निर्दोष सप्तमी व्रत भाद्रपद शुक्ला सप्तमी को करना चाहिए। इस व्रत में षष्ठी तिथि से संयम ग्रहण करना चाहिए। इस व्रत की समस्त विधि मुकुटसप्तमी के ही समान है, अंतर इतना है कि इसमें रात भी जागरणपूर्वक व्यतीत की जाती है अथवा रात के पिछले प्रहर में अल्प निद्रा लेनी चाहिए।
‘ॐ ह्रीं सर्वविघ्ननिवारकाय श्री शांतिनाथस्वामिने नम: स्वाहा’ इस मंत्र का जाप करना होगा।
कषाय, राग-द्वेष-मोह आदि विकारों का भी त्याग करना अनिवार्य है, इस व्रत को इस प्रकार करना चाहिए जिससे किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगे। आत्मपरिणामों को निर्मल और विशुद्ध रखने का प्रयास करना चाहिए। इस व्रत की अवधि भी सात वर्ष है, पश्चात् उद्यापन कर छोड़ देना चाहिए।
कथा
मगध देश के पाटली पुत्र (पटना) नगर में पृथ्वीराज राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम मदनावती था। उसी नगर में अर्हदास नाम का एक सेठ रहता था जिसकी लक्ष्मीमती नाम की स्त्री थी और दूसरा सेठ धनपति जिसकी स्त्री का नाम नंदनी था, नंदनी सेठानी के मुरारी नाम का एक पुत्र था, सो सांप के काटने से मर गया इसलिए नंदनी तथा उसके घर के लोग अत्यंत करुणाजनक विलाप करते थे अर्थात् सब ही शोक में निमग्न थे।नंदनी तो बहुत शोकाकुल रहती थी। उसे ज्यों-ज्यों समझाया जाता था त्यों-त्यों अधिकाधिक शोक करती थी। एक दिन नंदनी के रुदन (जिसमें पुत्र के गुणगान करती हुई रोती थी) को सुनकर लक्ष्मीमती सेठानी ने समझा कि नंदनी के घर गायन हो रहा है, तब वह सोचने लगी कि नंदनी के घर तो कोई मंगल कार्य नहीं है अर्थात् ब्याह व पुत्र जन्मादि उत्सव तो कुछ भी नहीं है तब किस कारण गायन हो रहा है? अच्छा चलकर पूछूं तो सही, क्या बात है? ऐसा विचार कर लक्ष्मीमती सहज स्वभाव से हँसती हुई नंदनी के घर गई और नंदनी से हँसते हुए पूछा-ऐ बहिन! तुम्हारे घर कोई मंगल कार्य है ऐसा तो सुना ही नहीं गया, तब यह गायन किसलिए होता रहता है, कृपया बताओ।
तब नंदनी गुस्सा करके बोली-अरी बाई! तुझे हँसी की पड़ी है और मुझ पर दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा है, मेरा कुल का दीपक प्यारा, आँखों का तारा पुत्र सर्प के काटने से मर गया है, इसी से मेरी नींद और भूख प्यास सब चली गई है, मुझे संसार में अंधेरा लगता है। दु:खियों ने दु:ख रोया, सुखियों ने हँस दिया। मुझे रोना आता है और तुझे हँसना। जा जा! अपने घर। एक दिन तुझे भी अतुल दु:ख आवेगा, तब जानेगी कि दूसरे का दु:ख कैसा होता है? इस पर लक्ष्मीमती अपने घर चली गई और नंदनी ने उससे नि:कारण वैर करके सांप मँगाया, और एक घड़े में रखकर लक्ष्मीमती के घर भिजवा दिया और कहला दिया कि इस घड़े में सुंदर हार रखा है सो तुम पहनो। नंदनी का अभिप्राय था कि जब लक्ष्मीमती घड़े में हाथ डालेगी तो सांप इसे काटेगा और वह दु:खियों की हँसी करने का फल पावेगी। जब दासी लक्ष्मीमती के घर वह विषैला सांप का घड़ा लेकर गई और यथायोग्य सुश्रूषा के वचन कहकर घड़ा भेंट कर दिया, तब लक्ष्मीमती ने दासी को पारितोषिक देकर विदा किया और अपने घड़े को उघाड़कर उसमें से हार निकालकर पहन लिया। (लक्ष्मीमती के पुण्य के प्रभाव से सांप का हार हो गया है) और हर्ष सहित जिनालय की वंदना निमित्त गई। सो मदनावती रानी ने उसे देख लिया और राजा से लक्ष्मीमती जैसा हार मंगा देने के लिये हठ करने लगी।
इस पर राजा ने अर्हदास सेठ को बुलाकर कहा-हे सेठ! जैसा हार तुम्हारी सेठानी का है, वैसा ही रानी के लिए बनवा दो, और जो द्रव्य लगे भंडार से ले जाओ। अब अर्हदास श्रेष्ठी ने सेठानी से लेकर वही हार राजा को दिया, सो राजा के हाथ पहुँचते ही हार का पुन: सर्प हो गया।
इस प्रकार वह सांप अर्हदास के हाथ में हार और राजा के हाथ में सांप हो जाता था। यह देखकर राजा और सभाजन सभी आश्चर्ययुक्त हो हार का वृत्तांत पूछने लगे परंतु सेठ कुछ भी कारण न बता सका। भाग्योदय से वहाँ मुनि संघ आया सो राजा और प्रजा सभी वंदना को गये। वंदना कर धर्मोपदेश सुना और अंत में राजा ने वह हार और सांप वाली आश्चर्य की बात पूछी, तब मुनिराज ने कहा-हे राजा! इस सेठ ने पूर्व भव में निर्दोष सप्तमी का व्रत किया है, उसी के पुण्य फल से यह सांप का हार बन जाता है।
और तो बात ही क्या है, इस व्रत के फल से स्वर्ग और अनुक्रम से मोक्षपद भी प्राप्त होता है, और इस व्रत की विधि इस प्रकार है, सो सुनो—
भादों सुदी सप्तमी को आवश्यक वस्त्रादि परिग्रह रख शेष समस्त आरंभ व परिग्रह का त्याग करके श्री जिनमंदिर में जावे और प्रभु का अभिषेक आरंभ करे अर्थात् वहाँ पर दूध का कुण्ड भरकर उसमें प्रतिमा स्थापित करे और पंचामृत का अभिषेक करने के पश्चात् अष्टद्रव्य से भाव सहित पूजन करे और स्वाध्याय करे।
इस प्रकार धर्मध्यान में समय बितावे। पश्चात् दूसरे दिन हर्षोत्सव सहित जिनदेव का पूजन-अर्चन करके अतिथि को भोजन कराकर और दीन-दु:खियों को यथावश्यक दान देकर आप भोजन करे। इस प्रकार सात वर्ष तक यह व्रत करके पश्चात् विधिपूर्वक उद्यापन करे और यदि उद्यापन की शक्ति न हो, तो दूने वर्षों तक व्रत करे।
उद्यापन इस प्रकार करे-बारह प्रकार का पकवान और बारह प्रकार के फल तथा मेवा श्रावकों को बाँटे। बारह-बारह कलश, झारी, चन्दोवा आदि समस्त उपकरण जिनमंदिर में चढ़ावे। बारह शास्त्र लिखाकर पधरावे और चतुर्विध दान करे।
राजा ने यह सब व्रत विधान सुनकर स्वशक्ति अनुसार श्रद्धा सहित इस व्रत को पालन किया और अंत में आयु पूर्ण कर (समाधिमरण कर) सातवें स्वर्ग में देव हुआ
और भी जो भव्य जीव श्रद्धा सहित इस व्रत को पालेंगे तो वे भी उत्तमोत्तम सुखों को प्राप्त होंगे।