दोहा
नमों नमों सब सिद्धगण, प्राप्त किया निर्वाण।
नमों सर्व निर्वाण थल, जो करते कल्याण।।१।।।
जय जय अष्टापद चंपापुर, जय ऊर्जयंत पावापुर की।
जय जय सम्मेदशिखर पर्वत, जय जय सब निर्वाण स्थल की।।
जय ऋषभदेव जय वासुपूज्य, जय नेमिनाथ जय वीर प्रभो।
जय अजित आदि बीसों जिनवर, जय जय अनंत जिन सिद्ध विभो।।२।।
जिनने निज में निज को ध्याकार निज को तीर्थंकर बना लिया।
जिन धर्म तीर्थ का वर्तन कर तीर्थंकर सार्थक नाम किया।।
निज के अनंतगुण विकसित कर निर्वाणधाम को प्राप्त किया।
उनने जग में भू पर्वत आदि को भी ‘तीरथ’ बना दिया।।३।।
जो सोलह भावन भाते हैं, उस रूप स्वयं हो जाते हैं।
वे ही नर तीर्थंकर प्रकृती, का बंध स्वयं कर पाते हैं।।
फिर पंचकल्याणक के स्वामी, होते भगवान कहाते हैं।
सौधर्म इंद्र आदिक मिलकर, उनके कल्याण मनाते हैं।।४।।
ये जहं से मुक्ति प्राप्त करते, वे ही निर्वाण क्षेत्र बनते।
निर्वाण क्षेत्र की पूजा कर सुर नर भी कर्मशत्रु हनते।।
मुनिगण को क्या गणधर गुरु भी निर्वाण क्षेत्र को नित नमते।
तीर्थों की यात्रा स्वयं करें मुनियों को भी प्रेरित करते।।५।।
चारण ऋ़द्धीधारी मुनि भी आकाशमार्ग से गमन करें।
निर्वाणक्षेत्र आदिक तीरथ वंदे भक्ती स्तवन करें।।
निज आत्मसुधारस पान करें निज में ही निज का ध्यान करें।
निर्वाण प्राप्ति हेतू केवल, निर्वाण भक्ति में चित्त धरें।।६।।
इस भरतक्षेत्र में जहाँ जहाँ, से तीर्थंकर जिनसिद्ध हुये।
श्रीवृषभसेन आदिक गणधर गुरु जहाँ जहाँ से सिद्ध हुये।।
भरतेश बाहुबलि रामचंद्र हनुमान व पांडव आदि मुनी।
निर्वाण गये हैं जहाँ जहाँ से वे सब पावन भूमि बनीं।।७।।
हम भी यहाँ भक्तिभावपूर्वक, उन क्षेत्रों की वंदना करें।
निज आत्म सौख्य की प्राप्ति हेतु, इन क्षेत्रों की अर्चना करें।।
जो जो भी पंचकल्याण भूमि, उनको भी वंदन करते हैं।
जिनवर के अतिशय क्षेत्रों की भक्ती से अर्चन करते हैं।।८।।
इक्षू रस मिश्रित शालिपिष्ट, से व्यंजन भी मीठे होते।
वैसे ही पुण्य पुरुष के पद की, रज से थल पावन होते।।
तीर्थों की भक्ती गंगा में, स्नान करें मल धो डालें।
निज आत्मा को पावन करके परमानंदामृत को पालें।।९।।
तीर्थों की यात्रा कर करके, भव भव की यात्रा नष्ट करें।
त्रिभुवन के जिनगृह वंदन कर तिहुंजग का भ्रमण समाप्त करें।।
जिनवचन और उनके धारक ये दो भी तीर्थ कहाते हैं।
बस ‘ज्ञानमती’ केवल्य हेतु, तीर्थों को शीश झुकाते हैं।।१०।।