बगीचे में बसंतऋतु अपनी मधुरिमा से सबका मन आकर्षित कर रही है। अशोक की लाल-लाल कोंपल को खा-खाकर तोते क्रीड़ा कर रहे हैं। आम्र की ताजी मंजरियों को खा-खाकर कोयल अतीव मधुर शब्द बोल रही हैं। पक्षीगणों की कलरव ध्वनि से सारा बगीचा पुलकित हो रहा है। मानो वह मनोवती के गुणगान को गाने में ही एकतान हो गया है। कहीं पर लताएँ फूलों को बिखेर रही हैं और एक तरफ बकुलवृक्ष मौलसिरी की कलियों को बिखेरते हुए मानो मनोवती की अर्चना ही कर रहा है।
मनोवती प्रसन्न है और पति की उदासीनता को दूर करने के लिए निवेदन करती है-
‘‘स्वामिन्! आप उदासीन क्यों हैं ? चार दिन हुए बाजार में जाकर आप वापस आ जाते हैं दिन भर आपका वैâसा व्यतीत होता है? किसी का कुछ परिचय हुआ या नहीं ?’’
बुद्धिसेन दीर्घ निःश्वास लेकर कहते हैं-
‘‘प्रिये! मैं क्या बताऊँ ? मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि मेरा भाग्य इस समय बिल्कुल साथ नहीं दे रहा है। बहुत लोगों से मेरा परिचय हो चुका है। सब प्रेम से बोलते हैं, पास में बिठाते हैं किन्तु किसी ने अभी तक यह नहीं कहा कि तुम मेरे से कुछ द्रव्य लेओ और व्यापार धंधा करो। मुझे भी किसी से कुछ माँगते हुए शर्म आती है। मैं क्या करूँ ? मुझे ऐसा लगता है कि अब मेरे से कुछ भी नहीं होगा ?’’
‘‘आप इतनी जल्दी निराश क्यों हो रहे हैं ? जब तक अपने पास धर्म है, तब तक अपने को कोई भी चिंता नहीं है आज नहीं कल, कल नहीं परसों, कुछ न कुछ व्यापार का सिलसिला जमेगा ही।’’
‘‘यदि अपना पुण्य का ही उदय होता तो अपने को अपने पिता ही घर से क्यों निकाल देते ? अपना भाग्य इस समय बहुत ही कमजोर दिख रहा है।’’
व्यापार धंधे से निराश बुद्धिसेन ने मनोवती से मोती पाकर राजा को दिया भेंट-
मनोवती अपने पति को एक मोती देती है और कहती है-
‘‘अब आप उठिये, चिन्ता छोड़िए, मैं जैसा कहती हूँ वैसा कीजिए। जहाँ पर वह नग आपने गिरवी रखा है, वहीं पर जाकर उनसे एक मुहर ले लीजिए। फिर आप सीधे राजदरबार में पहुँचिये। यदि द्वारपाल आपको रोकेगा तो आप उसे मुहर दे दीजिए और आगे राजा के पास पहुँचकर उनके समक्ष भेंटरूप में यह मोती प्रदान कर दीजिए। फिर देखिए अपना भाग्य तत्काल पल्टा खा जायेगा।’’
कुमार मनोवती के कहे अनुसार मोती लेकर चल पड़ता है और उसी उपाय से राजा के पास पहुँचकर वह मोती उन्हें भेंट करता है। राजा उस मोती को बार-बार देखते हैं और आश्चर्य से पूछते हैं-
‘‘आप कौन हैं ? कहाँ से आये हैं ? आपका शुभ नाम क्या है और आपके साथ और कौन-कौन हैं ?’’
‘‘मेरा नाम बुद्धिसेन है ? मैं बल्लभपुर के प्रख्यात जौहरी हेमदत्त सेठ का पुत्र हूँ, मेरी धर्मपत्नी मेरे साथ हैं ?’’
‘‘अच्छा! तो आप अभी कहाँ ठहरे हुए हैं ?’’
‘‘मैं शहर के बाहर मकरकेतु नामक बगीचे में ठहरा हुआ हूँ।’’
‘‘मंत्रिन्! खजांची साहब को बुलाओ।’’
‘‘जो आज्ञा महाराज!
तत्क्षण ही खजांची साहब उपस्थित हो जाते हैं-
‘‘हुकुम कीजिए महाराज!’’
‘‘देखो, मुहरों से भरा हुआ स्वर्ण थाल ले आओ और उत्तम-उत्तम वस्त्र आभूषण जो कि युगल दम्पत्ति के लिए हों, ऐसे वस्त्र आभूषण ले आओ।’’
खजांची कुछ देर बाद सब वस्तुएँ उपस्थित कर देता है और महाराज कुमार बुद्धिसेन को पुरस्कार में देते हैं और मंत्री से कहते हैं-
‘‘मंत्रिन्! तुम स्वयं जाकर शहर के भीतर उत्तर दिशा में जो बड़ी हवेली है, वह इनके लिए खुलवा दो तथा नौकर-चाकर आदि सभी वस्तुओं से इनकी पूरी व्यवस्था कर दो।’’
अनन्तर महाराज दूसरे मंत्री से कहते हैं-
‘‘मंत्रिन्! आप अपने रत्नपारखी पुष्पराज को तो बुलाओ।
‘‘जो आज्ञा महाराज!’’
तत्काल ही पुष्पराज महोदय पधारते हैं और महाराज का अभिवादन कर अपने उचित स्थान पर बैठ जाते हैं।
‘‘हाँ! देखिये तो सही, यह मोती बहुत बढ़िया प्रतीत हो रहा है।’’
पुष्पराज देखकर विस्मयचकित हो उठता है-
‘‘राजन्! इतना बढ़िया मोती तो इस मर्त्यलोक में मिलना ही कठिन है। यह कोई दिव्य मोती है।’’
‘‘इसका मूल्य ?’’
‘‘हूँ!! राजन्! इसका मूल्य तो……….मेरी समझ में नहीं आ रहा है यह तो कोई एक अमूल्य वस्तु है।……’’
‘‘फिर भी…..’’
‘‘इसकी कीमत तो अगर आप आँकना ही चाहें तो महाराज!……इसकी कीमत पचास करोड़ मोहरों से कम नहीं समझिये।’’
‘‘ओहो! इतनी कीमती वस्तु इस जौहरी पुत्र को वैâसे मिली ? कुछ भी हो, अपने भाग्य में थी अपने पास आ गई। मंत्रिन्! भण्डारी को बुलाओ।
भण्डारी आकर साष्टांग नमस्कार कर एक तरफ खड़ा हो जाता है-
‘‘आज्ञा दीजिए महाराज!’’
‘‘हाँ, लो यह मोती बहुत ही बेशकीमती है। तुम इसे बहुत ही संभाल कर भण्डार में रखो।’’
‘‘बहुत ठीक!’’
भण्डारी चला जाता है और डिब्बे के अंदर मोती को रखकर उसे तिजोरी में रखकर बंद कर देता है।
मोती वापस पहुँचा मनोवती के पास-
कुमार बुद्धिसेन बगीचे में पहुँचकर मनोवती को सारा समाचार सुनाते हैं और राजा के आदेश के अनुसार मंत्री स्वयं उनके साथ में थे। उनके साथ ही पत्नी को लेकर शहर की हवेली में आ जाते हैं।
प्रातःकाल मनोवती ने देखा कि अपने पास में वे दोनों मोती मौजूद हैं। वह सोचने लगी कि जब मैंने इनमें से एक मोती राजा को भेंट में भेजा था तो यह वापस यहाँ वैâसे आ गया ? कुछ देर बाद वह सब रहस्य समझ गई आैर पुनः पति से बोली-
‘‘आज आप पुनः राजा के पास एक मोती भेंट करके आइये।’’
‘‘ठीक है! लाओ।’’
बुद्धिसेन उस मोती को लेकर राजदरबार में पहुँचकर राजा के समक्ष भेंट करते हैं। राजा एकदम प्रसन्न हो उठता है-
‘‘वाह! कितनी सुन्दर जोड़ी मिलाई! मंत्रिन्! भंडारी को बुलाओ कि वे कल का मोती लेकर आवें।’’
भण्डारीजी को सूचना मिलते ही तिजोरी से डिब्बा निकालते हैं तो उनके होश गुम हो गये, वे सन्न रह गये। यह क्या ? आखिर मोती गई कहाँ ? उनके सिर की चोटी से लेकर पैर की एड़ी तक पसीना बह चला। जैसे-तैसे वे अपने को संभाल कर और खाली डिब्बी लेकर महाराज के समक्ष काँपते हुए पहुँचते हैं और नमस्कार करते हैं-
‘‘हाँ भंडारी जी! लाइये मोती! जोड़ी मिलानी है।’’
‘‘महाराजाधि…….राज……!’’
वह बोलते-बोलते रुक जाता है-
‘‘ये क्या! मोती गायब हो गई। अच्छा! मैंने जो कह दिया था कि वह बेशकीमती है इसलिए गायब कर दी, इतनी जल्दी…….!
महाराज क्रोध में पागल हो उठते हैं और भंडारी के हाथ से डिब्बा गिर जाता है। बुद्धिसेन को उस भंडारी पर दया आ जाती है।
‘‘सरकार! कोई न कोई चोर आज…..महल में आया होगा जिसने यह मोती चुराई है मम म……..महाराज! मैंने चोरी नहीं की……।’’
‘‘अरे धूर्त! इस एक मोती के लिए ही चोर आया था और कुछ चोरी न करके केवल इसी एक मोती को ही ले जाता बस, बस! तू ही चोर है और कोई नहीं।’’
‘‘महाराज! महाराज! मेरे ऊपर दया….दृ….ष्टि….करो। महाराज! मैं निर्दोष…..हूँ।’’
‘‘चुप रह, चुप रह, ज्यादा मत बोल।……अभी…….। इसे फाँसी पर चढ़ाने के लिए ले जाओ। कोतवाल! इधर आ……’’
बुद्धिसेन बीच में ही महाराज को शांत करते हुए कहते हैं।
‘‘महाराज! आप शांत होइये। मैं आपको कल इसकी जोड़ी लाकर देऊंगा।’’
सभी दरबारी लोग एकदम धन्य-धन्य बोल उठते हैं-
‘‘कुमार! आप धन्य हैं! आपने आज भंडारी के प्राणों की रक्षा की है। आप महापुण्यशाली जीव हैं और महान हैं।’’
बुद्धिसेन वहाँ से आकर अपनी धर्मपत्नी मनोवती से सारी कथा सुना देते हैं……और कहते हैं-
‘‘हाँ, तो अब दूसरी मोती भी देवो, अपने पास मत रखो।’’
मनोवती चिढ़कर बोलती है-
‘‘वाह! बिना समझे-बूझे आपने राजा को दूसरी मोती देने का आश्वासन वैâसे दे दिया ? मैंने तो आपको कल एक मोती दी थी और एक आज दे दी। भला अब मेरे पास तीसरी मोती कहाँ से आयेगी ?’’
बुद्धिसेन एकदम अवाक् रह जाते हैं और सोचने लगते हैं यह क्या हुआ ? पुनः मनोवती के मुख को देखते हैं। तब मनोवती हंसकर विनम्र शब्दों में कहती है-
‘‘अबकी बार तो मैं आपकी बात रख लूँगी और मोती दे दूँगी। परन्तु मेरे स्वामिन्! अब आगे से आप बिना जाने-बूझे ऐसी गलती नहीं कर देना।’’
मनोवती ने पति को दर्शन प्रतिज्ञा के बारे में बताया-
इसके बाद वह अपने पति को अपनी दर्शन प्रतिज्ञा के विषय में आद्योपांत घटना सुनाती है, वह कहती है-‘‘प्रियतम! मैंने बाल्यकाल में दिगम्बर मुनिराज के समीप ही विद्या ग्रहण किया था, मेरे संस्कार धर्म के बहुत ही उज्ज्वल थे। जब मैं यौवन अवस्था में आई, मेरे पिता ने पुरोहित के द्वारा बहुत से देशों का अन्वेषण करके मेरे लिए आपको योग्य वर निर्धारित किया। मैंने समझ लिया कि अब मेरी शादी होने वाली है। एक दिन पुनः मैं महामुनि के निकट गई और दर्शन-स्तुति करके उनसे प्रार्थना करने लगी-भगवन्! मुझे कोई ऐसा नियम दीजिए कि जिससे मेरा जीवन सार्थक हो जावे।……उस समय मुनिराज ने मुझे सर्व रत्नों में शिरोमणि शीलव्रत दिया पुनः मैंने और कुछ इच्छा व्यक्त की तब उन्होंने पुष्पांजलि व्रत करने का उपदेश देकर उसकी विधि बताई और मैंने गुरु से यह व्रत भी ग्रहण किया है।
इतने पर भी मुझे संतोष नहीं हुआ और मैंने ऐसा नियम लिया कि मैं जिनेन्द्रदेव के मंदिर में जब गजमोती के पुंज चढ़ाऊँगी, तभी भोजन करूँगी। स्वामिन्! इसी नियम से मैंने आपके घर में तीन उपवास कर डाले थे और फिर भाई मनोज कुमार के आने पर भेद खुलने पर आपके पिता ने मुझे ढेरों गजमोती दिखाये थे और उन्होंने कहा ‘बेटी! जब तक तू जियेगी, तब तक ये मोती खत्म नहीं होंगे। तू मनमाने गजमोती चढ़ा और जिनेन्द्र देव की आराधना कर।’ लेकिन मेरे दुर्भाग्य ने आपको ही उनसे जुदा कर दिया।
‘‘……मैं इस रतनपुर के बगीचे में तीन दिन तक भूखी रही और रास्ते से चार दिन की निराहार थी। सात उपवास के बाद भी मैंने मन चंचल नहीं किया। प्रतिज्ञा से च्युत होने का मेरे मन में अणुमात्र भी विकल्प नहीं हुआ। जब आप बार-बार मेरे शरीर की अस्वस्थता पर चिन्ता व्यक्त कर रहे थे।…..प्राणनाथ! मैं उस समय अपने आपको पत्थर का बनाकर स्थिर थी। मैं आपसे क्या कहती और आप मेरी क्या सहायता करते ? किन्तु……..धर्म का प्रभाव अचिन्त्य है। देवों ने आकर मुझे जिनेन्द्रदेव के दर्शन कराये और मेरी प्रतिज्ञा पूरी की। बगीचे में अकस्मात् नीचे मेरा पैर धसका, मैंने शिला उठाकर देखा तो विशाल जिन मंदिर था……..ओहो! उसका क्या वर्णन करना! वहाँ मैंने गजमोती चढ़ाये और पुनः आते समय शिला के पास मुझे ये दो मोती मिले। ये नर-मादा मोती हैं इनका यह स्वभाव है कि ये अकेले कभी नहीं रहेंगे-नियम से नर मोती मादा के पास आ जायेगा।’’
सारे रहस्य को सुनकर बुद्धिसेन आश्चर्य से अपनी प्राणप्रिया का मुख अवलोकन करते हैं और आनन्द में विभोर हो जाते हैं। अपने भाग्य को धन्य समझते हैं।
नर मोती पुन: आया मादा मोती के पास, बुद्धिसेन ने राजा को मोती का रहस्य बताया-
अर्धरात्रि में पुनः वह ‘नर मोती’ उड़कर मनोवती के पास रखी हुई ‘मादा मोती’ के पास आ जाता है। दूसरे दिन बुद्धिसेन पुनः मनोवती से मोती लेकर राजा के दरबार में पहुँचता है और राजा को भेंट में प्रदान करता है। राजा पुनः भंडारी को बुलवाते हैं और भंडारी तो मोती का डिब्बा खाली देखकर वहीं स्तब्ध हो जाता है। वह सोचता है-अरे! मैंने डिब्बे में रखकर तिजोरी में डिब्बा रखा और उसे सात ताले की कोठरी में बंद करके रखा था तो भी यह क्या हुआ ?
खैर! जैसे-तैसे साहस करके भण्डारी दरबार में उपस्थित होता है और पुनः राजा के सामने गिड़गिड़ाता है। राजा आज तो उसके ऊपर आगबबूला हो उठते हैं किन्तु बुद्धिसेन कुमार महाराज के क्रोध को शांत करते हैं और कहते हैं-
‘‘राजाधिराज! इन मोतियों का रहस्य देखिये! मैं अभी आपकी इस मोती का जोड़ा मिलाये देता हूँ और अब ये आपके महल में रहेंगे। यह जो मोती मैं आपको दे गया वह ‘नर’ मोती था। यह हजारों कोश की दूरी पर क्यों न हो किन्तु उड़कर ‘मादा’ मोती के पास पहुँच जाता है यह इसका स्वभाव है अतः अभी तक दो दिन हुए यह ‘नर’ मोती बराबर उड़कर चला जाता रहा है। इसमें आपके भण्डारी का रंचमात्र भी दोष नहीं है।’’
दूसरा मोती देते हुए-
‘‘लीजिए महाराज! यह ‘मादा’ मोती है, अब ये दोनों आपके यहाँ रहेंगे।’’
रतनपुर नरेश यशोधर अत्यधिक प्रसन्न होकर मन में सोचते हैं-यह कुमार उत्तम कुल प्रसूत है, बुद्धिमान् है और पुण्यवान् है। इसने मुझे अनुपम भेंट दी है बदले में मैं भी इसे कृतार्थ करूँ…….कुछ क्षण सोचकर महाराज निर्णय कर लेते हैं कि इसे अपनी ‘गुणवती’ कन्या देना।
‘‘कुमार बुद्धिसेन! मैं आपसे बहुत ही प्रसन्न हूँ और आपसे अपना स्थायी संबंध स्थापित करना चाहता हूँ।…..मेरी एक गुणवती नाम की कन्या है। मेरी दृष्टि में वह सर्वथा आपके ही योग्य है। आप उसे स्वीकार करें तो मैं कृतकृत्य हो जाऊँ।’’
बुद्धिसेन राजा की बात सुनकर लज्जा से अपना माथा झुका लेते हैं और मौन से ही स्वीकृति दे देते हैं भला राजपुत्री किसे नहीं भायेगी ?
महाराज उसी समय मंत्री से कहकर ज्योतिषी को बुलवाते हैं और शुभ मुहूर्त निकलवाते हैं। शहर भर में चर्चा पैâल जाती है कि गुणवती राजपुत्री के भाग्य से अकस्मात् रतनपुर में कोई एक ‘नररत्न’ आया है। राजा ने वैशाख सुदी तीज को कन्या का विवाह निश्चित कर दिया।
बुद्धिसेन ने मनोवती को सुनाया विवाह का समाचार-
बुद्धिसेन वहाँ से उठकर घर पहँुचते हैं और मनोवती से कहते हैं-‘‘प्रिये! तुमने मुझे मेरे द्वारा राजा को मोती की भेंट दिलाकर गहरे बंधन में बँधवा दिया।’’
‘‘क्या हुआ कहिए तो सही ? आप तो बहुत ही प्रसन्न दिख रहे हैं।’’
राजा ने अपनी कन्या के साथ मेरी शादी करने का निर्णय कर लिया है और मुहूर्त भी…….।
मनोवती बीच में ही बात काट कर हँसते हुए-
‘‘अच्छा, अच्छा! तो आप राजजमाई हो गये। ठीक है, अब तो आप मुझे न भूल जाना।’’
‘‘वाह! प्राणबल्लभे! वैâसी बातें कहती हो ? यह सब तुम्हारा ही प्रसाद है। तुम्हारी ही प्रतिज्ञा के प्रभाव से ये मोती मिले और मोतियों की भेंट से ही मुझे राजसम्मान प्राप्त हुआ है। प्रिये! यह एकमात्र तुम्हारी प्रतिज्ञा का ही चमत्कार है। जो चंद मिनटों में अप्रतिम वैभव से मिला रहा है, रंक से राव बना रहा है और उच्च स्थान पर पहुँचा रहा है। सच है……धर्म के प्रसाद से ही विष भी अमृत बन जाता है, दुर्दिन भी मंगलमयी हो जाते हैं और आकाश से भी रत्नों की वर्षा होने लगती है।’’
‘‘इसलिए स्वामिन्! हमेशा धर्म की उपासना करते रहिए।’’
‘‘ठीक ही है प्रिये! जब धर्म की मूर्तिस्वरूप तुम मेरे घर में विद्यमान हो तो भला मैं धर्म से पराङ्मुख वैâसे हो सवूँâगा ? प्रिये! मैं सदैव तुम्हारी आज्ञा का पालक ही रहूँगा।’’
‘‘आप यह क्या कह रहे हैं ? आप तो सदैव हमारे पूज्य हैं। मैं सदैव आपकी आज्ञाकारिणी आपके चरणों की दासी हूँ। आपके सुख में सुखी और दुःख में दुःखी होना यह मेरा परम कर्तव्य है और मेरा परम सौभाग्य है कि आप मुझे अपने साथ लेते आये हैं।’’
‘‘सच है प्रिये! यदि आप मेरे साथ न होतीं तो आज यह उन्नति का दिन देखने को नहीं मिलता।’’
इसी प्रकार से उभय दम्पत्ति सुखपूर्वक वार्तालाप करते हुए कुछ क्षण बाद निद्रादेवी की गोद में पहुँच जाते हैं। प्रातः मंगल वाद्यों के साथ प्रभाती होती है। दोनों उठकर अपनी धर्म क्रिया में तत्पर हो जाते हैं।
कुमार बुद्धिसेन और गुणवती राजपुत्री का विवाह-
वैशाख सुदी तीज के दिन बड़े ठाटबाट से कुमार बुद्धिसेन का विवाह राजकन्या गुणवती के साथ हो जाता है। महाराज यशोधर अपने जमाई को अपना चौथाई राज्य देकर उसे अनेकों ग्रामों का राजा बना देते हैं। मनोवती भी प्रसन्न है, क्यों न हो ? क्योंकि उसकी प्रतिज्ञा के प्रभाव से यह सब उन्नति हो रही है। विवेकशील पत्नी अपने पतिदेव की उन्नति को देखकर अपनी ही उन्नति समझती है। मनोवती तत्त्वज्ञान से भरपूर है। उसने मुनिराज के पास धर्म ग्रन्थों का गहरा अध्ययन किया है, वह अपने में मगन है।
कुमार बुद्धिसेन अब जौहरी पुत्र ही नहीं रहे बल्कि राजा हो गये हैं और मनोवती उनकी महारानी है। बुद्धिसेन अपनी बुद्धि के बल से उस रतनपुर में सभी के स्नेहभाजन बन चुके हैं और मनोवती भी सभी के लिए एक आदर्श महिलारत्न प्रख्यात हो चुकी है। मनोवती का धवल यश चारों तरफ अपनी सौरभ को बिखेर रहा है।
महल के उद्यान में चारों ओर हरियाली ही हरियाली दिख रही है। क्रीड़ा सरोवर जल से परिपूर्ण भरे हुए हैं और उनमें लाल कमल खिल रहे हैंं किसी सरोवर में श्वेत कमल फूल रहे हैं। पवन उन कमलों की पराग मिश्रित सुगन्धी को चुरा-चुराकर ले जा रहा है और मनचाहा सबको बांट रहा है। मेघ की गर्जना सुनते ही मयूरों का तांडव नृत्य शुरू होता है। एक मयूर तो अपनी मयूरनी के सामने थिरक-थिरक कर नाच रहा है। सरोवरों में राजहंस अपनी हंसी के साथ क्रीड़ा कर रहे हैं, बत्तखें पानी में तैरती हुई ऐसी मालूम पड़ती हैं मानो विद्याधरों के छोटे-छोटे विमान ही पृथ्वी पर उतर आये हों। भास्कर भगवान् अपने सहस्र करों से दिनश्री का आलिंगन करके अब परदेश प्रस्थान के समय उसे अपनी भुजाओं से अलग करना चाहते हैं किन्तु दिनश्री स्वामी के वियोग को सहन करने में असमर्थता व्यक्त करते हुए ही मानो रंग-बिरंगी साड़ी पहनकर पति के साथ चलने को तैयार हो जाती है किन्तु भास्करदेव के पुनर्मिलन के आश्वासन से वह वहीं ठहर जाती है।
महल के अग्रिम भाग से मनोवती के नेत्र चारों ओर की शोभा को निरख रहे हैं। अकस्मात् सामने से कौन आ रहा है ? ओहो! पतिदेव!……..आज इधर वैâसे चले आ रहे हैं ? क्या कोई विशेष कारण आ गया ? क्या बिना कारण से नहीं आते…… ? हो सकता है कि आज कोई पुरानी स्मृति आ गई हो।
मनोवती ने बुद्धिसेन को दी उलाहना-
कुमार बुद्धिसेन ऊपर पहुँचते हैं और मनोवती स्वागत के लिए खड़ी हो जाती है। पतिदेव के उचित आसन पर बैठने के अनंतर मनोवती भी पास में बैठ जाती है-
‘‘आप राजजमाई हो गये हैं, फिर भला आज इधर वैâसे आ गये ? कोई विशेष हेतु ?…..’’
बुद्धिसेन अतीव शर्म से माथा नीचा कर लेते हैं, कुछ भी जवाब नहीं दे पा रहे हैं। मन ही मन सोचने लगते हैं-ओहो! मैंने बहुत बड़ी गलती की है।
‘‘…….अब तो आप राजा के एकमात्र स्नेहभाजन हैं। फिर गुणवती जैसी गुणवती राजदुलारी आपके चरण दबाती है। सच है, राज्यलक्ष्मी और मद को न करे ऐसा होना प्रायः कठिन ही है…..।’’
मनोवती कुछ क्षण रुक जाती है किन्तु बुद्धिसेन जब एक शब्द भी नहीं बोलते हैं तब पुनः वही बोलती चली जाती है।
‘‘स्वामिन्! वे बातें तो सर्वथा भूल जाने की ही हैं कि आपको आपके पिता ने घर से निकाल दिया और आप हस्तिनापुर आये, मैंने हठपूर्वक आपका साथ किया। हाँ! अब तो आप राजठसक में डूबे हुए हैं पुनः आपको मेरी स्मृति आज वैâसे आ गई ?’’
‘‘अस्तु! कोई बात नहीं है। आपने मुझे भुला दिया तो भी आपकी कोई हानि नहीं होगी किंतु…….स्वामिन्! ऐसे ही राज्यलक्ष्मी के नशे में होकर आप धर्म को नहीं भुला देना कि जिसके प्रसाद से आप इस वैभव को प्राप्त हुए हैं।’’
‘‘मेरे से यद्यपि बहुत बड़ा अपराध हुआ है फिर भी आपका हृदय विशाल है, आप एक बार क्षमादान दीजिए…..शायद भविष्य में पुनः ऐसी गलती अब नहीं हो सकेगी।’’ कुछ क्षण सोचकर, ‘‘प्राणप्रिये! अब आप जो भी आदेश दें, मैं करने को तैयार हूँ।’’
पति के क्षमा मांगने से शांत मनोवती ने जिनमंदिर निर्माण कराने की इच्छा व्यक्त की-
मनोवती शांत हो जाती है और पुनः विनम्र शब्दों में बोलती है-
‘‘प्रियतम्! आपने प्रत्यक्ष में धर्म के फल को देखा है कि जिसने जंगल में अपने को उठाकर मंगल में स्थापित किया है। चारों पुरुषार्थों में यह धर्म पुरुषार्थ ही प्रथम पुरुषार्थ है। जितने भी संसार के उत्तम-उत्तम सुख हैं, वे सब धर्मरूपी बगीचे के ही फल हैं और तो क्या अक्षय-अनंत-अविनाशी मोक्ष सुख भी इस धर्म के प्रसाद से ही मिलता है और धर्म का निकेतन श्रीजिनमंदिर ही है अतः मेरी इच्छा है कि आप एक विशाल जिनमंदिर का निर्माण कराइये।’’
बुद्धिसेन अतीव प्रसन्न होकर-
‘‘प्रिये! आपने बहुत ही उत्तम बात सोची है। यह कार्य तो मैं अवश्य ही करूँगा। प्रातः ही ज्योतिषी से मुहूर्त निकलवा कर नींव रखा देनी है…..।’’
‘‘स्वामिन्! आगम में जिनमंदिर बनवाकर उसमें जिनप्रतिमा के विराजमान कराने का पुण्य अचिन्त्य कहा है। इस महान् कार्य से आपका सर्वत्र यश पैâलेगा और परलोक में भी उत्तम फलों की प्राप्ति होगी। जिनबिम्ब निर्माण का फल तो अन्त में मोक्षपद ही माना गया है।’’
‘‘आपके आदेश का पालन अतिशीघ्र करूँगा। अब आप और कुछ सुनाइये।’’
हँसकर मनोवती कहती है-
‘‘मुझे तो जो भी सुनाना था सुना दिया, अब आप ही कुछ सुनाइये चूँकि आप बहुत दिन बाद आये हैं। इतने दिनों में आपको राजनीति का भी काफी अनुभव आ चुका होगा।’’
‘‘क्षमायाचना के बाद आप मेरी गलती को पुनः क्यों दोहरा रही हैं ?’’
‘‘मैं तो इस समय सहजभाव से ही पूछ रही थी यदि आपको कुछ नहीं बताना है तो छोड़िये।’’
मनोवती कुछ क्षण सरस मधुर वार्तालाप के द्वारा पति के मन को हल्का करती है। प्रेमपूर्ण वातावरण्ा में बुद्धिसेन अपनी पत्नी के गुणों का मूल्यांकन करते हुए मानो उसे अपना सर्वस्व समर्पित करते हुए ही उसके गाढ़ आलिंगन में बँध गये थे…….।
बुद्धिसेन ने राजा को जिनमंदिर निर्माण की बात बताई-
चारों तरफ चिड़ियाँ चहचहा रही हैं, मंगल बाजे बज उठे, वैतालिक ने प्रभाती के मधुर गान से मंगलमयी ऋषभदेव यश गाया, मनोवती उठती है और सबसे पहले महामंत्र का स्मरण करते हुए पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करती है पुनः पतिदेव के चरण स्पर्श करके अपने प्राभातिक कार्यों में संलग्न हो जाती है। बुद्धिसेन भी स्नानादि से निवृत्त होकर अपनी सुमुखि मनोवती के साथ जिनेन्द्रदेव का अभिषेक-पूजन करके भोजन करते हैं और वहाँ से चलकर सीधे राजदरबार में पहुँचते हैं।
महाराज यशोधर अपने जमाई का समुचित सत्कार करके अपने पास ही भद्रासन पर बिठा लेते हैं और कुशल क्षेम पूछकर व्यंग्य रूप से मनोविनोद करते हुए कुमार के मन को प्रसन्न करते हैं। समय पाकर बुद्धिसेन निवेदन करते हैं-
‘‘पूज्यपाद! आपके समक्ष मैं कुछ निवेदन करना चाहता हूँ।’’
‘‘कहिये कहिये! मैं तो इसी प्रतीक्षा में हूँ कि आप लोगों का कुछ उपकार कर सवूँâ।’’
‘‘महाराज! आपकी पुत्री मनोवती एक विशाल जिनमंदिर बनवाने की इच्छा व्यक्त कर रही है।’’
यशोधर अतीव प्रसन्न हो गद्गद होकर-
‘‘बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा है! वाह! क्या उत्तम विचार है। धन्य है वह रमणीरत्न, धन्य है! कुमार! तुमने ऐसी धर्मपत्नी पाकर वास्तव में जीवन में सब कुछ पा लिया है। तुम बहुत ही पुण्यशाली आत्मा हो……। अच्छा तो तुम इस रतनपुर शहर में जहाँ चाहो वहाँ, जितनी जगह में चाहो उतनी जगह में, जितना बड़ा मंदिर चाहो उतनी बड़ी जगह घेरकर काम शुरू करा दो।’’
‘‘ज्योतिषी से पहले मुहूर्त निकलवाना होगा।’’
‘‘हाँ, हाँ, मंत्रिन्! ज्योतिषी को शीघ्र ही बुलावो।’’
कुछ ही क्षण में ज्योतिषी आकर यथोचित् अभिवादन करता है-
‘‘जय हो! जय हो! महाराजाधिराज की जय हो!’’
‘‘हाँ, पण्डितजी विराजिये।’’
पंडितजी कर्मचारी के द्वारा प्रदत्त आसन पर बैठ जाते हैं।
‘‘मंदिरजी के निर्माण हेतु बहुत ही उत्तम मुहूर्त निकालिए।’’
पंडितजी कुछ देर तक पंचांग देखते हैं और गणित का हिसाब करते हुए पूछते हैं-
‘‘राजन्! किनके नाम से ?’’
‘‘हमारे जमाई बुद्धिसेन के नाम से।’’
बुद्धिसेन की तरफ देखकर-‘‘धन्य हो महाराज, धन्य हो! आप बड़े ही महिमाशाली हो। श्रीमान् जी! कल सुबह साढ़े आठ बजे का मुहूर्त बहुत ही श्रेष्ठ है। इस मुहूर्त पर किये गये निर्माण का यश……क्या बताऊँ आपको, युग-युग तक इस पृथ्वीतल पर पैâलाता रहेगा। जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् रामचन्द्र की कीर्ति आज भी भूमण्डल पर पैâल रही है और न जाने कब तक पैâलती रहेगी और ऐसे ही महाराज! इस मुहूर्त पर मंदिर के निर्माण को प्रारंभ करने से आप लोगों की कीर्ति अमर हो जायेगी।’’
‘‘ठीक, ठीक! बहुत ठीक! अब विधानाचार्य को बुलवाकर उनसे समझ लीजिए, कल प्रातः किन-किन वस्तुओं की आवश्यकता होगी। अच्छा, आप तो अब प्रमुख मंत्री के साथ जाकर जगह का निर्णय कीजिए, देर न कीजिए।’’
‘‘जो आज्ञा महाराज!’’
बुद्धिसेन प्रमुख मंत्री के साथ स्थान का निर्णय करके एक कोश की जगह को घेर कर रत्नचूर्ण से लाइन डलवा देते हैं। पुनः मनोवती के महल में पहुँचकर सारी बात सुना देते हैं।
शिलान्यासविधिपूर्वक प्रारंभ हुआ जिनमंदिर निर्माण कार्य-
प्रातःकाल विधानाचार्य की आज्ञा के अनुसार कुमार अपनी धर्मपत्नी मनोवती के साथ शुभ्र धौत वस्त्र पहन कर श्री जिनेन्द्रदेव की आराधना करके उस स्थान पर पहुँचकर श्री जिनभवन के नींव खनन की विधि को विधिवत् करते हैं। एक कोश के चारों ओर नींव की खुदाई शुरू हो जाती है। पुनः शुभ मुहूर्त में शिलान्यास विधि करके निर्माण काम चालू करा देते हैं। योग्य कार्यसंचालक को बुलाकर बुद्धिसेन आदेश देते हैं-
‘‘हाँ, देखिये, धनपालजी! मैंने तिजोरियों की कोठी खुलवा दी है। जितना द्रव्य लगे लेते जाइये और खुले मन से खुले हाथों द्रव्य खर्च कीजिए। जो भी कारीगर (मिस्त्री) और मजदूर आवें, उन्हें काम पर लगाइये। किसी को वापस नहीं करना। समझ गये ना!’’
‘‘हाँ सरकार! समझ गया। बहुत ही बढ़िया काम होगा। हमें तो बड़े-बड़े मंदिरों का, रजवाड़ों का और हवेलियों का बहुत बड़ा अनुभव है। मैं तो अच्छे-अच्छे नक्शे बनाने वालों को, चित्रकारों को और अच्छे-अच्छे कारीगरों को बुलाऊँगा। बड़ा शानदार मंदिर बनेगा महाराज! आप तो देखते ही हर्ष में विभोर हो उठेंगे।’’
‘‘ठीक है, और जो कुछ भी आवश्यकता हो, मुझे कहना।’’
चारों तरफ दूर-दूर देश में चर्चा पैâल जाती है कि बहुत बड़ा जिनमंदिर बन रहा है। तमाम मजदूर चले आ रहे हैं और काम दिन पर दिन द्रुतगति से चल रहा है।
दैव की लीला बड़ी विचित्र है, यह कभी किसी पर रहम नहीं करता है। अतिशय कठोर प्रकृति वाला है। चौदह परदेशी लोग आकर रतनपुर के बाहर बगीचे में ठहरे हुए हैं। उनके साथ छोटे-छोटे बच्चे रो रहे हैं। वे लोग कई दिनों के भूखे हैं। धनदत्त, सोमदत्त, विनयदत्त, जिनदत्त, अमरसेन और धरसेन छहों भाई खड़े-खड़े चर्चा कर रहे हैं। सभी स्त्रियाँ किंकर्तव्यविमूढ़ हुई बैठी हुई बच्चों को चुप कर रही हैं। बच्चे जोर-जोर से रो रहे हैं, भूख से व्याकुल हो रहे हैं। बेचारे वृद्ध दंपत्ति आँखें गीली किये हुए बैठे कुछ सोच रहे हैं। धनदत्त आगे बढ़कर कहता है-
‘‘चलो भाई चलो! अब देरी ना करो, देखो ना! परसों उस छोटे से गाँव में भीख में कुछ सूखे चने मिले थे जो कि माँ और पिता से तो खाये भी नहीं गये थे। कल दिन-रात चलते-चलते हो गया, अन्न-पानी नसीब नहीं हुआ है। आज भी इतना दिन ऊपर चढ़ आया है मेरे खुद के प्राण कण्ठ में आ रहे हैं। चलो चलो! देखें, गाँव तो पास ही है। यह तो बहुत बड़ा शहर दिख रहा है। कुछ अच्छी भीख मिले तो सबका पेट भरे। हाय! बेचारे बच्चे तो वैâसे बिलख रहे हैं।’’
‘‘भाई! सब न चलो, तो एक दो लोग ही चलो। कोई निकलो तो सही! लो मैं साथ चलता हूँ।
‘‘हाँ, हाँ धरसेन! तू आगे बढ़ तभी कोई आगे बढ़ेगा, ये लोग तो बातों में ही घंटों निकाल देंगे। देख तो सही! तेरे पिताजी की क्या स्थिति हो रही है ? नहीं तो चल मैं भी साथ चलती हूँ।’’
‘‘नहीं नहीं माँ! तुम तो आज बहुत थकी हो…….। तुम बैठ जावो……। हाँ, देखो! इस झाड़ के नीचे ठंडी-ठंडी हवा चल रही है, थोड़ा सा आराम कर लो।’’
‘‘अरे बेटा! पेट में तो आग जल रही है, ऊपर से ठण्डी हवा क्या करेगी ?’’
छहों लड़के जल्दी-जल्दी शहर की तरफ चलते हैं। अन्दर घुसकर एक दुकान के पास खड़े हो जाते हैं-
‘‘भाई साहब! हमें कुछ पैसे दे दो।’’
वह दुकान मालिक सेठ इन्हें ऊपर से नीचे तक देखता है और आश्चर्य से चकित होकर कहता है-
‘‘अरे! भाई! तुम कौन हो ? कहाँ से आये हो ?…….’’
‘‘भइया! दो चार पैसे के लिए हम लोगों का इतिहास क्या पूछना ?’’
दुकान मालिक इनका ऐसा उत्तर सुन तथा दूसरी तरफ से आने वाले अपने-अपने ग्राहकों को देखकर जल्दी से कुछ पैसे उन्हें देता है और कहता है-अच्छा, अच्छा! बढ़ो आगे……। धनदत्त कहता है-
‘‘भाई धरसेन! यह लो, तुम पहले कुछ खाने का सामान लेकर चलो जिससे बच्चों को तसल्ली हो। हम लोग आगे बढ़कर कुछ और प्राप्त कर अपने साथी के पेट भरने का पूरा सामान लेकर आ जावेंगे।’’
‘‘ठीक!’’
धरसेन कुछ रोटियाँ खरीद कर जल्दी से वापस बगीचे में पहुँचता है। इधर पाँचों भाई धीरे-धीरे आगे बढ़कर अन्य कुछ माँगकर उनका सामान खरीदकर वापस बगीचे में आ जाते हैं। सभी लोग स्नानादि करके कुछ न कुछ खाकर पानी पीकर कलेजे को शांत करते हैं। हेमश्री अपने पतिदेव के पैर दबाने लगती है। सभी लोग पास में बैठ जाते हैं। चर्चायें शुरू हो जाती हैं-‘‘पिताजी! कल दिन में अपन सभी लोग शहर में ही चलेंगे। वहीं कहीं गुजारा करेंगे। यहाँ बगीचे में कब तक पड़े रहेंगे ? देखो ना! ठंडी, गर्मी, भूख-प्यास सहन करते-करते सब बच्चे तो बीमार हो गये हैं। हम लोगों से भी अब जंगल की धूप-छाँव बर्दाश्त नहीं होती है। वैसे शहर अच्छा दिखता है, लोग भले हैं, आज कई दिन बाद तो पेट में पूरा अन्न पहुँचा है।’’
‘‘पुत्रों! जैसा तुम कहो वैसा करेंगे। क्या करें ! बुद्धि नहीं काम करती है, भीख माँगते-माँगते भी कितने दिन निकल गये हैं अब अपने दिन कब पलटा खायेंगे ?…….कौन जाने ?’’
कड़कड़ाती ठण्डी की रात! सभी बेचारे रात भर बैठे-बैठे सिकुड़े-सिकुड़े निकाल रहे हैं। न तन पर पूरे वस्त्र हैं और न ओढ़ने-बिछाने को रजाई, गद्दे या कम्बल। बच्चे तो माँ की गोद में चिपटे हुए सी-सी करके दाँत कड़कड़ा रहे हैं।
प्रभात होने पर कुछ ऊपर सूर्य आ जाने के बाद सभी लोग एक साथ शहर में प्रवेश करते हैं। चलते हुए मार्ग में रुक-रुककर पथिकों से और दुकानों से कुछ पैसों की याचना करते हैं। आखिर तो पेट भरना ही पड़ता है। यह पेट अगर न होवे तो फिर किसी को कुछ दुख ही न रहे। धीरे-धीरे वे सर्राफों के बाजार में पहुँच गये। शहर के एक प्रमुख जौहरी ने दूर से इन्हें देखा, वह तो कुछ देर तक देखता ही रहा, पुनः सन्मुख आकर बोलता है-
सभी ने मजदूरी करने का पैâसला किया-
‘‘महाशय! आप लोग कोई उच्चकुलीन दिख रहे हो, मालूम पड़ता है कि किसी आकस्मिक संकट के आने से मारे-मारे फिर रहे हो! अरे भाई! तुम लोग भीख क्यों माँगते हो ? कुछ मेहनत मजदूरी करके पेट भरो।’’
‘‘भाई! हम लोग अपरिचित हैं इसलिए हमें नौकरी पर कोई रखना नहीं चाहता है। क्या करें ?’’
‘‘यहाँ पर राजा के जमाई साहब बड़ा सा मंदिर बनवा रहे हैं, उसमें हजारों मजदूर काम कर रहे हैं। तुम लोग वहाँ पहुँच जाओ, वे कुमार बहुत ही दयालु हैं तुम्हें अवश्य नौकरी पर लगा देंगे।’’
‘‘भाई साहब! हमें कोई नहीं जानते हैं, नहीं रखेंगे। यदि आप दया करके हम लोगों को नौकरी दिलवा दें तो………आपकी बड़ी मेहरबानी होगी।’’
सभी लोग दीनमुख करके गिड़गिड़ाने लगते हैं। जौहरीजी दया से आर्द्र होकर उन्हें साथ लेकर निर्माण किए जाने वाले जिनमंदिर की ओर चल पड़ते हैं। आगे-आगे जौहरी साहब चल रहे हैं व पीछे-पीछे सभी परदेशी भिखारी चल रहे हैं। बेचारे मन ही मन अपने भाग्य को कोसते हुए और कृत कर्मों की निंदा करते हुए कदम से कदम बढ़ाते चले जा रहे हैं। वहाँ पहुँचकर जौहरी जी ड्योढ़ीवान से कहते हैं-
‘‘मुझे मालिक से मिलना है।’’
द्वारपाल अन्दर जाकर-‘‘महाराज! शहर के सुखपाल जी जौहरी आपकी सेवा में पधारे हुए हैं। उनके साथ कुछ मजदूर भी हैं। वे आज्ञा चाहते हैं ?’’
‘‘उन्हें सादर अन्दर ले आओ।’’
कुमार बुद्धिसेन कुटुम्बियों की हालत देख आश्चर्यचकित हो उठे—
सभी लोग अन्दर प्रवेश करते हैं। राजदरबार जैसा ठाठ दिख रहा है। कुमार बुद्धिसेन मध्य में सिंहासन पर आरुढ़ हैं। राजसी वस्त्राभरणों से अलंकृत हैं। कानों में लटकते हुए कुण्डल और गले में पड़े हुए रत्नहार की किरणों से चेहरा इतना अधिक चमक रहा है और चारों तरफ इतनी किरणें पैâल रही हैं कि मानों सभारूपी आकाशमण्डल में तेजस्वी भास्कर ही उदित हो रहा है। चारों तरफ रत्नों की चकाचौंध से सभा में रंग-बिरंगा प्रकाश जगमगा रहा है। आजू-बाजू मंत्री और सभासद लोग बैठे हुए हैं। मनोरंजन चल रहा है। जौहरी सुखपाल कुमार का अभिवादन करते हैं और कुमार के द्वारा निर्दिष्ट स्थान पर बैठ जाते हैं-
‘‘कहिये सेठजी! आज आपने किस हेतु से मेरा स्थान पवित्र किया है ?’’
‘‘श्रीमान् जी! ये कुछ परदेशी लोग आये हुए हैं। बेचारे बड़े दुःखी हैं। आप इन्हें अपने यहाँ निर्माण कार्य के लिए नौकरी पर रख लीजिए।’’
सभी बेचारे हाथ जोड़े खड़े हैं। बुद्धिसेन उन सबको अपलक दृष्टि से देख रहे हैं…..।ओहो!…ये मेरे माता-पिता और भाई-भावज!! अरे रे! रे! ये लोग इस दुरावस्था को वैâसे प्राप्त हो गये ?….आखिर क्या हुआ ?…..हाय! इस चंचला लक्ष्मी को धिक्कार हो!
इतनी जल्दी छप्पन करोड़ की सम्पत्ति कहाँ चली गई ? ये तो मुझे पहचान भी नहीं रहे हैं।’’
‘‘ठीक है सेठजी! आप निश्चिन्त होइये। इन सबका काम हो जायेगा।’’
‘‘अच्छा तो मैं चलता हूँ।’’
जौहरी सुखपाल वहाँ से निकल जाते हैं। वे सभी परदेशी खड़े हैं, कुमार कहते हैं-
‘‘तुम सभी लोग बैठो! अभी दो घंटे में हम तुम्हें काम पर लगा देंंगे।’’
मनोवती सारी घटना सुनकर दुखी हो उठी—
तत्क्षण वहाँ से उठकर कुमार अपने महल में पहुंचते हैं और मनोवती से कहते हैं-
‘‘प्रिये मनोवती! अभी एक महान् आश्चर्य की घटना सुनाने के लिए मैं आया हूँ।’’
‘‘सुनाइये, सुनाइये!’’
उत्सुकता से पास में बैठ जाती है।
‘‘मेरे माता-पिता, भाई और भावज सभी लोग मेरे यहाँ मजदूरी करने आये हैं।’’
आश्चर्यचकित हो मनोवती बोलती है-
‘‘ऐं!! आप क्या कह रहे हैं ? वे लोग कहाँ हैं ? आपने उन्हें ‘वे ही लोग हैं’ ऐसा कैसे जाना ?
‘‘ओहो! क्या मैं इतनी जल्दी अपने कुटुम्बियों को भूल जाऊँगा ? क्या मैं उन्हें पहचान नहीं सकता ? अभी कितने दिन हुए हैं, शायद एक वर्ष भी तो नहीं हुआ है।’’
‘‘स्वामिन्! मुझे विश्वास नहीं है।………हो भी सकता है। दैव का क्या भरोसा ? यह क्षण में राजा और क्षण में रँक बना देता है।…….फिर भी इतनी अपरिमित सम्पत्ति कहाँ चली गई ?’’
‘‘आप उसकी चिन्ता छोड़िये। मैं आपसे कुछ विचार-विमर्श करने आया हूँ। उस पर गौर कीजिए।’’
‘‘कहिए!’’
‘‘इन दुष्टों ने मुझे अकारण ही घर से निकाला है और अब दर-दर के भिखारी बने घूम रहे हैं। फिलहाल तो हमारे यहाँ नौकरी करने आये हैं अब तो हमारा मौका है जो चाहे सो कर सकता हूँ। प्रिये! यदि तुम कहो तो मैं इनकी ऐसी दुर्दशा करूँ कि ये भी कुछ समझें। कहो तो इनकी खाल उतरवा दूँ, या कहो तो इन पर इतना भार धराऊँ कि जितना पशुओं पर भी न लादा जा सके। और कहो तो इन्हें……..
‘‘बीच में बात काटकर-
‘‘हाय! आप क्या बोल रहे हैं ? आपके मुख से ये वैâसे शब्द निकल रहे हैं ? आपको क्या हो गया है ? जिन्होंने आपको जन्म दिया ऐसे माता-पिता के प्रति ऐसे शब्द कहते हुए आपको लज्जा नहीं आयी ? धिक्कार है आपके जीवन को! जिनसे आप पैदा हुए हैं, उनके प्रति आपके इतने कड़े शब्द कथमपि उचित नहीं हैं।’’
‘‘तो आप क्या चाहती हैं ?’’
‘‘अब आप तत्क्षण ही कुटुम्ब का मिलाप करो। अपना परिचय देकर उन्हें सुख सम्पत्ति से सुखी करो। स्वामिन्! आप कितना भी उनका उपकार करेंगे तो भी आप माता-पिता के ऋण से कभी भी उऋण नहीं हो सकते इसलिए अपकार के बदले उपकार ही कीजिए। वास्तव में विचार करके देखा जाये तो यह प्रसंग अत्यन्त बोध दे रहा है। पहली बात तो यह है कि उन्होंने आपका बुरा नहीं किया। आपके और हमारे कर्मों के उदय से ही वैसी समस्या आई। वे तो घर से निकालने में निमित्तमात्र ही हो सकते हैं। पूर्णरूपेण अपने अशुभ कर्मों के उदय से ही अपने को दुःख उठाना पड़ा है। दूसरी बात, अगर वे लोग आपको घर से नहीं निकालते तो आज आप राजजमाई कैसे बनते ?…..जरा सोचो तो सही! तीसरी बात यह है कि जो लक्ष्मी इतनी चँचल है, जिसने क्षणेक में अपने कुटुम्बियों को भिखारी बना दिया है उस लक्ष्मी पर आप भी क्यों इतरा रहे हैं ?
प्रियतम! यह लक्ष्मी सभी के साथ ऐसा ही व्यवहार करती है, किसी को भी नहीं देखती है, अपने को पाकर गर्विष्ठ होने वालों के प्रति यह ऐसा ही घृणित व्यवहार करती है उन्हें नियम से धोखा देती है अतः अब आप वस्तुस्थिति समझकर और लक्ष्मी का अभिमान छोड़कर अपने लोगों को गले से लगाइये।’’
कुमार बुद्धिसेन उनसे मजदूरी कराने का लेते हैं कठोर निर्णय—
कुमार कुछ क्षण चुप रहते हैं पुनः बोलते हैं-
‘‘प्रिये! एक बार तो मैं इन लोगों से मजदूरी अवश्य कराऊँगा। फिर जो तुम कहोगी, सो ही करूंगा। मैं एक बार अपने मन की अवश्य निकालँूंगा, पुनः परिचय कराऊँगा।’’
‘‘आपका यह सोचना बिल्कुल भी उचित नहीं है।’’
‘‘कुछ दिन मजदूरी करके ये लोग अपनी करनी का फल तो पा लें और मैं भी अपने मन की दाह बुझा लूँ।’’
‘‘आपका कथन बिल्कुल अनुचित है। अरे! उन्होंने फल तो पा ही लिया है। आप क्या उन्हें फल दिखायेंगे ? वे स्वयं फल भोगते-भोगते ही तो यहाँ तक आये हैं। अब आप जल्दी से उन्हें सुखी कीजिए।’’
‘‘नहीं, कुछ दिन इन्हें मजदूरी कराके ही मुझे संतोष होगा।’’
‘‘ओह! अभी भी आप नहीं चेत रहे हैं जबकि प्रत्यक्ष में लक्ष्मी के गर्व का दुष्परिणाम आँखों से देख रहे हैं। आप……राज ठसक में डूब रहे हैं इसीलिए आपकी आँखें नहीं खुल रही हैं। जिनके पास छप्पन करोड़ दीनारें थीं, आज चन्द दिनों में ही वे भीख माँगते फिर रहे हैं। यह ज्वलन्त उदाहरण भी आपको सचेत-सावधान नहीं कर रहा है। मुझे तो आपका यह हठ किसी प्रकार से भी उचित नहीं प्रतीत हो रहा है और न ही रुचिकर ही लग रहा है।’’
मनोवती ने बुद्धिसेन से माता-पिता से नौकरी न कराने का किया आग्रह—
कुछ क्षण को वातावरण शान्त रहता है पुनरपि कुमार कहते हैं-
‘‘प्रिये! यद्यपि आपकी बातें सर्वश्रेष्ठ हैं। फिर भी मेरे मन में जो कषाय है, उसको शांत करना है। एक बार इन्हें मजदूरी पर लगा दूँ फिर कुछ दिन बाद परिचय देकर के इन्हें सर्वसम्पन्न कर दूँगा।’’
‘‘जैसी आपकी इच्छा……फिर भी स्वामिन्! मैं आपसे एक प्रार्थना करती हूँ वह आपको माननी ही होगी।’’
‘‘बोलिये!’’
‘‘आप भाई और भावजों से भले ही मजदूरी कराइये किन्तु जिन्होंने आपको जन्म दिया है, उन वृद्ध माता और पिता से मजदूरी न कराइए, उन्हें बैठे ही नौकरी दे दीजिए। यह मेरी करबद्ध प्रार्थना है।’’
‘‘ठीक है आपकी यह आज्ञा शिरोधार्य है।’’
बुद्धिसेन कुमार महल से निकलकर सीधे अपने दरबार में पहुँचते हैं जहाँ कि वे परदेशी प्रतीक्षा कर रहे हैं। प्रबंधक को बुलाकर कहते हैं-
‘‘देखो! इन लोगों को अपने यहाँ काम में नियुक्त कर लो। ये जो वृद्ध और वृद्धा हैं इनसे भार ढोने का काम नहीं हो सकेगा अतः इन्हें तो बैठे ही वेतन दीजिए और इन छह पुरुषों को और छह महिलाओं को प्रातः दिन उगते ही काम में लगा दीजिए तथा सूर्यास्त तक खूब काम लीजिए। इन्हें एक क्षण भी बैठने नहीं देना और इनके सिर पर खूब ही भार रखना। समझ गये ना!’’
‘‘हाँ हाँ! समझ गया मालिक, समझ गया।’’
प्रबंधक महोदय कुमार की आज्ञानुसार उसी दिन से उन्हें मजदूरी पर लगा देते हैं और शाम तक कसकर काम लेते हैं और वृद्ध तथा वृद्धा दोनों को एक तरफ बैठे रहने का हुकुम दे देते हैं।
मनोवती ने प्रबन्धक को उन सबसे थोड़ा कार्य कराने का हुक्म दिया—
मनोवती शाम को प्रबंधक को बुलाती है और परदेशियों के बारे में सारी स्थिति स्पष्ट पूछती है-
‘‘रानी साहिबा! जैसा हमें महाराज साहब ने आदेश दिया है, मैं अक्षरशः उसका पालन करूँगा। आप चिन्ता न करें।’’
‘‘कहिये तो सही, क्या आदेश दिया है ?’’
‘‘हाँ, उन्होंने कहा है कि इन लोगों से बहुत काम लेना। ये लोग सुबह से शाम तक किंचित् भी बैठने न पावें सो मैंने आज ही आधे दिन उनसे खूब मेहनत कराई है बल्कि आप समझो कि मैंने उनसे दिन भर का पूरा काम ले लिया है।’’
‘‘अच्छा!……और वे जो वृद्ध दम्पत्ति हैं उनसे ?…..’’
‘‘उनके बारे में तो सरकार ने बैठे ही वेतन देने का हुकुम किया है।’’
‘‘ठीक! देखिये धनपालजी! ये उच्चकुलीन मालूम होते हैं परिस्थिति से लाचार हो मजदूरी करने आये हैं। इन्होंने आज तक ऐसा काम कभी नहीं किया है, ऐसा लगता है अतः इनसे बहुत हल्का नाममात्र का काम लो तथा विश्रांति करने का बहुत कुछ समय भी बीच-बीच में देते रहो।……ये तो अभी राजठसक में कुछ भी नहीं समझ रहे हैं।…… किन्तु……उच्चवंशीय लोगों की स्थिति समझना अपना कर्त्तव्य है।’’
धनपाल ने समझा था कि ये महारानी जी और भी कड़ा आदेश देंगी किन्तु उनके मुख से ऐसी बात को सुनकर वह ताज्जुब करने लगता है।……वास्तव में वह महिला है या साक्षात् दया का ही अवतार है।
‘‘जो आज्ञा स्वामिनी जी!’’
धनपाल जी अगले दिन से उन लोगों से बहुत ही हल्का बोझा उठवाते हैं और बीच-बीच में कह देते हैं कि तुम लोग बैठो, आराम करो, अभी काम नहीं है, बहुत लोग काम करने वाले हैं।