योग पुरूषों का लजाना उन कामों के लिए होता है, जो उनके अयोग्य होते हैं; इसलिए वह सुन्दर स्त्रियों की लज्जा से सर्वथा भिन्न है। आहार,वस्त्र और सन्तान— इन बातों में तो सभी मनुष्य समान हैं। यह तो एक लज्जा की भावना है जिससे मनुष्य—मनुष्य में अन्तर प्रगट होगा। शरीर तो समस्त प्राणों का निवास स्थान है; पर यह सात्तिवक लज्जा है, जिसमें पात्रता और योग्यता वास करती है। लज्जाशीलता क्या सत्पात्रों के लिए रत्न के समान नहीं हैं ? और जब वह उससे रहित होता है, तब उसकी शेखी और ऐंठ क्या देखने वाली आँख को पीड़ा पहुँचाने वाली नहीं होती ? जो लोग दूसरों का अपमान देखकर भी उतने ही लज्जित होते हैं, जितने कि स्वयं अपने अपमान से, उन्हें तो लोग लज्जा और संकोच की मूर्ति ही समझेंगे। ऐसे साधनों के सिवाय कि जिनसे उन्हें लज्जित न होना पड़े, अन्य साधनों के द्वारा योग्य व्यक्ति राज्य तक पाने के लिए मना कर देंगे। जिन लोगों में लज्जा की सुकोमल भावना हैं, वे अपने को अपमान से बचाने के लिए अपनी जान तक दे देंगे और प्राणों पर आ बनने पर भी लज्जा को नहीं त्यागेंगे। यदि कोई आदमी उन बातों से लज्जित नहीं होता है, जिनसे दूसरों को लज्जा आती है; तो उसे देखकर भद्रता भी शरमा जायेगी। कुलाचार को भूल जाने से मनुष्य केवल अपने कुल से ही भ्रष्ट होता है, लेकिन जब वह लज्जा को भूलकर निर्लज्ज हो जाता है, तब सब प्रकार की भलाईयाँ उसे छोड़ देती है। जिन लोंगों की आँखों का पानी मर गया है, वे जीवित होकर भी मरे के समान हैं। डोरी के द्वारा चलने वाली कठपुतलियों की तरह उनमें भी एक प्रकार का कृत्रिम जीवन ही होता है।