‘‘कृत्रिम होते हुये भी कर्म मूर्त ही है। यदि कर्म को मूर्त न माना जाय तो मूर्त औषधि के संबंध से परिणामांतर की उत्पत्ति नहीं हो सकती है अर्थात् रुग्णावस्था में औषधि सेवन करने से रोग के कारणभूत कर्मों में जो उपशांति आदि देखी जाती है वह नहीं बन सकती है इससे मालूम पड़ता है कि कर्म मूर्त ही है।
यह परिणामांतर की प्राप्ति असिद्ध भी नहीं है क्योंकि ऐसा माने बिना ज्वर, कुष्ठ और क्षय आदि रोगों का विनाश बन नहीं सकता। इसलिये औषधि से कर्म में भिन्न परिणाम की प्राप्ति हो जाती है यह बात सिद्ध है।’’ अर्थात् औषधि असाता कर्म को दूर करने में निमित्त है।
यही बात ‘तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक’ ग्रंथ में भी कही गई है।
अंतरंग में असातावेदनीय का उदय होने पर और बहिरंग में वात आदि विकार के होने पर दु:ख (रोग) होता है, उस समय उसके विरोधी औषधि के उपयोग करने पर दु:ख (रोग) की उत्पत्ति न होने से उसका उपचार हो जाता है।
यदि कोई कहे कि तब तो असाता का उदय होने पर भी दु:खरूप जो उसका फल था उसको बिना भोगे ही वह कर्म चला गया सो ‘किये हुए का फल नहीं मिलना’ यह एक दोष उपस्थित हुआ ?
आचार्य कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है। कडुवी आदि औषधि के उपयोग से उत्पन्न हुई जो पीड़ा है उतने मात्र ही अपना फल देकर उस असाता की निवृत्ति हो जाती है। इसलिये ‘कृतप्रणाश’ दोष नहीं आता है।
यह प्रकरण अकालमृत्यु से सिद्धि के प्रसंग का है। यहाँ पर यह भी समझ लेना चाहिए कि कर्मभूमिज मनुष्य-तिर्यंचों के अकालमृत्यु के लिये ‘विषवेदना, रक्तक्षय, भय आदि कारण होते हैं।
श्री कुंदकुंददेव भी कहते हैं-
अकालमृत्यु में विष भक्षण आदि निमित्त हैं-
विषभक्षण से, वेदना की पीड़ा के निमित्त से, रुधिर के क्षय हो जाने से, भय से, शस्त्रघात से, संक्लेश परिणाम से, आहार तथा श्वांस के निरोध से इन कारणों से आयु का क्षय हो जाता है अर्थात् आयु की उदीरणा होकर अकाल में मरण हो जाता है।
क्रोध भी निमित्त से ही उत्पन्न होता है-
‘‘जिस मनुष्य के निमित्त से क्रोध उत्पन्न होता है वह मनुष्य समुत्पत्ति कषाय की अपेक्षा क्रोध है।’’
‘‘किसी अन्य के निमित्त से किसी अन्य में क्रोध उत्पन्न नहीं हो सकता ?’’
‘‘यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि कर्मों से कलंकित हुये जीव में कटु वचन के निमित्त से क्रोध की उत्पत्ति देखी जाती है और जो बात पाई जाती है उसके विषय में यह कहना कि यह बात नहीं बन सकती है’’ यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा कहने में विरोध आता है।
निमित्त के विषय में धवलाकार की और भी मान्यताएँ देखिये-
‘‘आचार्य परम्परा से आये हुए इस न्याय को मन में धारण करके और पूर्वाचार्यों के आचार का अर्थात् व्यवहार परम्परा का अनुसरण करना ‘रत्नत्रय का कारण है’ ऐसा समझ कर पुष्पदंताचार्य सकारण मंगलादिक छहों अधिकारों का व्याख्यान करने के लिये मंगलसूत्र कहते हैं’-इत्यादि।
श्री गौतमस्वामी भी व्रतों में लगे हुये दोषों की शुद्धि के लिये प्रतिक्रमण आदि को निमित्त मानते हैं तभी तो उन्होंने मुनियों के पाक्षिक, दैवसिक आदि प्रतिक्रमणों के दण्डक सूत्रों की रचना करके सभी महाव्रती साधुओं के लिये एक अनुपम दोषविशोधक रसायन प्रदान किया है। जिसको कि वर्तमान में साधु-वर्ग बड़ी ही श्रद्धा भक्ति से ग्रहण करके अपने आपको धन्य मान रहे हैं। देखिये-
दैवसिक और पाक्षिक आदिक प्रतिक्रमण दोषों की शुद्धि में निमित्त हैं-
श्री गौतमस्वामी इस दु:षमकाल में मुनियों के दुष्परिणाम आदि से प्रतिदिन उपार्जित कर्म की विशुद्धि के हेतु प्रतिक्रमण लक्षण उपाय को कहते हुये उसकी आदि में मंगल हेतु इष्टदेवता विशेष को नमस्कार करते हैं।
श्री गौतमस्वामी दैवसिक आदि प्रतिक्रमणादिकों के द्वारा निराकरण करने में अशक्य ऐसे दोषों के निराकरण हेतु वृहत्प्रतिक्रमणलक्षण उपाय को कहते हुये उसकी आदि में मंगलार्थ इष्ट देवताविशेष को नमस्कार करते हुये ‘णमो जिणाणं’ इत्यादि कहते हैं-
श्री गौतमस्वामी ने अंतिम तीर्थंकर को नमस्कार क्यों किया ?
इन ‘णमो जिणाणं’ आदि गणधरवलय मंत्रों के अंत में वर्धमान भगवान का नमस्कार पद है तो यह प्रश्न सहज हो सकता है कि ‘चौबीसों’ तीर्थंकर ही स्तुत्य हैं पुन: अंतिम तीर्थंकर को ही यहाँ क्यों लिया’ मानो उसके उत्तर में ही श्रीगणधर देव कहते हैं।
जिनके पास में मैंने धर्मपथ को प्राप्त किया है उनके निकट मैं विनय का प्रयोग करता हूँ। मन वचन काय से शिर झुकाकर पंचांग नमस्कारपूर्वक मैं उन वर्धमान स्वामी का सत्कार (नमस्कार) करता हूँ।
इससे भी निमित्त की प्रधानता हो जाती है कि जिनके निमित्त से मुझे मोक्षपद मिला है मैं उनकी विशेष भक्ति करता हूँ।
प्रश्न-कभी-कभी बिना पुरुषार्थ किए भी कार्यसिद्धि होती देखी जाती है जैसे कि किसी को आकस्मिक भूमि में गड़ा हुआ धन का घड़ा मिल जावे तो इसमें निमित्त क्या रहा ?
उत्तर-इसमें बाह्य निमित्त अप्रधान है और अंतरंग का पुण्योदय निमित्त प्रधान है। स्याद्वाद सिद्धांत के वेत्ताओं को बाह्य और अंतरंग कारणों में सापेक्ष दृष्टि रखना चाहिए। इसी बात को श्री समंतभद्रस्वामी ने बहुत ही अच्छे ढंग से समझाया है।
यदि कोई दैव का ही एकांत ग्रहण करे तो उसके लिए कहते हैं-
यदि दैव (भाग्य) से ही कार्यों की सिद्धि मानो तो दैव पुरुषार्थ से वैâसे बना ? यदि दैव का निर्माण दैव से ही होता है तो किसी को मोक्ष नहीं हो सकेगा और पुरुषार्थ भी निष्फल हो जाएगा।
किन्तु ऐसी बात नहीं है। वर्तमान के पुरुषार्थ से ही भावी समय का निर्माण होता है। यदि कोई पुरुषार्थ का ही एकांत ग्रहण करे तो कहते हैं-
यदि पुरुषार्थ से ही कार्य की सिद्धि होती है तो फिर पुरुषार्थ दैव से वैâसे हुआ ? यदि कहो कि पुरुषार्थ, पुरुषार्थ से ही होता है तब तो सभी के सभी कार्य सफल हो जाएँगे, क्योंकि पुरुषार्थ तो सभी प्राणियों में है ही है।
किन्तु देखा जाता है कि एक साथ खेत में बीज बोने वालों के भी फसल में अंतर पड़ जाता है। सो ऐसा क्योें ? कहना पड़ेगा कि उसका भाग्य अनुकूल नहीं है।
अब इस समस्या में श्री समंतभद्रस्वामी कहते हैं-
अनायास-बिना सोचे-विचारे कोई अनुकूल या प्रतिकूल कार्य हो जाता है तो वह स्वदैवकृत माना जाता है, क्योंकि उसमें बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा नहीं है अत: वहाँ पुरुषार्थ अप्रधान है दैव प्रधान है और इससे विपरीत प्रयासपूर्वक यदि कोई इष्ट या अनिष्ट कार्य होता है तो वह पुरुषार्थकृत् माना जाता है क्योंकि वहाँ बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा विद्यमान है, अत: वहाँ पर दैव की अप्रधानता है, पुरुषार्थ की प्रधानता है।
शंका-सर्वज्ञ के ज्ञान में जो झलका है सो तो होगा ही होगा पुन: पुरुषार्थ करने की, नाना निमित्तों को जुटाने की क्या आवश्यकता है ?
समाधान-सर्वज्ञ का ज्ञान तो दर्पण के समान है। उसमें हमारा पुरुषार्थ, मोक्ष जाने का समय व उसके लिए मिलने वाले निमित्त सभी झलक चुके हैं। यदि हमारे सामने दर्पण रखा है तो जो हमारी चेष्टाएँ हो रही हैं सो ही उसमें झलक रही हैं तद्वत् सर्वज्ञदेव के ज्ञान में हमारी सम्पूर्ण ही त्रैकालिक स्थिति स्पष्ट है। फिर भी बिना पुरुषार्थ किये कोई भी जीव न आज तक मोक्ष जा सका है और न जा सकता है। यह बात भी उस ज्ञान में झलकी होगी।
आश्चर्य है कि लोग आत्महित के लिए ऐसी कर्तव्यशून्यता का अवलंबन ले लेते हैंं किन्तु वैसे ही व्यापार आदि प्रसंगों में थोड़ा संतोष कर लें और सोच लें कि जो मिलना होगा सो मिलेगा, धर्म व कर्तव्य को जलांजलि देकर धन कमाने में आसक्त क्यों होना ? तो उससे उनको लाभ ही होगा न कि हानि। हाँ, जब अतीव प्रयत्न करने के बाद भी कोई कार्य सफल न हो सके अथवा बिगड़ जाए उस समय यही विचार करना चाहिए कि जो होनहार होती है, होकर ही रहती है। अत: अब पश्चात्ताप या अशांति करने से क्या लाभ ? अथवा जो कुछ सर्वज्ञदेव के ज्ञान में प्रतिभासित हुआ है सो हो रहा है। अशांति करने से या संक्लेश करके अशुभ कर्म बंध से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? अर्थात् कुछ भी नहीं।
इसलिए अनेकांत का आश्रय लेकर निश्चय और व्यवहारनय में से किसी एक को मुख्य करके, दूसरे को गौण करना चाहिए और जब दूसरे को मुख्य करें तो प्रथम को गौण कर वस्तु स्वरूप को समझना चाहिए। तभी निमित्त और उपादान का भी सही स्वरूप समझ में आता है, अन्यथा नहीं।
श्री अमृतचंद्रसूरि ने कहा भी है कि-
एकेनाकर्षंती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण।
अंतेन जयति जैनी नीतिर्मंथाननेत्रमिव गोपी।।२२५।।
जैसे ग्वालिन दधि मंथन करते समय हाथ में एक ओर की रस्सी को खींचती है तथा दूसरे हाथ की रस्सी को शिथिल करती है और इस प्रक्रिया से वह नवनीत निकाल लेती है इसी प्रकार से जैनशासन में एक नयदृष्टि (निश्चय) को मुख्य करके दूसरी नयदृष्टि (व्यवहार) को गौण कर दिया जाता है और जब दूसरी दृष्टि (व्यवहार) मुख्य होती है तब पहली दृष्टि (निश्चय) गौण हो जाती हैै। इससे दोनों ही दृष्टियों का महत्त्व समान है यह स्पष्ट हो जाता है।