इस आर्यक्षेत्र में तीर्थंकरों की दिव्य—देशना का अजस्र प्रवाह प्रत्यक्ष या परोक्ष में अनादिकाल से गतिमान है। पूर्व काल में इस देशना का बहाव निर्बाध था, क्योंकि उस समय नर—नारियों का आचरण जिनेन्द्राज्ञा के अनुकूल था। उस समय—भारत धर्म का ध्वज था। यहाँ की संस्कृति अनुकरणीय थी। शील की महिमा का यश स्वर्ग की ध्वजा को स्पर्श करता था। शीलादि गुणरूपी आभूषणों से सुसज्जित नारी देवों द्वारा पूजित थी। लज्जारूपी उत्तम वस्त्रों को धारण करने वाले नर—नाारी मर्यादा की प्रतिमूूर्ति थे। वे अपने उत्तम सत्त्व से देवेन्द्र के आसन को भी कम्पायमान कर देते थे। नारी जगन्माता थी। तीर्थंकर महादेव तथा और भी अन्य महापुरुषों की जननी थी। नदी के दो कूलों सदृश दोनों कुलों की रक्षिता थी। अग्नि का जल, अंगारों के कमलपुष्प, नाग का हार, काच को कंचन, जल के स्थान पर थल और थल के स्थान पर जल कर देने वाली पवित्र नारी धर्म एवं देश की शान थी। धर्मोद्योत करने के लिए सूर्यकिरण थी। नि:स्वार्थ वात्सल्य रस से भरी नारी अमृत—कुम्भ थी। दुर्गति के ताप से बचाने के लिए चन्द्रकला थी।नर नारी दोनों धर्म के प्रहरी थे। राम—सीता जैसे आदर्श युगल आज कहाँ ? सामने देखें आज आप कैसे हैं ? आज हमारे युगलों ने धर्म की ओर पीठ कर ली है। नर—नारी दोनों सुसज्जित मुर्दे के सदृश दिखाई दे रहे हैं। लज्जा यहाँ से निष्कासित कर दी गई है। धर्मध्वज में अधर्मरूपी दीमक लग गई है। कदाचार रूपी विषधर ने सदाचार को डस लिया है। फैशन का भूत मर्यादाओं पर कुठाराघात कर रहा है। धर्म की खेती पर पाला पड़ गया है। संस्कृति रूपी बेल को कुसंस्कार के कीड़े खा रहे हैं। विवेकरूपी वृक्ष पर अविद्या रूपी अमन बेल छा गई है। विनयरूपी हरिण उद्दण्डता रूपी व्याघ्र के मुख में पहुँच चुका है। टी. वी. रूपी मधुमक्खियों ने परमोपकारी षडावश्यकों को आसमन्तात् आच्छादित कर लिया है।
नारी समाज को क्या हो गया है ?
नारी के उत्तरदायित्व को समानाधिकार रूपी जंगली बिच्छू ने डंक लगा दिया है। नारी की स्वाभाविक ममता को निर्दयता नाम की डाकिनी लग गई है। हिंसक पशुओं से भी अधिक क्रूरता ने नारी के सुकोमल हृदय पर आधिपत्य जमा लिया है, जिसके फलस्वरूप प्रतिदिन सहस्रों भ्रूण—हत्याएँ हो रही हैं। अपनी की कन्या संतान के विनाश हेतु नारी ने श्वानवृत्ति को गले लगा लिया है। व्यभिचारी पाप से प्रेम हो गया है अत: अपना पूरा साम्राज्य नि:संकोच उसे सौंप दिया है। सत्य को निकाल दिया है अत: असत्य सिंहासन पर बैठकर राज्य कर रहा है। अपनी ही मस्ती में मस्त मनरूपी हाथी, मदोन्मत्त होकर स्वच्छन्द होकर घूम रहा है। नारी के यशरूपी चन्द्रमा को धृष्टतारूपी राहु ग्रसित करता जा रहा है।
ऐसा क्यों हुआ है ? / हो रहा है ? किसकी भूल से हो रहा है ? कौन अपराधी है ? जरा ठण्डे दिल—दिमाग से विचार करें तो स्वयं समझ में आ जायेगा। कि हम अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं / मारी है— आपने क्या अपराध किया है ?यदि आप पूछना चाहती हो तो सुनो— श्रमण संस्था ने एवं अन्य महापुरुष ने आपके लिए कुलाचार की जो संहिता बनाई थी, उसे आपने फाड़ कर फेंक दिया है। धर्म के उत्तुंग शिखर पर बैठने वाले अपने परिवार को घर की शुद्धता नष्ट करके कंटकाकीर्ण गर्त में धकेल दिया है। स्वयं मार्गभ्रष्ट होकर आप अपने परिवार, समाज, धर्मायतन एवं महापवित्र तीर्थस्थानों की पवित्रता को कुत्सित रूप से भ्रष्ट कर रही हो / कर चुकी हो। रसोईघर की अपवित्रता के माध्यम से आप परिजन—पुरजन और अभ्यागतों के साथ—साथ साधु–साध्वियों को भी घोर पाप के अथाह सागर में डुबो रही हो। आपके द्वारा आचारित यह कदाचरण ही हमारी धर्म धरोहर को हड़प रहा है/ हड़प कर चुका है। नारी धर्म की आधारशिला है, उस नारी रूप कलिका (गर्भस्थ बालिका) का आप हनन करने लगी हो। यदि क्वचित वह कन्या आपके खूनी हाथों से बचकर बाहर भी आ गई तो अशुद्ध आचरण से संस्कारित करके आप उसे और उसकी संतति को दुर्गति रूपी भयानक गर्त में डालने का कार्य कर रही हो।
इससे होने वाली हानियाँ क्या आपके दृष्टिगत हो रही है ? यदि नहीं तो आँखें खोलकर देखें चिन्तन करें और गहराई से अनुभव करें। कुलाचार दूषित होने से ही अनेकानेक बीमारियाँ एकत्र होकर आपके घरों में स्वतंत्रतापूर्वक ताण्डव नृत्य कर रही हैं। परिश्रमपूर्वक संग्रह की हुई या उपार्जन की हुई लक्ष्मी अशुद्धि तथा पापाचार की दुर्गंन्ध से दूषित हो रही है तथा डॉक्टरों के बहाने आपके घर से ‘‘नौ दो ग्यारह’’ होती जा रही है।वह लक्ष्मी आपकी दहलीज पर पुन: आते हिचकिचा रही है।मुर्दे के सदृश मात्र पुस्तकों का भार बच्चों की पीठ पर लादा जा रहा है, माँ सरस्वती ने तो अपना मुख फेर लिया है। टी. वी. के प्रभाव से बच्चे विशेष व्युत्पन्न और बुद्धिमान दिखाई दे रहे हैं, किन्तु संस्कारहीन बुद्धि हित का मार्ग नहीं दिखा पा रही है। धर्म की ध्वजा को ध्वस्त करता हुआ पाप, दिन—दूना रात—चौगुना बढ़ रहा है। मन में निरंतन दुष्ट भावों का प्रादुर्भाव होने लगा है। सुख की सामग्रियों से घर लबालब भरा है, किन्तु चित्त में शान्ति नहीं है। आधुनिकता का मुखौटा धारण करने वाली नारियों को धर्म से कोई प्रयोजन नहीं रहा। इसी कारण धर्मात्माओं से भी कोई वात्सल्य या प्रेम नहीं रहा है। रसोईघर की अशुद्धता और मन की अश्रद्धा ने घर में निरन्तर होने वाले सुपात्रदान का द्वार बन्द कर दिया है। स्वाध्याय, सामायिक एवं अतिथि—सत्कार जैसी धार्मिक क्रियाएँ अधिकांश घरों से विदा हो चुकी हैंं। भोगविलास के घृणित व्यवहार ने धर्म की फर्म पर छापा डाल दिया है। धर्मनिरपेक्ष विद्या ने रजोधर्म आदि की ग्लानि को निष्कासित कर दिया है। फैशन का भूत नाना प्रकार के परिधान धारण कर प्रत्येक घर में नृत्य करके आबालवृद्ध को आर्किषत कर रहा है।
हमारे पूर्वजों में धार्मिकता नैसर्गिक थी पहले के लोग सदाचार का प्राणप्रण से पालन करते थे। धर्म की मर्यादाएँ दृढ़ थीं। परम्परागत सुसंस्कारों की ज्योति सर्वत्र व्याप्त थी। पापभीरुता रग—रग में भरी हुई थी। यह धरती पवित्रता रूपी जल से अभिसिंचित रही थी। तथा मानमर्यादाओं की दूर्वा से हरी—भरी रहती थी। प्रत्येक घर में शुद्धता जैसी अमूल्य निधी सहेज कर रखी जाती थी। धर्म की धरोहर पर अधर्म रूपी दस्युओं की छाया भी नहीं पड़ने दी जाती थी। नारी रजोधर्म के नियमों का पालन दृढ़ता से करती थी। रजस्वला स्त्री अपनी मर्यादा में रहती थी। भोजन—पान एवं वस्त्रों आदि का स्पर्श नहीं करती थी। पुरुष वर्ग रजस्वला द्वारा स्पर्शित वस्तुओं का उपयोग नहीं करता था। स्वयं अपने हाथों सारा गृहकार्य करते थे। उनकी आत्मा पापों से भयभीत रहती थी। गुरू आज्ञा अनुलंघनीय थी। जिनेन्द्राज्ञा का दृढ़ता से पालन होता था, इसलिए पूर्वजों में धार्मिकता नैसर्गिक थी।
आज क्या हो रहा है ?जैसे मुर्दा मनुष्य का शरीर वही रहता है, शरीर का कद, वर्ण एवं गठन आदि वही रहता है, और क्षेत्र भी वही रहता है, केवल प्राण नहीं रहते, चेतना नहीं रहती, उसी प्रकार देश वही है, मकान वही है, प्राय: सर्व वस्तुएँ वहीं हैं, मनुष्य—मनुष्य हैं, स्त्रियाँ—स्त्रियाँ हैं, उनके धर्म या कर्तव्य रूपी प्राण निकल गये हैं। फलस्वरूप— रजोधर्म की मर्यादाओं का नाश हो रहा है। रजस्वला स्त्री निर्भयतापूर्वक रसोई बनाकर परिवार को भोजन आदि करा रही है। उसी अवस्था में गृहकार्य करती है, नवीन वस्त्र धारण करके बाजारों में घूमती है। सर्विस पर जाती है। सभा सोसायटी में जाती है। सामान खरीदती है, अनाज आदि का शोधन करती है।
इससे क्या हानि हुई ? जिनेन्द्राज्ञा का लोप हुआ, देव—शास्त्र—गुरू की अवज्ञा हुई, जिनालयों के अतिशय पलायमान हो गये, मन्दिरों की पवित्रता लुप्त हो गई, घरों से ऋद्धि—सिद्धि विदा ले गई। सारे परिवार ‘‘जितने कमाएँ, उतने खाएँ’’ की स्थिति में आ गये। श्रद्धा—निष्ठा के स्तम्भ टूट गये, घर में बीमारियों का मेला लग गया। इसलिए रजस्वला धर्म का दृढ़ता से पालन करना चाहिए।रजोधर्म के लक्षण एवं भेद आदि
सूतकान्मलिनो यातौ, द्रव्य—भावौ नृणामिह। ततो हि धर्म—चारित्रे, मलिने भवत: स्वयम्।।
अर्थ — इस संसार में मनुष्यों के द्रव्य और भाव ये दोनों, सूतक (पातक) से मलिन हो जाते हैं, तथा द्रव्य और भावों के मलिन होते ही धर्म और चारित्र स्वयं मलिन हो जाते हैं।
अर्थ — वह सुनिश्चित सिद्धांत है कि मनुष्य जन्म में भी धर्म की स्थिति शरीर के आश्रित है, इसलिए मनुष्यों के शरीर की शुद्धि होने से सम्यग्दर्शन और व्रतों की शुद्धि करने वाली धर्म की शुद्धि होती है।
ततो हि धर्म—शुद्ध्यर्थ—मथ दृग्व्रत—शुद्धये। सूतकाचरणं ग्राह्यं, सर्व—शुद्धिकरं शुभम्।।
अर्थ — इसलिए धर्म की शुद्धि के लिए तथा सम्यग्दर्शन और व्रतों की शुद्धि के लिए जो समस्त शुद्धियों को उत्पन्न करने वाला है और शुभ है (कल्याणकारी है), ऐसे इस सूतक पातक का पालन अवश्य करना चाहिए।
अर्थ —यदि सूतक—पातक का पालन नहीं किया जाता है तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का सज्जातिपना नष्ट हो जाता है। सूतक—पातक का पालन किये बिना मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति कभी होती भी है (चक्रवर्ती आदि की अपेक्षा) और नहीं भी होती।
देव—पूजा गुरूपास्ति:, सूतकाचरणं विना। न द्विजै—र्जातु कर्तव्या, जिनाज्ञा—पालकै किल।।
अर्थ — भगवान जिनेन्द्र की आज्ञा का पालन करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को सूतक—पातक का पालन किये बिना देव पूजा और गुरु की उपासना आदि कार्य कभी नहीं करने चाहिये।
अर्थ —जो श्रावक सूतक—पातक में भी भगवान जिनेन्द्र की पूजा करता है एवं गुरू की उपासना करता है (आहार दान आदि देता है), उसके केवल पाप का ही आस्रव होता है।
येनाज्ञान—प्रमादाभ्यां, सूतको नानुमन्यते। स जैनोऽपि कुदृष्टिश्च, जिनाज्ञा—लोपकोऽपि स:।।
अर्थ —जो (पुरुष या स्त्री) अपने अज्ञान से अथवा प्रमाद से सूतक—पातक को नहीं मानता है, वह जैन होकर भी मिथ्यादृष्टि माना जाता है तथा भगवान की आज्ञा का लोप करने वाला माना जाता है।
अर्थ —इनमें से आर्तव सूतक स्त्रियों को होता है, इसे रजोधर्म या मासिक धर्म भी कहते हैं। यह रज असंख्यात जीवों से भरा रहता है, इसलिए यह हिंसा का मूल कारण है।
तन्मतं श्रीजिनेन्द्राणां, परिणाम—मविकार—कृत्। अशुचे—र्बीजभूतं च, ग्लान्यादीनां च कारणम्।।
अर्थ —इसके अतिरिक्त वह रज परिणामों में विकार उत्पन्न करने वाला है, अपवित्रता का कारण है और ग्लानि आदि का भी मूल कारण है।
अर्थ — रजस्वला स्त्री का तीन दिन तक सूतक मानना चाहिए। वह स्त्री चौथे दिन मात्र पति (को भोजन आदि बनाने) के लिए शुद्ध मानी जाती है तथा दान—पूजनादि धर्मकार्यों में (यदि पूर्ण शुद्ध हो तो) पाँचवें दिन शुद्ध मानी जाती है।
अर्थ —यदि कोई स्त्री बार—बार रजस्वला होती हो, स्नान करने के बाद फिर रजस्वला हो जाती हो तो उसे पात्रदान एवं जिनपूजा आदि किसी भी प्रकार के धर्म—कर्म नहीं करने चाहिये। धार्मिक क्रियाएँ करने का उसे कोई अधिकार नहीं है।
अर्थ — कोई स्त्री भले किसी रोग आदि के कारण भी बार—बार रजस्वला होती हो तो भी उसे दान—पूजा आदि कोई भी धार्मिक कार्य करने का अधिकार नहीं है।
रजस्वला स्त्री के कर्तव्य
रजस्वला हि चैकान्ते, तिष्ठेन्मौनेन सा तदा। ब्रह्मचर्य—समायुक्ता, जन—स्पर्श—विवर्जिता।।
अर्थ — रजस्वला स्त्री को किसी एकान्त स्थान में मौन धारण कर बैठना चाहिये। ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना चाहिए और अन्य किसी का भी स्पर्श नहीं करना चाहिये।
गृहकार्यं न सा कुर्याद् , गानं नृत्यं च वादनम्। सीवनं रन्धनं हास्यं, पेषणं जलगालनम्।।
विदधाति न षट्कर्म, ध्यायन्ती श्रीजिनं ह्यदि। गुरूदेवजनै: सार्धं कुर्यान्नैव च भाषणम्।।
अर्थ —उस रजस्वला स्त्री को गृहकार्य नहीं करना चाहिए। गाना, नाचना, बाद्य बजाना, वस्त्र आदि सीना, चाय, नाश्ता एवं रसोई आदि बनाना, हास्य करना, पीसना एवं जल आदि छानना ऐसे अन्य और भी कोई कार्य नहीं करना चाहिए। षट्कर्मों में से भी कोई धर्म कर्म उसे नहीं करना चाहिए। उसे तो केवल अपने हृदय में जिनेन्द्र भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए तथा गुरू एवं अन्य जनों के साथ किसी प्रकार की भी बातचीत नहीं करनी चाहिये।
आत्मरूपं न पश्येत्सा, दर्पणेऽपि कदापि वा। दर्शयेन्नान्य—मर्त्यान् सा, कामोद्रेकान्विता तदा।।
अर्थ —रजस्वला स्त्री को दर्पण में अपना मुख एवं अपना रूप कदापि भूल कर भी नहीं देखना चाहिये और न काम आदि के वशीभूत होकर अन्य मनुष्यों को अपना रूप दिखाना चाहिये।
अर्थ — रजस्वला स्त्री को कामादिक विकार सर्वथा नहीं करने चाहिए। कलह, शोक तथा ताड़न (डाँटना—फटकारना) आदि भी नहीं करने चाहिए तथा लड़ाई—झगड़ा व विलापपूर्वक रूदन आदि भी नहीं करने चाहिए।
अर्थ — उस रजस्वला स्त्री को चौथे दिन छने हुए शुद्ध जल से या गर्म जल से सवस्त्र स्नान करके और कुल्ला आदि करके प्रसन्नचित्त से सर्वप्रथम अपने पति के दर्शन करने चाहिये, अपने हृदय में पति का ही चिन्तन करना चाहिये। यह उसको अपना एक व्रत समझना चाहिये। आगम में आपको तीन दिन के लिए क्या संज्ञाएँ दी गई हैं ? सोचें—
अर्थ — रजोधर्म वाली स्त्री की पहले दिन चाण्डाली संज्ञा है, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी संज्ञा है और तीसरे दिन रजकी (धोबिन) संज्ञा है और चौथे दिन शुद्ध होती है। आप स्वयं सोचें कि जो उत्तम कुल, उत्तम विद्या, धर्म, कर्म और सदाचार से हीन हैं, उनकी संज्ञा आपको दी गई है तब जैसे सदाचरणहीन कुलों का भोजन—पान ग्राह्य नहीं है तब उसी नि:कृष्ट संज्ञा को प्राप्त आप— दूसरे—तीसरे दिन रसोई आदि बनाकर परिवार को कैसे खिलाती हो ? गृहकार्य के लिए नल आदि से जल कैसे भरती हो ? स्नान आदि के जल का स्पर्श कैसे करती हो ? वस्त्रों को धोने, सुखाने और उन्हें उठा कर उनकी तह आदि के कार्य कैसे करती हो ? आपके घर के सदस्य आपकी अशुचि अवस्था में स्पर्शित अशुद्धजल से स्नान करके और वे ही वस्त्र पहिन कर मन्दिर जाते हैं, स्वाध्याय करते हैं, माला फेरते हैं, क्या इसका पाप आपको नहीं लगता ? पाप—कर्म का बन्ध नहीं होता ? आप अपने शुद्ध हृदय से स्वयं चिन्तन करें कि आगम और अपनी कुल वंश परम्परा के प्रतिकूल किये हुए कार्य आपको सुख देंगे या दु:ख ? क्या आपका मन इस पाप से उत्पन्न भयानक दु:ख भोगने को लालायित है नरक—तिर्यंच गति में जाने को उत्कण्ठित है ? वैधव्य एवं दरिद्रता आदि के दु:ख भोगने को उत्साहित है ? यदि नहीं तो आप आज ही प्रतिज्ञा कर लें कि मैं रजस्वलाधर्म का पूरे तीन दिनों तक स्वयंपालन करूँगी और अपनी बहन, बेटी एवं पुत्रवधू आदि से भी पालन करवाऊँगी।
क्या आप जानती हैं ?कि रजस्वला अवस्था में यदि आपसे किसी साधु (या आर्यिका) का स्पर्श हो जाय तो उन्हें कितना प्रायश्चित लेना होता है ? आचारसार में वीरनन्दी आचार्य कहते हैं कि—
अर्थ — यदि कपाली, चाण्डाल एवं रजोधर्म वाली महिला से किसी साधु का स्पर्श हो जाये तो वे दण्डस्नान (सिर पर डाली हुई कमण्डलु के जल की धारा जो पैरों तक आ जाय) करें, महामंत्र का जाप करें और उपवास करें। यदि आहार के बाद स्पर्श हो तो दूसरे दिन का उपवास करें। आप स्वयं चिंतन करें कि— धर्माचरणहीन जनों के स्पर्श का जो प्रायश्चित्त है, वही प्रायश्चित रजस्वला महिला के स्पर्श का है। क्या आपको इस अवस्था में अस्पृश्यों के समकक्ष ही नहीं माना गया है ? उस समय आप इतनी अशुद्ध हैं कि मुनिराज को प्रायश्चित में दण्डस्नान और जाप्य के साथ—साथ उपवास करना पड़ रहा है, क्या आप यथार्थ में अपनी इस अशुद्धि को नहीं जानती हैं ? क्या आप जिनेन्द्राज्ञा से बहिर्भूत हैं ? क्या आपको जिनेन्द्राज्ञा—उल्लंघन का किंचित भी भय नहीं है ? क्या पूर्वोपार्जित पाप—पुँज ने आपके विवेक को पूर्ण—रूपेण खा लिया है ? अशुद्धावस्था में आपसे स्पर्शित आपके परिवाजन जब उन मुनिराजों (महात्माओं) की वैयावृत्ति आदि करते हैं, तब क्या वे मुनिराज प्रायश्चित के भागी नहीं हैं ? यदि साधु को आपके इस कदाचरण का पता चल जाय तब क्या वे उपवास नहीं करेंगे ? पवित्रात्मा साधुओं को उपवास के निमित्त उपस्थित करके आप क्या अनर्थ नहीं कर रही हैं? क्या आप अपने परिवारजन को पाप—पंक (कीचड़) में नहीं लथेड़ रही हैं ? जिनेन्द्राज्ञा पर प्राण न्योछावर करने में तत्पर उन महात्माओं के साथ आप क्या विश्वासघात नहीं कर रही हैं ? सदाचरण को ताक में रखकर स्वच्छन्द आचरण करते क्या आपका हृदय कम्पायमान नहीं होता है ? क्या आपको इस घोरतम अपराध का कटुपन नहीं भोगना पड़ेगा ?
क्या आप जानती हैं ? कि ९६ कुभोगभूमियों में कौन उत्पन्न होते हैं ? श्री मन्नेमिचन्द्राचार्य त्रिलोकसार गाथा ९२४ में कहते हैं कि—
अर्थ —जो दुर्भावना अर्थात् ईर्ष्या आदि खोटे भावों से आहारदान देते हैं, जो अपवित्र अवस्था में अथवा द्रव्य क्षेत्र,काल एवं भाव, इन चार अशुद्धियों में से किसी एक शुद्धि की भी अवहेलना करके आहारदान देते हैं, जो सूतक—पातक आदि को नहीं मानते और आहारदान आदि देते हैं, जो रजस्वला स्त्री के स्पर्श से युक्त आहार देते हैं, जो जातिसंकर आदि दोषों से दूषित होते हुए भी आहारदान देते हैं और जो कुपात्रों को दान देते हैं, वे जीव मरकर कुभोगभूमियों में कुमनुष्य (सूकर, कुत्ता, उल्लू, घोड़ा एवं भैंस आदि के मुख वाले, एक जंघा वाले, बड़े—बड़े कान वाले, पूँछ वाले, सींग वाले और गूंगे) होते हैं। सूतक—पातक से स्पर्शित एवं रजस्वला स्त्री से स्पर्शित आहार देना भी जब कुभोगभूमि में जन्म लेने का कारण है, तब आप चिन्तन करें कि— प्रसूति हुए जिसके पन्द्रह बीस दिन ही हुए हैं, उसके द्वारा शोधित तथा रजस्वला अवस्था में शोधित अनाज आप आहार में देती हैं ? प्रसूति वाली एवं रजस्वला स्त्री जिन बर्तनों में भोजनपान करती है, उन्हें आग से संस्कारित किये बिना ही आप आहार बनाते और देते समय उपयोग में लेती हैं ? रजस्वला स्त्री से स्पर्शित जल से स्नान करके तथा उसके द्वारा धोकर सुखाये हुए कपड़े पहिन कर आप आहारदान देती हो ? पूजन—प्रक्षाल करती हो ? रजस्वला स्त्री द्वारा शोधित सेमफली आदि का शाक धोकर काम में लेती हो ? किसी—किसी रजस्वला स्त्री की आवाज से एवं छाया से पापड़ विकृत हो जाते हैं, यह बात आप भी भली प्रकार जानती हो, फिर भी क्या इनकी छाया जिन पदार्थों पर पड़ रही हो या पड़ चुकी हो, वे ही दाल, चावल, घी, तेल, बूरा, आटा, मसाला, दूध एवं पानी आदि आप आहार में देती हो? चौके के बाहर बैठी हुई रजस्वला स्त्री से बातें करते हुए आप आहार बनाती हो ? या आहारदान हेतु आटा, मसाला तैयार करती हो ? रजस्वला एवं प्रसूति स्त्री से स्र्पिशत बालकों को चौके के पास बैठा कर नाश्ता आदि कराती हो? फिर उनकी गिरी हुई जूठन स्वयं बुहारी से साफ करती हो ? रजस्वला स्त्री द्वारा मांजे हुए बर्तनों में ही आहार बनाती हो ? आहारदान हो जाने के बाद चौके और बर्तनों की सफाई आप तीसरे दिन वाली महिला से कराती हो ? जिस कमरे में शुद्ध रसोई बनती है, रजस्वला अवस्था में आप शाम—सवेरे उसी कमरे में से आवागमन करती हो ? रजस्वला स्त्री द्वारा खरीद कर या आँगन में से तोड़ी हुई सेमफली, तोरई, अनार, अमरूद, हरी मिर्च और मक्की के भुट्टे आदि धोकर आहार के काम में लेती हो ? सूतक—पातक वालों के द्वारा दिया हुआ अनाज, सब्जी, घी एवं मेवा आदि आप आहार में देती हो ?
तब क्या आप जानती हैं ? कि आपको कुभोगभूमि तक ले जाने में ऐसी कभी अनर्गल प्रक्रियाएँ प्लेन के टिकिट का कार्य करेंगी।
क्या आप जानती हैं ? कि श्रावक के अन्तरायों में भी आगम की क्या आज्ञा है? सागारधर्मामृत के चतुर्थ अध्याय, श्लोक ३१ में पं. आशाधरजी कहते हैं—
अर्थ —व्रतों को पालन करने वाला गृहस्थ गीला चमड़ा, मदिरा, माँस, रक्त और पीप आदि पदार्थों को देखकर तथा रजस्वला स्त्री, सूखा चमड़ा, हड्डी, कुत्ता, बिल्ली एवं चाण्डाल आदि का स्पर्श हो जाने पर भोजन—पान छोड़ दें अर्थात् अन्तराय करे। यहाँ भी रजस्वला अवस्था में आपको हड्डी, चमड़ा आदि के समकक्ष रखा जाता है। कुत्ता—बिल्ली आदि के स्पर्श हो जाने पर जैसे व्रती श्रावक भोजन करने का अधिकारी नहीं है वैसे रजोधर्मावस्था में आपका स्पर्श हो जाने पर व्रती भोजन नहीं कर सकता।
अब आप स्वयं विचार करें कि—आपके पीहर या ससुराल पक्ष में कोई भव्य व्रती है ? # आप अपने घर में कभी व्रतीजन को भोजन कराती हो ? रजस्वला अवस्था में स्पर्शित धान्य आदि का ही भोजन कराती हो ? आप तीन दिन जिन बर्तनों में भोजन करती हैं, उन्हीं बर्तनों में व्रतीजन को भोजन कराती हो? यदि आपके घर में व्रती हैं तब क्या आप को स्पर्श करने वाले बच्चे उन व्रतीजन को स्पर्श नहीं करते हैं ? रजस्वला अवस्था में आप पति के साथ स्कूटर पर बैठकर जाती हैं। आप बाहर बैठ जाती हैं, पतिदेव मन्दिर में जाकर चावल चढ़ाते हैं, माला एवं शास्त्रादि का स्पर्श करते हैं, आप दोनों को कोई पाप का बंध नहीं होता है ? आप सुरुचिपूर्वक पापों का आह्वान करती हैं। आपने पापों को अपना बन्धु बना लिया है ? अपनी संतान को पापमयी प्रक्रिया की ट्रेनिंग देकर क्या उनका हित कर रही है ? क्या आप सदाचार रूप अपने कुल धर्म की रक्षा कर रही हैं ? क्या आप इन प्रक्रियाओं से जैनधर्म का घात नहीं कर रही हैं ?
क्या आप जानती हैं कि आगमानुसार रजस्वला अवस्था में आपको क्या क्या करना चाहिये ? यदि नहीं जानती हैं तो— आगमाज्ञा को ध्यान से पढ़िये चिंतन कीजिये आचरण में उतारिये उत्तम फल प्राप्त कीजिये रजस्वला स्त्री को तीन दिन पूर्णरूपेण शीलव्रत पालन करना चाहिये एवं ब्रह्मचर्य व्रत से रहना चाहिये। जहाँ मनुष्यों का आवागमन न हो ऐसे एकान्त में रहना चाहिये। डाभ के आसन पर सोना/बैठना चाहिये। खाट, पलंग, शैय्या, रुई के बिस्तर तथा ऊन आदि के बिस्तर आदि का स्पर्श भी नहीं करना चाहिये। जैसे मालती, माधवी एवं कुन्द आदि की बेलें, संकुचित रूप से रहती हैं वैसे ही संकुचित होकर रहना चाहिये। देव धर्म की बात भी नहीं करनी चाहिये। दूध, दही, घी आदि रस छोड़कर नीरस भोजन करना चाहिये। यति पीतल आदि के बर्तनों में भोजन करें तो तीन दिन बाद उन्हें अग्नि द्वारा शुद्ध करना चाहिये अथवा अलग रखना चाहिये। भोजन पत्तों के अथवा मिट्टी के पात्रों में करना चाहिये। तत्पश्चात् उन्हें फेंक देना चाहिये। दिन में एक बार रूक्ष भोजन करना चाहिये। लड्डू आदि पौष्टिक पदार्थ नहीं खाने चाहिये। गुड़, शक्कर एवं नमक आदि का त्याग कर देना चाहिये। तीन दिनों में पहने धोती, पेटीकोट आदि वस्त्र अलग ही रखने चाहिये उन वस्त्रों से तीर्थयात्रा, पूजन एवं आहारदान आदि कदापि नहीं करना चाहिये। तीन दिन पर्यंत देव, शास्त्र, गुरू, कुलदेवता एवं राजा आदि से किसी भी परिस्थिति में सम्भाषण नहीं करना चाहिये। दर्पण में भी इनका दर्शन नहीं करना चाहिये। पेन, बॉलपेन एवं पेन्सिल आदि का स्पर्श नहीं करना चाहिये। सिद्ध भगवान के सदृश अक्षर अनादिनिधन सिद्ध हैं उन्हें लिखना उनकी स्थापना कहलाती है, अत: तीन दिन तक लेखनादि कार्य कदापि नहीं करना चाहिये। भरत का काम एवं सिलाई, बुनाई का कार्य भी नहीं करना चाहिये। कैरम तथा ताश आदि (किसी भी प्रकार) के खेल नहीं खेलने चाहिये। स्वामिवात्सल्य, विवाह समारोह तथा मृत्युप्रसंग पर भोजनार्थ बाहर कहीं नहीं जाना चाहिये। मृत्यु आदि प्रसंग पर भी रोना नहीं चाहिये और मांगलिक प्रसंगों पर गीत आदि नहीं गाने चाहिये। रासमण्डल, स्वस्तिक एवं चौक आदि नहीं पूरना चाहिये। दीपावली आदि के समय जो रंगोली आदि भरी जाती है, वह भी नहीं भरनी चाहिये। केशरचना नहीं करनी चाहिये। माँग नहीं भरनी चाहिये। आँखों में काजल एवं अँजन आदि नहीं लगाना चाहिये। सिर आदि में एवं शरीरादि में भी तेल नहीं लगाना चाहिये। उबटन एवं साबुन आदि लगाकर स्नान नहीं करना चाहिये। दातूून—मंजन नहीं करना चाहिये। पुष्पमाला, गन्ध, इत्र एवं फुलेल आदि श्रृंगारिक साधनों का तीन दिन के लिए त्याग कर देना चाहिये। व्यापार आदि की दृष्टि से भी बड़ी पापड़ सिमई आदि नहीं बनाने चाहिये। मवेशियों के लिए जुआरी—कपास आदि नहीं उबालना चाहिए, उनके लिए घास आदि भी नहीं डालनी चाहिये। घास एवं लकड़ी आदि लेने खेतों पर और जंगल आदि में नहीं जाना चाहिये। मिट्टी आदि लेने भी नहीं जाना चाहिये। तालाब एवं नदी आदि पर स्नान करने, कपड़े धोने एवं मवेशियों को पानी पिलाने के लिए नहीं जाना चाहिये। घर—बाहर की लिपाई, पुताई, धुलाई आदि नहीं करनी चाहिये। किसी के भी साथ कलह एवं गपशप नहीं करनी चाहिये। हँसी—मजाक नहीं करना चाहिये। मवेशियों को बाँधने, खोलने, दुहने, घास—पानी देने एवं उनके गोबर—मूत्र आदि उठाने के कोई भी कार्य नहीं करने चाहिये। अनाज साफ करना, दालें बनाना, चने, उड़द, मूँग आदि दलना, फटकना, पीसना, औषधियाँ कूटना—पीसना या घिसना ये कोई भी कार्य तीन दिन नहीं करने चाहिये। लेखन, वाचन एवं पठन—पाठन करना, बच्चों को पढ़ाना, उन्हें नहलाना, धुलाना, वस्त्र आदि पहना कर स्कूल छोड़ने जाना तीन दिन नहीं करना चाहिये। घर के या दूसरों के वस्त्र, बर्तन एवं अन्य और भी किन्हीं पदार्थों का स्पर्श नहीं करना चाहिये। झाडू—बुहारी लगाना, सफाई करना, बर्तन माँजना, कपड़े धोना आदि बाहर के भी कोई कार्य नहीं करने चाहिये। लौंग, सौंफ, पान—सुपारी आदि नहीं खाना चाहिये। दूसरों को स्पर्श नहीं करना चाहिये। रात्रि को कहीं घूमने—फरने एवं गपशप करने नहीं जाना चाहिये। सिनेमा, पिकनिक एवं क्लब आदि स्थानों पर नहीं जाना चाहिये। सिनेमा, टी. वी. व वीडियो आदि भी नहीं देखना चाहिये। सोफा कम बेड, पलंग एवं कुर्सी आदि पर नहीं बैठना चाहिये। नौका, मोटर, बस, कार, ट्रेन, प्लेन, स्कूटर एवं मोटरसाईकिल आदि किसी भी सवारी पर तीन दिन नहीं बैठना चाहिये। चाय—कॉफी आदि पदार्थ नहीं पीने चाहिये। अखबार एवं पत्र—पत्रिकाएँ भी नहीं देखने चाहिये। वृक्ष के नीचे नहीं सोना चाहिये। महामंत्र णमोकार का मुख से उच्चारण नहीं करना चाहिये, किन्तु अहर्निश मन में चिंतन करते रहना चाहिये। आर्त—रौद्र ध्यान नहीं करना चाहिये। शान्त परिणामों से धर्म—चिंतनपूर्वक तीन दिन एकांत में व्यतीत करने चाहिये।
क्या आप अंधी, बहरी, गूँगी, मूर्ख, आलसीै, रोगी, व्यसनी, दुराचारी और उन्मत्त संतान पैदा करना चाहती हैं ? यदि नहीं तो…….. भावमिश्र वैद्यराज द्वारा विरचित भावप्रकाश वैद्यक ग्रंथ के— ये सुझाव ध्यान से पढ़िये इन पर विश्वास कीजिये संयम रखने का अभ्यास कीजिये आपका एवं आपके परिवार का हित इसी में है कि— आप इन्हें अपने आचरण में उतारें कोई भी स्त्री अज्ञान से, प्रमाद से, विषय—लोलुपता से अथवा दैवयोग से रजस्वला अवस्था में तीन दिनों में यदि— रोती है तो उसके गर्भ में जो शिशु आवेगा, वह निरन्तर शोक करने वाला और नेत्ररोगी होगा। ऐसा शिशु अंधा हो जाता है, उसकी आँखों में फूला हो जाता है, वह काना हो जाता है। आँख ऐंसा—तानी हो जाती है, धुंधली हो जाती है, लाल बनी रहती है, माँजरी (बिल्ली की आँख सदृश) हो जाती है तथा उसकी आँखों से सदा पानी बहता रहता है। ऐसे और भी अनेक रोग हो जाते हैं। रजस्वला अवस्था में यदि नाखून काटती है तो उसके बालक के नाखूनों में विकार उत्पन्न होते रहते हैं, उस बालक के नाखून फटे, टूटे, सूखे, काले, हरे, टेढ़े और बेडौल होते हैं, अन्य भी अनेक प्रकार के रोग होते रहते हैं। जो स्त्री रजस्वला अवस्था में उबटन करती है या तेल लगाती है तो उसके बालक को अठारह प्रकार के कुष्ठ रोगों में से कोई भी कुष्ठ रोग हो जाता है और वह बालक हमेशा खाज—दाद आदि रोगों से पीड़ित रहता है। जो स्त्री रजस्वला अवस्था में इत्र—फुलेल या गन्ध लगाती है, तो उसका बालक चर्मरोगी होता है। जल में डूब कर स्नान करती है तो उसका बालक दुराचारी और व्यसनी होता है। आँखों में अँजन या सुरमा लगाती है तो बालक मन्द नेत्र ज्योति वाला होता है। रजस्वला अवस्था में उच्च स्वर में बोलने से या टी. वी. आदि के उच्च स्वर सुनने से संतान बहरी होती है और कर्ण सम्बन्धी अनेक रोगों से पीड़ित रहती है। रजस्वला अवस्था में दिन में सोने से संतान प्रमादी, आलसी, बहुत सोने वाली एवं ऊँघने वाली होती है। रजस्वला अवस्था में अधिक हँसने से संतान के ओष्ठ, तालु, जिह्वा आदि काले पड़ जाते हैं। रजस्वला अवस्था में अधिक बोलने से संतान प्रलापी असत्यभाषी, बकवासी एवं लबार होती है। रजस्वला अवस्था में अधिक परिश्रम करने से संतान उन्मत्त, पागल एवं बुद्धिहीन होती है। रजस्वला अवस्था में खुले मैदान (चौड़े) में सोने से संतान उच्छ्रंखल, स्वच्छन्दी और उन्मादी होती है। रजस्वला अवस्था में अधिक टीम—टाम और श्रृंंगार आदि करने से संतान व्यभिचारिणी होती है। रजस्वला अवस्था में ब्रह्मचर्य व्रत का पूर्ण पालन न करने से संतान अत्यंत कामी, भोगाभिलाषी और निर्लज्ज होती है। रजस्वला अवस्था में स्त्री यदि दौड़ती है, तो संतान चंचल उत्पाती एवं उपद्रवी होती है। रजस्वला अवस्था में स्त्री यदि पृथ्वी खोदती है तो संतान दुष्ट और क्रूर स्वभाव वाली होती है।
अन्य धर्मों में रजोधर्म की व्यवस्था- वैदिक धर्म : पवित्रता की सुरक्षा करो रजस्वला स्त्री एकान्त में रहे। किसी भी वस्तु का स्पर्श न करे। हल्का भोजन ग्रहण करे। सांसारिक कार्यों से मुक्त (दूर) रहे। अल्प वस्त्र धारण करे। प्राकृतिक जीवन व्यतीत करे। तेल—उबटन का उपयोग न करे। श्रृंगार की दृष्टि से स्नान न करे। आमोद—प्रमोद से कोसों दूर रहे। किसी से वार्तालाप न करे। घास—फूस अथवा जूट के कोथले पर शयन करे। मिट्टी के बर्तन में मूंग, चावल जैसा सात्विक भोजन करे” श्रृंगार न करे। हँसी—मजाक न करें। सार्वजनिक स्थान मसलन हॉल, चबूतरा, गैलरी व चौपाल जैसे स्थानों पर न बैठें। पति के साथ भी वार्तालाप न करें। मन्दिर और गौशाला में न जावें। ‘‘दिनत्रयं त्वक्त्वा शुद्धा स्याद् गृहकर्मणि’’ अर्थात् रजस्वला स्त्री तीन दिन के बाद ही गृहकार्य करने हेतु शुद्ध होती है।
ईसाई धर्म : पूर्ण शुद्धि रखनारजस्वला स्त्री सात दिन तक अशुद्ध कहलाती है और जो उसका स्पर्श करता है, वह भी सूर्यास्त तक अशुद्ध माना जाता है। जब तक वह स्त्री अशुद्ध होती है तब तक जिस किसी को भी स्पर्श करती है, वे सब स्पर्शित वस्तुएँ अशुद्ध मानी जाती हैं। जो कोई रजस्वला स्त्री की शय्या का स्पर्श करता है वह अपने कपड़े धोकर स्नान करता है, फिर भी वह सूर्यास्त तक अशुद्ध ही माना जाता है, उसके द्वारा भी स्पर्शित कोई वस्तु उपयोग के योग्य नहीं होती। रजस्वला स्त्री चौथे दिन स्नान करके शुद्ध हो, तब भी सात दिन के बाद की पूर्ण शुद्ध मानी जाती है।
यहूदी धर्म : शुद्धि रखने हेतु स्पर्शित पदार्थ जला दो रजस्वला स्त्रियों को नदी, तालाब एवं कुएँ (हैण्डपम्प, टयूबवेल एवं टंकी आदि) के जल को नहीं छूना चाहिये। किसी भी अनाज, फसल, चाँदी—सोना एवं रूपया पैसा आदि द्रव्य तथा फर्नीचर का स्पर्श नहीं करना चाहिये, यदि भूल कर कभी स्पर्श हो जावे तो ऐसी वस्तु को तुरन्त जला देना चाहिये। जिस फर्नीचर का वे प्राय: उपयोग करती हैं, उसे हरे रिबन से बाँध कर रखती हैं जिससे दूसरा उसका उपयोग न कर सके।
पारसी धर्म : पाप से डरो, पवित्रता रखो पारसी धर्मानुयायी स्वच्छता और पवित्रता में अधिकाधिक विश्वास रखते हैं। वे प्राय: अपने जीवन को पवित्र बनाये रखने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहते हैं। उनके हाथ से यदि कोई अनुचित कार्य होता है तो वे उसका प्रायश्चित करते हैं और ऐसे कार्यों से दूर रहने का संकल्प करते हैं। इस धर्म में रजस्वला स्त्रियाँ पारसी मन्दिर में प्रवेश नहीं करती हैं और साथ ही ऋतुधर्म के तीनों दिन अग्नि का स्पर्श नहीं करती हैं। =
=मुस्लिम धर्म : पवित्रता मत छोड़ो== इस धर्म में रजस्वला स्त्री पर नमाज पढ़ने और रोजा रखने की सख्त पाबंदी है। प्राय: ऐसी स्त्रियों को छह दिन तक अलग रहना पड़ता है और जो उसका स्पर्श करता है उसे लगभग ४०-५० दिन तक नियमित रूप से पश्चाताप करना होता है। धर्मपरायण और शीलप्रधान भारत देश के प्राय: सभी धर्म जब रजस्वला अवस्था को संक्रामक रोग सदृश अछूत और अपवित्र घोषित कर रहे हैं व उस अवस्था में आपको क्या क्या नहीं करना चाहिये, इसका विधान बता रहे हैं, फिर भी आप लोग इसे स्वीकार क्यों नहीं करती हैं ?
क्यों धर्म का आमूल नाश करने पर तुली हो ? सदाचारनाशक इस पाप ने हमारे घर में प्रवेश कैसे पाया ? बीसवीं शताब्दी के मध्ययुग में शिक्षा का अभाव था, अत: अज्ञानता का प्रसार था। आवागमन के साधन कम होने से सदाचार पोषक साहित्य का प्रचार—प्रसार नहीं हो पाता था। साधु—साध्वियाँ अल्पसंख्यक होने से सर्वत्र सदुपदेश की धारा बह नहीं पाती थी। स्वाध्याय का प्रचलन नहीं के बराबर था। समाज संस्कारविहीन संतान पैदा करने लगी थी। इन अनेक कारणों से समाज को यह ज्ञान नहीं था कि रजस्वला अवस्था में हमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये। इस युग में तो शिक्षा रूपी समुद्र का बाँध टूट गया है, उसने चादर ढक दी है, जिससे नगर, शहर एवं ग्रामों की डगर—डगर में, गली—कूचों में सर्वत्र वह अजस्र धारा बह रही है—
फिर क्यों नारी अचेत है ? अब वह शिक्षा निरंकुश हो गई है, क्योंकि उसके सदाचार रूपी तट टूट गये हैं। वह निष्प्राण हो गई है क्योंकि उसके धर्मरूपी प्राणपखेरू उड़ गये हैं। उसके शव में अर्थ रूपी प्रेत प्रवेश कर गया है अत: वह सर्वत्र भ्रमण कर लोगों की समीचीन बुद्धि का अपहरण कर उन्हें स्वार्थ, वंचना, पापाचरण और अनीति की घूँटी पिला रही है।
आज की शिक्षा ब्रह्मचर्य की खूँटी से छूट चुकी है इसके फलस्वरूप लड़के—लड़कियाँ पुस्तकें लेकर स्कूल एवं कॉलेज जाते दिखाई देते हैं किन्तु प्राय: उनके मन में कामवासना की पूर्ति के अवसर की खोज में लगे रहते हैं और अवसर मिलते ही वे अर्धपक्व उमर वाले बच्चे निर्लज्ज होकर छेड़खानी जैसी अश्लील शरारतें प्रारम्भ कर देते हैं। ऐसी पाप प्रकृति मिश्रित शिक्षा से रजोधर्म—पालन वांछा रखना आकाश के फूल प्राप्त करने की वांछा सदृश निरर्थक है।
देखो, विकारी साहित्य और टी. वी. आपकी संस्कृति को कहाँ ले जा रहे हैं ? इस काल में साहित्य का प्रचार—प्रसार बहुत हो रहा है किन्तु अधिकांश साहित्य अनाचार, अनीति और अन्याय का पोषक होता है। पढ़ने की अपेक्षा देखने का प्रभाव आत्मा पर अधिक पड़ता है। सद्साहित्य रूपी किरणों के प्रभाव को टी. वी. रूपी मेघों का घटाटोप निरंतर विलुप्त करता जा रहा है। माता—पिता और शिक्षक—गुरुओं को बहुत विवेकपूर्वक कार्य करना चाहिए। यह विवेक ही कुलाचार के साथ—साथ सदाचार एवं धर्म की रक्षा कर सकेगा। बालक—बालिकाएँ अनुकरण स्वभाव वाले होते हैं। घर में माता—पिता को जिस धर्म का जिस प्रकार से पालन करते देखते हैं, उसे ही प्रामाणिक मान कर तद्नुसार अपने जीवन को ढ़ाल लेते हैं,अतः
सदाचार की बागडोर माताओं के हाथ में है। माताएँ और शिक्षिकाएँ यदि रजोधर्म का पालन अपने—अपने शास्त्रानुकूल करने लगें तो बालिकाओं में भी वह संस्कार आ जायेगा। वर्तमान में आप जैसा कर रही हो वैसा ही संस्कार उनमें पड़ रहा है। रजोधर्म के प्रति कोई ग्लानि आज की संतान में नहीं रही है। यही कारण है कि भोजन—पानादि के स्पर्श में उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती। उनकी रजस्वला अवस्था की वेषभूषा भी शुद्ध अवस्था सदृश ही होती है। कॉलेजों में धर्मनिरपेक्ष शिक्षा ने, पाश्चात्य देशों (की नकल) के कुप्रभाव ने, जिन—धर्म में रजोधर्म का पालन नहीं होता है, उनकी संगति और उनके साथ के खान—पान ने भारतीय नारी के मस्तिष्क को इतना विकृत कर दिया है कि वे इस रजोधर्म को फोड़ा—फुन्सी के सदृश समझने लगी हैं।
आप सच्चे हृदय से चिंतन करें कि— फोड़ा—फुन्सी, स्त्री—पुरुष दोनों के होते/ हो सकते हैं। फोड़ा—फुन्सी बाल, यौवन और वृद्ध इन तीनों अवस्थाओं में होते हैं/हो सकते हैं। जहाँ फोड़ा होता है, वहाँ सूजन आ जाती है। उस स्थान पर असह्य दर्द होता है। फोड़े आदि को पकाने और फोड़ने के लिए औषधियों का प्रयोग करना पड़ता है। डॉक्टर से उसमें चीरा लगवाना पड़ता है। मांस उभर आता है। उसमें पीप पड़ जाती है, जो रक्त के साथ—साथ बाहर आती है। पूर्ण पक जाने पर उस फोड़े में पीप ही पीप होती है, रक्त तो पीप निकल जाने के बाद में थोड़ा बहुत आता है। पीप निकल जाने के बाद वहाँ घाव हो जाता है। उस घाव को डॉक्टर एवं वैद्य अपने—अपने प्रयोगों से साफ करते हैं और औषधियों द्वारा सुखाते हैं। उस घाव को सुखाने के लिए गोलियाँ और कैप्सूल खिलाते हैं। फोड़ा—फुन्सी का यह नियम नहीं है कि वह— अ. नारी समाज को ही हो। ब. नारी की बारह—तेरह वर्ष की उम्र से ४५-५० वर्ष की उम्र तक ही हो। स. जगत् की सर्व नारी समाज को नियमत: हो ही हो। द. प्रत्येक माह में हो। य. कुमारी, सधवा, विधवा, युवती और अर्द्धवृद्ध तक सभी को हो। र. रजस्वला होने के पूर्व पेट, कमर और पैरों आदि में दर्द होना, अंगड़ाई आना, जी घबराना तथा प्रमाद और मन की अप्रशस्ततारूप जो चिह्न उत्पन्न होते हैं, वे फोड़ा—फुन्सी होने के पूर्व नहीं होते। इन सब बातों पर विचार करने से यही निष्कर्ष निकलता है कि— स्त्री के साथ ही रजोधर्म का अविनाभाव सम्बन्ध है। जो जो रजोधर्म से होती है, वे ही स्त्री है। जिन स्त्रियों के रजोधर्म नहीं आता, वे प्राय: बन्ध्या रहती हैं। संतानरूपी फल उत्पन्न करने के लिए रजोधर्म पुष्प—स्थानीय है।
गर्भधारण से पूर्व जैसे रजस्वला होना आवश्यक है,वैसे फोड़े फुन्सी होना आवश्यक नहीं है। अत: आप संयमी बनें विचार शुद्ध रखें
आचरण शुद्ध रखें। स्वयं संस्कारशील बनें संतान को संस्कारित करें। रजोधर्म की मर्यादाओं का पालन करें।
संसारभीरू, दु:खभीरू तथा सुख—शान्ति एवं कल्याणेच्छुक नर—नाारियों को आगम पर दृढ़ श्रद्धा रखते हुए सर्व कार्य विवेकपूर्वक करने चाहिये और स्पर्शास्पर्श का ध्यान रखते हुए अपनीं—अपनी आत्मा के साथ धर्म की भी रक्षा करनी चाहिये।
गर्भावस्था में स्त्रियाँ रजोधर्म से नहीं होती किन्तु फोड़े—फुन्सी हो सकते हैं। क्या आप जानती हैं कि विदेश में रजोधर्म—पालन की क्या व्यवस्थाएँ हैं ?
यदि नहीं, तो पढ़िये और विचार कीजिये अफ्रीका—= कोंगो नदी के किनारे रहने वाली अफ्रीका जाति की स्त्रियाँ जब रजस्वला होती हैं, तब अपने स्थायी निवास स्थान का त्याग कर रिक्त स्थान में रहती हैं। वहाँ किसी का स्पर्श नहीं होने देतीं और न ही स्वयं किसी वस्तु का स्पर्श करती हैं। रजोधर्म वाली स्त्री अपनी पहिचान के लिए अपने सीने पर तिकोना स्कार्प लगाती हैं। दक्षिण अमेरिका एवं आयरलैण्ड— ओरीनोका एवं साउथ सी आयरलैण्ड में स्थित स्त्रियाँ जब रजस्वला होती हैं तब अलग झोंपड़ी में रहती हैं। ऋतुधर्म के तीन दिन वे अपने सिर पर भी हाथ नहीं लगातीं। किसी वस्तु एवं दूध तक का स्पर्श नहीं करतीं। उनकी मान्यता है कि यदि भूल—चूक से स्पर्श हो जाये तो वस्तु एवं दूध खराब हो जाते हैं। जो मस्तिष्क बुद्धि का केन्द्र है, चिंतन शक्ति का आधार है। स्मृतियों का कोष है। प्रज्ञा का पुँज है। मानसिक और शारीरिक गतिविधियों के संचालन का यन्त्रालय है। दैवीय एवं मानवीय सर्वशक्तियों का संग्रहालय है। आदेश एवं आज्ञा—निर्देश आदि की स्वीकारता का सिग्नल है। विनय का ध्वज है और सर्वाङ्गों में उत्तमाङ्ग है। ऐसे सर्वशक्तिमान मस्तिष्क का रजोधर्म की अवस्था में स्पर्श नहीं करना, यथार्थ में मनोवैज्ञानिक सुन्दर तत्व है। जब मस्तिष्क का ही स्पर्श नहीं करते, जो कि अपने ही शरीर का अंग है, तब जो पदार्थ परिवार के मस्तिष्कों को शक्ति देने वाले हैं, ऐसे मेवा, मिष्ठान, दूध, दही, कच्ची—पक्की भोज्य सामग्री आदि का स्पर्श कैसे कर सकते हैं ? यदि नहीं, तो पढ़िये और विचार कीजिये
न्यूजीलैण्ड— यहाँ की स्त्रियाँ रजस्वला होते ही अंतरिक्ष में लटकते हुए एक पिंजड़े में तीन दिन तक रहती हैं। वे जमीन को भी नहीं छूतीं। उनकी मान्यता है कि जमीन पर चलने से उनके शरीर में रजोधर्म से प्रवाहित होने वाला जहर चारों ओर फैलता है।
लेबनान— यहाँ के किसान वर्ग में कैसी मर्यादा है कि रजोधर्म वाली स्त्री खेतों में कार्य नहीं कर सकती। कहीं मजदूरी के लिए नहीं जा सकती। यदि वह भूल—चूक से कभी खेत में चली जाये तो पेड़—पौधे, पुष्प—वृक्ष, क्यारियाँ, अन्य वनस्पति, घास—फूस एवं फसल पर विपरीत परिणाम होता है। ऐसी स्त्री को बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी एवं मोटरगाड़ी में भी नहीं बैठने देते हैं।
जर्मनी— आधुनिक युग में भी यहाँ रजोधर्म की प्रथा पहले के समान यथावत् चली आ रही है और उसका कठोरता के साथ पालन किया जा रहा है। रजोधर्म वाली जर्मन स्त्रियाँ अपनी पहचान के लिए ‘‘मुझे कागज मिला है’’ जैसे मार्मिक वाक्य का प्रयोग करती हैं। वहाँ मादक (शराब) पदार्थ के गोदाम में रजोधर्म वाली स्त्री का प्रवेश निषिद्ध है क्योंकि उसके प्रवेश से कितनी भी ऊँची जाति की शराब क्यों न हो, वह खट्टी हो जाती है और उसका स्वाद बिगड़ जाता है। =
यह बात विशेष विचारणीय है कि जो पदार्थ सड़ा कर ही बनाया जाता है उसके गोदाम में जब रजस्वला स्त्री के प्रवेश मात्र से उसमें विकृति पैदा हो जाती है, जब जो पदार्थ सात्विक हैं, स्वच्छ हैं, पौष्टिक हैं, ऐसे मेवा—मिष्ठान्न, शाक—सब्जी और अनेक प्रकार की पकी पकाई भोजन सामग्री रजस्वला के स्पर्श करने से विकृति नहीं होती होगी ? अवश्य होती है, किन्तु स्त्रियों की धृष्टता पदार्थ के उस विकृत परिणाम को दृष्तिगत नहीं होने देतीं।
धर्म एवं सदाचार के प्रति होने वाला यह अन्याय ही पाप के साम्राज्य का विस्तार बढ़ा रहा है। भारतीय संस्कृति को कुत्सित कर रहा है। ऋद्धि—सिद्धि को विदा कर रहा है। तुच्छ स्वार्थ सिद्धि को पनपा रहा है। धर्ममार्ग को ऊबड—खाबड़ और कण्टकाकीर्ण बना रहा है। समीचीन कुलाचार को निगल रहा है। पुस्तकों का बोझ बढ़ा रहा है, किन्तु हितकारी विद्या की विदाई कर रहा है। विवेक की टाँग खींच कर रसातल में भेज रहा है।
फ़्रांस फ़्रांस में रजस्वला स्त्री को शक्कर के कारखाने में प्रवेश नहीं करने देते हैं, क्योंकि उनकी परछाई पड़ते ही शक्कर काली पड़ जाती है। रेशम की फैक्टरी में ऐसी स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध है, क्योंकि वहाँ उनकी उपस्थिति मात्र से रेशम की सॉफ्टनेस (मृदुता) कम हो जाती है। इत्र की शीशी को भी यदि रजस्वला स्त्री स्पर्श कर ले तो उसकी सुगन्ध कम हो जाती है। ‘‘जब चेते तभी सबेरा’’ अब भी आप समझ लें और चिंतन करें कि जब शक्कर जैसा अजीव पदार्थ भी आपकी उस पवित्र अवस्था की छाया से विकृत हो जाता है तब जो परिवार रजोधर्मयुक्त महिला के हाथ का भोजन—पान करते हैं उनकी बुद्धि विकृत नहीं होगी ? अवश्य होगी, हो रही है, हो चुकी है।
अब भी आप चाहें तो अपनी आत्मा को और अपने परिवार को नरक कुण्ड में जाने से बचा सकती हो।
नाईझर सरकार— ने रजस्वला स्त्रियों के मन्दिर प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाया है। उनकी मान्यता है कि ऐसी स्त्रियों के प्रवेश से मन्दिर की पवित्रता नष्ट हो जाती है। जब आपकी वह अशुद्ध अवस्था पवित्रता को नष्ट करती है तब क्या— उस अशुद्ध अवस्था में सर्वत्र चंक्रमण करने से घर की पवित्रता नष्ट नहीं होगी ? जिन वस्त्रों (बिस्तर आदि) का आप तीन दिन प्रयोग करती हो उन्हीं बिस्तरों पर परिवार के सदस्यों को एवं आने वाले अतिथियों को सुलाती हो तब क्या उनके मन की पवित्रता नष्ट नहीं होगी? सामूहिक भोजन, समाज में जब और जहाँ होते हैं, उनमें भी आप निशंक होकर जाती हो, क्या उस भोजन—सामग्री की और आपके साथ भोजन करने वालों की पवित्रता नष्ट नहीं होती? मन्दिर परिसरों में भी आप (सामूहिक भोजन में) उस अशुद्ध भोजन अवस्था में नये—नये कपड़े पहनकर भोजन करने चली जाती हो, तब क्या उन धर्मायतनों की पवित्रता नष्ट नहीं होती? शादी—विवाह में भी आप निर्लज्जतापूर्वक सम्मिलित होती हो तब क्या उन नवीन वर—वधू के प्रयोजनों की पवित्रता नष्ट नहीं होती ?
भारत— भारत में भी वैश्य एवं ब्राह्मण समाज में (कुछ वर्षों पूर्व तक रजोधर्म का कठोरतापूर्वक पालन होता था किन्तु पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव ने अब इन समाजों को भी निरंकुश बना दिया है।) मन्दिरों का प्रवेश तो निषिद्ध था ही किन्तु घरों की भी चावल आदि जो सामग्री रजस्वला स्त्री स्पर्श कर लेती थी, उसे मन्दिर में ले जाना और साधु को आहारदान में देना निषिद्ध था। देव, शास्त्र, गुरू और जिनालयों पर छाया डालना भी निषिद्ध था। घर के पदार्थों का स्पर्श निषिद्ध था। जिस किसी बर्तन में भोजन करने का और हर एक वस्त्र पहनना भी निषिद्ध था (तीन दिन के वस्त्र और बर्तन अलग ही रहते थे) यदि पड़ोस में भी बड़ी—पापड़—के लिए उड़द की दाल तैयार की जाती थी, या बड़ी—पापड़ बनाये जाते थे तो छाया निषिद्ध तो थी ही, बोलना भी निषिद्ध था। उसकी बोली से भी पापड़ों का स्वाद और वर्ण विकृत हो जाता है, ऐसी मान्यता है। पति के शयनकक्ष में तथा यत्र—तत्र सोना, बैठना निषिद्ध था। अलग एक कमरे में रहना होता था। इस देश की भाटिया जाति की स्त्रियाँ अभी भी तीन दिन अलग कमरे में निवास करती हैं। वैश्य एवं ब्राह्मणों के कई परिवारों में अभी भी इस रजोधर्म का कठोरता से प्रतिपालन हो रहा है किन्तु वह समुद्र में बूंद के सदृश अत्यल्प घरों में रह गया है। जो स्त्री भगवान जिनेन्द्र की आज्ञा का लोप करने से भयंकर दु:ख देने वाली दुर्गति को प्राप्त होती है, जो स्त्री अपनी कुशिक्षा के या कुसंगति के कारण जानते हुए भी रजस्वला का सूतक नहीं पालती है, वह स्त्री भी नरक में जाती है। ऐसी स्त्री भगवान जिनेन्द्र के द्वारा मिथ्यादृष्टि और पापिनी कही गई है।
जिस पाप के कारण अनन्तानन्त जीव दुर्गति के भयंकर दु:ख भोग रहे हैं, उस पाप को ही आपने खिलौना बना रखा है, यह कैसा आश्चर्य है।
सोचें ….. ऐसा कोई पाप आपने किया है ? यदि किया है, तो प्रायश्चित लेकर अपनी कलुषित आत्मा को शुद्ध करें क्या प्रायश्चित लें ? यह प्रायश्चित लें।
रजस्वला स्त्री जहाँ बैठी हो, जहाँ सोई हो और जहाँ—जहाँ बैठकर उसने भोजनादि किया हो उन सब स्थानों को मिट्टी आदि से लीप कर अथवा जल से धोकर शुद्ध करना चाहिये। चौथे दिन उसे स्नान के समय अपने वस्त्र कम्बल और शय्यादि जल से धोकर शुद्ध करने चाहिए। खाने—पीने के मिट्टी आदि के बर्तन फेंक देने चाहिए। यदि उसने पीतल के बर्तनों में खाया—पिया हो तो अग्नि डालकर उन्हें शुद्ध कर लेना चाहिये। जितनी भी वस्तुओं का स्पर्श हुआ हो उन सबको शुद्ध कर लेना चाहिये। यदि कोई पुरुष भूल से या अज्ञान से रजस्वला स्त्री के वस्त्र एवं बर्तन आदि का स्पर्श कर ले तो उसे स्नान करना चाहिये। यदि कोई पुरुष उस स्त्री के द्वारा दिया हुआ भोजन कर ले तो उसे स्नान करके प्रायश्चित भी लेना चाहिये। दुष्ट परिणामी जो पुरुष जानते हुए भी ऐसी स्त्री का स्पर्श करे, तो उसे पंचामृत अभिषेक करने का प्रायश्चित लेना चाहिये। जो पुरुष जानते हुए भी रजस्वला स्त्री के बर्तनों में खा लेता है, उसे एक उपवास और एक एकाशन कर आत्मशुद्धि कर लेनी चाहिये। जो पुरुष रजस्वला स्त्री के साथ कामचेष्टा करता है, उसे दो उपवास करने चाहिये। जो पुरुष जानबूझकर रजस्वला स्त्री का सेवन कर ले, वह मूर्ख गुरू के द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित से ही शुद्ध होता है। जो पुरूष बिना जाने रजस्वला स्त्री को एक बार स्पर्श करता है उसे वस्त्र सहित स्नान करना चाहिये। जो पुरुष जानबूझ कर रजस्वला स्त्री को एक बार स्पर्श करता है उसे सवस्त्र स्नान करना चाहिये और तीन एकाशन करना चाहिये। जो पुरुष जानबूझ कर कुचेष्टापूर्वक रजस्वला का स्पर्श करता है उसे सवस्त्र स्नान और सात एकाशना करना चाहिये। जो पुरुष बिना जाने किसी रजस्वला के पात्र में भोजन कर लेता है उसको उस दिन विरेचन और दूसरे दिन उपवास करना चाहिये। जो पुरुष कामवासना से एक बार भी रजस्वला का सेवन करता है, उसे— अ. सवस्त्र स्नान ब. तीन उपवास स. चार एकाशन द. पुण्याहवाचन य. महामंत्र के दो सौ जाप्य करने चाहिये। जो पुरुष विषयवासना की तीव्रता से बार बार रजस्वला का सेवन करता है उसे अपनी शुद्धि के लिए सवस्त्र स्नान, पाँच उपवास, जिनेन्द्रदेव का महाभिषेक, मण्डल माँड कर कोई एक विधान पूजन और पुण्याहवाचन करना चाहिये। जो पुरुष जानते हुए भी रजस्वला के साथ भोजन करता है, उसे अपने उस पाप की शान्ति के लिए सवस्त्र स्नान, महाभिषेकपूर्वक मण्डल विधान की महापूजन, पुण्याहवाचन और तीन उपवास करना चाहिये। यदि कोई स्त्री स्वाध्याय या वंदन करते समय रजस्वला हो जाय तो उसे एक उपवास का प्रायश्चित देना चाहिये। यदि कोई स्त्री भगवान का अभिषेक एवं पूजन करते समय रजस्वला हो जाये तो उसे पाँच एकाशना, एक उपवास, शारीरिक शुद्धि के अनन्तर लघु अभिषेक एवं पूजन तथा महामंत्र के दो सौ जाप्य करने चाहिये। यदि कोई स्त्री पात्रदान देते समय रजस्वला हो जाये तो उसे अपने पापों की शान्ति के लिए पाँच एकाशना करना चाहिये। शुद्ध हो जाने पर पुन: पात्रदान देना चाहिये, भगवान जिनेन्द्र की पूजन करना चाहिये और महामंत्र के दो सौ जाप्य करना चाहिये। यदि कोई स्त्री भोजन बनाते समय रजस्वला हो जाये तो उसे वह सब भोजन सामग्री फेंक देनी चाहिये और प्रायश्चित्तस्वरूप प्रोषधव्रत (एकाशना) करना चाहिये। यदि कोई रजस्वला स्त्री किसी चाण्डाल आदि की स्त्री का स्पर्श कर ले तो उसे रजस्वला की शुद्धि के बाद नमस्कार मंत्र का जाप्य करना चाहिये, तथा एक उपवास करना चाहिये। यदि उपवास न कर सके, तो महामंत्र की पाँच माला जपनी चाहिये। यदि कोई रजस्वला स्त्री किसी पर—पुरुष के साथ कामसेवन की इच्छा कर ले तो उसे शुद्धि हो जाने के बाद जिनेन्द्रदेव की महाभिषेक सहित महापूजन करनी चाहिये। यदि कोई रजस्वला स्त्री हठपूर्वक पति का सेवन कर ले तो उसे आत्मशुद्धि के लिए तीन उपवास करने चाहिये और उस पाप की शान्ति के लिए जिनेन्द्रदेव का अभिषेक एवं पूजन करनी चाहिये। यदि कोई रजस्वला स्त्री स्वयं (विद्या) पढ़े अथवा किसी अन्य को पढ़ावे तो उसे उस पाप की शान्ति के लिए अपनी शुद्धि के अनन्तर दस दिन तक भगवान जिनेन्द्रदेव की पूजन और अभिषेक करना चाहिये और एक बार पुण्याहवाचन करना चाहिये। यदि व्रतों का पालन करने वाली कोई रजस्वला स्त्री अपनी अजानकारी से किसी चाण्डाल आदि का स्पर्श कर ले तो उसे उस दिन उपवास करना चाहिये और पाँच कायोत्सर्ग करने चाहिये। यदि कोई रजस्वला स्त्री अपनी जाति वाली किसी अन्य रजस्वला स्त्री का स्पर्श कर ले तो उन दोनों स्त्रियों की शुद्धि एकाशन करने से होगी। यदि किसी रजस्वला ब्राह्मण स्त्री का क्षत्रिय की रजस्वला स्त्री से स्पर्श हो जाये तो दोनों काे सवस्त्र स्नान करके जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक, पूजन करके गन्धोदक का सिंचन अपने शरीर पर करके शुद्धि करनी चाहिये। ब्राह्मण की स्त्री को दो एकाशन और क्षत्रिय की स्त्री को तीन एकाशन करने चाहिये। यदि ब्राह्मण और वैश्य की स्त्री रजस्वला हो तथा परस्पर स्पर्श कर ले तो ब्राह्मण की स्त्री को तीन दिन एकाशन और वैश्य की स्त्री को पाँच एकाशन करने चाहिये। इसके अतिरिक्त तीन दिन की शुद्धि के पश्चात् भगवान जिनेन्द्र का पूजन—अभिषेक करके अपने शरीर की शुद्धि गन्धोदक के सिंचन से करनी चाहिए। यदि क्षत्रिय और वैश्य की रजस्वला स्त्रियाँ परस्पर स्पर्श कर लें तो क्षत्रिय की स्त्री को एक उपवास और वैश्य की स्त्री को पाँच एकाशन करने चाहिये।
मासिक धर्म और आर्यिकाएँ
प्रायश्चित चूलिका में रजस्वला आर्यिकाओं के लिए लिखा है कि—
अर्थ —आर्यिका जब रजस्वला हो जाए तब उस दिन से लेकर चार दिन तक उपवास करे अथवा नीरस भोजन करे अथवा कांजिक भोजन करे।
तदा तस्या: समुदि्दष्टा, मौनेनावश्यक—क्रिया। व्रतारोप: प्रकर्तव्य:, पाश्चात् च गुरु सन्निधौै।।१३५।।
अर्थ — रजस्वला के समय आर्यिका समता, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं को मौनपूर्वक करे और शुद्ध हो जाने के पश्चात् गुरू के समीप जाकर व्रत ग्रहण करे।
संघानुभूति प्रक्रिया
इस विषय में संघ में जो देखा, सुना एवं अनुभव किया है, वह इस प्रकार है— आर्त—रौद्रध्यान का परित्याग, धर्मध्यान में लीन रहना। अपने शरीर की छाया देव, शास्त्र, गुरू एवं मन्दिर आदि पर न पड़े, इसका पूर्ण ध्यान रख तीन दिन किसी भी पुरुष वर्ग से संकेत आदि द्वारा भी बातचीत नहीं करना। तीन दिन अपने से ज्येष्ठ आर्यिकाओं के सामने नहीं निकलना। तीन दिन दरवाजे की ओट में अथवा दूर बैठकर प्रतिक्रमण एवं स्वाध्याय आदि नहीं सुनना। उक्त दूसरा साहित्य भी नहीं पड़ना। तीन दिन अन्य किसी दूसरी रजस्वला आर्यिका, ब्रह्मचारिणी अथवा अन्य किसी रजस्वला स्त्रियों के साथ नहीं रहना। तीन दिन दो रजस्वला आर्यिकाएँ एक ही स्थान पर एक दूसरे को पीठ देकर या आमने—सामने या बराबरी से बैठ कर आहार न करें। तीन दिन यथासम्भव पुरुषवर्ग से आहार नहीं लेना। तीन दिन लघु आर्यिकाओं से प्रतिवन्दामि नहीं करना। तीन तक जिह्वा, ओष्ठ एवं अंगुलि आदि का सहारा लिये बिना ही षडावश्यक का पालन करना। शरीर अशुद्ध है, अत: षडावश्यकों में शरीर का सहयोग अंश मात्र भी नहीं लेना। सर्व क्रियाएँ मन से ही करना। पिच्छिका साथ ही रखना किन्तु षडावश्यक करते समय पिच्छिका लेकर कृतिकर्म नहीं करना। तीन दिन संघ के समकक्ष विहार नहीं करना, संघ के विहार कर जाने के बाद अर्थात् संघ के पीछे—पीछे ही विहार करना चाहिये। शक्त्यनुसार उपवास या नीरस भोजन करना। पीछी—कमण्डलु लेकर ही आहार को निकलना किन्तु प्रतिग्रह के सम प्रदक्षिणा नहीं लगवानी, पादप्रक्षालन के समय थाली में पाद—प्रक्षालन नहीं करना, उच्छिष्ट—पतन के लिए जो बर्तन सामने रखा गया है, उसी पर पैर करके ऊपर से थोड़ा जल डलवा लेना। पादोदक ग्रहण नहीं कराना चाहिये और अष्ट द्रव्य मिलाकर अर्घ ही चढ़वाना चाहिये, पूजन नहीं कराना चाहिये। आहार के बाद पिच्छिका स्वयं ही ग्रहण कर लेनी चाहिये और वह बर्तन भी अपने ही हाथ से साफ कर देना चाहिये। तीन दिन चौके में बैठ कर एवं रसोईघर में चदोवा के नीचे बैठ कर आहार नहीं करना चाहिये। संघस्थ सर्व साधुओं के आहारचर्या में निकल जाने के कुछ समय बाद ही आहारचर्या को निकलना चाहिये। तीन दिन अखण्ड मौन रखना, चौथे दिन स्नान के बाद देव, शास्त्र या गुरू का (दूर से) दर्शन कर मौन खोलना, पश्चात् तीन दिन का प्रायश्चित लेना। चौथे दिन अन्य आर्यिकाओं का, ब्रह्मचारिणियों का एवं माला आदि का स्पर्श नहीं करना। अपना कमण्डलु भी किसी को स्पर्श नहीं करने देना, इसके पश्चात् भी जब तक पूर्णरूपेण शारीरिक शुद्धि न हो तब तक देव, शास्त्र, गुरु का स्पर्श नहीं करना चाहिये। श्रीमद् वीरनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्ती ने अपने आचारसार ग्रंथ में द्वितीयाधिकार में आर्यिकाओं के मासिक धर्म के विषय में कहा है कि—
ऋतौ स्नात्वा तु तुर्येह्नि, शुद्धयन्त्यरस—भुक्त्य:। कृत्वा त्रिरात्रि—मेकान्तरं वा सज्जप—संयुता:।।९०।।
अर्थ — मासिक धर्म के समय आर्यिकाएँ सज्जपयुक्त तीन रात्रि व्यतीत करती हैं। नीरस आहार अथवा एकान्तर भोजन करती हैं, पश्चात् चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती हैं। विशेष—रजस्वला आर्यिकाएँ एकान्त स्थान में अन्तर्जल्पपूर्वक णमोकार मंत्र का जाप्य करते हुए तीन रात्रि व्यतीत करती हैं। प्रतिदिन अथवा एकान्तरा से नीरस आहार ग्रहण करती हैं। चौथे दिन स्नान के बाद शुद्ध हो जाती हैं। ‘‘चौथे दिन वे स्नान करके शुद्ध हो जाती हैं’’ इसका अर्थ यही समझना चाहिये कि वे मौन आदि के बन्धन से मुक्त हो जाती हैं। शास्त्र—स्वाध्याय के योग्य शुद्धि तो अपने—अपने शरीर की यथायोग्य शुद्धि पर निर्भर है।