काललब्धि आदि की सहायता से परिणामों की विशुद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुआ कोई भव्य, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक जीव क्रम से अध:करण५ आदि सोपान पंक्ति पर चढ़ता हुआ बहुतर कर्मों की निर्जरा करने वाला होता है।
१. सर्वप्रथम वही जीव प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति के निमित्त मिलने पर सम्यग्दृष्टि होता हुआ असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा करता है। यह निर्जरा पूर्वोक्त सम्यक्त्व को प्राप्त करने के सन्मुख हुए और करणलब्धि को प्राप्त जीवों की अपेक्षा से असंख्यात गुणी मानी गई है।
२. पुन: वही जीव चारित्रमोहनीय के अप्रत्याख्यानावरण के क्षयोपशम से एकदेशव्रती श्रावक होता हुआ असंख्येयगुणी निर्जरा वाला होता है।
३. पुन: वही जीव प्रत्याख्यानावरण के क्षयोपशम से सकलचारित्र को प्राप्त हुआ विरत कहलाता हुआ असंख्यातगुणी अधिक निर्जरा करता है।
४.पुन: वह जब अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ की विसंयोजना करता है तब श्रावक से असंख्यातगुणी अधिक निर्जरा करता है।
५.पुन: वही दर्शनमोहनीय त्रिकरूपी तृणसमूह को भस्मसात् करता हुआ दर्शन, मोह, क्षपक संज्ञा को प्राप्त होता हुआ असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा वाला होता है।
६. पुन: वही क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर श्रेणी पर चढ़ने के सन्मुख हुआ उपशम श्रेणी चढ़ता है, तब उससे असंख्यातगुणी अधिक निर्जरा करता है।
७. पुन: वही उपशांतकषायी होता हुआ असंख्यातगुणी निर्जरा करता है।
८. पुन: वही चारित्रमोहनीय की क्षपणा में उद्युक्त हुआ क्षपक कहलाता हुआ असंख्यातगुणी अधिक निर्जरा करता है।
९.पुन: क्षीणकषाय गुणस्थान में पहुँचकर असंख्यातगुणी निर्जरा करता है।
१०. पुन: वह ही घातिकर्म का नाश कर ‘जिन’ संज्ञा को प्राप्त होता हुआ पहले कही गई निर्जरा से असंख्येयगुणी निर्जरा वाला होता है। अर्थात् सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिए सन्मुख हुए सातिशय मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि जीव की निर्जरा असंख्यात गुण श्रेणी अधिक कहलाती है। आगे-आगे असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा अधिक-अधिक होती जाती है। केवलज्ञान की उत्पत्ति-असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में मोहनीय की सात प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षपक श्रेणी पर आरोहण करने के सन्मुख होता हुआ अप्रमत्तसंयत (सप्तम) गुणस्थान में अध:प्रवृत्तकरण को प्राप्त होकर अपूर्वकरण गुणस्थान में नूतन परिणामों की विशुद्धि से पाप प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग को कृश करके तथा शुभकर्मों के अनुभाग की वृद्धि करके अनिवृत्तिकरण की प्राप्ति द्वारा वहाँ पर आठ कषायों का नाश करके तथा नपुंसकवेद और स्त्रीवेद का क्रम से नाश करके, छह नोकषाय का पुरुषवेद में संक्रमण द्वारा नाश करके तथा पुरुषवेद का संज्वलन क्रोध में, क्रोध का संज्वलन मान में, मान का संज्वलन माया में और माया का संज्वलन लोभ में क्रम से बादर कृष्टि विभाग के द्वारा संक्रमण करके तथा लोभ संज्वलन को कृश करके ‘सूक्ष्म सांपराय’ गुणस्थान में पहुँचकर समस्त मोहनीय का निर्मूल नाश करके, क्षीण कषाय गुणस्थान में पहुँचकर उसके उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचला का नाश करके तथा अन्तिम समय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय कर्मों का अन्त करके अपने आत्मस्वभावरूप केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। अर्थात् वीतराग निर्विकल्प त्रिगुप्ति समाधिरूप ध्यान के द्वारा मोहनीय कर्म का नाश हो जाता है। पहले दशवें गुणस्थान के अंत समय में मोहनीय का नाश होने के बाद यह जीव ग्यारहवें में न जाकर बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है, वहाँ सम्पूर्ण मोहरहित, पूर्ण वीतरागी होता हुआ अन्त समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन घातिया कर्मों का नाश कर देता है, तब केवली बन जाता है। नवकेवललब्धि-ज्ञानावरण के अभाव से क्षायिकज्ञान-अनन्तज्ञान प्रगट होता है, जिससे एक समय में सम्पूर्ण लोकालोक, त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों सहित ज्ञान में प्रतिबिम्बित होने लगता है। दर्शनावरण के नाश से क्षायिक-अनन्त दर्शन प्रगट हो जाता है, जिससे वे सर्वदर्शी कहलाते हैं। दानान्तराय के सर्वथा अभाव से अनन्त प्राणियों का उपकार करने वाला क्षायिक अभयदान होता है। समस्त लाभान्तराय के क्षय से कवलाहार क्रिया से रहित केवलियों के क्षायिक लाभ होता है, जिससे उनके शरीर में बल प्रदान करने में कारणभूत, दूसरे मनुष्यों को असाधारण-कभी प्राप्त न होने वाले परम शुद्ध और सूक्ष्म, ऐसे अनन्त परमाणु प्रति समय संबंध को प्राप्त होते हैं। समस्त भोगान्तराय के नाश से अतिशय वाले ऐसे क्षायिक अनन्त भोग का प्रादुर्भाव होता है, जिससे कुसुमवृष्टि आदि आश्चर्य विशेष होते हैं। समस्त उपभोगान्तराय के क्षय हो जाने से अनन्त क्षायिक उपभोग होता है, जिससे सिंहासन, चामर और तीन छत्र आदि विभूतियाँ होती हैं। वीर्यान्तराय के क्षय से क्षायिक अनन्तवीर्य प्रगट होता है। अनन्तानुबंधी आदि सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट होता है। चारित्र मोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों के अत्यन्त विनाश से क्षायिक चारित्र प्रगट होता है। ये अभयदानादि कार्य शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म की अपेक्षा रखते हैं अत: ‘‘सिद्धों१ में ये कार्यरूप न होकर केवलज्ञानरूप से अनन्तवीर्य के सदृश परमानन्द के अव्याबाधरूप में ही इनका सद्भाव रहता है। केवली भगवान इन नवकेवललब्धियों के स्वामी होते हैं। इन्द्रों द्वारा समवसरण की रचना हो जाती है और अधिक से अधिक कुछ कम कोटि पूर्व वर्ष तक इस पृथ्वी तल पर विहार करते हैं। केवलज्ञान होते ही भगवान इस पृथ्वीतल से ५००० हजार धनुष ऊपर चले जाते हैं, वहीं सिंहासन पर चार अंगुल अधर विराजमान रहते हैं। विहार के समय देवगण भगवान के चरण कमलों के नीचे स्वर्णमय कमलों की रचना करते जाते हैं और भी महान् अचिन्त्य वैभव होते हैं। अनन्तर भगवान योग निरोध करके ध्यान में लीन हो जाते हैं। उस समय समवसरण विघटित हो जाता है। मोक्ष की प्राप्ति-‘‘बंध के हेतुओं का अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है।’’ मिथ्यादर्शनादि बंध हेतुओं का अभाव होने से नूतन कर्मों का अभाव होता है और निर्जरारूप हेतु के मिलने पर अर्जित कर्मों का नाश हो जाता है। समस्त कर्मों का आत्यन्तिक वियोग हो जाना मोक्ष है। अयोगकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में यह जीव ७२ प्रकृतियों का विनाश करके शेष १३ प्रकृतियों का अन्त समय में नाश कर देता है। मोक्ष में जीवत्व, सम्यक्त्व, केवलज्ञान और केवलदर्शन तथा सिद्धत्व, ये पाँच भाव पाये जाते हैं। शेष भावों का अभाव हो जाता है।