आधुनिक परिवेश में चाहे श्रावक हो या मुनि, श्राविका हो या आर्यिका, स्पष्ट रूप में उनकी चर्या का ज्ञान होना आवश्यक है। आचार्यश्री यतिवृषभस्वामी ने कहा है-
पंचमकाल के अंत तक मुनि-आर्यिका, श्रावक-श्राविका का चतुर्विध संघ वर्तन करेगा। अभी तो पंचमकाल के मात्र २५४० वर्ष व्यतीत हुए हैं, शेष १८४६८ वर्षों तक निरन्तर ऐसी ही अक्षुण्ण परम्परा चलती रहेगी। इसके फलस्वरूप वर्तमान में लगभग चौदह सौ की संख्या में दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों के दर्शन हो रहे हैं, यह चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर महाराज की कृपाप्रसाद का फल है।
उस चतुर्विध संघ शृंखला में महिलाओें के लिए त्याग की चरमसीमा आर्यिका का पद माना जाता है।
वैसे देखा जाए तो धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक आदि समस्त क्षेत्रों में प्राचीन काल से नारियों का योगदान रहा है। जिस प्रकार से पुरुषों को आत्मसाधना करने का एवं जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार है, उसी प्रकार से प्रत्येक महिला को, चाहे वह कुंवारी हो, सौभाग्यवती हो या विधवा हो, सभी को आत्म कल्याण करने का अधिकार सदैव से प्राप्त है।
हाँ! मध्यकाल का एक युग ऐसा आया था, जब नारियों पर अत्याचार होते थे एवं अनेकों प्रकार की प्रताड़नाएं उन्हें प्राप्त होती थीं परन्तु आधुनिक परिप्रेक्ष्य में नारियों का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय संविधान के अनुसार भी पुत्र और पुत्री दोनों को माता-पिता की संपत्ति में बराबर का अधिकार बताया गया है।
इस कर्मयुग के प्रारंभ में जिस प्रकार से तीर्थंकर आदिनाथ ने दीक्षा लेकर मुनि परम्परा को प्रारंभ किया, उसी प्रकार उनकी पुत्री ब्राह्मी-सुन्दरी ने भगवान के समवसरण में दीक्षा लेकर आर्यिका परम्परा का शुभारंभ किया है। किंवदन्ती में ऐसा लोग कह देते हैं कि भगवान् आदिनाथ को अपने दामाद के समक्ष मस्तक झुकाना पड़ता इसीलिए उनकी कन्याओं ने विवाह बंधन ठुकरा कर दीक्षा धारण की थी किन्तु यह बात कदापि युक्तिसंगत नहीं है, न ही जैन इतिहास इस तथ्य को स्वीकार करता है। तीर्थंकर की तो प्रत्येक क्रिया ही अद्वितीय होती हैै। वे शैशव अवस्था से ही अपने माता-पिता एवं दिगम्बर मुनि को भी नमस्कार नहीं करते हैं, इसमें उनका अहंकार नहीं, बल्कि तीर्थंकर पदवी का माहात्म्य ही ऐसा है। माता-पिता या दिगम्बर मुनिराज उनकी इस क्रिया का प्रतिरोध भी नहीं करते हैं प्रत्युत तीर्थंकर के पुण्य की सराहना करते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि ब्राह्मी-सुन्दरी कन्याओं ने उत्कट वैराग्य भावना से आर्यिका दीक्षा धारण की थी तथा हजारों आर्यिकाओं में ब्राह्मी माता ने प्रधान ‘गणिनी’ पद को प्राप्त किया था। ‘सार्वभौम जैनधर्म प्राणिमात्र का हित करने वाला है’ यह सोचकर हृदय में संसार समुद्र से पार होने की भावना को लेकर कोई महिला पहले साधु संघ में प्रवेश करती है पुन: उसके वैराग्य भावों में वृद्धि प्रारंभ होती है। चतुर्विध संघ के नायक आचार्य उसे समुचित शिक्षाएँ प्रदान कर संघ की प्रमुख आर्यिका या गणिनी के सुपुर्द कर देते हैं क्योंकि आर्यिकाएँ ही महिलाओं की सुरक्षा एवं पोषण कर सकती हैं।
जिस प्रकार से बालक माता के प्रति पूर्ण समर्पित होता है। चाहे माँ उसे डांटे, मारे और कितना भी अपने से दूर भगावे किन्तु बालक रोने-धोने के पश्चात् भी माँ की गोद में ही आकर शांति प्राप्त करता है। माता का हृदय बहुत ही उदार होता है, उसकी ममता के आंचल तले जाकर बड़े से बड़ा दु:ख भी सुख रूप में परिवर्तित हो जाता है। इसीलिए माँ की महानता बतलाते हुए नीतिकारों ने शिक्षा दी है-
‘‘भोजन करना माँ से चाहे जहर हो, रास्ता चलना सीधा चाहे फेर हो’’
इसी प्रकार वैराग्य भावयुक्त कुमारी कन्या अथवा महिला भी आर्यिका माता के शिष्यत्व को स्वीकार करके स्वयं को उनके प्रति समर्पित कर देती है और उनसे निवेदन करती है कि हे मात:! मैं अपने अनंत संसार को समाप्त करने हेतु, स्त्रीलिंग के छेदन हेतु दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ अत: आप मुझे हस्तावलंबन देकर मेरी आत्मा का कल्याण कीजिए।
इन औपचारिकताओं के पश्चात् गणिनी आर्यिका उस नववैराग्यशालिनी महिला को कुछ दिन अपने पास रखती हैं और उसके मन की दृढ़ता को, शारीरिक क्षमता को एवं उसमें आर्यिका दीक्षा की योग्यता देखती हैं तथा धार्मिक अध्ययन भी कराती हैं। साधु संघ में प्रवेश करते ही वह दीक्षा धारण ही कर लेवे, यह कोई आवश्यक नहीं है। सर्वप्रथम तो उसमें साधुओं की वैयावृत्ति करने की एवं आहारदान की भावना होनी चाहिए तथा भिन्न-भिन्न प्रदेशों की, भिन्न-भिन्न प्रकृति वाली संघस्थ आर्यिकाओं व ब्रह्मचारिणियों के साथ प्रेमपूर्वक रहने की प्रवृत्ति होनी चाहिए ताकि संघ में किसी प्रकार की अशांति का वातावरण न उपस्थित होने पावे। यह यथानुरूप ढल जाना उस महिला में सबसे बड़ा गुण होना चाहिए।
कुमारी बालिकाएं तथा महिलाएँ ब्रह्मचर्य व्रत लेकर आर्यिकाओं के पास रहती हैं और आहार-दानादिक में भाग लेती हैं, यह बात ‘‘अनंतमती’’ के उदाहरण से साक्षात् स्पष्ट होती है। जैसा कि कथानक में आता है-
अंग देश के राजा प्रियदत्त और रानी अंगवती के ‘‘अनंतमती’’ नाम का एक कन्या थी। उसने बचपन में कुतूहलवश पिताजी से अष्टान्हिका पर्व में आठ दिनों का ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया था, जिसके फलस्वरूप उसने आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया।
एक बार कोई पूर्व जन्म के वैरी शत्रु विद्याधर ने उसका हरण कर उसे एक घनघोर जंगल में डाल दिया। अनेकों कष्टों को सहन कर जैसे-तैसे उसके शील की रक्षा हुई, तब वह जिनेन्द्र भगवान का स्मरण कर भटकती हुई किसी समय ‘अयोध्या’ नगरी पहुँच गई। वहाँ एक जिनमंदिर में ‘‘पद्मश्री’’ नाम की आर्यिका के दर्शन हुए, तब वह उन्हें माता समझ कर उनके पास रहने लगी।
अनंतमती के पिता उसे ढूंढते-ढूंढते जब अयोध्या पहुँचे, वहाँ एक श्रावक के घर के आगे सुन्दर चौक पूरा हुआ देखकर रोने लगे। श्रावक के द्वारा पूछने पर उसने बताया-मेरी पुत्री ऐसा चौक पूरा करती थी, अब वह पता नहीं कहाँ है? श्रावक ने आर्यिका के पास रहने वाली उस कन्या का प्रियदत्त से परिचय कराया और कहने लगा कि मेरी पत्नी इसे प्रतिदिन अपने चौके में भोजन करने के लिए बुलाती है और चौक भी यही कन्या बनाती है।
पिता पुत्री का चिरवियोग के पश्चात् मिलन होता है किन्तु अनंतमती के मन में तो संसार के प्रति पूर्ण वैराग्य हो चुका था अत: उसने पिता की आज्ञा लेकर आर्यिकाश्री के पास दीक्षा धारण कर ली और घोरातिघोर तपश्चरण करती हुई सल्लेखनापूर्वक मरण करके सहस्रार स्वर्ग में देवपद को प्राप्त कर लिया।
इसी प्रकार के अनेकों उदाहरण वर्तमान में भी देखे जाते हैं क्योंकि चाहे बालक हो या बालिका, महिलाएँ हों या पुरुष, सभी के लिए दो ही मार्ग प्रशस्त होते हैं या तो वे साधुओं को नवधाभक्तिपूर्वक आहारदान देते हैं अन्यथा स्वयं साधु परमेष्ठी के पद को धारण कर श्रावकों से आहार लेते हैं। इसके अतिरिक्त आगमानुसार तीसरी श्रेणी कोई नहीं होती। यदि मनगढ़न्त अभिप्रायों से वह श्रेणी बना ली जाती है, तो ‘आप डूबे पांड्या ले डूबे जजमान’ वाली नीति ही सार्थक होती है क्योंकि नीचे पद में रहकर यदि उच्च पद की अनधिकृत क्रियाएँ की जाती हैं तो नीच गोत्र का आस्रव होता है एवं समाज भी भ्रमित हो जाती है।
संघ के बीच में एवं गणिनी गुर्वानी के अनुशासन में रहकर विद्याभ्यास करने से ब्रह्मचारिणियों के जीवन में इन अनर्गल क्रियाओं की संभावना प्राय: नहीं रहती है अत: आर्यिकाओं की प्रशस्त परम्परा इन्हीं से चलती है। जब संघ संरक्षण में रहती हुईं वे विद्या-शिक्षा में निपुण हो जाती हैं एवं व्यवहारिक ज्ञान आदि का अनुभव भी प्राप्त कर लेती हैं, तभी वे दीक्षा के योग्य मानी जाती हैं।
संघ के आचार्य अथवा गणिनी आर्यिका जी जब उस वैराग्यशील महिला का पूर्ण रूप से परीक्षण कर लेते हैं, तब उसकी दीक्षा का मंगल मुहूर्त निकालकर घोषणा करते हैं। औपचारिकता के नाते दीक्षार्थी के कुटुम्बियों से भी आज्ञा मंगानी होती है ताकि दीक्षा जैसा पुनीत कार्य निर्विघ्नरूप से सम्पन्न हो सके।
दीक्षार्थी महिला की इच्छानुसार तीर्थयात्राएँ भी उसे करवा दी जाती हैं पुन: जिनधर्म प्रभावना हेतु दीक्षार्थी की शोभायात्राएँ भी सम्पन्न होती हैं। यह कार्य गृहस्थ श्रावकों एवं दीक्षार्थी के परिवार वालों पर निर्भर रहता है।
यह क्रियाएँ वर्तमानकाल में लोक व्यवहार की दृष्टि से और धार्मिक प्रभावना के लक्ष्य से ही की जाती हैं। इसमें आत्मकल्याण का कोई विशेष संबंध नहीं है। पूर्वकाल के उदाहरण भी अपने समक्ष हैं कि वैराग्य होने के बाद पुन: किसी घड़ी की प्रतीक्षा नहीं की जाती क्योंकि असली वैराग्य ही सर्वोत्तम शुभ मुहूर्त माना जाता है।
आदिपुराण के पृष्ठ ५९२ पर श्री जिनसेन आचार्य ने लिखा है-
भरतस्यानुजा ब्राह्मी दीक्षित्वा गुर्वनुग्रहात्।
गणिनी पदमार्यायां सा भेजे पूजितामरै:।।
हरिवंशपुराण पृष्ठ १८३ पर प्रकरण है-
ब्राह्मी च सुन्दरी चोभे कुमार्यौ धैर्य संगते।
प्रव्रज्य बहुनारीभिरार्याणां प्रभुतां गते।
अर्थात् ब्राह्मी-सुन्दरी दोनों कन्याओं ने प्रभु आदिनाथ के समवसरण में आर्यिका दीक्षा धारण की थी और ब्राह्मी आर्यिका समस्त आर्यिकाओं में गणिनी-स्वामिनी थीं।
इस युग की प्रथम आर्यिका ने भगवान के समवसरण में दीक्षा ली थी उसके पश्चात् महिलाओं के लिए गणिनी से दीक्षा प्राप्त करने के अनेकों उदाहरण देखे जाते हैं-आदिपुराण द्वितीय भाग में पृ. ५०३ पर आया है-
अन्यत्र हरिवंश पुराण में भी कहा है-
‘‘दुष्ट संसार के स्वभाव को जानने वाली सुलोचना ने अपनी सपत्नियों के साथ श्वेत साड़ी धारणकर ब्राह्मी तथा सुन्दरी के पास दीक्षा धारण कर ली। इसके साथ हरिवंशपुराण में आर्यिका सुलोचना को ग्यारह अंग की धारिणी भी माना है।
कुबेरमित्र की स्त्री धनवती ने संघ की स्वामिनी आर्यिका अमितमती के पास दीक्षा धारण कर ली और उन यशस्वती तथा गुणवती आर्यिकाओं की माता कुबेरसेना ने भी अपनी पुत्री के समीप दीक्षा ले ली।
पद्मपुराण में भी वर्णन आता है-
‘‘रावण के मरने के बाद मंदोदरी ने शशिकांता आर्यिका के मनोहारी वचनों से प्रबोध को प्राप्त हो उत्कृष्ट संवेग और उत्तम गुणों को प्राप्त होती हुर्ई, गृहस्थ की वेशभूषा को छोड़कर, श्वेत साड़ी से आवृत हुई आर्यिका हो गई। उस समय अड़तालिस हजार स्त्र्िायों ने संयम धारण किया था, इन्हीं में रावण की बहन, जो कि खरदूषण की पत्नी थी, उस चन्द्रनखा (सूर्पणखा) ने भी दीक्षा ले ली थी।
माता कैकेयी भरत की दीक्षा के बाद विरक्तमना एक सफेद साड़ी से युक्त होकर तीन सौ स्त्रियों के साथ ‘पृथ्वीमती’ आर्यिका के पास दीक्षित हो गई थीं।
अग्नि परीक्षा के पश्चात् रामचन्द्र ने सीता से घर चलने को कहा, तब सीता ने कहा कि अब मैं ‘‘जैनेश्वरी आर्यिका दीक्षा धारण करूँगी’’, वहीं केशलोंच करके पुन: शीघ्र जाकर पृथ्वीमती आर्यिका के पास दीक्षित हो गईं।
उनके बारे में लिखा है कि सीताजी वस्त्रमात्र परिग्रहधारिणी महाव्रतों से पवित्र अंग वाली महासंवेग को प्राप्त थीं।
हरिवंश पुराण में राजुल के विषय में बताया है-
षट्सहस्रनृपस्त्रीभि: सह राजीमती सदा।
प्रव्रज्याग्रेसरी जाता सार्यिकाणां गणस्य तु।।१४६।।
छह हजार रानियों के साथ राजीमती ने भगवान् नेमिनाथ के समवसरण में आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी हो गईं।
हरिवंशपुराण में ही आगे-
राजा चेटक की पुत्री चंदना कुमारी, एक स्वच्छ वस्त्र धारण कर भगवान महावीर के समवसरण में आर्यिकाओं में प्रमुख हो गईं।
राजा श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् रानी चेलना गणिनी आर्यिका चंदना के पास दीक्षित हो गईं जो कि चंदना की बड़ी बहन थीं। ऐसा उत्तरपुराण में कथन आया है तथा-
गुणरूपी आभूषण को धारण करने वाली कुन्ती, सुभद्रा तथा द्रौपदी ने भी राजीमती गणिनी के पास उत्कृष्ट दीक्षा ले ली थी। और भी पुराणों में कितने ही उदाहरण हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि एक प्रमुख गणिनी आर्यिका समवसरण में तीर्थंकर की साक्षीपूर्वक दीक्षित होकर अन्य आर्यिकाओं को दीक्षा प्रदान करती थीं।
वर्तमान युग में आचार्य और गणिनी दोनों के द्वारा महिलाओं की आर्यिका, क्षुल्लिका दीक्षा की परम्परा चल रही है अत: स्वेच्छा से वैराग्यशालिनी महिला जिनके श्रीचरणों में दीक्षा की याचना करती है, वे जिम्मेदारीपूर्वक दीक्षा देकर अनुग्रह आदि करते हुए उसे नवजीवन में प्रवेश कराते है।
दीक्षा दिवस से पूर्व तक उसे श्राविका के समस्त कर्तव्य पालन करने होते हैं। जैसे-जिनेन्द्र पूजा-विधान, उत्तम आदि पात्रों को शक्ति अनुसार चतुर्विध दान देकर अपने मन को पवित्र बनाती है।
दीक्षा के शुभ मुहूर्त के अवसर पर दीक्षार्थी बहन की शोभायात्रा निकाली जाती है जिसमें उसके परिवार जनों को अपने अरमान पूरे करने का सौभाग्य प्राप्त होता है यदि दीक्षार्थिनी कुंआरी या सौभाग्यवती है, तो मेंहदी रचाना आदि भी होता है। यह भी एक मंगल अवसर होता है क्योंकि उसे तो पूर्णरूप से नवजीवन में प्रवेश करना होता है।
दीक्षा का दृश्य अपने आप में एक रोमांचक दृश्य होता है। आपकी पुत्री का विवाह अपने घर के छोटे से मंडप में हो जाता है और दीक्षा का महानकार्य विशाल मंडप में सम्पन्न होता है, जहाँ एक परिवार को छोड़कर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् सारे संसार को अपना कुटुम्ब समझा जाता है परन्तु वास्तविकता तो यह है कि न एक परिवार अपना है और न ही समस्त संसार अपना हो सकता है, अपना तो केवल आत्मा है, उसे पाने के लिए ही दीक्षा धारण की जाती है। जैसा कि कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है-
आदहिदं कादव्वं जइ सक्कइ परहिदं च कादव्वं।……..इत्यादि
आत्महित की प्रमुखता से ही दीक्षा लेना सर्वोत्तम कार्य है, परहित उसके साथ हो जावे तो ठीक है किन्तु मात्र परहित का ही लक्ष्य रखना आत्महित में बाधक हो सकता है।
इस प्रकार यहाँ अनेक आर्यिकाओं के उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं।
दीक्षा के प्रसंग में आगे जानना है कि-
शोभायात्रा के पश्चात् सभामंडप में पूर्वमुख या उत्तरमुख उसे बैठाकर गणिनी आर्यिका सर्वप्रथम केशलोंच प्रतिष्ठापन में सिद्ध भक्ति, योगभक्ति पढ़कर दीक्षार्थी बहन का केशलोंच प्रारंभ कर देती हैं।
देखते ही देखते सभामंडप में असीम वैराग्य का दृश्य उपस्थित हो जाता है। कई बार देखने में आता है कि वह बहन स्वयं भी वीरतापूर्वक अपना केशलोंच करती है।
माँ की वह ममता, जिसने बालिका को दुग्धपान के साथ अपने आंचल की छांव दी थी, भाई की वे कलाइयाँ, जिन्होंने सदा बहन के रक्षासूत्र को अंगीकार किया था, पिता की वह गोद, जिसने कन्या रत्न को झूले की भांति झुलाया था, वह स्नेहिल परिवार, जिसने सदैव उसके सुख-दुख में हाथ बंटाया था, सभी उस क्षण वैराग्य की मोहिनी मुद्रा के प्रति नतमस्तक हो जाते हैं तथा कोई-कोई चिरकालीन मोहवश अश्रुधारा से अपना मलिन हृदय भी निर्मल करते हैं।
मानव जीवन का प्रत्येक क्षण अत्यन्त अमूल्य होता है अत: उन क्षणों का सदुपयोग करना उसका कर्तव्य है। देखते ही देखते बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था तीनों समयों को बिताकर व्यक्ति कालकवलित हो जाता है और आत्मा की ओर उसकी दृष्टि ही नहीं जाती है।
आपने सुना होगा गजकुमार मुनिराज के बारे में, वे भी अपने यौवन को राग की ओर ले जा रहे थे, फलस्वरूप बारात लेकर दूल्हा बनकर चल पड़े थे। विवाह भी हो गया किन्तु बारात घर तक वापस नहीं आ पाती है, रास्ते में ही उनको एक दिगम्बर मुनिराज के दर्शन हो जाते हैं। वे मुनिराज अवधिज्ञानी थे अत: गजकुमार की अल्पायु जानकर उसे सम्बोधित किया, आत्मकल्याण हेतु प्रेरणा प्रदान की।
आत्मार्थी को तो इतना संबोधन ही काफी था। गजकुमार अपनी नई-नवेली दुल्हन को रास्ते में ही छोड़कर तपोवन में जाकर गुरुदेव से मुनि दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । बाराती अपने घर चले जाते हैं और दुल्हन की डोली अपने पिता के घर।
उस कन्या के पिता का क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ जाता है। ओह! मेरी बेटी के साथ इतना बड़ा अन्याय! वे क्रोधावेश में ध्यानस्थ मुनिराज गजकुमार के पास पहुँचते हैं और कहते हैं-अरे ढोंंगी! यदि तुझे यही करना था, तो एक कन्या के साथ शादी का नाटक क्यों रचा था? अब तो तुझे घर चलना ही पड़ेगा। जब मुनिराज कुछ न बोले तो ससुर जी को और भी गुस्सा आया अत: उन्होंने गजकुमार मुनि के मस्तक पर अंगीठी जला दी।
भयंकर अग्नि का उपसर्ग जानकर वे मुनिराज संसार-शरीर-भोगों की असारता का चिंतवन करने लगे और शरीर से आत्मा को पृथक् करने के उपाय में एकाग्रचित्त हो गए। इधर मस्तक पर अंगीठी जल रही थी और उधर आत्मा के कर्म जल रहे थे। अन्त में उपसर्ग पर विजय प्राप्त कर वे अंतकृत केवली हो गये।
जिनके विषय में यह कहा जाता है-
दुल्हन को लिए बारात चली, बारात न वापस आती है।
जो प्रात गई सो प्रात गई, वह प्रात न वापस आती है।।
देखो! संसार की स्थिति, जहाँ एक व्यक्ति त्याग की चरम सीमा पर स्थित था, वहीं दूसरा राग-द्वेष की चरमसीमा पर खड़ा हिताहित का विवेक भी खो बैठा था। जीवन के अमूल्य क्षणों का सदुपयोग किया था-गजकुमार ने। जो घड़ी हाथ से निकल जाती है, वह लाख प्रयास के बावजूद भी वापस नहीं आती। जैसे हाथ से निकला बाण और मुंह से निकली बात वापस नहीं आती है, उसी प्रकार बीती हुई प्रात (सुबह) भी वापस नहीं लाई जा सकती है।
मानव जीवन की दुर्लभता का चिंतन करने पर ही संसार से वैराग्य होता है और दीक्षा के शुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं। महान पुण्योदय से जब कोई महिला दीक्षा के लिए अग्रसर होती है, तब उसकी सर्वप्रथम परीक्षा केशलोंच की क्रिया से प्रारंभ होती है।
जब पांडाल में गणिनी आर्यिका एवं अन्य आर्यिकाओं के द्वारा केशलुंचन सम्पन्न कर दिया जाता है, तभी उसकी आगे दीक्षा की क्रिया प्रारंभ होती है।
केशलोंच के पश्चात् उस श्राविका को सौभाग्यवती महिलाएँ मंगल स्नान के लिए ले जाती हैं जहाँ तेल, उबटन आदि लगाकर मंगल स्नान कराकर मात्र एक साड़ी, जैसा कि उन्हें अब जीवन भर एक साड़ी ही धारण करनी है, उसे पहनाकर पुन: मंगल गीत गाती हुईं महिलाएँ उस श्राविका को पुन: स्टेज पर लाती हैं।
पुन: श्रीफल लेकर गुरु चरणों में समस्त जनता की साक्षीपूर्वक दीक्षा के लिए निवेदन करती है। जिन्हें भाषण देने का अभ्यास होता है, वे मंच पर खड़ी होकर दीक्षा की प्रार्थना हेतु वैराग्य भावों से युक्त कुछ भाषण भी करती हैं और अपने परिवारजनों एवं प्राणिमात्र से क्षमायाचना करती हुई सभी के प्रति स्वयं का क्षमाभाव भी प्रगट करती हैं।
गुरु की पुन: पुन: स्वीकृति प्राप्त होने के पश्चात् वे आचार्य अथवा गणिनी सौभाग्यवती महिलाओं के द्वारा पूरे गए मंगल चौक पर दीक्षार्थी महिला को पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठा देते हैं। दीक्षा प्रदान करने वाली गणिनी आर्यिका अथवा आचार्य पहले उस दीक्षार्थी से कहते हैं कि तुम्हें हमारे संघ की मर्यादा और अनुशासन में रहना होगा, एकाकी विहार नहीं करना एवं ख्याति, लाभ, पूजा में पड़कर अपनी गुरु परम्परा को नहीं तोड़ना इत्यादि बातें मजूर कराकर दीक्षा के संस्कार प्रारंभ कर दिये जाते हैं।
जब वह दीक्षार्थी महिला गुरु की सभी बातों को स्वीकार कर लेती है, तब आचार्य या गणिनी अपने संघस्थ सभी साधुओं से, दीक्षार्थी के कुटुम्बियों से एवं वहाँ पर उपस्थित समस्त जनसमूह की सहमति प्राप्त करते हैं तब सभी साधुवर्ग भी धर्मवृद्धि से हर्षितमना होते हुए अपनी सहमति प्रदान करते हैं और श्रावकगण व दीक्षार्थी के कुटुम्बीवर्ग भी दु:खमिश्रित हर्षपूर्वक जय-जयकार की ध्वनि से सभा को गुंजायमान करते हुए स्वीकृति देते हैं।
शास्त्रों में वर्णित दीक्षा विधि के अनुसार गणिनी माताजी के द्वारा दीक्षार्थी का मस्तक गरम प्रासुक जल से प्रक्षालित किया जाता है पुन: मस्तक पर स्वस्तिक लिखकर पीले तंदुल और लवंग से मंत्रों का आरोपण किया जाता है। उसके हाथ में मंत्र लिखकर तथा दोनों हाथों की अंजुलि में तंदुल भरकर उसमें श्रीफल आदि मंगल द्रव्य रखकर पुन: उन्हें अट्ठाईस मूलगुण प्रदान किये जाते हैं।
पुन: अपनी गुरु परम्परानुसार गुर्वावली को पढ़कर मंत्रों द्वारा गणिनी स्वयं संयम का उपकरण मयूर पंख की पिच्छिका, शौच के लिए उपकरण स्वरूप नारियल का कमंडलु और ज्ञान का उपकरण शास्त्र प्रदान करती हैं। शिष्या भी विनयपूर्वक दोनों हाथों से पिच्छिका को प्राप्त करती है, बाएँ हाथ से कमंडलु को और दोनों हाथों से शास्त्र को ग्रहण करती है।
इन्हीं संस्कारों के साथ ही गुरु द्वारा उस नवदीक्षिता का नवीन नामकरण भी किया जाता है, तभी नये नाम वाली आर्यिका माताजी की जयकारों से पंडाल गूंजने लगता है। सारी वेशभूषा और क्रियाओं के परिवर्तन के साथ ही नाम भी परिवर्तित हो जाने से अब वह पूर्ण रूप से नवजीवन में प्रवेश कर जाती है।
पुन: नवदीक्षिता आर्यिका सर्वप्रथम भक्तिपूर्वक दीक्षागुरु को नमोऽस्तु-वंदामि करके अन्य साधु-साध्वियों को नमोऽस्तु-वंदामि करके साधु श्रेणी में ही बैठ जाती है।
उस नवदीक्षिता आर्यिका को सर्वप्रथम कुछ दम्पत्ति श्रीफल आदि चढ़ाकर ‘‘वंदामि’’ कहकर नमस्कार करते हैं।
यह विशेष ज्ञातव्य है कि दीक्षा के दिन उस दीक्षार्थी महिला का उपवास रहता है। द्वितीय दिवस पारणा के लिए गणिनी आर्यिका के पीछे श्रावकों के घर में आहार हेतु जाती हैं। वहाँ पर श्रावक विधिवत् पड़गाहन करके नवधाभक्ति से आहारदान देकर अपना जन्म सफल समझते हैं।
जिस प्रकार से मूल-जड़ के बिना वृक्ष नहीं ठहरता, मूल-नींव के बिना मकान नहीं बनता, उसी प्रकार मूल-प्रधान आचरण के बिना श्रावक और साधु दोनों की सार्थकता नहीं होती है। यहाँ पर आर्यिकाओं की चर्या का प्रकरण चल रहा है अत: उनके मूलगुणों का ही कथन किया जा रहा है।
मुख्यरूप से मुनियों के मूलगुण २८ होते हैं। जैसा कि प्रतिक्रमण पाठ में स्थान-स्थान पर कथन आता है-
वदसमिदिंदिय रोधो, लोचो आवासयमचेलमण्हाणं।
खिदिसयणमदंतवणं, ठिदिभोयणमेगभत्तं च।।१।।
एदे खलु मूलगुणा………….
पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियनिरोध, षट् आवश्यकक्रिया, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त ये २८ मूलगुणों के नाम हैं। इन्हें तीर्थंकर आदि महापुरुष भी मुनि अवस्था में पालन करते हैं एवं ये स्वयं महान हैं अत: इन व्रतों को महाव्रत भी कहते हैं।
१. अहिंसा महाव्रत-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये छह काय हैं, इन छहकायिक जीवों की हिंसा का मन-वचन-काय से पूर्णतया त्याग कर देना अहिंसा महाव्रत है। इस महाव्रत वाले सम्पूर्ण आरंभ और परिग्रह से रहित दिगम्बर मुनि होते हैं और एक साड़ी मात्र परिग्रह वाली आर्यिकाएँ होती हैं।
२. सत्य महाव्रत-रागद्वेष, मोह, क्रोध आदि दोषों से भरे हुए वचनों का त्याग करना और ऐसा सत्य भी नहीं बोलना कि जिससे प्राणियों का घात होता है, सो सत्य महाव्रत है।
३. अचौर्य महाव्रत-ग्राम, शहर आदि में किसी की भूली, रखी या गिरी हुई वस्तु को स्वयं नहीं लेना, दूसरों के द्वारा संग्रहीत शिष्य, पुस्तक आदि को भी न लेना तथा दूसरों के दिए बिना योग्य वस्तु को भी नहीं लेना अचौर्य महाव्रत है।
४. ब्रह्मचर्य महाव्रत-रागभाव को छोड़कर पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना, बालिका, युवती और वृद्धा में पुत्री, बहन और माता के समान भाव रखना त्रैलोक्यपूज्य ब्रह्मचर्य व्रत है।
५. परिग्रह त्याग महाव्रत-धन, धान्य आदि दश प्रकार के बहिरंग तथा मिथ्यात्व आदि चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह का त्याग करना, वस्त्राभूषण, अलंकार आदि का पूर्णतया त्याग कर देना, यहाँ तक कि लंगोटमात्र भी नहीं रखना अपरिग्रह महाव्रत है। आर्यिकाओं के लिए दो साड़ी रखने का विधान ही उनका मूलगुण होता है।
आगम में कहे अनुसार गमनागमन, भाषण आदि में सम्यक् प्रवृत्ति करना समिति है। इसके भी पाँच भेद हैं-ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उत्सर्ग।
६. ईर्यासमिति-निर्जंतुक मार्ग से सूर्योदय होने पर चार हाथ आगे जमीन देखकर एकाग्रचित्त करके तीर्थयात्रा, गुरुवंदना आदि धर्मकार्यों के लिए गमन करना ईर्यासमिति है।
७.भाषा समिति-चुगली, हँसी, कर्कश, परनिंदा आदि से रहित, हित, मित और असंदिग्ध वचन बोलना भाषा समिति है।
८. एषणा समिति-छ्यालिस दोष और बत्तीस अंतराय से रहित, नवकोटि से शुद्ध श्रावक के द्वारा तैयार किया गया ऐसा प्रासुक निर्दोष पवित्र आहार लेना एषणा समिति है।
९. आदान निक्षेपण समिति-पुस्तक, कमण्डलु आदि को रखते-उठाते समय कोमल मयूर पिच्छिका से परिमार्जन करके रखना, उठाना, तृण-घास, चटाई, पाटे आदि को भी सावधानी से देखकर पिच्छिका से परिमार्जन करके ग्रहण करना या रखना, आदान निक्षेपण समिति है।
१०. उत्सर्ग समिति-हरी घास, चिंवटी आदि जीवजन्तु से रहित प्रासुक, ऐसे एकांत स्थान में मलमूत्रादि विसर्जन करना यह उत्सर्ग या प्रतिष्ठापन समिति है।
स्पर्शन, रसना आदि पाँचों इन्द्रियों को वश में रखना, इनको शुभध्यान में लगा देना पंचेन्द्रिय निरोध होता है। इसके भी पाँच इन्द्रियों की अपेक्षा से पाँच भेद होते हैं।
११. स्पर्शन इन्द्रिय निरोध-सुखदायक, कोमल स्पर्शादि में या कठोर कंकरीली भूमि आदि के स्पर्श में आनन्द या खेद नहीं करना।
१२. रसनेंद्रिय निरोध-सरस, मधुर भोजन में या नीरस, शुष्क भोजन में हर्ष-विषाद नहीं करना।
१३. घ्राणेंद्रिय निरोध-सुगंधित पदार्थ में या दुर्गन्धित वस्तु में रागद्वेष नहीं करना।
१४. चक्षुइंद्रिय निरोध-स्त्रियों के सुन्दर रूप या विकृतवेष आदि में रागभाव और द्वेष भाव नहीं करना।
१५. कर्णेन्द्रिय निरोध-सुन्दर-सुन्दर गीत, वाद्य तथा असुन्दर-निन्दा, गाली आदि के वचनों में हर्ष-विषाद नहीं करना। यदि कोई मधुर गीतों से गान करता हो, तो उसे रागभाव से नहीं सुनना।
जो अवश-जितेन्द्रिय मुनि का कर्तव्य है, वह आवश्यक कहलाता है। उसके छ: भेद हैं-समता, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग।
१६. समता-जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख आदि में हर्ष- विषाद नहीं करना, समान भाव रखना समता है। इसी का नाम सामायिक है। त्रिकाल में देववंदना करना यही सामायिक व्रत है। प्रात:, मध्यान्ह और सायंकाल में विधिवत् कम से कम एक मुहूर्त-४८ मिनट तक सामायिक करना होता है।
१७. स्तुति-वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना स्तुति नाम का आवश्यक है।
१८. वंदना-अरिहंतों को, सिद्धों को, उनकी प्रतिमा को, जिनवाणी को और गुरुओं को कृतिकर्म पूर्वक नमस्कार करना वंदना है।
१९. प्रतिक्रमण-अहिंसादि व्रतों में जो अतिचार आदि दोष उत्पन्न होते हैं, उनको निंदा-गर्हापूर्वक शोधन करना-दूर करना प्रतिक्रमण है। इसके भी सात भेद हैं-ऐर्यापथिक, दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ।
गमनागमन से हुए दोषों को दूर करने के लिए ‘पडिक्कमामि भंते! इरियावहियाए विराहणाए’ इत्यादि दण्डकों का उच्चारण करके कायोत्सर्ग करना ऐर्यापथिक है। दिवस संबंधी दोषों को दूर करने के लिए सायंकाल में ‘जीवे प्रमाद जनिता’ इत्यादि पाठ करना दैवसिक, रात्रि संंबंधी दोषों के निराकरण हेतु रात्री के अंत में प्रतिक्रमण करना रात्रिक, प्रत्येक मास की चतुर्दशी या पूर्णिमा या अमावस्या को करना पाक्षिक, कार्तिक और फाल्गुन मास के अंत में करना चातुर्मासिक, आषाढ़ की अंतिम चतुर्दशी या पूर्णिमा को करना सांवत्सरिक तथा मरणकाल में करना उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है।
२०. प्रत्याख्यान-मन-वचन-काय से भविष्य के दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। आहार ग्रहण करने के अनन्तर गुरु के पास अगले दिन आहार ग्रहण करने तक के लिए जो चतुराहार का त्याग किया जाता है, वह प्रत्याख्यान कहलाता है।
२१. कायोत्सर्ग-दैवसिक, रात्रिक आदि क्रियाओं में पच्चीस या सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण से तथा चौवन, एक सौ आठ आदि श्वासोच्छ्वास पूर्वक णमोकार मंत्र का स्मरण करना। काय-शरीर से उत्सर्ग-ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।
यहाँ तक इक्कीस मूलगुण हुए हैं, अब शेष सात गुण को भी स्पष्ट करते हैं।
२२. (१) लोंच-अपने हाथ से अपने सिर, दाढ़ी और मूंछ के बाल उखाड़ना केशलोंच मूलगुण है। केश में जूँ आदि जीव पड़ जाने से हिंसा होगी या उन्हें संस्कारित करने के लिए तेल, साबुन आदि की जरूरत होगी, जो कि साधु पद के विरुद्ध होगा अत: दीनता, याचना, परिग्रह, अपमान आदि दोषों से बचने के लिए यह क्रिया है। लोंच के दिन उपवास करना होता है और लोंच करते या कराते समय मौन रखना होता है।
इसके उत्तम, मध्यम और जघन्य ऐसे तीन भेद हैं-दो महीने पूर्ण होने पर उत्तम, तीन महीने में मध्यम और चार महीने पूर्ण होने पर जघन्य केशलोंच कहलाता है । चार महीने के ऊपर हो जाने पर साधु प्रायश्चित्त का भागी होता है।
२३. (२) अचेलकत्व-सूती, रेशमी आदि वस्त्र, पत्र, वल्कल आदि का त्याग कर देना, नग्न वेश धारण करना अचेलकत्व है। यह महापुरुषों द्वारा ही स्वीकार किया जाता है, तीनों जगत में वंदनीय महान पद है। वस्त्रों के ग्रहण करने से परिग्रह, आरंभ, धोना, सुखाना और याचना करना आदि दोष होते हैं, अत: निष्परिग्रही साधु के यह व्रत होता है।
२४. (३) अस्नानव्रत-स्नान, उबटन आदि रूप शरीर के संस्कारों का त्याग करना, अस्नान व्रत है। धूलि से धूसरित, मलिन शरीरधारी मुनि कर्ममल को धो डालते हैं। चांडालादि अस्पृश्यजन, हड्डी, चर्म, विष्ठा आदि का स्पर्श हो जाने से वे मुनि दंडस्नान करके गुरु से प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं।
२५. (४) भूमिशयन-निर्जंतुक भूमि में घास या पाटा अथवा चटाई पर शयन करना भूमिशयन व्रत है। ध्यान, स्वाध्याय आदि से या गमनागमन से आई शारीरिक थकान को दूर करने हेतु स्वल्प निद्रा का विधान है।
२६. (५) अदंतधावन-नीम की लकड़ी, ब्रुश आदि से दातौन नहीं करना। दाँतों को नहीं घिसने से इंद्रियसंयम होता है, शरीर से विरागता प्रगट होती है और सर्वज्ञ देव की आज्ञा का पालन होता है।
२७. (६) स्थिति भोजन-खड़े होकर अपने दोनों हाथों की अंजुलि बनाकर श्रावक के द्वारा दिया हुआ आहार ग्रहण करना स्थिति भोजन है। आर्यिकाएँ बैठकर करपात्र में आहार ग्रहण करती हैं।
२८. (७) एक भक्त-सूर्योदय के अनंतर तीन घड़ी के बाद और सूर्यास्त के तीन घड़ी पहले तक दिन में सामायिक काल के सिवाय कभी भी एक बार आहार ग्रहण करना एकभक्त है। आजकल प्राय: नौ बजे से ग्यारह बजे तक साधु जन आहार को जाते हैं। कदाचित् एक बजे से भी जा सकते हैं। दिन में एक बार ही आहार को निकलना चाहिए। कदाचित् लाभ न मिलने पर उस दिन पुन: आहारार्थ नहीं जाना चाहिए।
इस बात का खुलासा परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित ‘आर्यिका’ नामक पुस्तक में है। यथा-
प्रायश्चित्त ग्रंथ में आर्यिकाओं के लिए आज्ञा प्रदान की है कि ‘‘आर्यिकाओं को अपने पहनने के लिए दो साड़ी रखना चाहिए। इन दो वस्त्रों के सिवाय तीसरा वस्त्र रखने पर उसके लिए प्रायश्चित्त होता है।’’
इन दो वस्त्रों का ऐसा मतलब है कि दो साड़ी लगभग १६-१६ हाथ की रहती हैं। एक बार में एक ही पहनना होता है, दूसरी धोकर सुखा देती हैं जो कि द्वितीय दिवस बदली जाती है। सोलह हाथ की साड़ी के विषय में आगम में कहीं वर्णन नहीं आता है, मात्र गुरु परम्परा से यह व्यवस्था चली आ रही है, आगम में तो केवल दो साड़ी मात्र का उपदेश है।
चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के प्रथम पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज (ज्ञानमती माताजी के दीक्षा गुरु) कहते थे कि दो साड़ी रखने से आर्यिका का ‘आचेलक्य’ नामक मूलगुण कम नहीं होता है किन्तु उनके लिए आगम की आज्ञा होने से यही मूलगुण है। हाँ! तृतीय साड़ी यदि कोई आर्यिका रखती है, तो उसके मूलगुण में दोष अवश्य आता है। इसी प्रकार से ‘स्थितिभोजन’ मूलगुण में मुनिराज खड़े होकर आहार करते हैं और आर्यिकाओं को बैठकर आहार लेना होता है, यह भी शास्त्र की आज्ञा होने से उनका मूलगुण ही है। यदि कोई आर्यिका आगमाज्ञा उलंघन कर खड़ी होकर आहार ले लेवे तो अवश्य उसका मूलगुण भंग होता हैै। इसीलिए उनके भी अट्ठाईस मूलगुण मानने में कोई बाधा नहीं है। यही कारण है कि आर्यिकाओं को उपचार से महाव्रती संज्ञा दी गई है।
आर्यिकाएँ साड़ीमात्र परिग्रह धारण करते हुए भी लंगोटी मात्र अल्पपरिग्रह धारक ऐलक के द्वारा पूज्य हैं। जैसा कि सागारधर्मामृत में प्रकरण आया है-
कौपीनेऽपि समूर्च्छत्वान्नार्हत्यार्यो महाव्रतं।
अपिभाक्तममूर्च्छत्वात् साटिकेऽप्यार्यिकार्हति।।३६।।
पण्डित श्री आशाधर जी कहते हैं कि अहो! आश्चर्य है कि ऐलक लंगोटी में ममत्व परिणाम होने से उपचार से भी महाव्रती नहीं हो सकता है किन्तु आर्यिका साड़ी धारण करने पर भी ममत्व परिणाम रहित होने के कारण उपचार से महाव्रती कहलाती है क्योंकि ऐलक तो लंगोटी का त्याग कर सकता है फिर भी ममत्व आदि कारणों से धारण किए है किन्तु आर्यिका तो साड़ी त्याग करने में असमर्थ है। उनकी यह साड़ी बिना सिली हुई होनी चाहिए अर्थात् सिले हुए वस्त्र पहनने का उनके लिए निषेध है।
आचारसार ग्रंथ में भी वर्णन आया है-
देशव्रतान्वितैस्तासामारोप्यैते बुधैस्तत:।
महाव्रतानि सज्जातिज्ञप्त्यर्थमुपचारत:।।८९।।
अर्थात् गणधर आदि देवों ने उन आर्यिकाओं की सज्जाति आदि को सूचित करने के लिए उनमें उपचार से महाव्रत का आरोपण करना बतलाया है। साड़ी धारण करने से आर्यिकाओं में देशव्रत ही होते हैं परन्तु सज्जाति आदि कारणों से गणधर आदि देवों ने उनके देशव्रतों में उपचार से महाव्रतों का आरोपण किया है।
प्रायश्चित्त ग्रंथ में भी आर्यिकाओं को मुनियों के बराबर प्रायश्चित्त का विधान है तथा क्षुल्लक आदि को उनसे आधा इत्यादि रूप से है-
साधूनां यद्वदुद्दिष्टमेवमार्यागणस्य च।
दिनस्थान त्रिकालोनं प्रायश्चित्तं समुच्यते।।
जैसा प्रायश्चित्त साधुओं के लिए कहा गया है, वैसा ही आर्यिकाओं के लिए कहा गया है। विशेष इतना है कि दिन, प्रतिमा, त्रिकालयोग चकार शब्द से अथवा अन्य ग्रंथों के अनुसार पर्यायच्छेद (दीक्षा छेद) मूलस्थान तथा परिहार ये प्रायश्चित्त भी आर्यिकाओं के लिए नहीं हैं।
आर्यिकाओं के लिए दीक्षाविधि भी अलग से नहीं है। मुनिदीक्षा विधि से ही उन्हें दीक्षा दी जाती है।
इन सभी कारणों से स्पष्ट है कि आर्यिकाओं के व्रत, चर्या आदि मुनियों के सदृश हैं।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकलता है कि एक-एक मूलगुण को अतिचार रहित पालन करने वाली आर्यिका मुक्तिपथ की अनुगामिनी होती है। यही व्यवस्था अनादिकाल से चली आ रही है। वर्तमान में भी यही व्यवस्था देखने में आती है कि ये आर्यिकाएँ एक साड़ी पहनती हैं, जिससे उनका सम्पूर्ण शरीर ढका रहता है, हाथ में मयूर पंख की पिच्छी रखती हैं तथा शौच का उपकरण काठ या नारियल का कमंडलु रखती हैं।
मुनि-आर्यिकाओं के दैनिक २८ कायोत्सर्ग होते हैं जो कि प्रात:काल से रात्रिविश्राम के पूर्व तक किये जाते हैंं। उन्हीं का स्पष्टीकरण किया जाता है-
सर्वप्रथम प्रात:काल से इन कायोत्सर्गों का शुभारंभ होता है। यूँ तो साधु जीवन में प्रतिक्षण स्वाध्याय, अध्ययन आदि की प्रमुखता होने से शुभोपयोग ही रहता है तथापि आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कृतिकर्म विधिपूर्वक उन्हीं क्रियाओं को करने का आदेश दिया है, जिनमें कायोत्सर्गों की गणना हो जाती है। यहाँ एक कायोत्सर्ग का अभिप्राय २७ स्वासोच्छ्वास में ९ बार णमोकार मंत्र जपना है।
रात्रि एक बजे के पश्चात् से लेकर सूर्योदय से २ घड़ी पूर्व तक यथाशक्ति स्वाध्याय करना चाहिए, इसे अपररात्रिक स्वाध्याय कहते हैं। स्वाध्याय प्रारंभ करने से पूर्व स्वाध्याय प्रतिष्ठापन हेतु लघु श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति संबंधी दो कायोत्सर्ग होते हैं पुन: स्वाध्याय के पश्चात् स्वाध्याय निष्ठापन हेतु श्रुतभक्ति संबंधी एक कायोत्सर्ग होता है, ऐसे एक स्वाध्याय करने में ३ कायोत्सर्ग करने होते हैं। यद्यपि यह विधि अधिक प्रचलन में नहीं है, प्राय: ९ बार णमोकार मंत्र मात्र पढ़कर लोग स्वाध्याय प्रारंभ कर देते हैं और अन्त में भी ९ बार णमोकार मंत्र पढ़कर स्वाध्याय समापन कर देते हैं किन्तु आगमानुसार उपर्युक्त विधि आवश्यक होती है। पुन: रात्रि संबंधी दोषों का शोधन करने हेतु गणिनी माताजी के पास रात्रिक प्रतिक्रमण करना होता है, जिसमें सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति, वीरभक्ति और चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति इन चार भक्तिसंबंधी ४ कायोत्सर्ग होते हैं पुन: रात्रियोग निष्ठापन करने हेतु योगभक्ति संबंधी एक कायोत्सर्ग होता है।
इसके अनंतर सूर्योदय से दो घड़ी पूर्व और दो घड़ी पश्चात् तक के संधिकाल में पौर्वाण्हिक सामायिक की जाती है। इस सामायिक में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति संंबंधी दो कायोत्सर्ग होते हैं। अनंतर पौर्वाण्हिक स्वाध्याय सूर्योदय के दो घड़ी बाद होता है, उसमें भी पूर्वोक्त ३ कायोत्सर्ग होते हैं।
पुन: आहारचर्या सम्पन्न होती है। उसके पश्चात् आर्यिकाएँ मध्यान्ह की सामायिक करती हैं जिसमें २ कायोत्सर्ग होते हैं। सामायिक का जघन्य काल २ घड़ी अर्थात् ४८ मिनट होता है। इससे अधिक घंटे,दो घंटे भी सामायिक की जा सकती है। अनंतर मध्यान्ह की चार घड़ी बीत जाने पर अपराण्हिक स्वाध्याय किया जाता है जिसमें ३ कायोत्सर्ग होते हैं। इसके पश्चात् दिवस संंबंधी दोषों के क्षालन हेतु सभी आर्यिकाएँ सामूहिकरूप से दैवसिक प्रतिक्रमण करती हैं, जिसमें ४ कायोत्सर्ग होते हैं पुन: अपनी वसतिका में आकर सामायिक से पूर्व रात्रियोग प्रतिष्ठापन के लिए योगभक्ति करती हैं जिसका एक कायोत्सर्ग होता है। रात्रियोग का मतलब यह है कि ‘मैं आज रात्रि में इस वसतिका में ही निवास करूँगी’ क्योंकि साधुजन रात्रि में यत्र-तत्र विचरण नहीं करते हैं। मल-मूत्रादि विसर्जन के लिए भी दिन में ही स्थान देख लेते हैं जो कि वसतिका के आसपास ही होता है।
अनंतर आर्यिकाएँ सायंकालिक सामायिक (देववंदना) करती हैं उसमें उपर्युक्त दो कायोत्सर्ग होते हैं, पुन: पूर्वरात्रिक स्वाध्याय के तीन कायोत्सर्ग करती हुई अपने अहोरात्रि के २८ कायोत्सर्ग प्रतिदिन पूर्ण सावधानी पूर्वक करती हैं पुन: महामंत्र का स्मरण करते हुए रात्रि विश्राम करती हैं।
यही चर्या मुनि-आर्यिकाओं की प्राचीनकाल से चली आ रही है अत: समस्त आर्यिकाओं को इन्हीं क्रियाओं का पालन करना चाहिए। यदि कोई आर्यिका विदुषी हैं तो दैनिक कर्तव्यों का पालन करते हुए उसमें से समय निकालकर भव्य प्राणियों को धर्म प्रवचन सुनाकर लाभान्वित भी करती हैं।
इस प्रकार संक्षेप में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में दीक्षित आर्यिकाओं के २८ कायोत्सर्ग का वर्णन किया गया है।
आर्यिकाओं को मुनियों की वंदना करने के लिए अकेले नहीं जाना चाहिए। गणिनी आर्यिका के साथ अथवा दो-चार आर्यिकाएं मिलकर जाना चाहिए। अकेले बैठकर दिगम्बर मुनियों से वार्तालाप नहीं करना चाहिए तथा मुनियों की सेवा, वैयावृत्ति कदापि नहीं करना चाहिए।
मुख्यरूप से स्त्रीलिंग का छेद करने हेतु ही आर्यिका दीक्षा धारण की जाती है अत: इस पवित्र दीक्षा को प्राप्त करके सदैव जीवन को वैराग्यमयी बनाना चाहिए। गृहस्थियों की किन्हीं रागजनित बातों में उन्हें रुचि नहीं लेनी चाहिए क्योंकि गृहसंबंधी समस्त कार्य उनके लिए त्याज्य हो जाते हैं। बीमार होने पर स्वयं अपने हाथ से किसी प्रकार की औषधि भी वे नहीं बनाती हैं। अपनी गणिनी गुरु से ही अपना दु:ख बालकवत् बताना चाहिए, तब वे स्वयं उसके योग्य औषधि श्रावकों के द्वारा बनवाकर आहार में दिलवाती हैं।
मुनियों के समान ही ये आर्यिकाएं श्रावक के घर में करपात्र में आहार ग्रहण करती हैं उसके पश्चात् श्रावक इनके कमण्डलु में गरम जल भर देते हैं। बिना गरम किया हुआ कच्चा जल वे नहीं छूती हैं। श्राविकाएँ या तो छने जल से इनकी साड़ी धोकर सुखा देती हैं अथवा ये स्वयं कमण्डलु के जल से साड़ी धोकर सुखा सकती हैं। आर्यिकाएं साबुन आदि का प्रयोग नहीं कर सकती हैं। वे दो, तीन या चार महीने में अपने सिर के बालों का लोच करती हैं। मुनियों की वसतिका में आर्यिकाओं का रहना, लेटना, बैठना आदि वर्जित है।
मासिक धर्म की अवस्था में आर्यिकाएं तीन दिन तक मौन से रहती हैं तथा जिनमंदिर से अलग वसतिका में रहकर मानसिकरूप से महामंत्र का एवं बारह भावनाओं का चिंतन करती हैं। सामायिक, प्रतिक्रमण आदि भी केवल मन में चिन्तवनरूप से करती हैं। ओष्ठ, जिह्वा आदि न हिलने पाए, ऐसा मंत्र-स्तोत्रादि का चिंतन भी चलता है। वे इस अवस्था में किसी का स्पर्श भी नहीं करती हैं।
आचारसार ग्रंथ में वर्णन आया है-
ऋतौ स्नात्वा तु तुर्येन्हि, शुद्धंत्यरसभुक्तय:।
कृत्वा त्रिरात्रमेकांतरं वा सज्जपसंयुता:।।९०।।
अर्थात् रजस्वला अवस्था में तीन दिनों तक यदि उपवास की शक्ति नहीं है तो छहों रस का त्याग कर नीरस आहार करती हैं तथा चौथे दिन कोई श्राविका इन्हें गरम जल से स्नान करा देती है, तब वह आर्यिका शुद्ध होकर अपनी गणिनी के पास जाकर प्रायश्चित्त ग्रहण करती हैं।
यह तो पहले बताया ही जा चुका है कि आर्यिकाएं बैठकर करपात्र में भोजन ग्रहण करती हैं। आर्यिकाएं उपचार से महाव्रती होती हैं और वे पंचम गुणस्थान से ऊपर नहीं जा सकती हैं तथापि चतुर्विध संघ में मुनियों के बाद आर्यिका की पदवी मानी जाती है। ऐलक और क्षुल्लक दीक्षा में उनसे प्राचीन भी क्यों न हों, फिर भी वे आर्यिकाओं को ‘‘वंदामि’’ कहकर नमस्कार करते हैं और आर्यिकाएँ उन्हें ‘‘समाधिरस्तु’’ आशीर्वाद प्रदान करती हैं। गुणस्थान व्यवस्था तीनों की एक सदृश है, फिर भी कर्मनिर्जरा क्षुल्लक-ऐलक की अपेक्षा आर्यिका की अधिक होती है चूँकि वे एक साड़ी धारण करती हुई भी मुनियों के समान अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करती हैं।
चतुर्विध संघ की क्रम परम्परा में आहारचर्या के लिए आर्यिकाएँ मुनियों के पश्चात् जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करती हुई क्रमपूर्वक निकलती हैं। श्रावक-श्राविकाएँ अपने-अपने चौके के सामने उनका पड़गाहन करते हैं।
हे माताजी! वंदामि-वंदामि, अत्र तिष्ठ-तिष्ठ, आहार जल शुद्ध है। इतना बोलने पर जब एक-दो आदि आर्यिकाएँ वहाँ खड़ी हो जाती हैं, तब दातार उनकी प्रदक्षिणा लगाकर उन्हें चौके में ले जाते हैं और स्वच्छ पाटे पर बैठने के लिए निवेदन करते हैं कि माताजी! उच्चासन पर विराजिए। पुन: आसन ग्रहण कर लेने पर उनके चरण प्रक्षालन करके गंधोदक मस्तक पर चढ़ाते हैं और अष्टद्रव्य से पूजा करके नमस्कार करते हैं।
इसके पश्चात् थाली में भोजन परोसकर और जल, दूध आदि सामने लाकर दिखाती हैं। आर्यिका माताजी का जो कुछ त्याग होता है, वे उसे निकलवा देती हैं, तब दातार शुद्धि बोलकर आहार शुरू करवाते हैं।
यह नवधाभक्ति की प्रक्रिया है। जैसा कि आचार्यों ने कहा भी है-
पडिगहमुच्चट्ठाणं पादोदयमच्चणं च पणमं च।
मणवयणकाय-सुद्धी एसणसुद्धी य णवविहं पुण्णं।।
आहार के काल में श्रावकों के द्वारा यह नवधाभक्ति करनी आवश्यक होती है। जैसा कि चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की संघ परम्परा में चला आ रहा है। यदि यह पूरी नवधाभक्ति चौके में नहीं होती है तो आर्यिकाएँ बिना आहार किए ही चौके से वापस आ जाती हैं। इस प्रकार से नवधाभक्ति होने के बाद, आहार शुरू करने से पूर्व, आर्यिका माताजी हाथ धोकर प्रत्याख्यान निष्ठापन क्रियापूर्वक सिद्धभक्ति करती हैं। जैसे-‘नमोस्तु आहारप्रत्याख्यान- निष्ठापनक्रियायां सिद्धभक्ति-कायोत्सर्गं करोम्यहं’’ बोलकर ९ बार णमोकार मंत्र पढ़कर लघु सिद्धभक्ति और अंचलिका पढ़कर हाथ की अंजुलि बनाती हैं, जिसमें दातार सर्वप्रथम गरम प्रासुक जल देते हैं पुन: भोजन, दूध आदि क्रमपूर्वक देते हैं। यदि किसी रोग के निमित्त से औषधि आदि की आवश्यकता होती है तो श्रावक उसी समय शुद्ध प्रासुक दवा भी दे देते हैं। आहार पूरा होने के बाद हाथ धोकर, कुल्ला करके वहीं पर लघु सिद्धभक्तिपूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेती हैं और कमण्डलु में जल भराकर वहाँ से आ जाती हैं। साथ में श्रावक-श्राविका उनके स्थान तक पहुँचाने के लिए उनके साथ भी आते हैं।
वे आर्यिका जी आहार से वापस आकर अपनी गणिनी के पास पुन: प्रत्याख्यान-अगले दिन आहार ग्रहण करने तक चतुराहार का त्याग कर देती हैं।
चौके में पहुँचकर प्रत्याख्यान निष्ठापन करने तथा आहार के बाद चौके में प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन एवं उसके पश्चात् गुरु के पास आकर प्रत्याख्यान ग्रहण करने की यह समस्त विधि आचारसार, अनगारधर्मामृत आदि ग्रंथों में वर्णित है।
इस संदर्भ में यहाँ प्रश्न उठा है कि-
जब गुरु के पास प्रत्याख्यान आवश्यक है तो चौके में साधु प्रत्याख्यान क्यों ग्रहण कर लेते हैं?
इसका समाधान देते हुए कहा है कि यदि चौके से अपनी वसतिका में गुरु के पास आते हुए मार्ग में मरण भी हो जाये तो वह प्रत्याख्यानपूर्वक होगा, इसलिए चौके में भी प्रत्याख्यान ग्रहण किया जाता है।
श्रावक और साधु दोनों के निमित्त से आहार में कुछ दोषों की संभावना होती है। उन दोषों को टालकर आहार करना आहारशुद्धि कहलाती है। उद्गम दोष, उत्पादन दोष, एषणा दोष, संयोजना दोष, प्रमाण दोष, इंगाल दोष, धूम दोष और कारण दोष इन आठ दोषों से रहित आहार शुद्धि होती है। दातार के निमित्त से हुए दोष उद्गम दोष हैं। साधु के द्वारा आहार में हुए दोष उत्पादन संज्ञक हैं। भोजन संबंधी दोष एषणा दोष हैंं। संयोग से होने वाला संयोजना दोष है। प्रमाण से अधिक आहार लेना प्रमाण दोष है। लंपटतापूर्वक आहार लेना इंगाल दोष है। दातार की या भोजन की निंदा करके आहार लेना धूम दोष है और विरुद्ध कारणों से बना हुआ आहार लेना कारण दोष है।
इनमें से उद्गम के १६, उत्पादन के १६, एषणा के १० तथा संयोजना, प्रमाण, इंगाल और धूम ये ४६ दोष होते हैं, जिनका विशेष वर्णन चरणानुयोग के ग्रंथ मूलाचार आदि से जानना चाहिए।
इन सबसे अतिरिक्त एक अध:कर्म दोष है, जो महादोष कहलाता है। इसमें कूटना, पीसना, रसोई करना, पानी भरना और झाड़ू लगाना ऐसे पंचसूना नाम के आरंभ से षट्कायिक जीवों की विराधना होने से यह दोष गृहस्थाश्रित है। इसको करने वाली आर्यिका वास्तव में आर्यिका नहीं मानी जाती है। यह बात निश्चित है कि गणिनी आर्यिका के संघ में या चतुर्विध संघ में रहने वाली आर्यिकाओं में इस दोष की संभावना कथमपि नहीं रहती है। हाँ! एकाकी विचरण करने वाली आर्यिका या साधु में यह दोष कदाचित् संभव हो सकते हैं। इसीलिए कुंदकुंद स्वामी ने आज्ञा दी है-
‘‘मा भूद मे सत्तु एगागी’’ अर्थात् इस पंचमकाल में मेरा कोई शत्रु साधु भी एकाकी विचरण न करे क्योंकि एकलविहार में और भी कई दोष लगने का भय रहता है। स्त्रीपर्याय होने के नाते आर्यिकाओं को हमेशा समूह बनाकर ही रहना चाहिए ताकि समस्तचर्या का निर्बाध रूप से पालन हो सके।
छह आवश्यक क्रियाएँ, पंचपरमगुरु की वंदना तथा असही-निसही ये तेरह क्रियाएँ आर्यिकाएँ प्रतिदिन करती हैंं। इनमें से आवश्यक क्रियाओं का वर्णन तो पहले किया जा चुका है, ऐसे ही पृथक्-पृथक् या एक साथ पंचपरमेष्ठी की वंदना भी की जाती है। असही और निसही का मतलब यह है कि वसतिका से बाहर जाते समय आर्यिकाएं नौ बार ‘असही’ शब्द का उच्चारण करें तथा वसतिका में प्रवेश करते समय नौ बार ‘निसही’ शब्द का उच्चारण करें।
आर्यिकाएँ अपनी आवश्यक क्रियाओं का पालन करते हुए शेष समय निरन्तर शास्त्र स्वाध्याय, अध्ययन-अध्यापन में लगाती हैं। वे सूत्र ग्रंथों का भी अध्ययन कर सकती हैं। जैसा कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने मूलाचार ग्रंथ में स्पष्ट किया है-
‘अस्वाध्याय काल में मुनि और आर्यिकाओं को सूत्रग्रंथों का अध्ययन नहीं करना चाहिए किन्तु साधारण अन्य ग्रंथ अस्वाध्याय काल में भी पढ़ सकते हैं।’ इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि आर्यिकाएँ भी स्वाध्यायकाल में सिद्धांत ग्रंथों को पढ़ सकती हैं।
दूसरी बात यह है कि आर्यिकाएँ द्वादशांग श्रुत के अन्तर्गत ग्यारह अंगों को भी धारण कर सकती हैं, जैसा कि हरिवंशपुराण में कथन आया है-
द्वादशांगधरो जात: क्षिप्रं मेघेश्वरो गणी।
एकादशांगभृज्जाता सार्यिकापि सुलोचना।।
अर्थात् मेघेश्वर जयकुमार शीघ्र ही द्वादशांग के पाठी होकर भगवान के गणधर हो गये और आर्यिका सुलोचना भी ग्यारह अंगों की धारक हो गईं।
वर्तमान में दिगम्बर सम्प्रदाय में ग्यारह अंग और चौदह पूर्व की उपलब्धि नहीं है, उनका अंश मात्र उपलब्ध है अत: उन्हीं का अध्ययन करना चाहिए।
दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुसार साध्वियों के दो भेद हैं-आर्यिका और क्षुल्लिका। अभी तक संक्षेप में आर्यिका का स्वरूप बतलाया है, कुछ श्राविकाओं की आर्यिका दीक्षा के पूर्व क्षुल्लिका दीक्षा भी लेने की परम्परा रही है अत: उनकी क्रियाओं के बारे में भी संक्षेप में यहाँ वर्णन है-क्षुल्लिकाएँ ग्यारह प्रतिमा के व्रतों को धारण कर दो धोती और दो दुपट्टे का परिग्रह रखती हैं। इनकी समस्त चर्या क्षुल्लक के सदृश होती है। ये केशलोच करती हैं अथवा वैंâची से दो, तीन या चार महीने में सिर के केश निकालती हैं। ये भी आर्यिकाओं के पास में रहती हैं, उनके पीछे आहार को निकलकर पड़गाहन विधि से श्रावकों के यहाँ पात्र में भोजन ग्रहण करती हैं। इस प्रकार से स्त्रियों में साध्वीरूप में आर्यिका और क्षुल्लिका ये दो भेद ही होते हैं। दोनों के पास मयूर पिच्छिका रहती है। पहचान के लिए क्षुल्लिका के पास चादर रहती है और पीतल या स्टील का कमण्डलु रहता है।
प्राचीन ग्रंथों का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि पूर्व में अधिकतर आर्यिकाएँ ही आर्यिका दीक्षा प्रदान करती थीं। तीर्थंकरों के समवसरण में भी जो आर्यिका सबसे पहले दीक्षित होती थीं, वे ही गणिनी के भार को संभालती थीं। तीर्थंकर देव के अतिरिक्त किन्हीं आचार्यों द्वारा आर्यिका दीक्षा देने के उदाहरण प्राय: कम मिलते हैं। इन आर्यिकाओं की दीक्षा के लिए जैनेश्वरी दीक्षा शब्द भी आया है। इन्हें महाव्रतपवित्रांगा भी कहा है और संयमिनी, संयतिका संज्ञा भी दी है।
जब आर्यिकाओं के व्रत को उपचार से महाव्रत कहा है और सल्लेखनाकाल में उपचार से निर्ग्रंथता का आरोपण किया है इसीलिए वे मुनियों के सदृश वंदनीय होती हैं, ऐसा समझकर आगम की मर्यादा को पालते हुए आर्यिकाओं की नवधाभक्ति करके उन्हें आहारदान देना चाहिए और समयानुसार यथोचित भक्ति करना, उन्हें पिच्छी-कमण्डलु, शास्त्र आदि दान भी देना चाहिए।
आर्यिकाओं की उत्कृष्ट चर्या चतुर्थकाल में ब्राह्मी, चंदना आदि माताएँ पालन करती थीं तथा पंचमकाल के अंत तक भी ऐसी चर्या का पालन करने वाली आर्यिका होती रहेंगी। जब पंचमकाल के अन्त में वीरांगज नाम के मुनिराज, सर्वश्री नाम की आर्यिका, अग्निदत्त श्रावक और पंगुश्री श्राविका इस प्रकार चतुर्विध संघ होगा, तब कल्की द्वारा मुनिराज के आहार का प्रथम ग्रास टैक्स के रूप में मांगने पर अन्तराय करके चतुर्विध संघ सल्लेखना धारण कर लेगा, तभी धर्म, अग्नि और राजा तीनों का अन्त हो जायेगा। अत: भगवान महावीर के शासन में आज तक अक्षुण्ण जैनशासन चला आ रहा है। मुनि-आर्यिकाओं की परम्परा भी इसी प्रकार से पंचमकाल के अन्त तक चलती रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है।