निर्वाण की स्थिति जन्म, जरा व मरण से रहित होती है। वह आठ कर्मों से रहित, उत्कृष्ट एवं शुद्ध है। वह अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख व अनंत वीर्य—इन चार आत्मिक स्वभावों से युक्त है, वह अक्षय, अविनाशी व अच्छेद्य है। नापि दु:खं नापि सौख्यं, नापि पीडा नैव विद्यते बाधा। नापि मरणं नापि जननं, तत्रैव च भवति निर्वाणम्।।
निर्वाण वहीं होता है, जहाँ न दु:ख है, न सुख; न पीड़ा है, न बाधा; न मरण है, न जन्म। नापि इन्द्रियाणि उपसर्गा:, नापि मोहो विस्मयो न निद्रा च। न च तृष्णा नैव क्षुधा, तत्रैव च भवति निर्वाणम्।।
निर्वाण वहीं होता है, जहाँ न इन्द्रियाँ हैं, न उपसर्ग, न मोह है, न विस्मय; न निद्रा है, न तृष्णा और न ही क्षुधा। नापि कम्मं नोकम्मं, नापि चिन्ता नैवार्तरौद्रे। नापि धर्म्मशुक्लध्याने, तत्रैव च भवति निर्वाणम्।।
निर्वाण वहीं होता है, जहाँ न कर्म हैं, न नोकर्म; न चिन्ता है, न आत्र्त—रौद्र ध्यान; न धर्म ध्यान है और न ही शुक्ल ध्यान। निर्वाणमित्यबाधमिति, सिद्धिलोकाग्रमेव च। क्षेमं शिवमनाबाधं, यत् चरन्ति महर्षय:।।
निर्वाण अबाध है, सिद्धि है, लोकाग्र है, क्षेम है, शिव है, अनाबाध है और वह अवस्था है, जिसे मर्हिष पाया करते हैं।