-पं. शिखरचंद जैन ‘साहित्याचार्य’ (पूर्व प्राचार्य), सागर
अध्यात्म दर्शन एवं मोक्षमार्ग विषयों से सम्पन्न ग्रंथराज नियमसार या नियम प्राभृत महर्षि कुन्दकुन्द की विशिष्ट कृति है। नियम अर्थात् रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अथवा मोक्षमार्ग तथा मार्गफलरूप मोक्ष के स्वरूप का वर्णन कर श्रमणों को स्पष्ट रूप से दिशाबोध कराना इस ग्रंथ का मुख्य उद्देश्य है। इस ग्रंथ के बारह अधिकारों में मात्र १८७ गाथायें हैं। इन गाथाओं द्वारा मुनियों के आचार का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में १२ अधिकार हैं। उनमें से चार अधिकारों में व्यवहार रत्नत्रय का वर्णन है, पाँचवे से लेकर ग्यारहवें अधिकार तक निश्चय रत्नत्रय का वर्णन है, इसके बाद बारहवें अधिकार में मार्ग के फलस्वरूप निर्वाण का वर्णन करते हुए अर्हंत् और सिद्ध परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है। इस प्रकार नियमसार ग्रंथ में मार्ग और मार्ग के फल का वर्णन किया गया है। बारह अधिकारों के नाम इस प्रकार हैं- १. जीव २. अजीव ३. शुद्धभाव ४. व्यवहार चारित्र ५. परमार्थ प्रतिक्रमण ६. निश्चय ७. परम आलोचना ८. शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त ९. परमसमाधि १०. परमभक्ति ११. निश्चय परम आवश्यक १२. शुद्ध उपयोग।
१. जीवाधिकार- इस प्रथम अधिकार में १९ गाथाओं द्वारा जीव के स्वरूप का सम्यक् वर्णन किया गया है। मंगलाचरण में भगवान महावीर को प्रणाम कर गाथा उत्तराद्र्ध या प्रतिज्ञासूत्र में नियमसार को केवली-श्रुतकेवली प्रणीत कहा है। नियमसार के नियम को उठाते हुए आचार्यप्रवर कुन्दकुन्द ने मार्ग और मार्ग के फलरूप में रत्नत्रय और मोक्ष को निरूपित किया है। मोक्ष के उपाय नियम से कत्र्तव्यरूप रत्नत्रय को नियम शब्द से व्याख्यापित किया है। इसके साथ ही व्यवहार सम्यग्दर्शन का स्वरूप उसके विषयभूत आप्त/परमात्मा, आगम एवं गुरु का वर्णन है। तत्त्वार्थों का नाम निर्देश करने के बाद जीव का लक्षण, उपयोग, स्वभावज्ञान, स्वभावदर्शन, विभावज्ञान, विभावदर्शन, स्वभावपर्यायों का विवरण तथा जीव की मनुष्यादि विभाव पर्यायों, आत्मा के कत्र्तव्य और भोक्तत्व का वर्णन किया है। अन्त में द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयों से जीव का विशेष उल्लेख है।
२. अजीवाधिकार- इस अधिकार में सम्यक्त्व के विषयभूत अजीव तत्व का विवेचन करते हुए ग्रंथकर्ता ने पुद्गल के अणु और स्कंध दो भेद करके स्कन्ध के छह भेद और अणु के दो भेद किये हैंं। इस ग्रंथ में विशेषता यही है कि ये अजीव के भेद भी जीव के समान स्वभाव-विभाव रूप से किए गए हैं। इनकी गुण पर्यायों को बतलाकर धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य का वर्णन किया है। गाथा चौंतीसवीं में अस्तिकाय का लक्षण करके ३५-३६वीं गाथा में सर्वद्रव्य के प्रदेशों की संख्या बतलाई है। गाथा ३७वीं में चेतन, अचेतन और मूर्त-अमूर्त द्रव्यों का विवेचन है। इस अधिकार में सर्वप्रथम मध्यलोक के ४५८ अकृत्रिम जिन चैत्यालयों की वंदना की है। पुद्गल द्रव्य का विवेचन करते समय टीका में तात्पर्य अर्थ में यह दिखाया गया है कि इस पुद्गल के संयोग से ही संसार परम्परा चलती है। इसका संपर्क छोड़ने योग्य है। गाथा ३०वीं में धर्म और अधर्म के निमित्त से ही सिद्ध भगवान लोकाकाश के अग्रभाग पर स्थित हैं। लोकाकाश में नहीं जा सकते अत: सिद्ध भगवान भी कथंचित् निमित्ताधीन हैं। सिद्ध परमेष्ठी हम लोगों की रिद्धि में भी निमित्त हैं। गाथा ३१-३२ वीं में कालद्रव्य का कुछ पाठभेद चर्चा का विषय है। इसका वर्णन गोम्मटसार ग्रंथ के आधार पर स्पष्ट किया गया है। गाथा ३५-३६ में अमूर्तिक द्रव्यों के भी प्रदेश मुख्य हैं न कि कल्पित। टीका में तत्त्वार्थ राजवार्तिक के आधार से स्पष्ट किया है। गाथा ३७ में संसारी जीवों के शरीर तथा आत्मा का संसर्ग दिखाया गया है। कुल १८ गाथाओं द्वारा छह तत्वों के अन्तर्गत स्थित चिंतामणि आत्मा को नमस्कार किया है।
३. शुद्धभाव अधिकार-इस अधिकार में सम्यग्ज्ञान का वर्णन किया गया है। शुद्धभाव अधिकार में शुद्ध नय की अपेक्षा से जीव को शुद्ध, सिद्ध सदृश बतलाया गया है। ‘‘अरसमरूवमगंधं’’ गाथा आचार्य कुन्दकुन्द को अधिक प्रिय थी। गाथा ४९ में नय विवक्षा द्वारा एकान्तवादियों को सावधान किया गया है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान का लक्षण बताकर सम्यक्त्व के अन्तरंग-बहिरंग कारण बताए गए हैं। इस अधिकार में १८ गाथाएँ हैं। टीका द्वारा पूज्य आर्यिका गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा सर्वप्रथम भेदज्ञान से युक्त दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले जिन महापुरुषों का अभिषेक पाँच मेरुओं पर होता है उनको तथा उन मेरुओं के अस्सी जिनमंदिरों को नमस्कार किया है। गाथा ४७ में संसारी जीवों को सिद्ध समान बताया है। गाथा ४९ में नयों का विवेचन आलाप पद्धति के आधार पर किया गया है। गाथा ५२ में टीका में सम्यक्त्व का लक्षण कसायपाहुड़ आदि ग्रंथों के आधार पर स्पष्ट किया है। गाथा ५३ में धवला के आधार पर सम्यक्त्व के बहिरंग कारणों पर प्रकाश डाला है। गाथा ५४ में व्यवहार-निश्चयचारित्र के कथन की प्रतिज्ञा की है। पूज्य माताजी ने उपसंहार में मनुष्यलोक के तीन सौ अट्ठानवे चैत्यालयों की वंदना की है।
४. व्यवहार चारित्राधिकार -इस अधिकार में पाँच समिति, तीन गुप्ति का वर्णन किया है। महाव्रत और समिति में निश्चय नय को न घटाकर गुप्तियों में व्यवहार-गुप्ति, निश्चय-गुप्ति दो भेद किए हैं। पाँच गाथाओं द्वारा परमेष्ठियों का लक्षण बताया गया है। गाथा ७६ में व्यवहार को नयाश्रित चारित्र कहा गया है। आगे निश्चय नयचारित्र कहा है-
इस अधिकार में पूज्य माताजी ने जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में इस पंचमकाल में भी तेरहविध चारित्र के धारक दिगम्बर मुनियों को नमस्कार किया है। अन्त में शांतिनाथ भगवान की वंदना की गई है।
५. परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार- इस अधिकार में पहले भेद विज्ञान की भावना तथा निश्चय प्रतिक्रमण का लक्षण बताया गया है। इसमें १८ गाथाएं हैं। पूज्य ज्ञानमती माताजी द्वारा टीका में इन्द्रभूति गौतम स्वामी को नमस्कार किया गया है। उनके द्वारा रचित ‘प्रतिक्रमण’ पाठ’ की पंक्तियों को लिया गया है। व्यवहार प्रतिक्रमणपूर्वक ही निश्चय प्रतिक्रमण सिद्ध किया गया है। गाथा ९३ की टीका में बताया गया है कि आज के साधुओं को सात प्रकार के प्रतिक्रमण करना चाहिए। अंत में आचार्य कुन्दकुन्द से लेकर अपने आर्यिका दीक्षा के गुरु आचार्य वीरसागर जी तक गुरुओं को नमस्कार किया है।
६. निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार-इस अधिकार में आचार्य प्रवर श्री कुन्दकुन्द देव ने आत्मा के ध्यान को ही निश्चय प्रत्याख्यान त्याग कहा है तथा परवस्तुओं के ममत्व को छोड़कर आत्मा का आलम्बन लेने की प्रेरणा दी है। यह महामुनियों के ही संभव है। इस अधिकार में १२ गाथाएँ हैं। पूज्य गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी ने तीन कम नव करोड़ मुनियों को तथा ढाई द्वीप के मुनियों को नमस्कार किया है। अन्त में भगवान आदिनाथ तथा दानतीर्थ प्रवर्तक राजा श्रेयांस का पावन स्मरण किया है।
७. परम आलोचना अधिकार- इस अधिकार में कुल ६ गाथायें हैं। आत्मा के ध्यान को ही निश्चय आलोचना कहा गया है। टीका में पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी ने सर्वप्रथम आदिनाथ भगवान के चौरासी गणधरों को नमस्कार किया है। मूलाचार तथा समयसार आदि के आधार से व्यवहार-निश्चय आलोचना को बतलाया गया है। अन्त में जम्बूद्वीप के अकृत्रिम ७८ जिन मंदिरों में स्थित जिनप्रतिमाओं को नमस्कार किया गया है।
८. शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त अधिकार- इस अधिकार में ९ गाथाओं द्वारा निश्चय प्रायश्चित्त का वर्णन किया गया है। पूज्य माताजी ने भगवान शांतिनाथ को नमस्कार किया है। व्यवहार प्रायश्चित्त के दो भेद बतलाए गए हैं। व्यवहार तपश्चरण का भी महत्व बतलाया गया है। गौतम स्वामी द्वारा रचित सूचक गाथा द्वारा ध्यान का महत्व बतलाया गया है। गाथा १२१ में शरीर से ममत्व छुड़ाने का अच्छा विवेचन है। इसी तारतम्य में भगवान बाहुबली को नमस्कार किया है। कायोत्सर्ग का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है।
९. परमसमाधि अधिकार- आचार्य कुन्दकुन्द देव ने ध्यान को ही परमसमाधि कहा है, यह भी मुनियों के ही संभव है। स्थायी सामायिक का सुन्दर विवेचन है।इस अधिकार में १२ गाथाएँ हैं। पूज्य चारित्र चन्द्रिका गणिनीप्रमुख आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने टीका में सर्वप्रथम चौबीस तीर्थंकरों के चौदह सौ बावन गणधरों को नमस्कार किया है। गाथा १४२ द्वारा भगवान आदिनाथ के निश्चल ध्यान पर प्रकाश डाला गया है। जिनकल्पी तथा स्थविर कल्पी मुनि की चर्या बतलाई है। पंचम काल में पूर्ण समता, ध्यान तथा स्थायी सामायिक को एकार्थवाची बतलाया है। गाथा १२५ से १३३ तक अनुष्टुप छंद है।
१०. परमभक्ति अधिकार- इस अधिकार में कुल ६ गाथाएं हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट किया है कि भक्ति के बिना श्रावक या श्रमण किसी को भी सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। मुनि को ही निश्चय भक्ति प्राप्त होती है। योग भक्ति तथा योग का लक्षण बतलाया गया है। हिन्दी टीका तथा स्याद्वाद चन्द्रिका टीका द्वारा कैलाशगिरि आदि निर्वाणभूमि को नमस्कार किया है। भक्ति को ही सम्यग्दर्शन बताया गया है। इसमें चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है।
११. निश्चय परम आवश्यक अधिकार- इस अधिकार में कुल १८ गाथाएँ हैं। विशिष्ट पद्धति से आवश्यक का लक्षण बताया गया है। जो मुनि स्ववश हैं, उन्हीं के आवश्यक होता है, अन्यवश मुनि के नहीं, अन्यवश के संबंध में कहा गया है-
‘‘जो चरदि संजदो खलु, सुहभावं सो हवेइ अण्णवसो।’’
तथा-‘‘दव्व गुण पज्जयाणं, चित्तं जो कुणइसो विअण्णवसो।।’’
ग्रंथकार ने कहा है ‘‘जो धर्म-शुक्ल ध्यान से परिणत हैं, वे श्रमण अन्तरात्मा हैं। ध्यान रहित श्रमण बहिरात्मा हैं।’’ साक्षात् अन्तरात्मा क्षीणकषाय बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि ही हैं। यह गुणस्थान श्री कुन्दकुन्ददेव को इस भव में प्राप्त नहीं हुआ था। इसके होने पर तो अन्तर्मुहूर्त में नियम से केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। पद्मप्रभमलधारी देव ने पंचमकाल में अध्यात्म ध्यान का निषेध करके श्रद्धान करने का ही आदेश दिया है, कहा भी है-
‘‘असारे संसारे किल विलसिते पाप बहुले। न मुक्तिमार्गेऽस्मिन्ननघ, जिननाथस्य भवति।।
१२. शुद्ध उपयोग अधिकार= इस अधिकार में कुल २९ गाथाएँ हैं। इसमें शुद्धोपयोग का लक्षण, उससे प्राप्त होने वाले निर्वाणपद का वर्णन किया गया है। इसमें दार्शनिक पद्धति के दर्शन होते हैं। गाथा प्रथम महत्वपूर्ण है-
‘‘जाणदि पस्सदि सव्वं, ववहारणयेण केवली भगवं।
केवलणाणी जाणदि, पस्सदि णियमेण अप्याणं।।’’
अर्थ-केवलज्ञानी परमात्मा व्यवहारनय से सर्वज्ञ और सर्वट्टष्टा हैं एवं निश्चयनय से वे अपनी आत्मा को ही जानते और देखते हैं। स्पष्ट होता है कि सर्वज्ञता ही आत्मज्ञता है, आत्मज्ञता ही सर्वज्ञता है। नय विभाग की युक्ति से आचार्य कुन्दकुन्द देव ने स्पष्ट किया है। यथार्थ में केवली आत्मा से तन्मय होकर जानते हैं। तन्मयता ही तो निश्चयनय का विषय है। उसी प्रकार यथार्थता केवली समस्त विश्व को अतन्मय होकर जानते हैं। अतन्मयता अध्यात्म शैली में व्यवहारनय का विषय है। केवली की आत्मा में समस्त विश्व प्रतिबिम्बित होता है। आत्मा ज्ञान प्रमाण है। आत्मा ही ज्ञान है। बिना प्रयत्न के आत्मज्ञ केवली सर्वज्ञ हो जाते हैं। दर्पण में वस्तु का प्रतिबिम्ब अवश्य ही दृष्टिगत होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने दोनों नयों की यथारूप सार्थकता बताई है। नियमसार ग्रंथ रत्नत्रयरूपी कुमुदों को विकसित करने में चन्द्रमा के उदय के समान होने से नियम कुमुद चन्द्रोदय है और इसकी टीका में पद-पद पर व्यवहार निश्चयनय, व्यवहार निश्चय क्रिया और व्यवहार निश्चय मोक्षमार्ग का वर्णन है। स्याद्वाद से समन्वित होने के कारण पूज्य माताजी द्वारा प्रणीत ‘‘स्याद्वाद चन्द्रिका’’ टीका की सार्थकता सिद्ध है। मनुष्यलोकप्रमाण सिद्धशिला के ऊपर सिद्धलोक सिद्ध भगवन्तों से ठसाठस भरा हुआ है। ढाईद्वीप, दो समुद्र से सर्वस्थान से जीव कर्म मुक्त होकर सिद्धलोक में पहुँचे हैं। ऐसे अनन्त सिद्धों को नमस्कार किया गया है। इस नियमसार ग्रंथ में कुल गाथाएँ १८७ हैं। छियत्तर, बयासी और उनतीस गाथाओं से इसमें पूज्य माताजी ने तीन महाधिकार माने हैं, जिनके नाम हैं-व्यवहार मोक्षमार्ग, निश्चय मोक्षमार्ग और मोक्ष। गणिनी आर्यिका ज्ञानमती कृत हिन्दी टीका का महत्व (अन्य टीकाओं के परिप्रेक्ष्य में)- नियमसार की अनेक टीकाएँ हैं किन्तु गणिनीप्रमुख आर्यिका ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित ‘स्याद्वाद चन्द्रिका’ टीका संस्कृत में तथा उसका अविकल हिन्दी अनुवाद काफी उपयोगी है। पाठकगण को इस टीका द्वारा निहित मूलग्रंथ का आशय समझने में काफी सरलता होती है।
प्रथम टीका- आचार्य पद्मप्रभमलधारी देव कृत तात्पर्यवृत्ति टीका भी समयोपयोगी है। सामयिक वाक्यों का प्रयोग पाठकगण की दृष्टि से क्लिष्ट है। इस टीकाग्रंथ में यथास्थान अध्यात्म अमृत कलश पद्यों का उपयोग भी दृष्टव्य है।
द्वितीय टीका- ब्र. शीतलप्रसाद जी ने आचार्य पद्मप्रभ मलधारी देव कृत नियमसार तात्पर्यवृत्ति टीका का हिन्दी रूपान्तरण किया है। इसमें काफी अशुद्धियाँ थीं अत: संशोधित प्रकाशन योग्य है।
तृतीय टीका- हिम्मतलाल जेठालाल शाह ने गुजराती में अनुवाद किया था। इसमें आचार्य पद्मप्रभ मलधारी देव की तात्पर्यवृत्ति टीका का आश्रय था। इसमें एकान्त निश्चयाभास को पुष्ट किया गया है अत: पाठकों को भ्रमित करता है। सोनगढ़ साहित्य एकान्तवादी परिप्रेक्ष्य में हेय है, सावधानी आवश्यक है। गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी कृत हिन्दी टीका-श्री पद्मप्रभ मलधारी देव की ही तात्पर्यवृत्ति टीका का आध्यात्मिक दृष्टि से मंथन कर पूज्य माताजी ने इस नियमसार ग्रंथ की हिन्दी भाषा की टीका का प्रणयन किया है। भावार्थ और टिप्पणी आदि में पूर्ण सावधानी बरती गई है। पूज्य माताजी ने संस्कृत में ‘‘स्याद्वाद चन्द्रिका’’ टीका लिखकर तथा उसका हिन्दी अनुवाद कर काफी उपकार किया है। सहजगम्यता द्वारा पाठकगण इस ग्रंथराज नियमसार को आसानी से समझ जाते हैं। मूल गाथाओं का पद्यानुवाद काफी महत्वपूर्ण है। ‘‘अरसमरूवमगंधं’’ गाथा द्वारा कुन्दकुन्द स्वामी के गुणों को आत्मसात् करने की प्रेरणा सुधी पाठकों को मिल जाती है। प्रस्तुत नियमसार की विषयवस्तु नियम से करने योग्य व्यवहार एवं निश्चय, साध्य-साधन के रूप में मान्य-दर्शन-ज्ञान-चारित्र है। इसका प्रामाणिक व्याख्यान अव्रती द्वारा शोभा नहीं पाता किन्तु व्रती पूज्य माताजी सदृश मुख से निसृत व्याख्यान शोभा पाता है। पूज्य माताजी ने २७ ग्रंथों का सहारा लेकर इस हिन्दी अनुवाद को तथा इस ग्रंथ को काफी अभिनंदनीय बना दिया है। पूज्य माताजी द्वारा हिन्दी टीका पृ. क्र. ४९ द्वारा अपनी संस्कृत के प्रति रुचि तथा प्रतिभा का जो परिचय दिया है, वह वंदनीय है। संस्कृत में नियमसार ग्रंथ की वंदना लिखकर इस ग्रंथ में चार चाँद लगा दिए हैं। पद्य दृष्टव्य हैं-
अत्यंत हर्ष की बात है कि पूज्य माताजी ने नियमसार ग्रंथ की ‘‘स्याद्वाद चन्द्रिका’’ टीका तथा उसका हिन्दी अनुवाद कर समाज का काफी मार्गदर्शन किया है। नियमसार प्राभृत महाग्रंथ मुनिचर्या का व्यवहार-निश्चय उभयरूपों में व्याख्यान करने वाला ग्रंथ है। पूज्य माताजी का आत्मसिद्धि का प्रयोजन इसकी टीका से सार्थक हुआ है। स्वयं की स्वाध्याय, ज्ञानार्जन और ज्ञानवृद्धि की भी कामना पूर्ण हुई है। सोने की खान से ही सोना प्राप्त होता है। ज्ञानदान से ज्ञानावरण का क्षयोपशम भी वृद्धि को प्राप्त होता है। हिन्दी अनुवाद सहित इस ग्रंथ को पढ़ने वाला अपनी आत्मा को भी परमात्मा बनाने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। मेरी दृष्टि में पूज्य माताजी ने संस्कृत टीका के साथ हिन्दी में सरल शब्दों में अनुवाद कर हमारा काफी उपकार किया है। यह टीकाग्रंथ ‘‘अणोरणीयान महतो महीयान’’की उक्ति को चरितार्थ करता है।
ग्रंथकर्ता आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव- दिगम्बर जैन आम्नाय में श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम श्री गणधर देव के पश्चात् लिया जाता है। गणधर देव के समान ही आदर किया जाता है तथा प्रामाणिक माना जाता है। कहा भी है-
मंङ्गलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दाद्यौ, जैन धर्मोस्तु मंंगलं।।
आचार्य कुन्दकुन्द अत्यन्त वीतरागी तथा आध्यात्मिक वृत्ति के साधु थे। आप अध्यात्म विषय के गहन पारखी थे। आपके अनेकों नाम प्रसिद्ध हैं। आपके जीवन में कुछ चमत्कारों तथा ऋद्धियों का भी उल्लेख मिलता है। आप अनेकों विषयों के पारगामी विद्वान थे। इन्हें करणानुयोग तथा गणित विषय का भी ज्ञान था। करणानुयोग वेâ मूलभूत व सर्वप्रथम ग्रंथ षट्खंडागम पर इन्होंने परिकर्म नाम की टीका लिखी थी। यह टीका आज उपलब्ध नहीं है। इनके आध्यात्मिक ग्रंथों को पढ़कर अज्ञानीजन उनके अभिप्राय की गहनता को स्पर्श न करने के कारण अपने को एकदम शुद्ध-बुद्ध और जीवनमुक्त मानकर स्वेच्छाचारी बन जाते हैं। उन्होंने व्यवहार और निश्चयनयों की यथाविधि प्रामाणिकता सिद्ध की है। उन्हें कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव, एलाचार्य, गृद्धपिच्छ तथा पद्मनंदी नामों से जाना जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी वि. सं. ४९ में आचार्य पद पर आसीन हुए थे। उन्होंने ९६ वर्ष का यशस्वी जीवन जीकर त्याग तपस्या से निर्ग्रन्थ श्रमण परम्परा को कायम रखा। दिगम्बर जैनधर्म और सम्प्रदाय पर उनका महान उपकार है। उन्होंने स्वयं भद्रबाहु श्रुतकेवली को अपने गमक गुरु के रूप में प्रणाम किया है। आचार्य कुन्दकुन्द के पट्टशिष्य तत्त्वार्थसूत्र के कत्र्ता आचार्य उमास्वामी का जैन साहित्य में सूत्र परम्परा का श्रीगणेश करने का महान उपकार है। आचार्य कुन्दकुन्द का जन्म तमिलनाडु में पोन्नूमलै के निकट गोण्डकुन्दपुर नामक स्थान में हुआ था। पिता का नाम कर्वुâन्ड एवं माता का नाम श्रीमती था। इन्होंने ८ वर्ष की उम्र में ही दीक्षा ले ली थी तथा जन्म से ही वस्त्रधारण नहीं किए थे। माता के संस्कार इन पर पूर्णरूप से प्रतिफलित हुए थे। इनके जीवन में ‘‘भूतो न भविष्यति’’ वाली कहावत चरितार्थ होती है। कविवर वृन्दावन जी द्वारा की गई इनकी स्तुति महत्वपूर्ण एवं परिचयात्मक दृष्टव्य है-
‘‘जास के मुखार विन्द तैं प्रकाशवान वृन्द, स्याद्वाद जैन बैन इन्दु कुन्द कुन्द से।
तास के अभ्यास तैं, विकास भेद ज्ञान होत, मूढ़ सो लखै नहीं कुबुद्धि कुन्दकुन्द से।।
देत हैं असीस सीस नाम इन्द्र चन्द्र जाहि मोह मारखंड मारतंड कुन्द कुन्द से।।’’
‘‘शुुद्ध बुद्धि वृद्धि प्रसिद्धि सिद्धि ऋद्धिदा, हुए हैं, न होहिंगे, मुनीन्द्र कुन्द कुन्द से।।’’
नियमसार प्राभृत टीका रचयित्री पूज्य गणिनी ज्ञानमती-व्यक्तित्व एवं कृतित्व- न्याय प्रभाकर सिद्धांत वाचस्पति, आर्यिकारत्न, सर्वोच्च गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी जैन समाज में एक सुप्रसिद्ध लेखिका, चिंतक एवं विदुषी हैं। आपका सम्पूर्ण जीवन साहित्य के पठन-पाठन व मनन चिन्तन में व्यतीत हुआ है। आपका जन्म टिवैâतनगर, जिला बाराबंकी (उ.प्र.) में वि. सं. १९९१ ईसवी सन् १९३४ के २२ अक्टूबर शरदपूर्णिमा के दिन हुआ था। पिता का नाम श्री छोटेलाल जैन तथा माता का नाम मोहिनी देवी था। माता मोहिनी देवी आर्यिका रत्नमती के नाम से १५ जनवरी १९८५ को समाधिमरण प्राप्त कर चुकी हैं। पूज्य ज्ञानमती माताजी के बचपन का नाम मैना था। १८ वर्ष की अल्पायु में सन् १९५२ में ब्रह्मचर्यव्रत धारणकर चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से सन् १९५६ में आर्यिका दीक्षा ग्रहण की थी। पद्मनंदिपंचविंशतिका के स्वाध्याय से इनके भावी गौरवमय, आध्यात्मिक, संयम एवं त्यागमय जीवन की पृष्ठभूमि निर्मित हुई है। आपका परिवार संयम के क्षेत्र में अग्रणी है। आपके गृहस्थ जीवन की एक बहिन पूज्य आर्यिका अभयमती माताजी के नाम से संयम साधना में रत हैं। एक बहन आर्यिकारत्न चंदनामती माताजी के नाम से पूज्य ज्ञानमती माताजी के संघ में रहकर संयम के साथ सत्साहित्य के लेखनकार्य में व्यस्त हैं तथा पूज्य माताजी की पथानुगामी हैं। आपके गृहस्थ जीवन के भ्राता कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र जी भी पूज्य माताजी के संघस्थ रहकर माँ जिनवाणी की सेवा कर रहे हैं।
कृतित्व- पूज्य ज्ञानमती माताजी ने लगभग २०० से भी अधिक ग्रंथों की रचना की है। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की ऐतिहासिक रचना दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, प्रयाग में ऋषभदेव दीक्षास्थली, कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) में भगवान महावीर स्वामी की जन्मभूमि तथा नंद्यावर्त महल का प्रणयन आपके शुभाशीष का ही फल है। पूज्य माताजी का प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी भाषाओं तथा व्याकरण, छंद, अलंकार, न्याय आदि विषयों पर पूर्ण अधिकार है। जिनवाणी माता की सेवा उन्होंने विभिन्न साहित्य लिखकर की है, जो अविस्मरणीय है तथा रहेगी। अष्टसहस्री, मूलाचार, समयसार, षट्खंडागम, कातंत्र व्याकरण, नियमसार स्याद्वाद चन्द्रिका, आराधना, प्रवचन निर्देशिका, कई प्रकार के विधान तथा ‘मेरी स्मृतियाँ’ नाम से आत्मकथा लिखकर महान उपकार किया है। पूज्य माताजी का शुभाशीष मुझे भी प्राप्त है, यह मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ की स्थापना भी आपकी कृपा का फल है। भगवान जिनेन्द्रदेव से पूज्य माताजी के सुदीर्घ तथा निरोग जीवन की मंगल कामना करता हूँ। वे सदैव संयम पथ पर अग्रसर होकर हम सभी को अपना शुभाशीष देती रहें।
समापन कथ्य- पूज्य ज्ञानमती माताजी की सुयोग शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती माताजी की प्रेरणा से देश के यशस्वी विद्वत् प्रवर तथा देवशास्त्र गुरु के परमभक्त मैनपुरी उ.प्र. निवासी श्रीमान् पं. शिवचरनलाल जी जैन ने नियमसार प्राभृत ग्रंथ पर लिखी गई ‘स्याद्वाद चन्द्रिका’ टीकाग्रंथ पर अपना शोध प्रबंध ‘‘नियमसार स्याद्वाद चन्द्रिका एक अनुशीलन’’ लिखकर जैन समाज का बड़ा उपकार किया है। वे पूज्य माताजी के अनन्य भक्त हैं। यह शोध प्रबंध ग्रंथ एक प्रशंसनीय कार्य है। इस सफल समीक्षात्मक कृति हेतु मैं श्रीमान् पं. शिवचरनलाल जी मैनपुरी का अभिनंदन करता हूँ तथा वीर प्रभु से उनके भावी, सुदीर्घ निरोग जीवन की कामना करता हूँ। पं. जी का वात्सल्य प्रेम मुझे भी मिला है। यही कामना है कि पं. शिवचरनलाल जी इसी प्रकार जैनागम सम्मत प्रमाणिक ग्रंथों की रचना कर माँ जिनवाणी की निरन्तर सेवा करते रहें। यह आलेख समाप्त करने के पूर्व मैंने शतवार पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के शुभाशीष का पावन स्मरण किया है। हम सब पूज्य माताजी के जीवन से प्रेरणा लेकर अपना जीवन सफल करें, इसी भावना के साथ-
‘आयु कटती रात दिन, ज्यों करोत ते काठ। हित अपना जल्दी करो, पड़ा रहेगा ठाठ।।’’ किं बहुना।