जीवन की गति इतनी तेज हो चुकी है कि आज माएं अपना ममत्व संभाल नहीं पा रही । इतनी चकाचौंध आंखों में प्रवेश कर चुकी है और अंदर की रोशनी को भी खाने लगी है। जैसे रात नहीं होगी तो दिन का क्या महत्व होगा, सिर्फ दिन रहेगा तो भोर कब होगी। भोर रात के गर्भ से जन्म लेती है आज बच्चों से उसका ऐसा ही बचपन छिन रहा है। कभी वो आया के हिस्से में चला जाता है या कभी समय की कमी के कारण उपेक्षा का शिकार बनने लगा है। कोई भी बच्चा जब शब्दों के संसार में सर्वप्रथम प्रवेश करता है तो सबसे पहले ‘मां’ शब्द का उच्चारण करता है या कर पाता है। माँ का अपनी संतान से संबंध ऐसा ही होता है जैसे वृक्ष का अपनी टहनियों पर पैदा होते हुए फल से । मां की भावना का प्रसार शिशु के मन में गर्भ से ही संचारित होना आवश्यक है। दृश्य—परिदृश्य तो इतने बदल चुके हैं कि आज मां के गर्भ में कन्या जन्म ले रही है तो उसे वहीं समाप्त करा देने की घटनाएं नित्य प्रति बढ़ती जा रही हैं। बहुत सी स्थिति में नवजात शिशु को फैक देने की घटनाएं भी बढ़ गई हैं। बालिका के जन्म को खुशी का समाचार नहीं माना जाता, जबकि मां का रिश्ता हर बालक या बालिका के लिए समान होना चाहिए। आज की नारी सबसे पहले अपने आपको सजाने—संवारने, सुंदर दिखाने, दूसरों को अपने पर आकृर्षित करने में अपने शरीर को पूर्णतया: सुंदर दिखाने में, चाहने लगी है, फिर बच्चे का नम्बर आता है और यही शिशु से बचपन छिनने का यही एक मात्र कारण है। पीछे कई तर्क, कई तथ्य हैं, कई मजबूरियाँ हैं और कई तरह के अहंकार भी हैं, जिन्होंने नारीत्व के ह्रास होने में अपनी भूमिका निभाई है। भले ही आज के युग की आवश्यकता ‘अर्थ’ है पर इस अर्थ ने जीवन के कई अर्थों को बदल दिया है, और हमें भावहीनता की ओर धकेल दिया है। निजी तनावों और परेशानियों ने जो कि हमारी महत्वाकांक्षा की उपज है, इस आग में घी का काम किया है। जो मां के अंदर रहकर एक अलग संसार रचती थी, जिससे वो घर, घर कहलाता थ, अब लुप्तता की ओर बढ़ने लगा है। की मां और शिशु के बीच जो अनोपचारिकताएं थी, उन्होंने औपचारिकता ओढ़नी चालू कर दी है। बदलते समय की सीमाओं को अपनी सीमाओं में प्रवेश करने देकर अपनी विचारधारा को ही इस ओर से पलायन करने की इजाजत दी है। स्थिति तो यहां तक हो गई कि घर में माता—पिता तो हैं पर मां शब्दों का जादू कम होता जा रहा है। आज बच्चे भी हाय माम, हाय डैड का उच्चारण कर अपनी राह लेते हैं। बूढ़े मां—बाप का हाल आज तो दृष्टिगोचर होने लगा है। वह एक एक नहीं हुआ है, पिछली पीढ़ी का भी इसमें पूरा योगदान है। आज जो रिश्तों में टूटन है, उसे हमने उस दिन से अनदेखा किया, जब इसने सर्वप्रथम हमारे मन में प्रवेश किया उसी का परिणाम इस मोड़ पर है। इस देश के पूर्व इतिहास को देखें तो नारी का स्थान हमेशा पुरूष से पहले रहा है। यहां उसे किसी भी अधिकार से वंचित नहीं किया जाता था। जिस देश में नारी स्वयंवर का अधिकार हो वहां उसके वंचिता होने की बात को सही नहीं माना जा सकता। गुरूकुल में पढ़ने वाले समस्त बच्चे गुरूमाता के आशीर्वाद एवं स्नेह के समान रूप से पात्र होते थे।वह युग ममत्व के विस्तार का अजीब उदाहरण है। दूसरी संस्कृतियों में रमकर हमने इसे अपनी संस्कृति मान लिया है और नारी का स्थान बदल गया। आज नारियों की सोच में क्रांति आई है एवं अपनी उस स्थिति से उठने के लिये , दुनिया को कुछ बनकर दिखाने के लिए वह आगे बढ़ी है, आगे बढ़ने को कोई बुरा नहीं कहता पर अति की ओर आगे बढ़ने से उसने उस आग में झोंक दिया, जो वहां उस रूप में थी ही नहीं। ममता के भाव से दूर जाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया उस ओर चल पड़ी है। जहां उसे मातृत्व अब वो सुख नहीं देता जो उसे अपनी मानसिकता में नजर आता है। अब नारी तर्क से बात करती है और तर्क में अतिरेक मनुष्यता को ‘तुर्क’ में बदल देता है। यह ‘तुर्क’ आत्मसंतुष्टि दे सकता है, अपने अहंकार को तुष्टि भी दे सकता है ? मगर ममत्व से दूर ले जाता है। जीवन में आगे बढ़ने की ललक होना कभी गलत नहीं हो सकता, मगर दायरा बिना खोए भी सबकुछ पाया जा सकता है। अच्छी भावनाएं हमारे मन की ताकत को बढ़ाती है। शरीर की सामथ्र्यता में वृद्धि करती है। अपने अंतर की शक्तियों का ह्रास नहीं होने देती। मधुरता का अहसास होता है। अब तो आज की नारी को अपने रास्तों को खुद पहचानना होगा, अपने स्व को खोकर हम अपनी मंजिल पर नहीं पहुंच सकते या जहां पहुंचते हैं वहां का खोखलापन शीघ्र ही सताने आने लगता है। सच कभी भी बादलों में देर तक नहीं छुपाया जा सकता। आवश्यकता है मनन करने की।जिंदगी में ‘रिटेक’ नहीं होता और एक गलती जीवन भर का पश्चाताप भी छोड़ सकती है। यदि अपनत्व खोकर हमने कुछ पा भी लिया तो शीघ्र ही उसके दुष्परिणाम सामने आने लगेंगे। हम कालांतर में अपने ही विनाश के बीज बोयेंगे। नारियों से कहना चाहूँगी कि वो जीवन में सबकुछ हासिल करें जो वो जीवन में चाहती हैं, मगर अपने अंदर की मां को खोकर नहीं या अपने को खोकर नहीं। ‘क्योंकि इसी मे नारी की संपूर्णता है’