जहां मानव के कारुण्य को चुनौती दी है भयंकर सर्वग्राही हिंसक प्रवृत्ति ने। विज्ञान के संहारक प्रगतिशील चरणों से धरा संतप्त और प्रकंपित थी। क्षमामयी सहिष्णुता अमर्यादित हो उससे किनारा कर रही थी। उसकी असहन शीलता के परिचायक आज के विकराल भूकम्प, लहलहाती हुई बाढ़े, उसकी घबराहट प्राणियों की मौत बन गई थी। ऐसे अज्ञान की घनी अंधियारी में अपना लोकोत्तर दिव्य आलोक फैलाता हुआ अतीत के घोर अंधकार को भेदता चैतन्य ओज से युक्त नारी का नारीत्व, निज पौरुष से अपनी अनन्त गरिमा को बनाये रखने का अपूर्व साहस कर रहा था। क्योंकि प्रकृति की प्रतिकूलता और अनुकूलता के प्रति भी उसके अन्तर में कोई उत्साह और अनुत्साह न रहा था। क्योंकि नारी का हमारे समाज में क्या स्थान है यह किसी से छिपा नहीं है। मां, बहिन और पत्नी के रूप में सदैव पूज्य रही है। जो आदर जो मान उसे मिला वही किसी से छिपा नहीं है। वह जननी है बड़े-बड़े महापुरुषों की। भगवान महावीर जैसे महापुरुष उसी की कोख से जन्में। हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, हमारे इतिहास नारी की महानता और गौरवगाथा से भरे पड़े हैं। यमराज से अपने पति के प्राण छुड़ाने वाली नारी ही थी। कालिदास जैसे मुर्ख को महान बनाने वाली नारी ही थी। अंग्रेजों से अकेले दम पर लोहा लेने वाली झांसी की रानी भी नारी ही थी। उसने घर की चारदीवारी छोड़ी थी। अपनी लाज, गरिमा नहीं छोड़ी थी। राष्ट्रकवि गुप्तजी ने स्पष्ट कहा है-
‘‘नारकृत शास्त्रों के सब बंधन हैं सब, नारी ही को लेकर ।
अपने लिए सभी सुविधाएँ, पहले ही, कर बैठे नर ।।’’
नारी वस्तुत: देश, समाज, परिवार की नाड़ी होती है। जैसे-हाथ की नाड़ी की गति से वात, पित्त, कफ आदि की समता-विषमता का तथा स्वस्थता व अस्वस्थता का अनुमान होता है। वैसे ही नारी के सफल मातृत्व, चारित्र बल, सेवा, शीलादि गुणों से बालक, परिवार की नैतिकता आंकी जाती है। आज का बालक कल का नागरिक है। देश व समाज का कार्यभार उसके कंधों पर होगा। उसको सुसंस्कारित करने में मां का वद् हस्त होता है। क्योंकि मां ही बालक की प्रथम पाठशाला होती है। सुसंस्कारों को देखकर सुपुत्रों का निर्माण करना मां का परम कर्तव्य है। लज्जा नारी का सहज स्वाभाविक गुण है। बालक की शिक्षा धर्म और अचार की तुला को नम्रीभूत करने में नारी का अग्रणी स्थान होता है। परन्तु आज मुझे खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आज की नारी वह नारी नहीं रही। यह सब अतीत की बात है। आज वह भटक गयी है, अपने कर्तव्य रूपी अमृत को खो चुकी है। अपने रास्ते से हट गयी है। कारण सिर्फ दो हैं- एक फैशन की होड़ उसे खोखलेपन की ओर लिये जा रही है। दूसरा मर्दों से बराबरी का दर्जा। नारी जो घर की शोभा थी, क्लबों और बाजारों की शोभा बनती जा रही है। पाश्चात्य फैशन के अन्धानुकरण में उससे अपनी सभ्यता, नैसगिक सौन्दर्य, रीति-रिवाज धर्म, कर्म, सब कुछ ताक में रख दिया है। अहर्निश उपन्यासों का अध्ययन, सभा सोसायटी में जोशीले भाषण देना, पीठ-पीछे गप्पें लगाना आम उद्देश्य बन गया है। आज उसकी आंखों में न ममता का सागर है, न स्नेह का वह दरिया जो मन में पावनता भर दे। सचमुच वैदुष्य का निखार फैशन नहीं। किसी भी नारी का यह कर्तव्य नहीं कि वह अधिकारों की प्राप्ति, कर्तव्यों की आहुति देकर करे। क्या करें ? परिस्थितियां प्रतिकूल हैं, वातावरण खराब है, समय अनुकूल नहीं है। लेकिन जिन्हें कुछ कर गुजरने की साध होती है वह ऐसा बहाना नहीं बनाते। गुलाब के फूल कांटों में ही खिलते हैं। यदि सत्य इतना महंगा न होता तो उसकी हालत होती गली-गली गोरस फिर, मदिरा बैठ बिकाय। आज अखिल भारतीय नारी समाज की दिशा में नये परिवर्तन की आवश्यकता है। हमें अपनी इन्द्रियों और इच्छाओं पर विजय प्राप्त करनी है। सादगी और सदाचार की रोशनी में इस मुक्ति को सार्थक करना है।
धर्मानुकूल: क्षमयाधरित्री भार्या च षड्गुणवती च दुर्लभ:।’
भारतीय संस्कृति और साधना नारी के अकथ त्याग और तपस्या का परिण है। क्योंकि –
‘जगजीवन के पीछे रह जावें, यदि नारी दे पावे न स्फूर्ति ।
इतिहास अधूरे रह जावे, यदि नारी कर पावे न पूर्ति ।।
नारी में अति उज्जवल सतीत्व, उज्जवल सतीत्व में महातेज ।
इस महातेज में दीपक से, नारी रखती है रति सहज ।।’
अतंत हमारी बहिनें दया, क्षमा, सौम्यता, त्याग, शील, स्नेह, सहानुभूति आदि गुणों को अपनाकर गृह की एकता अखण्डता को सुरक्षित कर, बालकों में सुसंस्कारों से नवीनांकुर प्रस्फुटित कर, देश, समाज व परिवार के भविष्य को स्वर्णिम कर तारीत्व का प्रकाश चहु ओर बिखेर कर ऐसा शंखनाद फूके-
जो सोये हैं उन्हें अपने, मधुर स्वर से जगायेंगे । विरोधों को मिटाकर प्रेम की बंशी बजायेंगे ।।