण जैसे निम्न घराने में मुझ जैसे राजा की बेटी को पुत्रवधु बनाकर मैं वैâसे भेज सकता हूँ ? यदि कंस भी शराबी होगा तब तो मेरी बेटी का जीवन बर्बाद हो जाएगा।
अनेक प्रकार से िंचतन करते हुए राजा जरासंध को अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करना कठिन हो गया था अत: उन्होंने आदमी भेजकर कौशाम्बी नगरी से मंजोदरी को बुलवाया। मन्जोदरी सोचने लगी-‘क्या मेरे पुत्र ने वहाँ भी कोई अपराध किया है ? इसी भय से असलियत बताने के हेतु वह उस संदूक को भी अपने साथ लेकर जरासंध के पास आई। वहाँ जाकर उसने राजा ज्ारासंध के सामने संदूक दिखाकर कहा-‘यह संदूक ही इसकी असली माता है। हे राजन! यह बालक कांसे के संदूक में रखा हुआ यमुना के जल में बहकर आ रहा था। मैंने उस संदूक को खोलकर देखा तो इस होनहार बालक को देखकर मेरा मातृत्व भाव उमड़ पड़ा अत: मैंने तो मात्र इसका पालन किया है, कांसे की संदूक में होने के कारण गांव के लोगों ने इसे कंस नाम से पुकारना शुरु कर दिया था।’
वह वृद्धा माता मंजोदरी अपने बालक को अपराधी समझकर राजा जरासंध के सामने प्रार्थनापूर्ण शब्दों में कहने लगी-‘राजन! यह स्वभाव से ही अपनी शूरवीरता का घमण्ड रखता है और बचपन से ही स्वच्छन्द प्रवृत्ति का है। महाराज! इसका जो भी अपराध हो उसे क्षमा करें और अभयदान देने की कृपा करें।’
जरासंध ने मंजोदरी की बात सुनकर उसके द्वारा प्रदत्त संदूक को देखा और संदूक में पड़े हुए पत्र को पढ़ने लगे। उस पत्र में लिखा था कि ‘यह राजा उग्रसेन और रानी पद्मावती का पुत्र है। जब यह बालक गर्भ में था तभी से अत्यन्त उग्र था। इसकी उग्रता से भयभीत होकर ही इसे छोड़ा गया है यह जीवित रहे तथा इसके कर्म ही इसकी रक्षा करें।’
पत्र पढ़कर राजा समझ गये कि यह तो मेरा भांजा है अत: हर्षित होकर उन्होंने अपनी कन्या जीवद्यशा के साथ कंस का विवाह कर दिया तथा साथ ही आधा राज्य भी उसको समर्पित कर दिया।
कंस अब एक राजा का दामाद और स्वयं भी मगध देश का राजा बन गया था किन्तु उसके हृदय में एक टीस उत्पन्न हो गयी थी और इस निमित्त से पूर्वभव का वैर जागृत हो गया। अपने असली माता-पिता से बदला लेने का भाव आया और कुछ दिनों के पश्चात् ही कंस मथुरापुरी पहुँच गया और वहाँ माता-पिता को वैâद कर लिया तथा दोनों को गोपुरनगर के प्रथम दरवाजे के ऊपर रख दिया। पुन: स्वयं मथुरा के राजिंसहासन पर आरुढ़ होकर वहाँ का राजा बन गया। अब कंस अपने गुरु राजा वसुदेव का चिरऋणी हो गया क्योंकि उन्हीं की कृपाप्रसाद से चक्रवर्ती की कन्या कंस को प्राप्त हुई थी।
पूर्व भव के वैर ने पुत्र बनकर बदला चुकाया-
कंस अपने पूर्वभव में वशिष्ठ नाम के महातपस्वी दिगम्बर मुनिराज थे। एक बार वे विहार करते हुए मथुरा आये। तब राजा तथा प्रजा ने उनकी खूब पूजा की। वे मुनिराज एक मास के उपवास का नियम लेकर तपस्या कर रहे थे। सारी प्रजा उन्हें पारणा कराने की इच्छुक थी परन्तु राजा उग्रसेन ने सारे नगरवासियों से याचना की कि मासोपवासी मुनिराज को मैं आहार कराऊँगा और इसी भावना से उसने मथुरा में रहने वाले सब श्रावकों को आहार देने से रोक दिया।
मुनिराज तीन बार एक-एक मास का उपवास करके पारणा के लिए शहर में आये किन्तु राजकाज में संलग्न राजा तीनों बार आहार देना भूल गया। अन्त में मुनिराज श्रम से पीड़ित होकर वन में जाकर समाधि में लीन हो गये।
उन्हें जंगल की ओर वापस जाते हुए देखकर नगर के स्त्री-पुरुष कहने लगे-‘बड़े दु:ख की बात है कि राजा स्वयं भी मुनि को आहार नहीं देता है तथा हम लोगों को भी मना कर रखा है।’
यह बात सुनकर वशिष्ठ मुनिराज के मन में राजा के प्रति एकदम क्रोध आ गया अत: उन्होंने निदान किया कि ‘मैं इसी राजा उग्रसेन का पुत्र होकर इसका बदला चुकाउँâगा।’ निदान के कारण वे मुनिपद से भ्रष्ट होकर मिथ्यादृष्टि बन गये और मरकर राजा उग्रसेन की रानी पद्मावती के गर्भ में आ गये।
जब कंस का जीव पद्मावती के गर्भ में था तब वह सूखकर बहुत कमजोर हो गई थी। एक दिन उग्रसेन ने उससे कहा ‘प्रिये! तुम्हारा दोहला क्या है ? मुझे बताओ कि तुम इतनी कमजोर क्यों होती जा रही हो ?’ तब पद्मावती ने बड़े दु:खपूर्वक कहा कि ‘हे नाथ! पता नहीं कौन-सा पापी जीव मेरे गर्भ में आया है जिसके कारण मुझे अशुभ दोहला हो रहा है।’
पति के द्वारा बार-बार पूछने पर रानी पद्मावती ने बताया कि मेरी इच्छा है कि ‘मैं आपका पेट फाड़कर आपका खून पीऊँ।’ किन्तु इसमें भला माँ का क्या दोष था ? जैसा पुण्यात्मा या पापात्मा बालक गर्भ में आता है उसी के अनुसार माता को दोहला होता है। चूँकि वह बालक गर्भ से ही अत्यन्त क्रूर था इसलिये रानी पद्मावती ने पुत्र जन्म के बाद भय से उसे कांसे की मंजूषा में बन्द करके यमुना प्रवाह में छुड़वा दिया था।
इधर जब कंस को यह सब मालूम हुआ तो उसको बड़ा क्रोध आया। उसने विवाह के बाद पहले तो जरासंध से मथुरा का राज्य मांग लिया और जरासंध ने दे भी दिया। वे अर्धचक्री तो थे ही, तीन खण्ड की पृथ्वी पर उनका शासन था। बस फिर क्या था ? कंस को तो जरासंध से बदला लेने का स्वर्ण अवसर मिल गया। वह जीवद्यशा पत्नी को साथ लेकर मथुरा आ गया और पिता उग्रसेन के साथ युद्ध ठान दिया तथा उन्हें बाँधकर नगर के मुख्य द्वार के ऊपर वैâद कर दिया। इसके पश्चात् कंस स्वयं राजिंसहासन का अधिकारी बन गया।
(२)
वसुदेव और देवकी दम्पत्ति बने-
मथुरा के राजा कंस अपने गुरु वसुदेव को अपने नगर में ले आये और गुरुदक्षिणास्वरूप कंस ने अपनी प्रिय बहन देवकी के साथ वसुदेव का विवाह कर दिया।
कंस के आग्रह से वसुदेव समस्त कुटुम्बियों के अतिशय स्नेहवश अपनी धर्मपत्नी देवकी के साथ कुछ दिनों के लिये मथुरा में ही निवास करने लगे।
मुनिराज की भविष्यवाणी-
एक बार कंस के बड़े भाई अतिमुक्तक नामक मुनिराज मथुरा नगरी म्ों कंस के राजमहल में आहार के निमित्त पधारे। उस समय राजमद में उन्मत्त रानी जीवद्यशा मुनि के सामने देवकी का एक वस्त्र दिखाते हुए कहने लगी ‘हे मुने! आपकी छोटी बहन देवकी इस वस्त्र के द्वारा अपनी चेष्टा आपके लिये दिखला रही है।
जीवद्यशा के उक्त वचन सुनकर मुनि को क्रोध आ गया और वे मौनव्रत भंग करके अपने निमित्त ज्ञान से कहने लगे ‘आज तो तू अपने वैभव के कारण उन्मत्त हो रही है किन्तु ध्यान रख, इसी देवकी का पुत्र तेरे पति को मारकर अत्याचार एवं अनीतियों का संहारक बनेगा।’
मुनि के इस प्रकार कठोर शब्दों को सुनकर जीवद्यशा को और अधिक क्रोध आ गया अत: उसने उस वस्त्र के दो टुकड़े कर दिये। तब मुनि ने कहा कि वह तेरे पिता को भी मारेगा। यह सुनकर तो जीवद्यशा के क्रोध का पार ही नहीं रहा अत: उसने अबकी बार उस वस्त्र को पैरों से कुचल दिया। निमित्तज्ञानी मुनिराज ने उसकी इन चेष्टाओं को देखकर पुन: कहा-‘पुत्री! देवकी का वह पुत्र समस्त पृथ्वी का पालन करने वाला चक्रवर्ती होगा।’
इस प्रकार वे मुनिराज तो वहाँ से चले गये किन्तु जीवद्यशा के हृदय में हलचल मच गयी। मुनिराज के द्वारा हंसी में कही गई बात भी सत्य निकलती है, यह बात सोचते ही उसका दिल धड़कने लगा तथा उसे अपना भविष्य अंधकारमय दिखने लगा। उसने अपने पति कंस से यह सारी घटना कह सुनाई तथा भविष्य की होनी को टालने हेतु अनेक परामर्श भी दिये।
कंस का षडयंत्र-
पितृद्रोही कंस के घमण्ड का यद्यपि पार नहीं था तथापि मुनि के वचनों पर उसे भी विश्वास हुआ और होनी को अनहोनी में परिवर्तित करने हेतु उसने एक उपाय सोचा।
एक दिन कंस अपने गुरु एवं अभिन्न मित्र वसुदेव के पास गया और मीठी-मीठी बातों में वसुदेव को पँâसाकर अपना माया जाल बिछाया। उसने वसुदेव से याचनापूर्ण शब्दों में कहा कि ‘मेरी बहन देवकी की प्रत्येक प्रसूति मेरे महल में ही होवे, ऐसी आप आज्ञा प्रदान करें।’
किसी अज्ञात घटना से अपरिचित वसुदेव ने तो इसे भ्रातृप्रेम ही समझा अत: कंस का अनुरोध स्वीकार कर लिया और देवकी के साथ वह भी कंस के बतलाए हुए महल में रहने लगा।
कंस ने वहाँ अपने कई द्वारपाल नियुक्त कर दिये और उन्हें बता दिया कि जब भी देवकी पुत्र को जन्म देवे तब सबसे पहले मुझे सूचित किया जाए।
जैन सिद्धान्त के अनुसार कंस ने देवकी और वसुदेव को किसी कारावास में नहीं प्रत्युत समस्त सुख—सुविधायुक्त अपने महल में ही रखा था।
एक दिन अकस्मात् वे ही अतिमुक्तक मुनिराज भिक्षा के लिये देवकी के घर में आ गये। तब देवकी ने उनका पड़गाहन करके नवधाभक्तिपूर्वक उन्हें आहारदान दिया। आहार के पश्चात् वसुदेव और देवकी ने मुनिराज से पूछा कि क्या कभी हम दोनों भी दीक्षा ले सकेंगे ? तब मुनिराज ने उन्हें बताया कि आप लोग सात पुत्र-पुत्रियों के माता-पिता बनेंगे। उनमें से छह पुत्र तो अन्य स्थानों में पलकर निर्वाण प्राप्त करेंगे तथा सातवां पुत्र चक्रवर्ती होकर समस्त पृथ्वी का अधिपति होगा।
देवकी यह सुनकर बहुत हर्षित हुई। उसका हर्षित होना भी स्वाभाविक था क्योंकि प्रत्येक माता अपनी संतान का सुन्दर भविष्य देखना चाहती है। पुन: जिसके पुत्र तद्भवमोक्षगामी हों उसकी पूर्व जानकारी तो अवश्यमेव सुखद होगी।
देवकी अपने भाई के घर में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही थी कि उसके गर्भ से युगल पुत्रों का जन्म हुआ। स्वर्ग में इन्द्र को ज्ञात हुआ कि ये ‘चरमशरीरी, मोक्षगामी पुत्र हैं’ अत: ‘नैगम’ नामक देव को उसने मथुरा नगरी में भेज दिया। संयोगवश उसी समय ‘भद्रिलपुर’ नामक नगर में अलका नाम की सेठानी ने मरे हुए युगल पुत्रों को जन्म दिया था अत: नैगम देव देवकी के दोनों पुत्रों को बड़ी सावधानीपूर्वक अलका के पास दे आया और उसके मरे हुए पुत्रों को लाकर देवकी के पास सुला दिया। मनुष्य के द्वारा तो यह कार्य संभव नहीं था इसीलिये देवता ने क्षणमात्र में कर डाला।
इधर इतना कार्य पूर्ण होने के बाद कंस को समाचार मिला कि देवकी ने दो पुत्रों को जन्म दिया है। वह तुरन्त प्रसूतिगृह में पहुँचकर बड़ी ही निर्ममतापूर्वक दोनों मासूमों को उठाकर बाहर ले आया। उन मरे हुए पुत्रों को देखकर कंस ने सोचा कि इन निर्जीव पुत्रों से मेरी क्या हानि हो सकती है ? फिर भी मुनि के वचन याद आते ही अपनी शंका का निवारण करने हेतु उन मृत पुत्रों को भी पत्थर की शिला पर पछाड़कर पटक दिया।
इसी प्रकार से पुन: दो बार देवकी ने युगलिया पुत्रों को जन्म दिया जिन्हें नैगमदेव ले जाकर अलका सेठानी को देता रहा और उसी समय उसके दो-दो मृत पुत्रों को लाकर देवकी को देता रहा। इन सब बातों से अनभिज्ञ कंस उन्हीं मरे हुए पुत्रों को मारता रहा।
देखो! कर्मों की विचित्रता, एक भाई ने अपनी बहन के पुत्रों को मारने का संकल्प ही ले लिया। मृत पुत्रों को भी मार-मार कर घोर संकल्पी िंहसा करता रहा, क्योंकि मुनि की भविष्यवाणी को वह झूठा करना चाहता था।
उत्तर पुराण में आचार्य श्री जिनसेन स्वामी कहते हैं—‘अवश्यंभाविकार्येषु मुह्यन्त्यपि मुनीश्वरा:’ अर्थात् अवश्य होने योग्य कार्यों में मुनिराज भी भूल कर जाते हैं।
यदि मुनिराज ने जीवद्यशा के समक्ष ऐसी भविष्यवाणी न की होती तो शायद कंस के द्वारा ऐसा कुवृâत्य न किया जाता किन्तु कंस का भवितव्य ही इस प्रकार का था इसीलिए मुनिराज के मुख से वे शब्द निकले थे। होनहार को भला कौन टाल सकता है। इसीलिये कहा है—
क्या कोई नर है इस जग में, विधि का विधान जो टाल सके।
अनहोनी भी होकर रहती, निंह होनहार कोई टाल सके।।
बेचारी देवकी के भी न जाने कौन से जन्म का पापकर्म उदय में आया था कि स्वयं के पैदा किये हुये बालकों का मुँह भी नहीं देख पाती और वे उससे दूर कर दिए जाते थे। प्रसव वेदना से मुक्त होने के पश्चात् जब देवकी अपने पुत्रों के वियोग में विलाप करने लगती तब वसुदेव उसे यह कहकर सांत्वना देते कि ‘तेरे सभी पुत्र सुरक्षित स्थान पर पहुँच चुके हैं, कभी न कभी तो हम लोग उनसे मिलेंगे ही। हे देवि! मुनि के वचनों पर श्रद्धा करो, हमारे ये छहों पुत्र चरमशरीरी हैं, इन्हें कोई भी मार नहीं सकता। ये युवावस्था में दीक्षा धारण करके निर्वाण पद की प्राप्ति करेंगे। प्रिये! तुम अपने अश्रुओं को पोंछ लो और अपने मातृत्व को धन्य मानो जिसने मोक्षगामी महापुरुषों को जन्म दिया है।
और हाँ, मुनिराज ने यह भी तो बताया था कि तुम्हारा सातवां पुत्र महापराक्रमी और चक्रवर्ती होगा। मुझे पूरा विश्वास है कि वही पुत्र इस दुष्ट कंस का संहार करके हम सभी के दु:खों का अन्त करेगा।’
पति के इन सांत्वनापूर्ण शब्दों से देवकी भी भविष्य के शुभ फलों की आशा से कर्मफल का चिन्तन करती हुई जीवन व्यतीत करने लगी।
(३)
जन्म उस नारायण का जिसके जन्म पर खुशियाँ भी नहीं मनीं-
समय का चक्र अपनी गति से चल रहा था। वसुदेव और देवकी अपने उस होनहार बालक की प्रतीक्षा में हैं जो पापी कंस को मारकर उन्हें भी दु:खों से मुक्त कराएगा। तभी एक रात्रि में निर्नामक मुनि का जीव आठवें स्वर्ग से च्युत होकर देवकी के गर्भ में आ गया जिसके फलस्वरूप देवकी ने कुछ शुभ स्वप्न देखे।
प्रात:काल पति से स्वप्नों का फल पूछने पर देवकी को ज्ञात हुआ कि महाप्रतापी, होनहार बालक तुम्हारे गर्भ में अवतीर्ण हो चुका है। भावी सुख की आकांक्षा से ही उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था किन्तु अपने पुत्रों का जन्मोत्सव भी नहीं मना पाने का शोक भी हृदय को संतप्त कर रहा था।
सातवें मास में ही जन्म ले लिया-
कंस ने बहन का सातवां गर्भ जानकर चारों ओर से द्वारपालों को कड़ी पहरेदारी के आदेश दे दिये थे। इस बार संयोगवश देवकी ने अपने ही घर सातवें मास में भाद्रपद शु० द्वादशी को एक पुत्र को जन्म दिया। वसुदेव और उसके ज्येष्ठ पुत्र बलराम ने परस्पर में विचार विमर्श करके निर्णय लिया कि इस पुत्र को नन्दगोप के घर पहुँचा दिया जाए ताकि इसका सुखपूर्वक पालन-पोषण हो सके। उन लोगों ने यह बात देवकी से बता दी और शीघ्र ही बालक को लेकर चल पड़े। बलभद्र ने प्यार से बालक को गोद में उठा लिया और पिता ने उस पर छत्र लगा लिया।
रात्रि के गहन अन्धकार में बालक के पुण्य प्रभाव से नगर का देवता विक्रियावश एक बैल का रूप बनाकर उनके आगे हो गया। उस बैल के दोनों पैने सींगों पर देदीप्यमान मणियों के दीपक रखे हुए थे जिनसे आगे-आगे का अन्धकार दूर हो रहा था।
मथुरा नगरी में गोपुर के वङ्कामयी किवाड़ बन्द थे परन्तु पुत्र के चरणों का स्पर्श होते ही वे भी खुल गये। यह देखकर गोपुर द्वार के ऊपर बन्धन में पड़े हुए उग्रसेन ने क्षोभ के साथ कहा कि असमय में किवाड़ कौन खोल रहा है ?
यह सुनकर बलभद्र ने कहा कि हे महाभाग! कृपया आप शांत रहें, आपको कारावास से शीघ्र ही मुक्ति दिलाने वाला नारायण अब पैदा हो चुका है। मथुरा के भूतपूर्व राजा उग्रसेन ने ‘तथास्तु’ कहकर आशीर्वाद प्रदान किया। वसुदेव ने उग्रसेन से यह समाचार गुप्त रखने हेतु निवेदन किया और आगे बढ़ चले।
बलभद्र और वसुदेव शीघ्र ही यमुना नदी के किनारे पहुँच गये। वे नदी पार करने की चिन्ता कर ही रहे थे कि तभी होनहार चक्रवर्ती के प्रभाव से यमुना ने भी दो भागों में विभक्त होकर उन्हें मार्ग दे दिया। वे दोनों नदी पार कर ‘वृंदावन’ की ओर चल दिये। वहाँ गाँव के बाहर ‘नंदगोप’ नाम का ग्वाला अपनी स्त्री यशोदा के साथ रहता था। वह वंश परम्परा से चला आया इनका बड़ा विश्वासपात्र व्यक्ति था।
रात्रि में ही बलदेव और वसुदेव ने उस नन्दगोप के घर पहुँचकर उन्हें अपनी गोद का बालक सौंपते हुए कहा कि देखो भाई! यह महापुण्यशाली इस पृथ्वी तल का होनहार अधिपति राजशिशु तुम्हें दे रहा हूँ, इसे अपना पुत्र समझकर पालन-पोषण करना और यह रहस्य किसी को प्रकट मत होने देना। संयोगवश उसी समय यशोदा के लड़की पैदा हुई थी अत: वे दोनों अपने पुत्र को उन्हें देकर और उनकी पुत्री को लेकर शीघ्र ही मथुरा वापस पहुँच गये। बड़ी चतुराई के साथ उन लोगों ने देवकी के पास जाकर पुत्र का कुशल समाचार कहकर पुत्री को उसे प्रदान कर दिया और स्वयं निज-निज कार्यों में संलग्न हो गये।
असमय में ही बहन की प्रसूति का समाचार पाकर निर्दयी कंस शीघ्र ही उसके प्रसूतिगृह में घुस गया और सदा की भांति संतान को बहिन की गोद से छीन लाया किन्तु पुत्र के स्थान पर कन्या का मुख देखकर उसका क्रोध तो दूर हो गया तथापि अपनी दीर्घदर्शिता से कंस सोचने लगा कि ‘कदाचित् इस कन्या का पति मेरा शत्रु न हो जाये’ अत: उसने कन्या की नाक चपटी करके उसे छोड़ दिया।
आगे जाकर यह कन्या अपना विकृत रूप देखकर वैराग्य भाव से आर्यिका दीक्षा धारण कर समाधिमरणपूर्वक स्वर्ग में गई है।
संघर्षों से ही प्रारम्भ हुआ जिनका बचपन-
इसके पश्चात् कंस ने जब जान लिया कि अब इसके पुत्र होना बन्द हो गया है तब वह सन्तुष्ट हो सुखपूर्वक राज्य संचालन करने लगा। ब्रजवासियों के मध्य पल रहे कृष्णजी यशोदा माता के आंगन में अपनी बाल क्रीड़ाएं दिखाता हुआ सारे नगर को आनंदित कर रहा था। जब वह बालक पालने में चित्त पड़ा हुआ अपने कोमल लाल-लाल पादयुगल चलाता था तब उसके पैरों में गदा, खड्ग, चक्र, अंकुश, शंख तथा पद्म आदि चिन्हों की प्रशस्त रेखायें स्पष्ट झलकती थीं जो कि उसके चक्रवर्तित्व को सूचित करती थीं। इधर सारा वृंदावन अपने कृष्ण कन्हैया की बाल लीलाओं के सुख-समुद्र में डूबा था उधर मथुरा में राजा कंस को एक दिन वरुण नामक एक हितैषी निमित्तज्ञानी ने बताया कि ‘राजन्! यहाँ कहीं नगर अथवा वन में तुम्हारा शत्रु बढ़ रहा है, तुम्हें शीघ्र ही उसकी खोज करवाकर उस पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। तब कंस ने अपनी विद्या देवताओं का आह्वान किया तथा वे तत्क्षण प्रकट होकर कहने लगीं—‘हे स्वामी! कहिये, क्या आज्ञा है ? बलभद्र और नारायण को छोड़कर आपके सभी शत्रुओं का हम लोग नाश करने में सक्षम हैं, चाहे वह शत्रु धरातल के किसी भी कोने में क्यों न हो।’
कंस तो यद्यपि यही समझ रहा था कि अब इस पृथ्वी पर मेरा कोई शत्रु है ही नहीं, किन्तु निमित्तज्ञानी के वचनानुसार उसने इन देवियों को बुलाया था अत: उन देवियों को आज्ञा प्रदान करते हुए वह बोला—‘हमारा कोई वैरी पुरुष कहीं गुप्त रूप से वृद्धिंगत हो रहा है उसे तुम लोगों को शीघ्र ही खोज कर मृत्यु के मुँह में पहुँचाना है क्योंकि यह कार्य तुम्हारे अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता है।’
कंस की आज्ञा शिरोधार्य करके देवियाँ विभिन्न रूप धारण करके कृष्ण की खोज करने निकल पड़ीं। अवधिज्ञान के प्रभाव से उन्होंने शीघ्र ही कंस के शत्रु का पता लगा लिया और तभी उनमें से एक देवी तुरन्त एक भयंकर पक्षी का रूप बनाकर गोकुल में आ गई और अपनी चोंच द्वारा बालक कृष्ण को मारने का प्रयास करने लगी। कृष्ण ने उसकी चोंच पकड़कर इतनी जोर से दबाई कि वह डर कर हाय-हाय करती हुई भाग गई।
दूसरी देवी पूतना का रूप धरकर आई और कृष्ण को अपना दूध पिलाने का प्रयास करने लगी। उसके स्तनों में विषमिश्रित दूध था जिसे पिलाकर वह कृष्ण को मारना चाहती थी। श्रीकृष्ण ने उसका स्तन इतने जोर से चूसा कि वह भी बेचारी चिल्लाकर अपनी जान बचाकर भाग गई।
बालक कृष्ण कभी तो सोता था, कभी बैठता था, कभी छाती के बल सरकता था, कभी लड़खड़ाते हुए पैरों से चलने की चेष्टा करता था, कभी अन्य बालकों के साथ दौड़ने लगता था, कभी अपनी तोतली बोली से सबका मनोरंजन करता था और कभी मक्खन खाता हुआ यत्र-तत्र अपनी क्रीड़ा दिखाता था। अपनी रक्षक देवियों से रक्षित बालक कृष्ण के ऊपर जब दो देवियों का कोई प्रभाव न पड़ा तो तीसरी देवी शकट-गाड़ी का रूप बनाकर कृष्ण को कुचलने आ गई परन्तु कृष्ण तो बालक होने पर भी अत्यन्त निर्भय थे। अंजनगिरि के समान बलशाली बालक कृष्ण ने जोर से उस गाड़ी में एक लात मारी और उसे नष्ट कर दिया।
नारायण कृष्ण बाल्यावस्था से ही अत्यन्त चंचल प्रकृति के थे जिससे माता यशोदा कभी-कभी अत्यधिक झुंझला उठती थी। इसी चंचलतावश किसी दिन माता ने कृष्ण का पैर रस्सी से कखली में बाँध दिया था, उसी दिन दो शत्रु देवियाँ जमाल और अर्जुन वृक्ष का रूप धरकर उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगीं परन्तु कृष्ण ने बंधन अवस्था में ही उन्हें मार भगाया।
ग्वालों के मुखिया नंदगोप कृष्ण की बाल चेष्टाएं देख-देखकर जहाँ हर समय चकित रहते थे वहीं यशोदा मैया कृष्ण की अनोखी लीलाओं से अपने को धन्य मानती थीं। यद्यपि उसे ज्ञात था कि इसकी असली माता तो देवकी है परन्तु जन्म से ही लालन-पालन के कारण वह अपने को ही उसकी माता मानकर प्रसन्न होती रहती थी।
एक दिन छठी देवी बैल का रूप बनाकर श्रीकृष्ण को मारने हेतु आ गई। वह बैल बड़ा अहंकारी था। गोपालों की बस्ती में पहुँचकर उसने जोरदार शब्द करना शुरू कर दिया और पूरे गोकुल में हंगामा मचा दिया, परन्तु श्रीकृष्ण ने उसकी गर्दन मोड़कर उसे नष्ट कर दिया।
सातवीं देवी ने पाषाणमयी तीव्र वर्षा से कृष्ण को मारना चाहा परन्तु श्रीकृष्ण जी वर्षा से कब घबराने वाले थे, उन्होंने गोकुल की रक्षा हेतु अपनी दोनों भुजाओं से गोवर्धन पर्वत को उठा लिया अत: वह देवी भी डरकर भाग गई।
इस प्रकार सातों देवियों की शक्ति को भी पराजित करने वाले नारायण श्रीकृष्ण वृन्दावन में अपने गुणों से काफी चर्चित हो गये थे।
(४)
अपने पुत्र को छल से देखने आई माँ देवकी-
वृन्दावन में कभी-कभी रोहिणी पुत्र बलदेव जाकर कृष्ण की बाल लीलाओं का अवलोकन किया करते थे। एक बार उन्होंने कृष्ण की बाल्यावस्था में ही उनके अतुलनीय पराक्रम का बखान सुना कि इन्होंने अनेक भूत, पिशाची देवियों को भी पराजित किया है अत: वृन्दावन से वापस मथुरा आकर माता देवकी से श्रीकृष्ण के कुशल समाचार बतलाते हुए उनकी वीरता का वर्णन किया।
देवकी अपने पुत्र के इस प्रकार गुण श्रवण कर अपना मातृत्व स्नेह संवरण न कर सकी और वह उपवास के बहाने से पुत्र को देखने के लिये गोकुल की ओर चल दी। वहाँ पहुँचकर गोपालकों के मुख से सुन्दर गीत एवं घण्टाओं के जोरदार शब्दों से सहित उस वनखण्ड में भी देवकी अत्यधिक सन्तुष्ट हो रही थी। वहाँ का हरा-भरा वातावरण, ग्वालों द्वारा गायों का दुहा जाना, गोपियों के द्वारा दही का मथा जाना, सभी कुछ देवकी के मन को हरण कर रहा था। ‘कृष्ण की माता देवकी हमारे वृन्दावन में आई हैं’ यह शुभ समाचार बलराम द्वारा सुनकर नन्दगोप अपनी पत्नी यशोदा के साथ वहाँ आकर गौरवशालिनी देवकी को भक्तिपूर्वक नमस्कार करने लगा। तत्पश्चात् जो पीले रंग के दो वस्त्र पहने हुए था, मयूर पिच्छी की कलंगी से युक्त, नीलकमल की माला तथा अनेक अलंकारों से सुशोभित बालक कृष्ण को लाकर यशोदा ने माता देवकी के चरणों में प्रणाम कराया।
कोटि-कोटि आशीर्वाद प्रदान करती हुई देवकी ने पुत्र को अपने समीप बिठाया और बार-बार उसका स्पर्श करती हुई उसे अपलक निहारने लगीं। वास्तव में माता के लिये अपनी संतान से बढ़कर संसार में कोई भी प्रिय वस्तु नहीं होती है। माता और पुत्र के मिलन का यह असामयिक दृश्य सचमुच में ही रोमांचक था।
यद्यपि कृष्ण को तो कुछ पता नहीं था वह तो यशोदा को ही अपनी जन्मदात्री माँ समझता था किन्तु देवकी उस क्षण जिस मातृसुख का अनुभव कर रही थी और यशोदा एक माता होने के नाते देवकी की मानसिक वेदना समझ रही थी उस समय का वर्णन लेखनी में निबद्ध नहीं किया जा सकता है।
‘सुखपूर्वक व्यतीत किये गये दीर्घकालीन क्षण भी अल्पकालीन प्रतीत होते हैं’। देवकी को वापस मथुरा भी जाना था। यद्यपि पुत्र को छोड़कर वह जाना नहीं चाहती थी किन्तु भेद को गुप्त ही रखने के कारण उसे वापस जाना अवश्य था। देवकी यशोदा से कहने लगी–हे यशस्विनी यशोदे! इस सौंदर्यशाली, पुण्यवान पुत्र का दर्शन करने वाली तू वन में भी सौभाग्यशाली है। यदि पृथ्वी का राज्य भी मिल जाये पर सन्तान न हो तो वह राज्य अच्छा नहीं लगता।’
तब गोपी यशोदा बोली ‘हे स्वामिनी! आपकी बात बिल्कुल सत्य है। इस बालक के बिना तो एक क्षण भी मैं नहीं रह सकती। हे माते! आपका यह परमप्रतापी पुत्र चिरंजीवी रहे यही मैं प्रतिदिन भगवान से प्रार्थना किया करती हूँ।
मातृत्व छल के बिना न रह सका-
अपने सात-सात पुत्रों से वियुक्त देवकी आज हर्षातिरेक से फूली नहीं समा रही थी। पुत्र का अवलोकन एवं आिंलगन करते-करते सहसा देवकी के मातृत्व का झरना फूट पड़ा, उसके दोनों स्तनों से दूध की धारा बह निकली। उस समय देवकी मूक स्वर में पुत्र से मानो यह कह रही थी कि ‘हे पुत्र! शत्रु के भय से मैंने तुझे अपने से अलग किया है अन्य किसी गलत अभिप्राय से नहीं’। बलदेव दूर खड़े-खड़े यह सारा अभिनय देख रहे थे। ‘कहीं रहस्य खुल न जाये’ इस डर से बुद्धिमान बलदेव ने उसी समय दूध के घड़े से माता देवकी का अभिषेक कर दिया और कहने लगे कि यह उपवास से थककर मूर्छित हो रही हैं। नीतिकारों ने भी कहा है कि कुशल मनुष्य को अवसर देखकर ही कार्य करना चाहिये।
इसके पश्चात् बलराम देवकी को वापस मथुरानगरी में ले आये और पिता वसुदेव को उस दिन का सारा समाचार सुनाया। परस्पर के मनोरंजन में समय व्यतीत होने लगा और इधर श्रीकृष्ण की रासलीला से बृज की भूमि सुशोभित होने लगी। वे रास-क्रीड़ाओं के समय गोपबालाओं को अपने हाथ की उंगली पकड़ाकर उन्हें सुख उत्पन्न कराते थे किन्तु स्वयं अत्यन्त निर्विकार रहते थे।
हरिवंश पुराण में वर्णन आया है कि ‘जिस प्रकार अंगूठी में जड़ा हुआ श्रेष्ठ मणिरत्न स्त्री के हाथ की अंगुली का स्पर्श करता हुआ भी निर्विकार रहता है उसी प्रकार महानुभाव श्रीकृष्ण भी गोपिकाओं की हस्तांगुलि का स्पर्श करते हुए भी निर्विकार रहते थे।
जैन पुराणों में राधा नाम की किसी भी गोपिका का कथन नहीं आया है। यूँ भी कृष्णजी का किसी गोपिका से कोई अनैतिक सम्बन्ध होने का प्रश्न ही नहीं उठता था।
कृष्ण की लोकोत्तर चेष्टाओं की चर्चा मथुरा के राजा कंस तक भी पहुँच गयी अत: उसे इनके प्रति संदेह हुआ और तभी वह कृष्ण को अपना वैरी जानकर उसे खोजने हेतु एक दिन गोकुल में आया। कंस को कृष्ण के समीप आते हुए देखकर यशोदा ने तत्काल ही कृष्ण को कुछ मित्रों के साथ गोकुल से बाहर ब्रज में भेज दिया। ब्रज में उनके समक्ष एक ताण्डवी नाम की पिशाची जोर-जोर से अट्टहास करती हुए प्रकट हो गयी। पिशाची को देखकर मित्रगण तो भयभीत हुए किन्तु कृष्ण ने क्षणमात्र में ही उसे मार भगाया।
उसी ब्रज में एक शाल्मली वृक्ष की लकड़ी का मण्डप तैयार हो रहा था। वहाँ उसके इतने बड़े-बड़े खम्भे पड़े हुए थे कि जिन्हें कोई उठा नहीं सकता था किन्तु कृष्ण ने उन्हें अकेले ही उठाकर ऊपर चढ़ा दिया।
यूँ तो श्रीकृष्ण बाल्यावस्था से ही बलवान थे, उनकी बालचेष्टाएँ किसी से छिपी नहीं थीं फिर भी यशोदा कभी-कभी किसी अघटित शंका से डर जाया करती थी अत: कृष्ण की रक्षा हेतु उसे इधर-उधर भेज दिया करती थी। ब्रज की इन दोनों घटनाओं को सुनकर वह अब बिल्कुल नि:शंक हो गई अौर उन्होंने कृष्ण को वापस गोकुल बुला लिया।
कंस का भय बढ़ता गया-
गोकुल में कृष्ण को न पाकर राजा कंस वापस मथुरा लौट आया। उसी समय कंस के यहाँ सिंहवाहिनी नागशैय्या, अजितंजय नाम का धनुष और पांचजन्य नाम का शंख ये तीन अद्भुत पदार्थ प्रकट हुए। इन पदार्थों को देखकर कंस घबरा गया और तुरन्त ही राजज्योतिषी को बुलाकर उससे इनका शुभाशुभ फल पूछने लगा। ज्योतिषी ने बतलाया कि ‘इस नागशैय्या पर चढ़कर जो धनुष की डोरी चढ़ायेगा और पांचजन्य शंख को पूँâकेगा, हे राजन! उसे ही तुम अपना शत्रु समझो।’
अब तो कंस को यह निश्चय हो गया कि आसपास में कहीं न कहीं मेरा शत्रु अवश्य ही विद्यमान है अत: उसने अपने शत्रु की तलाश का उपाय सोचकर सारे नगर में घोषणा करा दी कि ‘जो कोई यहाँ आकर िंसहवाहिनी नागशैय्या पर चढ़ेगा, अजितंजय धनुष को चढ़ायेगा और पांचजन्य शंख को फूंकेगा वह सर्वाधिक पराक्रमशील समझा जायेगा और कंस उसे अलभ्य इष्ट वस्तु प्रदान करेगा।’
कंस की यह घोषणा सुनकर अनेक राजा मथुरा आये और नागशैय्या पर चढ़ने आदि की कोशिश करने लगे किन्तु सब भयभीत हो लज्जित होकर वापस चले गये। संयोगवश एक दिन कंस की पत्नी जीवद्यशा का भाई भानु किसी कार्यवश गोकुल गया था। वहाँ पर कृष्ण का अद्भुत पराक्रम देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और कृष्ण को अपने साथ मथुरा ले आया।
मथुरा नगरी में कंस की घोषणा सुनते ही कृष्ण जी उत्सुकतावश वहीं पहुँच गये। अब तो वे बचपन से युवावस्था में प्रवेश कर चुके थे। भय ने तो उन्हें कभी स्पर्श किया ही नहीं था। इस समय भी कंस का आदेश पाते ही वे निर्भय होकर तुरन्त भयंकर नागशैय्या पर स्वाभाविक शैय्या के समान चढ़ गये और अजितंजय धनुष को प्रत्यंचा से युक्त कर पांचजन्य शंख का महानाद किया। चारों ओर से श्रीकृष्ण की जय-जयकार होने लगी। उनके इस लोकोत्तर माहात्म्य को देखकर समस्त जनता कहने लगी कि अवश्य ही यह कोई महापुरुष है तथा कंस ने उसे अपना शत्रु समझ लिया किन्तु उस समय उसने कोई कदम उठाना उचित न समझा। अत: बाह्य मन से श्रीकृष्ण की प्रशंसा करने लगा।
श्रीकृष्ण का यह पराक्रम देखकर बड़े भाई बलदेव को कंस से आशंका उत्पन्न हो गयी अत: कृष्ण को वापस ब्रज भेजने के समय उनके साथ अनेक आत्मीयजनों को भेज दिया। ‘यह बहुत गुणी है, इसलिये सब लोग इसे भेजने जाओ’ ऐसा बार-बार बलदेव के कहने पर बहुत सारी भीड़ उन्हें माता यशोदा के पास तक पहुँचाने गई।
दूज के चाँद सदृश बढ़ते हुए श्रीकृष्ण अपनी इन क्रियाओं से कभी आश्चर्यचकित नहीं होते थे। समय का चक्र अपनी गति से चल रहा था, कृष्ण यशोदा मैया के लाड़-प्यार में पलते हुए अब सारी मथुरा नगरी में चर्चित हो गये थे।
(५)
कृष्ण का अप्रतिम पराक्रम-
इस वसुंधरा पर जब शरद ऋतु अंगड़ाई ले रही थी, चारों ओर नये-नये अंकुरों की हरियाली छाई थी, सरोवर कमल से युक्त होकर मानो मुस्कुरा रहे थे, चन्द्रमा और सूर्य अपनी-अपनी कांति एवं प्रभा से पृथ्वी को आलोकित कर रहे थे।
कंस यद्यपि श्रीकृष्ण की चेष्टा को जान चुका था फिर भी वह उसे बार-बार मारने के उपायों में ही बुद्धि को लगाया करता था। एक दिन उसने ब्रज में समाचार भेजा कि श्रीकृष्ण आदि गोप समूह यमुना के उस सरोवर से सहस्रदल कमल लेकर आवें जहाँ महाविषधर सर्प उस कमल की रक्षा करता है।
राजाज्ञा पाते ही एक बार तो नंदगोप घबराए किन्तु तत्क्षण ही उन्हें कंस की कूटनीति और कृष्ण के पराक्रम का स्मरण हो आया। उन्हें दृढ़ विश्वास था कि कृष्ण अजेय है, इसका विषधर सर्प भी बाल बाँका नहीं कर सकते हैं अत: नन्दगोप ने श्रीकृष्ण से वह कमल लाने को कहा। अनेक गोपसखाओं के साथ वे यमुना तट पर पहुँच गये और अनायास ही उस सरोवर में कूद गये। कालिया नामक काला नाग कुपित होकर श्रीकृष्ण को डसने के अभिप्राय से फन पैâलाकर सामने आ गया। कठिन परीक्षा की घड़ी थी किन्तु श्रीकृष्ण िंकचित् भी भयभीत नहीं हुए। उन्होंने नाग के फण पर धोबीघाट की तरह अपना गीला दुपट्टा पछाड़ना शुरू कर दिया। नाग उस असहनीय चोट को सहन न कर सका और शीघ्र ही वहाँ से पलायित हो गया। अब पूर्ण नि:शंक होकर कमल तोड़कर श्रीकृष्ण शीघ्र ही भाई बलदेव और गोपमित्रों से आ मिले।
देदीप्यमान पीताम्बर से सुशोभित श्रीकृष्ण ज्यों ही ह्रद सरोवर से बाहर निकले त्यों ही आनन्द के समूह से सहित, नीलाम्बर से सुशोभित बलभद्र ने दोनों भुजाओं से उनका गाढ़ आलिंगन किया। उस समय नीलाम्बरधारी गौर वर्ण बलभद्र से आलिंगनबद्ध पीताम्बरधारी श्याम सलोने कृष्ण ऐसे जान पड़ते थे जैसे बिजली सहित श्याम मेघ काली और सफेद शिलाओं के अग्रभाग से आिंलगित हो रहा हो।
कंस ने अपने शत्रु का विनाश करने हेतु एक अंतिम चाल पुन: अपनाई। वह अपने राजिंसहासन के समक्ष गोपालों के द्वारा लाये गये कमलों के समूह देखकर गरम-गरम उच्छ्वास भरने लगा क्योंकि वह आश्चर्यचकित था कि ऐसे दुर्गम स्थान से कमल तोड़कर लाने वाला भला कौन हो सकता है ? उसने विचार किया कि कृष्ण के अतिरिक्त तो यह कार्य कोई और नहीं कर सकता है अत: किसी न किसी तरह उसे ही नष्ट करने का उपाय करना चािहये।
कतिपय विचार विमर्शों के पश्चात् कंस ने गोपालों को शीघ्र ही यह आज्ञा दे दी कि नन्दगोप के पुत्र सहित समस्त गोप यहाँ मल्लयुद्ध के लिये अविलम्ब तैयार हो जावें। इस प्रकार मल्लयुद्ध के लिये कड़ी आज्ञा देकर चक्र और करोंत के समान तीक्ष्ण चित्त के धारक कंस ने मल्लयुद्ध के लिये इच्छुक हो शीघ्र ही अत्यन्त बलवान योद्धाओं और मल्लों को अपने पक्ष में आमंत्रित कर लिया और व्यर्थ के अभिमान में रावण की भाँति झूमने लगा।
वसुदेव और बलदेव को कंस की यह कुचेष्टा समझते देर न लगी। अत: उन्होंने कंस को बताये बिना गुप्त रीति से अपने समस्त भाइयों को कंस की कूटनीति बताकर मथुरा में ही उपस्थित होने के लिये खबर भेज दी। वे सभी समय पर वहाँ अपने सैन्य बल सहित उपस्थित हो गये।
यदुवंशी राजाओं को असमय में मथुरा नगरी की ओर आते हुए देखकर यद्यपि कंस शंकित हो गया था तथापि उसे जब यह ज्ञात हुआ कि ये सब लोग अपने छोटे भाई वसुदेव से मिलने के लिये आए हैं तो उसने प्रसन्न होकर सभी को सम्मानपूर्वक नगर प्रवेश कराकर अलग-अलग राजमहलों में उनके ठहरने का प्रबन्ध कर दिया अत: वे लोग वहाँ पर सुखपूर्वक निवास करने लगे।
इधर बलदेव कृष्ण को लेने हेतु गोकुल पहुँचते हैं और अतिशीघ्रता में सहसा यशोदा पर बनावटी क्रोध दिखाते हुए कहने लगते हैं कि अभी तक तू अपने शरीर की संभाल में ही लगी है, क्यों इतनी देर कर रही है ?
यशोदा मैया बलदेव के इन कटु वचनों से डरकर रोने लगी और जल्दी-जल्दी भोजन बनाने में लग गई। इधर कृष्ण और बलदेव स्नान करने के लिये नदी की ओर चल दिये।
नदी तट पर पहुँचकर बलभद्र ने श्रीकृष्ण से पूछा कि आज तुम बहुत उदास लगते हो ? तुम्हारी आँखें और कपाल आँसुओं से भीगे प्रतीत होते हैं। हे भाई! आज तुम्हारा हृदय किसी मानसिक संताप से संतप्त है क्या ? मुझे अपना दु:ख शीघ्र ही बताओ। तब कृष्ण ने अपने दाऊ से उलाहना भरे हुए स्वर में कहा—‘आज आपने मेरी पूज्य माता यशोदा को अत्यन्त कठोर वचनों से तिरस्कार किया है। क्या आज जैसे महापुरुष के लिये यह उचित था ?’ इस प्रकार वचनों द्वारा शोक प्रकट करते हुए कृष्ण का बलभद्र ने दोनों भुजाओं से गाढ़ आिंलगन कर लिया, हर्ष से उनका शरीर रोमांचित हो गया।
निश्छल हृदयी कृष्ण को आज बलदेव ने पूर्व की सारी सत्य कहानी बतला दी। सबसे पहले अतिमुक्तक मुनि द्वारा की गयी भविष्यवाणी बताई, देवकी के छह पुत्रों का जन्म एवं कृष्ण की रक्षा आदि का सारा वृत्तान्त कहकर यह भी बतला दिया कि कंस ने मल्लयुद्ध का षडयंत्र भी तुम्हें मारने के लिये ही रचा है अत: अब शत्रु को नष्ट करने हेतु तुम्हारे सामने अवसर आ गया है।
दाऊ के मुख से सारा कथानक सुनकर श्रीकृष्ण के अन्दर सिंह जैसा पराक्रम उदित हो गया। दोनों भाइयों ने बड़े स्नेहपूर्वक जलक्रीड़ा करते हुए यमुना नदी में स्नान किया और अपने घर आ गये। घर आकर दोनों ने शालिधान्य का भात एवं समस्त स्वादिष्ट भोजन दूध, दही के साथ खाया। भोजन के पश्चात् इलायची आदि से युक्त सुगन्धित पान खाया, पान की लाली से उनके मुख की स्वाभाविक लालिमा—सुन्दरता और भी अधिक बढ़ गई।
बलदेव और कृष्ण दोनों भाइयों के भोजन आदि करने के बाद श्रीकृष्ण मल्लयुद्ध के योग्य वस्त्राभूषण पहनकर मथुरा नगरी की ओर अपने गोपसखाओं के साथ चल पड़े।
मथुरा में प्रवेश से पूर्व कंस के भक्त एक असुर ने नाग का रूप बनाया, दूसरे ने कटु शब्द करने वाले गधे का और तीसरे असुर ने दुष्ट घोड़े का रूप बनाया तथा नगर प्रवेश में विघ्न डालते हुए सबके सब मुँह फाड़कर सामने आए परन्तु कृष्ण ने उस सबको मार भगाया।
नगर में प्रवेश करते हुए दोनों भाई जब द्वार पर पहुँचे तो शत्रु की आज्ञा से उन पर एक साथ चम्पक और पादाभर नाम के दो हाथी छोड़ दिये गये। बलभद्र और कृष्ण दोनों एक-एक हाथी पर टूट पड़े और थोड़ी देर में ही दोनों हाथियों को यमलोक पहुँचाकर नगर में प्रविष्ट हो गये। उस समय गोपों द्वारा की गयी कृष्ण की जय-जयकार से सारी मथुरा नगरी गूँज उठी।
श्रीकृष्ण द्वारा कंस का मरण-
अनेक विघ्न बाधाओं को पार करते हुये दोनों भाई मथुरा में बने हुए मल्लयुद्ध के अखाड़े में हर्षपूर्वक प्रविष्ट हुए। रंगभूमि में पहुँचते ही बलभद्र ने जरासंध आदि समस्त राजाओं, मल्लों एवं कंस का परिचय कृष्ण को कराया। रंगभूमि में उपस्थित सभी की दृष्टियाँ हष्ट-पुष्ट कंधों वाले उन दोनों पर केन्द्रित हो गईं।
कुछ देर के पश्चात् वहाँ मल्लयुद्ध का दृश्य प्रारम्भ हो गया। समस्त मल्लों की उछलकूद एवं ताल के शब्दों से जो मनोहर जान पड़ता था ऐसे अखाड़े में बारी-बारी से कंस की आज्ञा पाकर अन्य अनेक मल्ल जंगली भैंसाओं के समान अहंकारी हो मल्लयुद्ध करने लगे। जब साधारण मल्लों का युद्ध हो चुका तब दुष्ट कंस ने कृष्ण से लड़ने के लिये उस चाणूर मल्ल को आज्ञा दी जो पर्वत की विशाल दीवार के समान विस्तृत वक्ष:स्थल से युक्त था।
कृष्ण और चाणूर में मल्लयुद्ध होने लगा। वङ्का के समान कठोर मुट्ठी वाला चाणूर पीछे से कृष्ण के सिर पर मुट्ठी का प्रहार करना ही चाहता था कि इतने में बलभद्र ने शीघ्रता से आगे बढ़कर चाणूर मल्ल के सिर पर जोर से मुक्का मारकर उसे अर्धमृत कर दिया। पुन: िंसह के समान शक्ति के धारक श्रीकृष्ण ने भी चाणूर मल्ल काे अपने वक्ष:स्थल से लगाकर भुजयन्त्र के द्वारा इतनी जोर से दबाया कि वह खून से लथपथ होकर मृत्यु को प्राप्त हो गया।
बलभद्र और नारायण ही जहाँ साक्षात् युद्ध कर रहे हों वहाँ भला कौन-सा शत्रु टिक सकता है ? उन बलदेव और कृष्ण में एक हजार सिंह और हाथियों का बल था। कंस ने जब अपनी आँखों के सामने चाणूर मल्ल की अप्रत्याशित मृत्यु देख ली तब तो वह क्रोध से लाल हो गया और सहसा हाथ में पैनी तलवार लेकर कृष्ण की ओर लपक कर भागा। उसके उठते ही सारा जनसमूह जोरदार शब्द करता हुआ उठ खड़ा हुआ और सभी लालायित होकर कंस के अंतिम समय की प्रतीक्षा करने लगे क्योंकि कृष्ण के पराक्रम से लगभग सभी को यह विश्वास हो चुका था कि इनके सामने कोई भी बलशाली ठहर नहीं सकता है।
सामने आते हुए कंस के हाथ से तलवार छीनकर श्रीकृष्ण ने मजबूती से उसके बाल पकड़कर कंस को पृथ्वी पर जोर से पटक दिया। इसके पश्चात् उसके कठोर पैरों को खींचकर ‘इसके योग्य यही दण्ड है’ यह विचार कर उसे पत्थर पर पछाड़कर मार डाला। कंस को मारकर श्रीकृष्ण हँसने लगे और चारों ओर कृष्ण की जय-जयकार से मथुरा नगरी गूँज उठी।
अपने राजा की इस प्रकार मृत्यु देखकर कंस की सेना क्षुभित होकर युद्ध हेतु सामने आई किन्तु दोनों भाइयों ने एवं यादवों ने उसे भी क्षणमात्र में नष्ट-भ्रष्ट करके भगा दिया।
माता-पिता से मिलन-
मल्ल की वेशभूषा से सहित दोनों भाई अनावृष्टि के साथ चार घोड़ों वाले रथ में सवार होकर उत्साहपूर्वक अपने घर पहुँचे। पिता के घर में उस समय समुद्रविजय आदि अनेक राजा एवं यदुवंशियों का विशाल समूह विराजमान था अत: सर्वप्रथम कृष्ण और बलदेव ने अपने गुरुजनों को नमस्कार कर उनका मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया पुन: अपनी जन्मदात्री माता देवकी और पिता वसुदेव को प्रणाम करके उनके पुत्र वियोग से संतप्त हुए हृदयों को अपने संयोग से अतिशय प्रसन्न किया।
कुबेर की उपमा को धारण करने वाले वसुदेव और देवकी पुत्र के मुख को नि:शंक रूप से देखकर अनुपम सुख को प्राप्त हुए। अतिमुक्तक मुनिराज द्वारा की गई भविष्यवाणी आज साकार हुई जानकर उन्होंने मन ही मन में गुरुदेव को नमस्कार किया और अपने मातृत्व को दुर्भाग्य से मुक्त मानकर असीम प्रसन्नता का अनुभव किया।
इसके पश्चात् कृष्ण ने मथुरा के गोपुर द्वार के ऊपर वैâदखाने में बन्द अपने नाना उग्रसेन को बन्धनमुक्त किया और उन्हें राजिंसहासन पर पुन: विराजमान किया। पुत्र के रूप में बदला चुकाने वाले पूर्व भव के शत्रु कंस का मरण जानकर उग्रसेन को यद्यपि पुत्र मरण का दु:ख तो हुआ तथापि होनहार की प्रबलता का चिन्तन करते हुए उन्होंने पुन: अपनी शुष्क राज्यलक्ष्मी को स्वीकार किया और कृष्ण को बार-बार मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।
कंस के अन्तिम दाह संस्कार के पश्चात् उसकी विधवा पत्नी जीवद्यशा अपने पिता जरासंध के पास पहुँचकर विलाप के द्वारा वैधव्य का दु:ख प्रदर्शित करने लगी, शेष सभी लोग अपने-अपने परिवार के साथ सुखपूर्वक जीवन यापन करने लगे।
(६)
कृष्ण का प्रथम पाणिग्रहण सत्यभामा के साथ-
मथुरा के राजा कंस को यमलोक पहुँचाने वाले कृष्ण अब युवावस्था में प्रवेश कर चुके थे। वे एक दिन गोपाल मित्रों के साथ अपनी राजसभा में बैठे हुए थे कि तभी आकाशमार्ग से विद्याधरों के राजा सुकेतु का एक दूत वहाँ आया और द्वारपाल से आज्ञा लेकर अन्दर प्रविष्ट हुआ।
राजसभा में पहुँचकर उस दूत ने श्रीकृष्ण को विनयपूर्वक नमस्कार करके कहा कि हे राजन्! विजयार्ध पर्वत के ऊपर एक ‘सुकेतु’ नाम का राजा है जो कि दक्षिणी श्रेणी में बसे हुए ‘रथनूपुरचक्रवाल’ नामक नगर में रहता है। उसने आपके समस्त पराक्रम को सुनकर मुझे आपके पास भेजा है तथा यह संदेश कहलाया है कि ‘यद्यपि आप उत्तमोत्तम वस्तुओं को प्रदान करने वाले लोगों से सदैव घिरे हुए रहते हैं तथापि मेरी एक तुच्छ प्रार्थना है कि आप मेरी पुत्री सत्यभामा को स्वीकार कर लें तो आपका यश विद्याधर लोक में भी वृिंद्धगत हो जायेगा।’
उनके गोपाल मित्र इस रिश्ते से बड़े प्रसन्न हुए तभी कृष्ण ने माता-पिता से विचार-विमर्श करके दूत को स्वीकृति प्रदान कर दी कि मैं सत्यभामा को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करूंगा।
दूत ने वापस अपने राज्य में जाकर राजा सुकेतु से श्रीकृष्ण और बलराम के गुणों का खूब बखान किया और सत्यभामा को स्वीकृत करने की शुभ सूचना दे दी। सुकेतु राजा के भाई रतिमाल के एक ‘रेवती’ नाम की कन्या थी अत: दोनों भाई अपनी-अपनी कन्या बलराम और नारायण को प्रदान करने हेतु सपरिवार मथुरा आ पहुँचे। रतिमाल ने अपनी कन्या ‘रेवती’ का पाणिग्रहण बलभद्र के साथ किया और सुकेतु ने ‘सत्यभामा’ नाम की पुत्री श्रीकृष्ण को दी। इस प्रकार एक ही मण्डप में दोनों भाइयों के विवाह सम्पन्न हुए।
मथुरा नगरी आज इन राजपुत्रों के विवाहोपलक्ष्य में दुल्हन के समान सजाई गई थी। जगह-जगह तोरणद्वार, मंगल घट, पुष्पमालाएं आदि अपने राजकुमारों का मंगलाचार कर रहे थे। नगर भर की स्त्रियों से घिरी हुई माता रोहिणी और देवकी अपने पुत्रों को पुत्रवधुओं से सहित देखकर अत्यधिक सन्तुष्ट हो रहीं थीं मानों उन्हें बहुओं के रूप में आज लक्ष्मी की ही प्राप्ति हो गई थी।
सारे शहर में विद्याधर राजाओं एवं वसुदेव की ओर से तरह-तरह की अमूल्य वस्तुएँ भेंट में दी गईं। अपनी-अपनी कन्याएँ प्रदान करने के पश्चात् राजा सुकेतु एवं रतिमाल दोनों अपने देश चले गये और सत्यभामा श्रीकृष्ण के साथ तथा रेवती बलभद्र के साथ सुखपूर्वक जीवनयापन करने लगीं।
जब श्रीकृष्ण अपने भाई बन्धुओं के साथ ‘शौरीपुर’ नगर में आनन्दपूर्वक रह रहे थे कि उधर से जीवद्यशा के पिता जरासंध ने अपने पुत्रों को उन पर चढ़ाई करने के लिये भेज दिया। उनके कई पुत्र अपनी सेना सजाकर यादवों पर आक्रमण करने हेतु शौरीपुर पहुँच गये किन्तु रणांगण में बलराम और कृष्ण के समक्ष एक भी न टिक सका अत: पराजित होकर वापस भाग गए।
अगली बार जरासंध ने कुपित होकर कृष्ण से युद्ध करने के लिये अपने ‘अपराजित’ नामक वीर पुत्र को भेजा जो कि शत्रुओं के लिये साक्षात् यमराज के समान था। अपनी बहन के वैधव्य से भाइयों के हृदय में प्रतिशोध की अग्नि तो जल ही रही थी। क्षणमात्र में शत्रु को नष्ट कर देने की तीव्र कषायभावना से संयुक्त ‘अपराजित’ राजकुमार ने युद्धस्थल में पहुँचकर चिरकाल तक यादवों के साथ युद्ध किया। उत्तर पुराण में आचार्यश्री गुणभद्रस्वामी ने उस युद्ध का वर्णन करते हुए लिखा है कि अपराजित ने यादवों के साथ तीन सौ छियालीस बार युद्ध किया परन्तु पुण्य क्षीण हो जाने से कृष्ण के समक्ष उसे पराजित होना पड़ा।
इसके पश्चात् जरासंध का द्वितीय पुत्र ‘कालयवन’ यादवों को नष्ट करने का संकल्प लेकर युद्ध हेतु चल पड़ा। कालयवन का ऐसा संकल्प सुनकर युद्ध से थके हुये यादवों ने शौरीपुर, हस्तिनापुर और मथुरा तीनों स्थानों को छोड़ने का निश्चय कर लिया। कालयवन उनका पीछा कर रहा था तब यादवों की कुल-देवता एक देवी अपनी विक्रिया के बल से बहुत-सा ईंधन इकट्ठा कर ऊँची लौ वाली अग्नि जलाकर स्वयं एक बुढ़िया का रूप बनाकर मार्ग में बैठ गयी। उसे देखकर युवा कालयवन ने उससे पूछा कि यह क्या है ? तब उत्तर में बुढ़िया कहने लगी कि हे राजन्! आपके भय से मेरे सब पुत्र यादवों के साथ इस अग्नि में जलकर मर गये हैं इसीलिये मैं दु:खी अभागिन उनके शोक में यहाँ बैठी हूँ। बुढ़िया के ये वचन सुनकर कालयवन सोचने लगा कि मैं कितना पराक्रमी हूँ कि जिसका नाममात्र सुनकर ही ये वीर लोग अग्नि में कूद गये अत: झूठा अहंकार धारण कर वह पिता के पास वापस लौट गया और सभी लोक संतुष्ट हो शत्रु के मरने की खुशी मनाने लगे।
इधर चलते-चलते यादवों की सेना अपने लिये समुचित स्थान खोजती हुई समुद्र के किनारे पहुँच गई और वहाँ कृष्ण ने शुद्ध भावों से दर्भासन पर बैठकर विधिपूर्वक मंत्र का जाप करते हुए अष्टोपवास ग्रहण कर लिया। मन्त्र के प्रभाव से नैगम देव ने प्रकट होकर कहा ‘मैं घोड़े का रूप धारण करता हूँ तुम उस पर सवार हो जाओ। मैं तुम्हें समुद्र के भीतर बारह योजन तक ले जाऊंगा, वहाँ तुम्हारे लिये नगर बन जायेगा।’
नैगमदेव की बात सुनकर श्रीकृष्ण उस घोड़े पर बैठकर समुद्र के अन्दर पहुँच गये। उसी समय वहाँ नारायण श्रीकृष्ण तथा होनहार तीर्थंकर नेमिनाथ के पुण्य से इन्द्र की आज्ञा पाकर कुबेर ने एक सुन्दर नगरी की रचना कर दी। नगरी के बीचोंबीच में एक बड़ा जिनमंदिर था तथा चारों ओर परिखा, गोपुर आदि युक्त सुन्दर महल बने हुये थे। ‘द्वारावती’ नाम की वह सुन्दर नगरी देवपुरी को भी लज्जित कर रही थी। उस नगरी में श्रीकृष्ण अपने माता-पिता, भाई बलदेव एवं समस्त यादवों के साथ सुखपूर्वक निवास करने लगे।
श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी का हरण-
एक दिन आकाशमार्ग से नारदजी श्रीकृष्ण की द्वारावती नगरी में आ पहुँचे। वहाँ का वैभव देखकर वे वापस कुण्डिनपुर नगर में जाकर भीष्म के रुक्मि नामक पुत्र की रुक्मिणी नामक कन्या के समक्ष खड़े हो गये। नारदजी को आया देखकर रुक्मिणी ने विनयपूर्वक उन्हें नमस्कार किया। तब नारदजी ने भी ‘द्वारिका के स्वामी तुम्हारे पति हों’ यह आशीर्वाद उसे प्रदान किया पुन: नारद के मुख से श्रीकृष्ण की प्रशंसा सुनकर रुक्मिणी उनमें आसक्त हो गयी।
वहाँ से पुन: द्वारिका आकर नारद ने श्रीकृष्ण को समझाया जिससे वे भी रुक्मिणी के साथ विवाह करने का विचार करने लगे। इधर रुक्मिणी का सम्बन्ध उसके बाबा भीष्म ने कौशल के राजा भेषज के पुत्र शिशुपाल के साथ तय कर दिया। तब रुक्मिणी ने दु:खी होकर अपनी बुआ से मन की सारी बात कहकर उपाय पूछा। उसकी बुआ कहने लगी ‘हे कन्ये! एक बार अतिमुक्तक मुनि ने बताया था कि तू श्रीकृष्ण की पत्नी बनकर उनकी सोलह हजार रानियों में पट्टरानी होगी। बेटी! तू धैर्य धारण कर, मैं श्रीकृष्ण को समाचार भेजूँगी, वे शीघ्र ही तुझे हरण करके ले जाएंगे।’
माघ शुक्ला अष्टमी को जब रुक्मिणी अपनी बुआ के साथ उद्यान में भ्रमण कर रही थी तभी प्राप्त समाचार के अनुसार श्रीकृष्ण बलराम के साथ वहाँ आ गए और रुक्मिणी को अपने रथ पर बैठाकर द्वारिका की ओर चल दिए।
रुक्मिणी का श्रीकृष्ण द्वारा हरण का समाचार ज्ञात होते ही भीष्म, रुक्मि और शिशुपाल सेना लेकर उनका पीछा करने चल पड़े। रास्ते में श्रीकृष्ण ने सभी के साथ युद्ध किया, जिसमें शिशुपाल मारा गया। अन्त में अपनी हार स्वीकार करके भीष्म और रुक्मि ने श्रीकृष्ण के साथ ही रुक्मिणी का विवाह कर दिया।
इस प्रकार रुक्मिणी के साथ पाणिग्रहण करके नारायण श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के साथ द्वारिकापुरी में आ गये और नववधू के साथ सुखपूर्वक निवास करने लगे। कुछ समय पश्चात् ही रुक्मिणी को सोलह हजार रानियों के मध्य पट्टरानी का पद प्राप्त हुआ। श्रीकृष्ण की ८ पट्टरानियाँ थीं जिनमें सत्यभामा और रुक्मिणी भी थीं। आगे चलकर रुक्मिणी ने प्रद्युम्न नामक परमप्रतापी पुत्र उत्पन्न किया जिसने उसी भव से मोक्ष प्राप्त किया।
(७)
तीर्थंकर नेमिनाथ का जन्म-
द्वारावती नगरी में इसी हरिवंश में श्रीकृष्ण के ताऊ राजा समुद्रविजय एवं रानी शिवादेवी के आंगन में दिव्य रत्नों की धारा बरसने लगी क्योंकि शिवादेवी के पवित्र गर्भ में अच्युत स्वर्ग के अहमिन्द्र का जीव पदार्पण करने वाला है। छह माह तक रत्नवृष्टि होने के पश्चात् कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर में शिवादेवी ने सोलह स्वप्न देखे और उसके बाद मुख कमल में प्रवेश करता हुआ एक उत्तम हाथी भी देखा।
प्रात:काल भेरियों की मंगलध्वनिपूर्वक रानी शिवादेवी की निद्रा भंग हुई। मंगल स्नानादि दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर वह देवियों के साथ राजदरबार में पहुँची और नम्रतापूर्वक पतिदेव के समीप अपने अर्द्धासन पर बैठ गई। इसके पश्चात् उन्होंने पति से अपने स्वप्नों का फल पूछा। सूक्ष्म बुद्धि वाले राजा समुद्रविजय ने मन्द मुस्कानपूर्वक कहा कि ‘हे देवि! तुम्हारे गर्भ में तीन लोक के स्वामी तीर्थंकर अवतीर्ण हो चुके हैं। उस समय शिवादेवी के हृदय में इतनी प्रसन्नता हुई कि मानो उसी समय उन्होंने तीर्थंकर पुत्र प्राप्त कर लिया हो।’
पूर्व व्यवस्थाओं के अनुसार इन्द्रगण आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाने लगे। पुन: श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में ब्रह्मयोग के समय तीन ज्ञान के धारक भगवान का जन्म हुआ।१ सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पित होते ही वह समस्त देव परिवार के साथ धरती पर आ गया और महान उत्सवपूर्वक तीर्थंकर का जन्मकल्याणक मनाया। नीलकमल की कांति को धारण करने वाले तीर्थंकर शिशु बालसुलभ क्रीड़ाओं से माता-पिता एवं देव बालकों का चित्त हरण करने लगे।
भगवान नमिनाथ की तीर्थ परम्परा के बाद पाँच लाख वर्ष बीत जाने पर नेमिनाथ जिनेन्द्र उत्पन्न हुए और चिरकाल तक द्वारावती में रहे। दिव्य सुखों का उपभोग करते हुए उनका बहुत भारी समय शीघ्र ही व्यतीत हो गया। किसी एक दिन मगध देश के कई वैश्यपुत्र धन कमाने हेतु जलमार्ग से विदेश यात्रा को निकले किन्तु वे रास्ता भूलकर समुद्र के अन्दर स्थित द्वारावती नगरी में पहुँच गये। मार्ग भूलने के ये क्षण भी उनके लिये सौभाग्यशाली बन गये क्योंकि वहाँ के समान अद्वितीय महिमा उन्होंने कभी देखी नहीं थी। द्वारावती में जो रत्नों की वर्षा हुई थी उनमें से कुछ रत्न किसी वणिक् से इन लोगों को भी प्राप्त हो गये। वे वैश्यपुत्र काफी दिनों बाद धन कमाकर जब वापस राजगृह नगर आये तो उन अमूल्य रत्नों को राजा जरासंध को भेंट कर उनके दर्शन किये। यह एक लोक नीति है कि भगवान, गुरु, राजा और ज्योतिषी के पास कभी भी खाली हाथ नहीं जाना चाहिये।
राजा जरासंध ने उन लोगों की भेंट स्वीकार कर सर्वप्रथम तो सबके कुशल समाचार पूछकर उनका सम्मान किया पुन: उन अमूल्य रत्नों के बारे में पूछा कि आप लोगों ने इन्हें कहाँ से प्राप्त किया है ? उत्तर में वे वैश्यपुत्र कहने लगे ‘हे राजन्! हम लोगों ने अपनी इस विदेश यात्रा में एक ऐसा महान आश्चर्य देखा है जिसे पहले कभी नहीं देखा था। समुद्र के बीच में एक स्वर्ण के समान सुन्दर द्वारावती नाम की नगरी है। वहाँ शत्रु तो पहुँच भी नहीं सकते हैं। तीर्थंकर नेमिनाथ ने वहाँ पर जन्म लिया है उसी के उपलक्ष्य में वहाँ इस प्रकार के दिव्य रत्न पन्द्रह महीनों तक बरसे हैं। महाराज! इतना ही नहीं, वहाँ के लोगों ने बताया कि स्वर्ग से कुबेर स्वयं आकर महाराजा समुद्रविजय के आंगन में प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ रत्न बरसाता था। वे रत्न राजा ने अपनी समस्त प्रजा को बाँट दिये हैं, वहाँ का कोई व्यक्ति निर्धन नहीं है। और हाँ, नेमिनाथ तीर्थंकर के आस-पास तो हर वक्त स्वर्ग के इन्द्र िंककर बने खड़े रहते हैं, उनका तो भोजन भी स्वर्ग से ही देवगण लाते हैं। बस, वहाँ के ठाठ तो पूछो ही मत, वह अत्यन्त विशाल देवोपुनीत नगरी यादवों की नगरी कहलाती है।
वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण और बलराम भी वहीं सपरिवार आनन्दपूर्वक रहते हैं। हे राजन्! हम लोग ये रत्न वहीं से लाये हैं। आपका खजाना इन दिव्य रत्नों से पवित्र हो जायेगा।’
नारायण प्रतिनारायण का युद्ध-
वैश्य पुत्रों से यह बात सुनकर अहंकारी राजा जरासंध के क्रोध का ठिकाना न रहा क्योंकि वह तो यह सोचकर आनंदित था कि श्रीकृष्ण आदि सब यादव अग्नि में जलकर मर चुके हैं। वह शीघ्र ही युद्ध की तैयारी करके कुरुक्षेत्र की ओर चल पड़ा। श्रीकृष्ण को भी यह ज्ञात होते ही उनकी सेना भी तैयार होने लगी।
वे युवराज नेमिकुमार के पास पहुँचकर बोले कि आप इस नगर की रक्षा कीजिये, मैं जरासंध से युद्ध करने हेतु प्रस्थान कर रहा हूँ। श्रीकृष्ण के वीरतापूर्ण वचन सुनकर मुस्कुराते हुए नेमिनाथ ने ‘ओम्’ शब्द का उच्चारण किया। उनके इतने मात्र शब्द से श्रीकृष्ण ने समझ लिया कि इन्होंने द्वारावती का शासन स्वीकृत कर िलया है और हमारी जीत निश्चित है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि श्रीकृष्ण नारायण पदवी के धारक थे और जरासंध प्रतिनारायण था।
कुरुक्षेत्र में दोनों पक्ष की सेनाएं पहुँच गईं। जरासंध के साथ दुर्योधन की पूरी कौरव सेना थी और श्रीकृष्ण के साथ बलराम, पाँचों पांडवों तथा यादवों की सेना थी।
उत्तर पुराण में वर्णन आया है कि उस कुरुक्षेत्र में क्षण भर में ही खून की नदियाँ बहने लगीं और उस युद्ध ने ही महाभारत युद्ध का रूप धारण कर लिया था, उस समय सबसे अधिक मनुष्यों की अकालमृत्यु हुई थी।
कई दिनों के युद्ध में श्रीकृष्ण की छोटी सी सेना को जरासंध की वृहत् सेना ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया तो श्रीकृष्ण स्वयं अपने समस्त सामंत राजाओं के साथ युद्धस्थल में उतर पड़े अत: शत्रु की सेना में भगदड़ मच गयी। यह देखकर जरासंध क्रोध से अंधा होकर श्रीकृष्ण के सामने आ गया। बलशाली शत्रु के समक्ष कोई वश चलता न देखकर जरासंध ने अपना चक्ररत्न लेकर श्रीकृष्ण के ऊपर चला दिया परन्तु वह चक्र श्रीकृष्ण की तीन प्रदक्षिणा देकर उनके दाहिने हाथ में आकर ठहर गया। अब तो जरासंध मृत्युभय से इधर-उधर भागने लगा, किन्तु वह जाता भी कहाँ ? श्रीकृष्ण ने तुरन्त ही उस चक्र को जरासंध पर चलाया जिसके परिणामस्वरूप जरासंध का मस्तक कटकर भूमि पर गिर पड़ और उसकी मृत्यु हो गयी।
उसी समय श्रीकृष्ण की जीत के नगाड़े बजने लगे और नारायण श्रीकृष्ण अर्धचक्री की जयकारों से आकाशमण्डल गूंज उठा। नारायण यद्यपि एक आर्यखण्ड और दो म्लेच्छखण्ड इन तीन खण्डों के अधिपति होते हैं फिर भी उनके लिये उत्तरपुराण में कई स्थानों पर ‘चक्रवर्ती’ शब्द का प्रयोग हुआ है। यथा—
चक्री चक्रं पुरस्कृत्य विजिगीषुर्दिशोभृषम्।
प्रस्थानमकरोत्सार्धं बलेन स्वबलेन च।।१
अर्थ-
चक्रवर्ती श्रीकृष्ण ने दिग्विजय की भारी इच्छा से चक्ररत्न आगे कर बड़े भाई बलदेव और अपनी सेना के साथ प्रस्थान किया।
तीनों खण्डों पर विजय प्राप्त करके चक्रवर्ती श्रीकृष्ण ने महान विभूति के साथ द्वारावती नगरी में प्रवेश किया। विद्याधर राजाओं ने विधिवत् उनका राज्याभिषेक किया और तीन खण्ड की समस्त पृथ्वी के अधिपति होने की घोषणा की। अब नारायण श्रीकृष्ण बलभद्र के साथ निष्कंटक रूप से राज्य संचालन करने लगे।
नेमिनाथ का विवाह एवं वैराग्य-
समय अपनी गति से चल रहा था। नारायण श्रीकृष्ण लघु भ्राता नेमिकुमार को पूर्ण युवावस्था में देखकर उनके विवाह का विचार करने लगे। सभी से विचार विमर्श करके गुजरात प्रान्त में जूनागढ़ के राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती (राजुल) के साथ उनका सम्बन्ध निश्चित कर श्रावण शुक्ला षष्ठी की शुभ तिथि में नेमिकुमार को दूल्हा बनाकर सारा परिवार उनकी बारात के साथ जूनागढ़ को चल दिया।
क निरीह पशुओं के करुण क्रन्दन को सुनकर उन्हें वैराग्य हो गया और राजुल के द्वार से वे बिना वरमाला डलवाये ही वापस चल दिये। विवाह का संपूर्ण वातावरण शोक में परिवर्तित हो गया। सभी ने नेमिनाथ को बहुत समझाया किन्तु उन्हें तो वैराग्य हो चुका था संसार के नश्वर भोगों से। तत्काल ही स्वर्ग से लौकांतिक देव आकर उनके वैराग्य की प्रशंसा एवं अनुमोदना करने लगे और देवकुरू नाम की पालकी में बैठकर नेमिनाथ ने गिरनार पर्वत के सहस्राम्र वन में जाकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया।
राजुलमती भी नेमिनाथ के पीछे-पीछे वहीं पहुँच गयी और आर्यिका दीक्षा धारण कर घोर तपस्या करने लगी। उस समय एक हजार राजाओं ने नेमिनाथ के साथ दीक्षा धारण कर ली। द्वारावती के राजा वरदत्त के यहाँ मुनिराज नेमिनाथ का प्रथम आहार हुआ अत: उनके घर में पंचाश्चर्य की वृष्टि हुई।
केवलज्ञानी नेमिनाथ के समवशरण में देवकी के प्रश्न-
इस प्रकार तपस्या करते हुए जब मुनिराज नेमिनाथ की दीक्षा के ५६ दिन व्यतीत हो गये तब आश्विन शुक्ला एकम को उसी गिरनार पर्वत पर वंश वृक्ष के नीचे प्रात:काल के समय चित्रा नक्षत्र में उन्हें केवलज्ञान प्रकट हो गया। तत्क्षण ही इन्द्रों ने समवशरण की रचना करके ज्ञानकल्याणक की पूजन कर भारी उत्सव मनाया।
भगवान नेमिनाथ के समवशरण की बारह सभाओं में सभी प्राणी यथास्थान विराज गये। वरदत्त नाम के प्रमुख गणधर उनकी दिव्यध्वनि को झेलने में समर्थ हुए। भगवान को केवलज्ञान हुआ जानकर द्वारावती नगरी से भी श्रीकृष्ण, बलराम, वसुदेव-देवकी आदि सभी दिव्यध्वनि का पान करने हेतु समवशरण में पधारे। सभी भव्य प्राणी वहाँ अपने-अपने पूर्वभव के बारे में पूछ रहे थे। इसी शृंखला में माता देवकी ने भी हाथ जोड़कर भगवान से एक प्रश्न किया—
‘हे भगवन्! मेरे घर में अभी कुछ दिन पूर्व ही दो-दो करके ६ मुनिराज तीन बार में आकाशमार्ग से आहार हेतु आए। वे सभी बिल्कुल एक जैसे रूप वाले थे। मेरे मन में शंका है कि क्या उन दो मुनियों का एक युगल ही तीन बार आया था ? किन्तु मुनि तो दिन में एक बार ही आहार लेते हैं। हे तीन लोक के स्वामी! यह शंका तो मुझे बाद में उत्पन्न हुई है किन्तु उस समय मैंने बड़ी भक्तिपूर्वक उन्हें तीनों बार आहार कराया और उन छहों में मुझे पुत्र जैसा स्नेह उत्पन्न हुआ था, सो इसका क्या कारण है ?
भगवान नेमिनाथ की दिव्यध्वनि खिरी और वरदत्त गणधर देवकी को बतान्ो लगे-‘हे देवि! पूर्व भवों के पारस्परिक सम्बन्धों के अनुसार ये छहों मुनि इस जन्म में तुम्हारे पुत्र हैं। तुमने इन्हें तीन युगलिया के रूप में जन्म दिया है। ये चरमशरीरी हैं, इसी भव से मोक्ष प्राप्त करेंगे। तुम्हारे ये छहों पुत्र रूपादि में एक समान हैं, ये चारणऋद्धि से युक्त हैं। इन्हें आहार कराने से तुम्हारे मन में इनके प्रति पुत्रत्व का प्रेम उमड़ना स्वाभाविक ही है।’
देवकी इस प्रकार का वर्णन गणधर स्वामी से सुनकर अतिशय प्रसन्न होकर अपने मातृत्व को धन्य मानने लगी।
(८)
द्वारिका नगरी के लिये भविष्यवाणी-
श्रीकृष्ण के प्रति निकाचित स्नेह को धारण करने वाले बलदेव ने एक दिन भगवान नेमिनाथ के समवशरण में जाकर प्रश्न किया कि हे भगवन्! श्रीकृष्ण का यह वैभवशाली निष्कंटक राज्य कितने समय तक चलेगा ? देवताओं द्वारा बसाई गयी द्वारिका नगरी कब तक स्थिर रहेगी ?
उत्तर में भगवान नेमिनाथ ने कहा कि ‘हे भद्र! बारह वर्ष के बाद मदिरा का निमित्त पाकर यह द्वारावती नगरी द्वीपायन मुनि के द्वारा निर्मूल—नष्ट हो जायेगी।’ श्री तीर्थंकर का यह उपदेश सुनकर द्वीपायन नाम का श्रावक तो उसी समय मुनि दीक्षा धारण कर द्वारिका से बाहर दूसरे देश में ही चला गया और आयु का बन्ध पहले किये हुए श्रीकृष्ण ने समवशरण में तीर्थंकर नेमिनाथ के पादमूल में सम्यग्दर्शन प्राप्त करके तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया पुन: उन्होंने द्वारावती में आकर अपने अन्त:पुर में तथा सारी द्वारिका नगरी में घोषणा कर दी कि ‘जो कोई भी स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध दीक्षा ग्रहण करना चाहें उन्हें मेरी ओर से पूर्ण स्वतन्त्रता है, मैं किसी को भी नहीं रोवूँâगा।’
यह सुनकर प्रद्युम्न आदि पुत्रों तथा रुक्मिणी आदि आठों पट्टरानियों ने एवं अन्य कई रानियों ने चक्रवर्ती श्रीकृष्ण एवं अन्य परिवारजनों से पूछकर नेमिनाथ के समवशरण में जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली। जिन्हें दीक्षा धारण करने की शक्ति नहीं थी वे व्रत, उपवास, पूजा आदि सत्कार्य करने लगे। श्रीकृष्ण की आज्ञा से सभी मद्यपायी यादवों ने मदिरा को तथा मदिरा बनाने की साधन सामग्री को कादम्ब गिरि की गुफा में ले जाकर फेंक दिया ताकि कभी कोई उसे देख भी न सके।
संयोग की बात द्वीपायन मुनि जो कठोर तपस्या करके तैजस ऋद्धि से समन्वित हो चुके थे उन्होंने भ्रांतिवश यह समझ लिया कि बारह वर्ष व्यतीत हो चुके हैं अब तो भगवान द्वारा बताया गया भय का समय समाप्त हो ही चुका है अत: बारहवें वर्ष के प्रारम्भ को तेरहवें वर्ष का प्रारम्भ मानकर द्वारिका नगरी के बाहर कादम्ब पर्वत के निकट आकर आतापन योग धारण कर खड़े हो गये। उसी समय वनक्रीड़ा से थके एवं प्यास से पीड़ित अनेक यदुकुमार वहाँ आ गये और जल को खोजते-खोजते उस शराब के कुण्ड के समीप पहुँचे। उस शराब को ही उन्होंने जल समझकर ली लिया और पुरानी मदिरा के नशे से परिपूर्ण होकर नाचने लगे।
मनमानी वनक्रीड़ा करके जब वे कुमार नगर की ओर वापस जा रहे थे तभी उनकी दृष्टि द्वीपायन मुनि पर पड़ी और वे आपस में कहने लगे कि यह द्वारिका का नाश करने वाला द्वीपायन है। अब यह हम लोगों से बचकर कहाँ जायेगा ? इतना कहकर उन लोगों ने उन मुनिराज पर उपसर्ग करना शुरू कर दिया। पत्थरों से मार-मारकर मुनि को घायल कर दिया अत: वे जमीन पर गिर पड़े।
बहुत देर तक उपसर्ग सहन करने के पश्चात् अन्त में उन्हें कषायभाव जागृत हो गया और उन्होंने अत्यन्त क्रोधपूर्वक भृकुटि चढ़ा ली। उन चंचल कुमारों ने द्वारिका में प्रवेश कर श्रीकृष्ण को यह सब समाचार सुनाया अत: श्रीकृष्ण ने यह समझ लिया कि अब द्वारिका दहन निश्चित होने वाला है। फिर भी वे बलदेव के साथ जल्दी-जल्दी दौड़कर द्वीपायन के पास आकर क्षमायाचना करने लगे, किन्तु द्वीपायन का क्रोध शान्त नहीं हुआ। बार-बार क्षमा एवं प्राणों की भिक्षा मांगने पर द्वीपायन मुनि ने दो उंगली दिखाकर इशारा किया कि इस अग्निकांड में केवल तुम दोनों की रक्षा हो सकती है, अन्य किसी की रक्षा नहीं हो सकती है।
जब बलदेव और कृष्ण को यह पक्का विश्वास हो गया कि इनका क्रोध शान्त होने वाला नहीं है तो वह होनहार की प्रबलता सोचकर दु:खी मन से वापस द्वारिका चले गये। द्वीपायन मुनि रौद्र परिणामों से मरकर अग्निकुमार नामक मिथ्यादृष्टि देव हो गये। वहाँ तुरन्त कुअवधिज्ञान से पूर्व भव का वृतान्त जान लिया और क्रूर परिणामों से युक्त होकर द्वारिका में जाकर उस नगरी को जलाना शुरू कर दिया।
बृहदद्रव्यसंग्रह ग्रन्थ की टीका में पृ० २५-२६ पर द्वीपायन मुनि के बायें कंधे से निकले हुए अशुभ तैजस के पुतले द्वारा द्वारिका का दाह माना गया है। यथा—‘स्वस्य मनोनिष्टजनकं िंकचितकारणान्तर-मवलोक्य समुत्पन्नक्रोधस्य संयमनिधानस्य महामुनेर्मूलवारीरमत्यज् ………..द्वीपायनवत्।’ अर्थात् अपने मन को अनिष्ट उत्पन्न करने वाले किसी कारण को देखकर क्रोधित संयम के निधान महामुनि के बायें कंधे से सिन्दूर के ढेर जैसी कांति वाला बारह योजन लम्बा, सूच्यंगुल के संख्यात भाग प्रमाण मूल विस्तार और नौ योजन के अग्र विस्तार वाला काहल (बिलाव) के आकार का धारक पुरुष बायें कन्धे से निकल करके मुनि जिस पर क्रोधी हों उस विरुद्ध पदार्थ को जलाकर और उस मुनि के साथ स्वयं भी भस्म हो जावे, वह अशुभ तैजस नामक समुद्घात है, जैसे द्वीपायन मुिन ने किया था।
यहाँ हरिवंशपुराण के आधार से कथन चल रहा है कि अग्निकुमार देव बनकर उन्होंने द्वारिका को जलाना शुरू कर दिया था। उस समय भीषण अग्नि में जलते हुए समस्त प्राणियों का जैसा चीत्कारपूर्ण प्रलयंकारी दृश्य था जो कि उससे पूर्व पृथ्वी पर कभी भी नहीं हुआ था। श्री जिनसेनाचार्य कहते हैं कि यह भवितव्यता—होनहार दुर्निवार है अन्यथा इन्द्र की आज्ञा से कुबेर द्वारा रची गयी नगरी, जिसकी रक्षा स्वयं निर्माता ही करता था वह भला अग्नि के द्वारा वैâसे जल सकती थी।
वहाँ के बालक, वृद्ध और स्त्रियाँ अग्नि में जलते हुए जोर-जोर से रो-रोकर पुकार रहे थे कि ‘हे बलदेव और कृष्ण! हमारी रक्षा करो, रक्षा करो। आप लोग कहाँ चले गये।’ घबराये हुए दोनों भाइयों ने समुद्र से जल खींचकर अग्नि बुझाने का प्रयास किया किन्तु उस समय वह जल भी तेल जैसा काम करने लगा और उससे अग्नि अत्यधिक प्रज्ज्वलित हो उठी। पुन: कृष्ण ने अपनी दोनों माताओं और पिता को तथा अन्य कई लोगों को रथ पर बैठाकर उसमें हाथी-घोड़े जोतकर नगरी से बाहर ले जाने का प्रयास किया तो देव ने रथ के पहिये कीचड़ में फंसा दिये। इसके बाद दोनों भाइयों ने स्वयं रथ को खींचना शुरू किया तो उस पापी देव ने रथ को वहीं कीलित कर दिया। जब तक बलदेव अपने बाहुबल से कीलित रथ को चलाते हैं तब तक उस क्रोधी दैत्य ने नगर का द्वार ही बन्द कर दिया। जब दोनों भाइयों ने द्वार के कपाटों को ही गिरा दिया तब शत्रु दरवाजे को रोककर खड़ा हो गया और बोला ‘तुम दोनों के सिवाय यहाँ से अन्य कोई भी जीवित नहीं निकल सकता है अत: अपने पुरुषार्थ को छोड़कर स्वयं की जान बचाने का प्रयास करो।’
इस विषम परिस्थिति को देखकर दोनों माताओं और पिता ने शोकाकुल होकर कहा ‘हे पुत्रों! तुम लोग जाओ अन्यथा हम लोगों के वंश का विनाश हो जाएगा।’ इस प्रकार गुरुजनों से अंतिम विदा लेते हुए अत्यन्त दु:खी होकर सबको छोड़कर दोनों भाई नगर के बाहर निकल गये।
स्वर्ग के समान सुन्दर अपनी नगरी को जलते हुए देखकर श्रीकृष्ण और बलदेव अचेतन के समान गतिहीन हो गये। वे इस बात का निश्चय नहीं कर सके कि कहाँ जायें ? बहुत देर तक तो दोनों एक-दूसरे के कंठ से लगकर रोते रहे पुन: आपस में सांत्वना प्रदान करते हुए दक्षिण दिशा की ओर चले गये।
इधर वसुदेव आदि कई यादव एवं उनकी स्त्रियाँ सन्यास धारण कर स्वर्ग में उत्पन्न हुए, बलदेव के कुछ चरमशरीरी पुत्र आदिकों ने जृम्भकदेव नामक जिनेन्द्र के पास जाकर संयम धारण कर लिया। बहुत सारे यादवों एवं उनकी स्त्रियों ने अग्नि में जलते समय ही धर्मध्यान से युक्त यम सल्लेखना धारण कर ली जिससे मरकर स्वर्गगति को प्राप्त किया। उस विशाल द्वारिका नगरी को द्वीपायन ने छह माह में जलाकर भस्म कर दिया। इस वीभत्स िंहसा के फलस्वरूप उसने अपनी तपस्या को ही अनन्त संसार का कारण बना लिया इसीलिए ऋषियों ने इस क्रोध कषाय को ही महान अग्नि की उपमा प्रदान की है।
इस प्रकार अतिसंक्षेप में नारायण श्रीकृष्ण का चरित्र दर्शाया गया है। बलभद्र और नारायण के रूप में निकाचित स्नेह को प्राप्त दोनों भाइयों में से बलराम ने कुछ दिनों के पश्चात् जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर घोरातिघोर तपस्या की। जैन सिद्धान्त के अनुसार दोनों ही भाई आगे आने वाले चतुर्थकाल में भरत क्षेत्र में तीर्थंकर बनकर जन्म धारण करेंगे और शीघ्र ही निर्वाण पद को प्राप्त करेंगे।
तीरथयात्रा का पुण्य विशाल है, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, भवसागर से होकर पार है।।टेक.।।
कोई गंगा को तीरथ कह, उसमें डुबकी लगाते हैं।
कोई संगम तट पर जाकर, निज को शुद्ध बनाते हैं।।
सच्चे तीरथ की कीरत विशाल है, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, भवसागर से होकर पार है।।१।।
सत्य अहिंसा करुणा की, नदियाँ जहां कल कल बहती हैं।
उनमें पापों के क्षालन को, जनता आतुर रहती है।।
वही तीरथ अलौकिक विशाल है, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, भवसागर से होकर पार है।।२।।
कहीं किसी पर्वत पर जाकर, महामुनी तप करते हैं।
वृक्षों के नीचे भी तपकर, केवलज्ञानी बनते हैं।।
वे ही तीरथ कहाते विशाल हैं, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा भवसागर से होकर पार है।।३।
ये सब द्रव्य तीर्थ हैं चेतन भाव तीर्थ कहलाता है।
चलते फिरते तीर्थ साधुगण जिनका मोक्ष से नाता है।।
‘‘चंदनामति’’ ये तीरथ विशाल है, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, भवसागर से होकर पार है।।४।।