-आर्या-
दुर्लक्ष्यं जगति परं ज्योतिर्वाचां गण: कवीन्द्राणाम्।
जलमिव वङ्को यस्मिन्नलब्धमध्यो बहिर्लुठति।।१।।
अर्थ —जिस प्रकार जल हीरा नामक रत्न के अंदर प्रवेश नहीं करता है और बाहिरीभाग में ही रहा आता है उसी प्रकार जिस चैतन्यस्वरूप ज्योति में बड़े—बड़े कवियों की वाणी भी प्रवेश नहीं कर सकती, बाहिरी भाग में ही रह जाती है ऐसा वह चैतन्यरूपी तेज संसार में दुर्लक्ष्य है अर्थात् जिसको बड़ी कठिनाई से भी नहीं देख सकते ।
भावार्थ — जो वस्तु दृष्टि के गोचर होवें अर्थात् जिसको देख सकें उसको तो कविलोग वचन से कह सकते हैं उसका वर्णन कर सकते हैं किन्तु चैतन्यस्वरूप तेज संसार में इतना दुर्लक्ष्य है कि जिस प्रकार जल हीरा के मध्य भाग में प्रवेश नहीं कर सकता है, बाहिरी भाग में ही रह जाता है उसी प्रकार कवियों की वाणी भी उसके अंतरंग में प्रवेश कर उसका वर्णन नहीं कर सकती किन्तु बाहिर में ही लड़खड़ाती रह जाती है।।१।।
मनसोऽचिन्त्यं वाचामगोचरं यन्महस्तनोर्भिन्नम्।
स्वानुभवमात्रगम्यं चिद्रूपममूर्तमव्याद्व:।।२।।
अर्थ —जिस चैतन्यरूपी तेज का मन से चिंतवन नहीं कर सकते हैं और वाणी से भी वर्णन नहीं कर सकते हैं और जो शरीर से सर्वथा भिन्न है और केवल स्वानुभव से ही जाना जाता है ऐसा वह चैतन्यरूपी तेज आप लोगों की रक्षा करे।।२।।
वपुरादि १परित्यक्ते मज्जत्यानंदसागरे मनसि।
प्रतिभाति यत्तदेकं यजति परं चिन्मयं ज्योति:।।३।।
अर्थ —शरीर-धन-धान्य आदि से रहित होने पर जिस समय चित्त आनन्द सागर में डूबता है, उस समय जो तेज मालूम पड़ता है वह एक तथा चैतन्यस्वरूपी उत्कृष्ट ज्योति इस संसार में जयवंत है।
भावार्थ —जब तक प्राणियों की, यह शरीर मेरा है, यह स्त्री मेरी है तथा ये पुत्र-धन-धान्य आदिक मेरे हैं इस प्रकार की शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, धान्य आदि पदार्थों में ममता लगी रहती है, तब तक किसी को भी उस उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूपी तेज का अनुभव नहीं हो सकता किन्तु जिस समय शरीर आदि से ममता छूट जाती है और मन आनंद सागर में गोता मारता है उस समय जो अनुभव में आता है, वही चैतन्यस्वरूप उत्कृष्ट तेज है तथा वह तेज सदा इस लोक में जयवंत है।।३।।
अब आचार्य सच्चेगुरू को नमस्कार करते हैं-
स जयति गुरुर्गरीयान् यस्यामलवचनरश्मिभिर्झटिति।
नश्यति तन्मोहतमो यदविषयो दिनकरादीनाम्।।४।।
अर्थ —जिन गुरुओं के निर्मल वचनरूपी किरणों से जिसको सूर्य-चन्द्र आदिक भी नाश नहीं कर सकते, ऐसा प्रबल मोहरूपी अंधकार बात की बात में नष्ट हो जाता है ऐसे वे उत्तम गुरू सदा इस लोक में जयवंत हैं अर्थात् ऐसे गुरुओं को मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ — यों तो संसार में वेषधारी बहुत से गुरू मौजूद हैं और अपने को जगद्गुरू के नाम से पुकारने का प्रयत्न भी करते हैं किन्तु वे बनावटी गुरू सच्चेगुरू नहीं हो सकते क्योंकि गुरू शब्द का अर्थ ही यह है जो मोहान्धकार को दूर करने वाला हो इसलिये जो अपने वचनों से मोहान्धकार को दूर करने वाले हैं वास्तव में वे ही गुरू हैं और उन्हीं गुरुओं को मैं नमस्कार करता हूँ।।४।।
मोक्ष दु:साध्य है, इस बात को आचार्य दिखाते हैं-
अस्तां जरादिदु:खं सुखमपि विषयोद्भवं सतां दु:खम्।
तन्मन्यते सुखं यत्तन्मुक्तौ सा च दु:साध्या।।५।।
अर्थ —संसार में जो जीवों को जरा-मरण आदिक दु:ख होते हैं वे तो दु:ख ही हैं इसलिये वे तो दूर ही रहे परन्तु विषयों से उत्पन्न हुवे सुख को जो जीव सुख मानते हैं, वह भी सुख नहीं है दु:ख ही हैं क्योंकि वास्तविक सुख तो मोक्ष में ही है और वह मोक्ष अत्यंत दु:खसाध्य है।
भावार्थ —जरा-मरण आदि के दु:ख को तो सर्वमनुष्य दु:ख ही कहते हैं इसलिये वे तो दु:ख हैं ही किन्तु बहुत से अज्ञानी जीव इन्द्रियों से उत्पन्न हुवे सुख को भी सुख कहते हैं सो उसको सुख कहना ठीक नहीं, वह सुख नहीं दु:ख ही है क्योंकि यदि वास्तविक सुख है तो मोक्ष में ही है और वह मोक्ष अत्यंत दु:ख से साध्य है।।५।।
विषयादिक सुख तो सुलभ है किन्तु मोक्ष के लिये शुद्धात्मा की प्राप्ति सुलभ नहीं है, इस बात को आचार्य दिखाते हैं-
श्रुतपरिचितानुभूतं सर्वं सर्वस्य जन्मने सुचिरम्।
न तु मुक्तयेऽत्र सुलभा शुद्धात्मज्योतिरुपलब्धि:।।६।।
अर्थ —जिनको चिरकाल से सुना है और जिनका परिचय तथा अनुभव किया है ऐसे समस्त काम-क्रोध-भोग-विकथा आदिक सर्वप्राणियों के जन्म के लिये हैं अर्थात् उनकी प्राप्ति सबको सुलभरीति से हो सकती है किन्तु मुक्ति के लिये शुद्ध जो आत्मज्योति:, उसकी प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है।
भावार्थ —काम-क्रोध-भोग विकथा आदिक पदार्थ तो अनादिकाल से प्रत्येक जन्म में सुने गये हैं तथा उनका परिचय और अनुभव किया गया है इसलिये उनकी प्राप्ति तो संसार में अत्यंत सुलभ है अर्थात् उद्बोधक कारण पाकर ही वे तो बहुत शीघ्र प्रकट हो जाते हैं किन्तु मुक्ति के लिये शुद्ध आत्मा की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है अर्थात् इसकी प्राप्ति जल्दी नहीं हो सकती क्योंकि किसी जन्म में इसको भलीभाँति सुना भी नहीं है और न इसका परिचय तथा अनुभव किया है इसलिये मोक्षाभिलाषियों को शुद्ध आत्मज्योति की प्राप्ति के लिये अवश्य प्रयत्न करना चाहिये।।६।।
आत्मा का अनुभव भी कठिन है, इस बात को आचार्य दिखाते हैं-
बोधोऽपि यत्र विरलो वृत्तिवाचामगोचरोवाढम्।
अनुभूतिस्तत्र पुनर्दुर्लक्ष्यात्मनि परं गहनम्।।७।।
अर्थ —और जिस आत्मा का ज्ञान भी अत्यंत दुर्लभ है और जिसका वर्णन भी वाणी के अगोचर है अर्थात् वाणी से जिसका वर्णन नहीं कर सकते और जब उसका वाणी से वर्णन ही नहीं कर सकते, तब उसका अनुभव तो अत्यंत ही दुर्लक्ष्य है इसलिये आचार्य कहते हैं कि आत्मज्योति अत्यंत गहन है।
भावार्थ —जो पदार्थ गहन नहीं होता है, उसका ज्ञान तो कर सकते हैं अर्थात् उसको जान सकते हैं और जब उसको जान सकते हैं तब उसका वर्णन भी कर सकते हैं तथा वर्णन करने से उसका अनुभव भी हो सकता है किन्तु आत्मा तो अत्यंत गहन है इसलिये प्रथम तो उसको जान ही नहीं सकते, यदि किसी रीति से जान भी लेवें, तो उसका वर्णन नहीं कर सकते, यदि कुछ उसका वर्णन भी कर सके, तो उसका अनुभव नहीं कर सकते इसलिये आत्मा का बोध-वर्णन-अनुभव सर्व ही कठिन है।।७।।
अब आचार्य इस बात को कहते हैं कि दोनों नयों में व्यवहारनय तो अज्ञानीजनों को समझाने के लिये है और शुद्धनय कर्मों के नाश के लिये है इसलिये शुद्धनय का कुछ वर्णन करता हूँ-
व्यवहृतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनय:।
स्वार्थं मुमुक्षुरहमिति वक्ष्येनु तदाश्रित किंचित्।।८।।
अर्थ —जीव अज्ञानी हैं उनके समझाने के लिये तो व्यवहारनय है और शुद्धनय कर्मों के नाश के लिये है इसलिये आचार्य कहते हैं कि मोक्ष की इच्छा करने वाला मैं अपने लिये शुद्धनय का आश्रयकर कुछ कहता हूँ अर्थात् शुद्धनय का वर्णन करता हूँ।
भावार्थ —यदि निश्चय से अनुभव किया जाय तो आत्मा एक अखंडपदार्थ है उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं लेकिन जिन पुरुषों के ज्ञान पर आवरण पड़ा हुवा है अर्थात् जो अज्ञानी हैं वे सहसा आत्मा के स्वरूप को नहीं जान सकते इसलिये सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान आदि आत्मा के गुणों को जुदा कर उनको आत्मा का स्वरूप समझाया जाता है और अखंडवस्तु को खण्डरूप से जानना, यह विषय व्यवहारनय का है इसलिए व्यवहारनय तो मूर्खों को समझाने के लिए है किन्तु उसके आशय से कर्मों का नाश नहीं हो सकता और शुद्धनय से जो पदार्थ जैसा है, वह वैसा ही समझा जाता है इसलिए पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को समझाने के कारण शुद्धनय कर्मों को नाश करने वाला है अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति में कारण है इसलिये स्वयं मोक्ष को जाने की इच्छा करने वाले श्री आचार्य कहते हैं कि मैं अब इस ग्रंथ में शुद्धनय का कुछ वर्णन करता हूँ।।८।।
प्रथम ही आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि जो पुरुष निश्चयनय के अनुगामी हैं, वे मोक्ष को जाते हैं-
व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो देशितस्तु शुद्धनय:।
शुद्धनय आश्रिता ये प्राप्नुवन्ति यतय: पदं परमम्।।९।।
अर्थ —व्यवहारनय तो असत्यार्थभूत कहा गया है और शुद्धनय सत्यार्थभूत कहा गया है और जो मुनि शुद्धनय के आश्रित हैं वे मुनि मोक्षपद को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ —अखंड पदार्थ को खंडरीति से जानना यह जो व्यवहारनय का विषय है वह सत्यार्थभूत नहीं है इसलिये व्यवहारनय भी सत्यार्थभूत नहीं है अत: जो जीव इस नय का आश्रय करते हैं, उनको संसार में ही रूलना पड़ता है, मोक्ष को नहीं जाते किन्तु जो जीव शुद्धनिश्चयनय का आश्रय करते हैं उनको मोक्षपद की प्राप्ति होती है क्योंकि जो पदार्थ जैसा है वह शुद्धनिश्चयनय से उसी रीति से जाना जाता है इसलिये जो जीव मोक्ष के अभिलाषी हैं उनको शुद्धनिश्चयनय का ही आश्रय करना चाहिए और यदि संसार में भटकना हो तो उनको संसार के प्रधान कारण व्यवहारनय का अवलम्बन करना चाहिये।।९।।
व्यवहारनय से तत्त्व का स्वरूप कुछ कह सकते हैं किन्तु निश्चयनय से तत्त्व अवाच्य है इस बात को आचार्य बतलाते हैं-
तत्त्वं वागतिवर्ति व्यवहृतिमासाद्य जायते वाच्यम्।
गुणपर्ययादिविवृते : प्रसरति तच्चापि शतशाखम्।।१०।।
अर्थ —निश्चयनय से तो तत्त्व वाणी के अगोचर है अर्थात् वचन से उसके स्वरूप का वर्णन नहीं कर सकते किन्तु वही तत्त्व व्यवहारनय की अपेक्षा वाच्य है अर्थात् वचन से उसको कुछ कह सकते हैं और पीछे वह तत्त्व गुण-पर्याय आदि के विवरण से सैकड़ों शाखास्वरूप में परिणत हो जाता है।
भावार्थ —जिस प्रकार एक भी वृक्ष शाखा-प्रशाखाओं से अनेक प्रकार का हो जाता है उसी प्रकार यद्यपि निश्चयनय से आत्मा अवाच्य तथा एक है तो भी व्यवहारनय से वह वाच्य अर्थात् वचन द्वारा करने योग्य है तथा गुण-पर्याय आदि भेदों से अनेक प्रकार का है।।१०।।
व्यवहारनय भी हेय नहीं है किन्तु उपादेय और पूज्य है, इस बात को आचार्य दिखाते हैं-
१मुख्योपचारविवृतिव्यवहारोपायतो यत: संत:।
ज्ञात्वा श्रयन्ति शुद्धं, तत्त्वंमिति व्यवहृति पूज्या।।११।।
अर्थ-मुख्य जो शुद्धनय, उसमें उपचार से है विवरण जिसका, ऐसा व्यवहारनय है उसकी सहायता से सज्जन पुरुष शुद्ध जो तत्त्व उसका अवलम्बन करते हैं इसलिए व्यवहारनय भी पूज्य ही है।
भावार्थ-यह भलीभांति अनुभव है कि जन्म लेते ही जीव इतने बुद्धिमान नहीं होते जो कि बिना प्रयास के ही वे असली तत्त्व को समझ लेवें किन्तु उपदेश आदि के बल से ही उनको असली तत्त्व समझाया जाता है और असली तत्त्व का जो स्वरूप है, वह व्यवहारनय को अवलम्बन करके समझाया जाता है इसलिए असली तत्त्व के आश्रय करने में व्यवहारनय भी अवश्य कारण है अत: व्यवहारनय पूज्य ही है किन्तु हेय नहीं।।११।।
अब आचार्य निश्चय-रत्नत्रय संसार का नाशक है, इस बात को दिखाते हैं-
आत्मनि निश्चयबोधस्थितयो रत्नत्रयं भवक्षतये।
भूतार्थपथप्रस्थितबुद्धेरात्मैव तत्त्रितयम्।।१२।।
अर्थ —आत्मा में जो निश्चय बोध स्थितिरूप रत्नत्रय हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय हैं वह संसार के नाश के लिये होते हैं और वह रत्नत्रय कोई जुदा पदार्थ नहीं है किन्तु जिन भव्य जीवों की बुद्धि भूतार्थमार्ग में स्थित है अर्थात् शुद्धनिश्चयनय को आश्रय करने वाली उन भव्यजीवों की आत्मा ही सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रस्वरूप जो रत्नत्रय, उस रत्नत्रय स्वरूप है।
भावार्थ —जो भव्यजीव सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रस्वरूप जो रत्नत्रय, उस रत्नत्रयस्वरूप जो आत्मा उस आत्मा का ध्यान करते हैं वे समस्त दु:खों से छूट जाते हैं और सीधे मुक्ति को जाते हैं इसलिये मोक्षाभिलाषियों को अवश्य ही रत्नत्रयस्वरूप आत्मा का आराधन करना चाहिये।।१२।।
सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय आत्मा का अखंडरूप है, इस बात को आचार्य बतलाते हैं-
सम्यक्सुखबोधदृशां त्रितयमखण्डं परात्मनोरूपम्।
तत्तत्र तत्परो य: सएव तल्लब्धिकृतकृत्य:।।१३।।
अर्थ —सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र ये तीनों आत्मा के अखंडरूप हैं इसलिये आचार्य कहते हैं कि जो पुरुष परमात्मा में लीन हैं अर्थात् परमात्मा के आराधक हैं उनको सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति होती है और वे कृतकृत्य हो जाते हैं।
भावार्थ —जो मनुष्य आत्मा के आराधन करने वाले हैं उनको सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होती है क्योंकि सम्यग्दर्शन आदिक आत्मा से भिन्न नहीं हैं, आत्मा के ही अखंडस्वरूप हैं और सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति से वे मनुष्य कृतकृत्य हो जाते हैं अर्थात् उनको संसार में कोई भी काम करने के लिये बाकी नहीं रहता इसलिये जो मनुष्य कृतकृत्य होना चाहते हैं उनको अवश्य ही सम्यग्दर्शन-समयग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र की प्राप्ति करनी चाहिये।।१३।।
अब आचार्यवर सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र के स्वरूप को कहते हैं-
अग्नाविवोष्णभाव: सम्यग्बोधेऽस्ति दर्शनं शुद्धम्।
ज्ञातं प्रतीतमाभ्यां सत्स्वास्थ्यं भवति चारित्रम्।।१४।।
अर्थ —जिस प्रकार अग्नि में उष्णता है उसी प्रकार से जो आत्मा में ज्ञान है इस प्रकार की जो दृढ़ प्रतीति है इसका नाम तो सम्यग्दर्शन है और आत्मा का जो भलीभांति ज्ञान है उसको निश्चयज्ञान कहते हैं तथा सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान सहित जो आत्मा, उस आत्मा में समीचीन जो स्वस्थता, उसको चारित्र कहते हैं।
भावार्थ —आत्मा में निश्चलरीति से जो श्रद्धान है, उसको तो सम्यग्दर्शन कहते हैं और उसी आत्मा का जो ज्ञान है, वह सम्यग्ज्ञान है और आत्मा में जो स्थिति है, उसको सम्यक्चारित्र कहते हैं।।१४।।
अब आचार्य सम्यग्दर्शन आदि की सफलता का वर्णन करते हैं-
विहिताभ्यासा १बहिरर्थवेध्यसंबन्धतो दृगादिशरा:।
सफला: शुद्धात्मरणे छिन्दितकर्मारिसंघाता:।।१५।।
अर्थ —बाह्य जो पदार्थ वे ही हुए वेध्य ‘‘निशान’’ उनके संबंध से किया गया है अभ्यास जिनका, ऐसे जो सम्यग्दर्शन आदिक बाण हैं वे शुद्धात्मारूपी संग्राम में समस्त कर्मरूपी वैरियों को नाश करने में सफल होते हैं।
भावार्थ —नाना प्रकार के निशानों को मार—मारकर जिस बाण का अभ्यास किया गया है ऐसा वह बाण जिस समय बैरी का छेद करता है, उस समय जिस प्रकार सफल समझा जाता है उसी प्रकार जिस समय सम्यग्दर्शन आदि के होते सन्ते समस्तकर्म नष्ट हो जाते हैं उस समय सम्यग्दर्शन आदिक सफल समझे जाते हैं।।१५।।
सम्यग्ज्ञान की जब तक प्राप्ति नहीं होती है, तब तक कदापि जीव सिद्ध नहीं हो सकता, इस बात को आचार्य दिखाते हैं-
हिंसोज्झित एकाकी सर्वोपद्रवसहो वनस्थोऽपि।
तरुरिव नरो न सिध्यति सम्यग्बोधादृते जातु।।१६।।
अर्थ —समस्त प्रकार की हिंसाओं कर रहित और अकेला तथा समस्त प्रकार के उपद्रवों को (विघ्नों को) सहन करने वाला मुनि वृक्ष के समान वन में स्थित भी सम्यग्ज्ञान के बिना कभी भी सिद्ध नहीं बन सकता।
भावार्थ — जब तक मुनि सम्यग्ज्ञान को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक चाहें तैसा वह हिंसा का त्यागी क्यों न हो और वह वन में अकेला ही क्यों न रहता हो तथा समस्त प्रकार के उपसर्गों को भलीभांति सहने वाला क्यों न हो, कभी भी सिद्ध पदवी को नहीं पा सकता इसलिये सिद्धपद के अभिलाषियों को चाहिये कि वे सबसे पहले सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करें।।१६।।
शुद्धनय में स्थित कौन पुरुष हो सकता है इस बात को आचार्यवर समझाते हैं-
अस्पृष्टमवद्धमनन्यमयुतमविशेसमभ्रमोपेत:।
य:पश्यत्यात्मानं स पुमान् खलु शुद्धनयनिष्ठ:।।१७।।
अर्थ — जो मनुष्य भ्रमरहित होकर आत्मा को अस्पृष्ट-अबद्ध-अनन्य-अयुत-अविशेष मानता है वही पुरुष शुद्धनय में स्थित है, ऐसा समझना चाहिये।
भावार्थ — जो मनुष्य शुद्धनय का अवलम्बन करने वाला है वह मनुष्य, जिस प्रकार जल में पड़ा हुवा भी कमल का पत्र जल से अस्पृष्ट है अर्थात् जल स्पर्श से रहित है उसी प्रकार आत्मा भी कर्मों के स्पर्शकर रहित है अर्थात् विमुक्त है ऐसा देखता है तथा आत्मा कर्मों के बंधनकर रहित है अर्थात् एक है, यह भी देखता है और आत्मा कर्मस्वरूप नहीं है, कर्मों से भिन्न है, यह भी वह देखता है और आत्मा अविशेष है अर्थात् कर्मों द्वारा किये हुवे जो मनुष्य-देव आदि नाना प्रकार के विशेष, उन करके रहित है, ऐसा भी देखता है।।१७।।
नाटक समयसार कलशाभिषेक में भी कहा है-
भेदविज्ञानत: सिद्धा सिद्धा ये किल केचन।
अस्यैवाभावतोबद्धा बद्धा ये किल केचन।।१।।
अर्थ — जो कुछ जीव सिद्ध हुवे हैं, वे जीव स्वपर भेदविज्ञान से ही सिद्ध हुवे हैं और जो कुछ जीव बंधे हैं वे स्वपरभेद विज्ञान के अभाव से ही बंधे हैं इसलिये सिद्ध बनने की इच्छा करने वाले भव्यजीवों को अवश्य ही भेदविज्ञान की ओर दृष्टि देनी चाहिये।।१।।
जो शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है उसको तो शुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है और जो अशुद्ध आत्मा का ध्यान करता है उसको अशुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है, इस बात को आचार्य बतलाते हैं-
शुद्धाच्छुद्धमशुद्धं ध्यायन्नाप्नोत्यशुद्धमेव स्वम्।
जनयति हेम्नो हैमं लोहाल्लौहं नर: कटकम्।।१८।।
अर्थ —जिस प्रकार मनुष्य सुवर्ण से सुवर्णमय ही कढ़ाई को बनाता है और लोह से लोहमय कढ़ाई को ही बनाता है उसी प्रकार जो मनुष्य शुद्धात्मा का ध्यान करता है उसको तो शुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है और जो मनुष्य अशुद्ध आत्मा का ध्यान करता है उसको अशुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है।
भावार्थ —यह नियम है कि जिस प्रकार का कारण होता है, कार्य भी उसी प्रकार का होता है। सुवर्ण से सुवर्णमय पात्र की तथा लोह से लोहमय पात्र की की क्यों उत्पत्ति होती है, उसका कारण यही है कि उन दोनों का कारण सुवर्ण तथा लोहा है उसी प्रकार शुद्धात्मा की प्राप्ति में कारण शुद्धात्मा का ध्यान है और अशुद्धात्मा की प्राप्ति में अशुद्धात्मा का ध्यान है इसलिये जो मनुष्य शुद्धात्मा का ध्यान करते हैं उनको तो शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है और जो मनुष्य अशुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं उनको अशुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति होती है अत: जो मनुष्य शुद्ध आत्मा की प्राप्ति के अभिलाषी हैं उनको शुद्ध आत्मा का ही ध्यान-मनन करना चाहिये।।१८।।
चारित्रकर शुद्ध यदि सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान रहें तो जन्म नहीं हो सकता, इस बात को आचार्य कहते हैं-
सानुष्ठानविशुद्धे दृग्बोधे जृम्भिते कुतो जन्म।
उदिते गभस्तिमालिनि किं न विनश्यति तमो नैशम्।।१९।।
अर्थ —जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर रात्रि का अंधकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार सम्यक्चारित्र से शुद्ध जिस समय सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होते हैं उस समय जन्म कदापि नहीं हो सकता।
भावार्थ — जब तक सूर्य का उदय नहीं होता है तभी तक निशा का अंधकार आकाश में व्याप्त रहता है किन्तु जिस समय सूर्य का उदय हो जाता है, उस समय पल भर में रात्रि का अंधकार दूर भाग जाता है उसी प्रकार जब तक आत्मा में अखंड सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यकचारित्र की प्राप्ति नहीं होती, तभी तक संसार रहता है अर्थात् संसार में भटकना पड़ता है किन्तु जिस समय निर्मल सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र की प्राप्ति हो जाती है उस समय आत्मा को संसार में भटकना नहीं पड़ता ।।१९।।
मन को नाश कर देना चाहिये इस बात को आचार्य वर्णन करते हैं-
आत्मभुवि कर्मबीजाच्चित्ततरुर्यत्फलं फलति।
जन्ममुक्त्यर्थिना स दाह्यो भेदज्ञानोग्रदावेन।।२०।।
अर्थ — आत्मारूपी भूमि में कर्मरूपी बीज से उत्पन्न हुवा मनरूपी वृक्ष, संसाररूपी फल को फलता है इसलिये आचार्य कहते हैं कि जिनको जन्म से मुक्त होने की इच्छा है अर्थात् जो मुमुक्षु हैं उनको चाहिये कि वे भेदज्ञानरूपी जाज्वल्यमान अग्नि से उस चित्तरूपी वृक्ष को जलावें।
भावार्थ —जिस प्रकार भूमि में उत्पन्न हुवा वृक्ष फल को देता है उसी प्रकार जिस समय मन की सहायता से इन्द्रियाँ विषयों में प्रवृत्त होती हैं उस समय नाना प्रकार के कर्मों का संबंध आत्मा में होता है और फिर कर्मों के संबंध से आत्मा को संसार में भटकना पड़ता है इसलिये संसार का पैदा करने वाला मन ही है अत: भव्यजीवों को चाहिये कि वे इन मन को स्वपर के विवेक से सर्वथा नष्ट करें।।२०।।
आत्मा को कर्म अशुद्ध बनाते हैं तो भी भव्यजीवों को भय नहीं करना चाहिये, इस बात को आचार्य कहते हैं-
अमलात्मजलं समलं करोति मम कर्मकर्दमस्तदपि।
का भीति: सति निश्चितभेदकरज्ञानकतकफले।।२१।।
अर्थ —यद्यपि कर्मरूपी कीचड़ अत्यंत निर्मल भी मेरे आत्मरूपी जल को गदला करती है तो भी मुझे कोई भय नहीं क्योंकि निश्चय से स्वपर के भेद को करने वाला ज्ञानरूपी कतक (फिटकरी) फल मेरे पास मौजूद है।
भावार्थ — जिस प्रकार गदले जल में यदि फिटकरी छोड़ दी जावे तो वह फिटकरी शीघ्र ही उस जल में रही हुई कीचड़ को नष्ट कर देती है और जल को निर्मल बना देती है उसी प्रकार यद्यपि ज्ञानावरणादिकर्म आत्मा को मलिन कर रहे हैं तो भी स्वपर के भेदज्ञान से वह कर्मों से की हुई मलिनता पल भर में नष्ट हो जाती है इसलिये यदि मेरी आत्मा में स्वपर का भेदविज्ञान है तो चाहे जितना कर्म मेरी आत्मा को मलिन कर, मुझे किसी प्रकार का भय नहीं है, ऐसा भेदज्ञानी सदा विचार करता रहता है।।२१।।
और भी आचार्य कहते हैं-
अन्योहमन्यमेतच्छरीरमपि किं पुनर्न बहिरर्था:।
व्यभिचारी यत्र सुतस्तत्र किमरय: स्वकीया: स्यु:।।२२।।
अर्थ — मैं अन्य हूँ और यदि यह शरीर भी मुझसे अन्य है तो बाह्य जो स्त्री-पुत्र आदिक पदार्थ हैं वे तो मुझसे अवश्य ही भिन्न हैं क्योंकि यदि संसार में अपना पुत्र ही अनिष्ट का करने वाला हो जावे तो वैरी भी मेरे नहीं हो सकते अर्थात् वे तो अवश्य ही मेरे अनिष्ट के करने वाले होंगे ।
भावार्थ — संसार में सबसे स्वकीय (अपना) पुत्र समझा जाता है यदि वह भी मुझे दु:ख का देने वाला हो जावे और मेरे अनिष्टों का करने वाला हो जावे तो वैरी तो अवश्य ही अनिष्ट के करने वाले होंगे क्योंकि वे पहिले से ही स्वकीय (अपने) नहीं हैं उसी प्रकार संसार में सबसे अधिक अपना संबंधी शरीर है यदि वह भी आत्मा से भिन्न है तो स्त्री-पुत्र आदिक तो अवश्य ही भिन्न हैं ऐसा समझना चाहिये।।२२।।
और भी आचार्यवर आत्मा शरीर से जुदा है, इस बात को बताते हैं-
व्याधिस्तुदति शरीरं न माममूर्तं विशुद्धबोधमयम्।
अग्निर्दहति कुटीरं न कुटीरासक्तमाकाशम्।।२३।।
अर्थ — यदि झोंपड़ी में अग्नि लग जावे तो वह झोंपड़े में लगी हुई अग्नि झोंपड़े को ही जलाती है किन्तु उसके मध्य में रहे हुवे आकाश को नहीं, उसी प्रकार जो शरीर में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं वे रोग उस शरीर को ही नष्ट करते हैं किन्तु उस शरीर में रहे हुवे निर्मल ज्ञानमय आत्मा को नष्ट नहीं करते ।
भावार्थ — जिस प्रकार अमूर्तीक आकाश का मूर्तीक अग्नि कुछ भी नहीं कर सकती किन्तु वह मूर्तीक झोंपड़े को ही जलाकर नष्ट कर देती है उसी प्रकार आत्मा तो अमूर्तीक और निर्मलज्ञानमय है इसलिये मूर्तीक शरीर के धर्म जो रोग आदिक हैं वे इस आत्मा का कुछ भी नहीं कर सकते किन्तु वे शरीर के ही नाश करने वाले होते हैं इसलिये शरीर में रोग आदि के होने पर सज्जन पुरुषों को कभी भी नहीं डरना चाहिये।।२३।।
क्षुधा आदिक जो दु:ख हैं वे शरीर में ही होते हैं, इस बात को आचार्यवर वर्णन करते हैं-
वपुराश्रितमिदमखिलं क्षुधादिभिर्भवति किमपि यदसातम्।
नो निश्चयेन तन्मे यदहं बाधाविनिर्मुक्त:।।२४।।
अर्थ — भूख-प्यास आदि कारणों से जो दु:ख होता है, वह समस्त दु:ख मेरे शरीर में ही होता है और निश्चयनय से यह शरीर मेरा नहीं है क्योंकि मैं समस्त प्रकार की बाधाओं कर रहित हूँ।
भावार्थ — मैं तो निर्मलज्ञानस्वरूप हूँ और शरीर जड़ पदार्थ है इसलिये वह मुझसे भिन्न है यदि असाता वेदनीय कर्म के उदय से क्षुधा-तृषा आदि कारणों से दु:ख भी होवे, तो वह दु:ख शरीर में होता है, मुझे कोई दु:ख नहीं होता क्योंकि मैं समस्त प्रकार के दु:खों से रहित हूं।।२४।।
क्रोध-मान आदिक भी आत्मा के धर्म नहीं हैं, इस बात को आचार्य दिखाते हैं-
नैवात्मनो विकार: क्रोधादि : किन्तु कर्मसंबन्धात्।
स्फटिकमणेरिव रक्तत्वमाश्रितात्पुष्पतो रक्तात्।।२५।।
अर्थ — जिस प्रकार लाल फूल के आश्रय से स्फटिकमणि लाल हो जाती है उसी प्रकार आत्मा में कर्म के संबंध से क्रोध आदि विकार पैदा हो जाते हैं किन्तु वे क्रोधादि विकार आत्मा के विकार नहीं हैं।
भावार्थ — स्फटिकमणि स्वभाव से लाल नहीं है किन्तु उसका तो सफेद ही स्वभाव है परन्तु जिस समय उसके पास लाल फूल रख दिया जाता है तो उस लाल फूल के संबंध से वह भी लाल हो जाती है उसी प्रकार आत्मा स्वभाव से न तो क्रोधी है और न मानी-लोभी आदिक ही है किन्तु कर्मों के संबंध से वह क्रोधी-लोभी बन जाता है इसलिये क्रोध आदि विकार आत्मा के विकार नहीं हैं किन्तु कर्मों के ही विकार हैं।।२५।।
कर्मों से उत्पन्न हुवे विकल्प भी शुद्ध आत्मा में नहीं हैं, इस बात को आचार्य समझाते हैं-
कुर्यात् कर्म विकल्पं किं मम तेनातिशुद्धरूपस्य।
मुखसंयोगजविकृतेर्न विकारी दर्पणो भवति।।२६।।
अर्थ — मुख के संयोग से उत्पन्न हुवे विकार से अर्थात् मलिन मुख के संबंध से जिस प्रकार दर्पण मलिन नहीं होता उसी प्रकार कर्म चाहे कितने ही विकल्प क्यों न करे किन्तु अत्यंत शुद्धस्वरूप मुझ आत्मा का वे विकल्प कुछ नहीं कर सकते।
भावार्थ — जिस प्रकार मलिन मुख के संबंध से दर्पण मलिन नहीं होता, वह स्वच्छ ही बना रहता है उसी प्रकार कर्मों से पैदा हुवे नाना प्रकार के विकल्पों से मेरा आत्मा विकल्पी नहीं बन सकता, वह तो निर्मल ही रहेगा।।२६।।
और भी आचार्य इसी विषय में कहते हैं-
अस्तां बहिरुपाधिचयस्तनुवचनविकल्पजालमप्यपरम्।
कर्मकृतत्वान्मत्त: कुतो विशुद्धस्य मम किञ्चित्।।२७।।
अर्थ — बाह्य स्त्री-पुत्र आदि उपाधि तो दूर रही किन्तु शरीर-वचन और विकल्प भी मुझसे भिन्न हैं क्योंकि शरीर-वचन और विकल्प भी कर्म से किये गये हैं, मैं विशुद्ध हूँ इसलिये मेरा कुछ भी नहीं है।
भावार्थ — जो कुछ कर्मों द्वारा की हुई उपाधि हैं वे समस्त उपाधि मुझसे भिन्न ही हैं क्योंकि जिनसे अत्यंत घनिष्ठ संबंध है ऐसे शरीर-वचन आदिक भी जब मुझसे भिन्न हैं तो स्त्री-पुत्र आदिक सर्वथा भिन्न तो मेरी आत्मा से भिन्न ही हैं।।२७।।
कर्म तथा कर्मों से किये हुवे सुख-दु:खादिक भी भिन्न हैं, इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं-
कर्म परं तत्कार्यं सुखमसुखं वा तदेव परमेव।
तस्मिन् हर्षविषादौ मोही विदधाति खलु नान्य:।।२८।।
अर्थ-कर्म भी भिन्न हैं और कर्मों के जो सुख-दु:ख आदिकार्य हैं वे भी भिन्न हैं और उन कर्मों के सुख-दु:ख आदि कार्यों में निश्चय से मोही जीव ही हर्ष विषाद को करता है अन्य नहीं।
भावार्थ-जिस मनुष्य को हिताहित का विवेक नहीं है अर्थात् जो मोही है वह मनुष्य ज्ञानावरणादिकर्मोें को भी अपना मानता है और कर्मों के कार्य को भी अपना मानता है इसलिए जिस समय सातावेदनीय कर्म के उदय से कुछ सुख होता है उस समय हर्ष मानता है तथा असातावेदनीय कर्म के उदय से जिस समय दु:ख होता है उस समय विषाद को करता है अर्थात् दु:ख मानता है किन्तु जो मनुष्य बुद्धिमान है अर्थात् जिस मनुष्य को यह वस्तु मेरे हित को करने वाली है और यह वस्तु मेरे अहित को करने वाली है इस बात का ज्ञान है वह मनुष्य कर्म तथा कर्मों के कार्य को अपना नहीं मानता और सातावेदनीय कर्म के उदय से जिस प्रकार कुछ सुख होता है उस समय हर्ष नहीं मानता और जिस समय असातावेदनीय कर्म के उदय से दु:ख होता है उस समय व्िाषाद नहीं करता क्योंकि वह समझता है कि कर्म तथा कर्मों के जितने भर कार्य हैं वे सब जड़ हैं और मैं चेतन हूँ इसलिए वे मुझसे सर्वथा भिन्न हैं।।२८।।
मोक्ष का अभिलाषी पुरुष ही कुछ सुखी है इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं-
कर्र्म न यथा स्वरूप न तथा तत्कार्यकल्पनाजालम्।
तत्रात्म मतिविहीनो मुमुक्षुरात्मा सुखी भवति।।२९।।
अर्थ-जिस प्रकार कर्म आत्मा का स्वरूप नहीं है उसी प्रकार उस कर्म का जो सुख-दु:ख आदिकार्य, उनकी जो कल्पना, उनका समूह भी, आत्मा का स्वरूप नहीं है इसलिए उन कर्मों में तथा कर्म के कार्य जो सुख-दु:ख आदिक हैं उनमें, जो मोक्ष की इच्छा करने वाले वाला भव्यजीव आत्म बुद्धिकर रहित है अर्थात् उनको अपना नहीं मानता है वही आत्मा (भव्यजीव) संसार में सुखी है।
भावार्थ-जब तक जीव अपने से सर्वथा भिन्न जो कर्म तथा कर्मों के सुख-दु:ख आदि कार्य हैं उनको अपना मानता है तब तक उसको रंचमात्र भी सुख नहीं होता क्योंकि कर्म तथा कर्मों के कार्यों को अपनाने के कारण उसको संसार में भटकना पड़ता है और भटकने से उसको अनन्त नरकादि दु:खों का सामना करना पड़ता है किन्तु मोक्ष की इच्छा करने वाले भव्यजीव कर्म तथा कर्मों के कार्य को अपनाते नहीं है अत: उनको ही सुख की प्राप्ति होती है अर्थात् वे ही सुखी ोते हैं इसलिए मोक्षाभिलाषियों को चाहिए कि वे परपदार्थों में आत्मबुद्धिव न करें।।२९।।
और भी आचार्यवर कर्म की भिन्नता का वर्णन करते हैं-
कर्मकृतकार्यजाते कर्मैव विधौ तथा निषेधे च।
नाहमतिशुद्धबोधो विधूतविश्वोपधिर्नित्यम्।।३०।।
अर्थ-कर्म द्वारा किये हुए जो सुख दु:खरूप कार्य उन कार्यों के विधान में तथा निषेध में कर्म ही है अर्थात् कर्म ही कर्ता है किन्तु अत्यन्त निर्मलज्ञान का धारी मैं नहीं हूँ क्योंकि मैं सदा समस्त प्रकार की, कर्मों से पैदा हुई जो उपाधियाँ उनसे रहित हूँ।
भावार्थ-कर्म के द्वारा जो रोग, द्वेष, सुख, दु:ख, आदिकार्य होते हैं उन समस्त कार्यों का कर्ता, कर्म ही है किन्तु मेरी आत्मा उन सुख-दु:ख आदि कार्यों का कर्ता नहीं है क्योंकि मेरी आत्मा अत्यन्त शुद्धज्ञान का धारी है और सदा समस्त प्रकार की जो कर्मजनित उपाधियाँ हैं उन उपाधियों से रहित हैं।।३०।।
बाह्यविकारों को भी मोही जीव सदा आत्म्स्वरूप ही मानता है इस बात को आचाचर्यवर दिखाते हैं-
बाह्यायामपि विकृतौ मोही जागर्ति सर्वदात्मेति।
किं नोपभुक्तहेमो हेमग्रावाणमपि मनुते।।३१।।
अर्थ — जो मनुष्य धतूरे को खा लेता है उस मनुष्य को जिस प्रकार पत्थर भी सोना मालूम पड़ता है उसी प्रकार जो मनुष्य मोही है अर्थात् जिस मनुष्य को हिताहित का ज्ञान नहीं है, वह मनुष्य बाह्य-स्त्री पुत्र आदि विकृति को आत्मा ही मानता है ।
भावार्थ — धूलि-मिट्टीपत्थर आदिक पदार्थ यद्यपि सुवर्ण नहीं हैं किन्तु जिस मनुष्य ने धतूरा पी लिया है उसको वे सुवर्ण ही मालूम पड़ते हैं उसी प्रकार यद्यपि निश्चयनय से स्त्री-पुत्र-धन-धान्य आदि पदार्थ जड़ पदार्थ हैं इसलिये अपने नहीं हैं तो भी जिन मनुष्यों की आत्मा पर प्रबल मोहरूपी पर्दा पड़ा हुवा है उनको वे सब विपरीत ही सूझते हैं अर्थात् मोही मनुष्य उन सबको अपना ही मानता है।।३१।।
मोक्ष की इच्छा करने वाला मनुष्य इस बात का विचार करता रहता है-
सति द्वितीये चिन्ता कर्म ततस्तेन वर्तते जन्म।
एकोऽस्मि सकलचिन्तारहितोऽस्मि मुमुक्षुरिति नियतम्।।३२।।
अर्थ — द्वितीय वस्तु के होते सन्ते तो िंचता होती है और चिन्ता से कर्मों का आगमन होता है और कर्मों से जन्म होता है इसलिये निश्चय से मोक्ष की इच्छा करने वाला मैं अकेला हूँ तथा समस्त प्रकार की चिंताओं से रहित हूँ।
भावार्थ — यह नियम है कि संसार में जो जीव दु:खित हैं वे कर्मों से बंधे हुए हैं इसीलिये दु:खित हैं और आत्मा के साथ जो कर्मों का बंध है, वह चिंता से है और वह चिंता द्वितीय पदार्थों के होते सन्ते ही होती है इसीलिये मोक्षाभिलाषी ऐसा विचार करता रहता है कि निश्चय से मैं अकेला हूँ और समस्त प्रकार की चिंताओं से रहित हूँ।।३२।।
और भी मोक्षाभिलाषी इस प्रकार विचार करता रहता है-
यादृश्यपि तादृश्यपि परतश्चिंता करोति खलु बन्धम्।
किं मम तया मुमुक्षो: परेण किं सर्वदैकस्य।।३३।।
अर्थ — चिंता जिस—जिस प्रकार की होती है उस—उस प्रकार की वह समस्त चिंता बंध को ही करने वाली होती है, मैं तो मोक्ष की इच्छा करने वाला हूँ इसलिये मुझे उस चिंता से क्या प्रयोजन है? और मै तो सदा एक हूँ इसलिये मुझे दूसरे पदार्थों से भी क्या प्रयोजन है?
भावार्थ — चिंता दो प्रकार की है-एक तो शुभ चिंता दूसरी अशुभ चिंता, उनमें शुभचिंता तो उसे कहते हैं जो शुभपदार्थों की चिंता की जाय, जिस प्रकार तीर्थंकर के आसन आकार आदिक की और अशुभचिंता उसे कहते हैं जो अशुभ पदार्थों की चिंता की जाय, जिस प्रकार स्त्री-पुत्र आदिक की चिंता किन्तु ये दोनों ही चिंता बंध की ही कारण हैं क्योंकि शुभचिंता के करने से शुभकर्मों का बंध होता है और अशुभचिंता के करने से अशुभ कर्मों का बंध होता है और पीछे संसार में भटकना पड़ता है इसलिये मोक्षाभिलाषी ऐसा विचार करता है कि मैं मुमुक्षु हूँ इसलिये मुझे चिंता से क्या प्रयोजन है? और मैं सदा अकेला हूँ इसलिये मुझे पर स्त्री-पुत्र-मित्र आदिक पदार्थ हैं, उन पदार्थों से भी क्या प्रयोजन है?।।३३।।
मोक्षाभिलाषियों व्ाâो समस्त प्रकार की चिंताओं का त्याग कर देना चाहिये, इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं-
मयि चेत: परजातं तच्च परं कर्मविकृतिहेतुरत:।
किं तेन निर्विकार: केवलमहममलबोधात्मा।।३४।।
अर्थ —मेरी आत्मा में जो मन है, वह मुझसे भिन्न है क्योंकि वह परपदार्थ से उत्पन्न हुआ है और जिससे मन उत्पन्न हुआ है ऐसा वह कर्म भी मुझसे भिन्न है क्योंकि वह विकार का करने वाला है और मैं तो निश्चय से विकार रहित हूँ और निर्मलज्ञान का धारी हूँ।
भावार्थ —यदि मन पर न होता और कर्म, विकारों के करने वाले न होते, तब तो मैं उनको अपना मानता किन्तु मन तो मुझसे सर्वथा पर है क्योंकि वह जड़ कर्म से पैदा हुआ है और कर्म मुझे विकृत करने वाला है अर्थात् मेरे ज्ञानादिगुणों का घात करने वाला है इसलिये मैं उन दोनों को अपना वैâसे मानूँ ? इसलिये मैं तो विकार रहित हूँ तथा निर्मलज्ञान का धारी घात करने वाला है इसलिये मैं उन दोनों को अपना वैâसे मानूँ ? इसलिये मैं तो विकार रहित हूँ तथा निर्मलज्ञान का धारी हूूँ अर्थात् निर्मल ज्ञानस्वरूप हूूँ।।३४।।
मोक्षाभिलाषियों को समस्त प्रकार की चिताओं का त्याग कर देना चाहिये, इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं-
त्याज्या सर्वा चिन्तेतिबुद्धिराविष्करोति तत्तत्त्वम्।
चन्द्रोदयायते यच्चैतन्यमहोदधौ झटिति।।३५।।
अर्थ —समस्त प्रकार की चिंता त्यागने योग्य है जिस समय इस प्रकार की बुद्धि होती है, उस समय वह बुद्धि उस तत्त्व को प्रकट करता है कि जो तत्त्व चैतन्यरूपी प्रबल समुद्र में शीघ्र ही चंद्रमा के समान आचरण करता है।
भावार्थ —जिस प्रकार चंद्रमा के उदय होने पर समुद्र वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार समस्त चिंताएँ त्यागने योग्य हैं इस प्रकार बुद्धि भी उस तत्त्व को प्रकट करती है कि जिस तत्त्व की प्रकटता से चैतन्यतत्त्व सदा बढ़ता ही चला जाता है इसलिये मोक्षाभिलाषियों को अवश्य ही समस्त चिंताओं का त्याग कर देना चाहिये।।३५।।
और भी आचार्यवर चैतन्य के स्वरूप को वर्णन करते हैं-
चैतन्यमसम्पृक्तं कर्मविकारेण यत्तदेवाहम्।
तस्य च संसृतिजन्म प्रभृति न किंचित्कुतश्चिंता।।३६।।
अर्थ —जो चैतन्य, कर्मों के विकारों से अलिप्त है वही चैतन्य मैं हूँ और उस चैतन्य के संसार में जन्म मरण आदिक कुछ भी नहीं हैं फिर किससे चिंता करनी चाहिये?
भावार्थ —यदि चैतन्य में जन्म-मरण आदिक होते तो चिंता होती किन्तु चैतन्य में तो न जन्म है और न मरण है और वह चैतन्य रागद्वेष आदिक जो कर्मों के विकार हैं उनसे अलिप्त है और उसी चैतन्यस्वरूप मैं हूँ इसलिये मुझे चिंता नहीं करनी चाहिये।।३६।।
मन को वश में रखना चाहिये, इस बात को आचार्य दिखलाते हैं-
चित्तेन कर्मणा त्वं बद्धो यदि बध्यते तया तदत:।
प्रतिवन्दीकृतमात्मन् मोचयति त्वां न सन्देह:।।३७।।
अर्थ —अरे आत्मा! तू इस मन की कृपा से कर्मों से बंधा हुआ है यदि तू इस मन को बांध लेवे अर्थात् मन को वश में कर लेवे तो इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं कि बंधा हुवा तू छूट जावेगा।
भावार्थ —आचार्य उपदेश देते हैं कि तेरा सबसे अधिक वैरी मन है क्योंकि जब तक यह मन वश में नहीं होता, तब तक इसी की कृपा से नाना प्रकार के कर्म आते हैं और तुझे बाँधते हैं और इसी की कृपा से तू इस समय भी कर्मों से बंधा हुआ है यदि अब भी इसको वश में कर ले, तो कर्मों से तू बंध नहीं सकता इसमें कुछ भी संदेह नहीं, इसलिये तुझे मन को अवश्य ही बाँधना चाहिये।।३७।।
मन को इस रीति से समझाना चाहिये—
नृत्वतरोर्विषयसुखच्छायालाभेन किं मन:पान्थ।
भवदु:खक्षुत्पीडित ? तुष्टोऽसि गृहाण फलममृतम्।।३८।।
अर्थ —‘‘संसार का दु:खरूप जो क्षुधा, उससे दु:खित हुआ अरे मनरूपी बटोही!’’ तू क्यों मनुष्यरूपी वृक्ष से विषय सुखरूपी छाया के लाभ से संतुष्ट है, अमृत फल को ग्रहण कर ।
भावार्थ —जिस प्रकार कोई रस्तागीर अत्यंत बुभुक्षित होकर वृक्ष के नीचे बैठे और उस वृक्ष पर लगे हुए फल खाने का प्रयत्न न करता हो तो कोई हितैषी मनुष्य वहां आकर उसको इस रीति से समझावे कि अरे भाई! तू इस वृक्ष की छायामात्र के लाभ से क्यों संतुष्ट हो रहा है इस वृक्ष पर से उत्तम फलों को तोड़कर उनको खा, जिससे तेरी भूख की शान्ति होवे उसी प्रकार आत्मा मन को समझाता है कि अरे मन! तू संसार के दु:खों से पीड़ित हुआ इस मनुष्य जन्म में इन्द्रियों के विषयों के लाभ से ही क्यों वृथा संतुष्ट हो रहा है ? अरे! इस मनुष्य जन्म से ही प्राप्त होने वाले अमृतरूपी फल को प्राप्त होने वाले अमृतरूपी फल को प्राप्त कर अर्थात् जिसमें किसी प्रकार का न तो जन्म है और न मरण है, ऐसे उस मोक्षपद की ओर दृष्टि लगा क्योंकि विषयों के लाभ से सन्तुष्ट होकर तू संसार में ही भटकेगा और नाना प्रकार के दु:खों को उठावेगा, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है।।३८।।
मुनियों का चित्त निरालम्बमार्ग का ही अवलम्बन करता है, इस बात को आचार्य समझाते हैं-
स्वान्तं ध्वान्तमशेषं दोषोज्झितमर्कबिम्बमिव मार्गे।
विनिहन्ति निरालम्बे संचरदनिशं मुनीशानाम्।।३९।।
अर्थ —समस्त दोषों कर रहित सूर्य के प्रतिबिम्ब के समान मुनीश्वरों का मन निरालम्बमार्ग में ही गमन करता है तथा निरालम्बमार्ग में गमन करने के कारण वह समस्त अंधकार को दूर कर देता है।
भावार्थ —जिस प्रकार सूर्य आकाश में गमन करता है और जब वह बादलों के समूह से ढका नहीं जाता तथा राहु से ग्रसा नहीं जाता, उस समय वह समस्त अंधकार को नाश कर देता है उसी प्रकार मुनियों का चित्त जिस समय समस्त दोषों कर रहित होता है तथा जिसमें कोई अवलम्बन नहीं, ऐसे मार्ग में अर्थात् निर्विकल्प मार्ग में गमन करता है उस समय वह मुनियों का चित्त भी समस्त अज्ञानादि अंधकार को दूर कर देता है।।३९।।
अपने चैतन्यस्वरूप को देखने वाला योगी सिद्ध होता है, इस बात को आचार्य समझाते हैं-
संविच्छिखिना गलिते तनुमूषाकर्ममदनमयवपुषि।
स्वमिव स्वं चिद्रूपं पश्यन् योगी भवति सिद्ध:।।४०।।
अर्थ —सम्यग्ज्ञानरूपी जो अग्नि, उससे जिस समय शरीररूपी जो मूषा, उसमें जो कर्मरूपी मोमस्वरूप शरीर, वह पिघलकर निकल जाता है, उस समय जो योगी आकाश के समान अपने चैतन्यरूप को देखता है, वही योगी सिद्ध होता है।
भावार्थ —एक मिट्टी का मनुष्याकार पात्र बनाया जाय तथा उसके भीतर मोम भर दिया जाय और पीछे वह आंच से तपा दिया जाय, उस समय जिस प्रकार उस मोम के निकल जाने पर उस मूषा में मनुष्याकार आकाश के प्रदेश रह जाते हैं उसी प्रकार यह शरीर तो मूषा है और कर्म मोम है और सम्यग्ज्ञानरूपी अग्नि है इनमें से जिस समय सम्यग्ज्ञानरूपी अग्नि से कर्म सर्वथा नष्ट कर दिये जाते हैं उस समय जो कुछ उस शरीर के भीतर अमूर्तीक प्रदेश रह जाते हैं वे आत्मा के प्रदेश हैं अर्थात् उन्हीं का नाम आत्मा है इसलिये जो मनुष्य उस आत्मा का ध्यान करते हैं, वे सिद्धपद को प्राप्त होते हैं अर्थात् उनको नरक आदि गतियों में भ्रमण नहीं करना पड़ता।
सारार्थ —जो भव्यजीव समस्त कर्मोंकर रहित चैतन्यस्वरूप उन सिद्धों का ध्यान करते हैं, उनको सिद्धपद की प्राप्ति होती है।।४०।।
मैं ही चैतन्यस्वरूप हूँ, इस बात को आचार्य दिखाते हैं-
अहमेव चित्स्वरूपश्चिद्रूपस्याश्रयो मम स एव।
नान्यत्किमपि जडत्वात्प्रीति: सदृशेषु कल्याणी।।४१।।
अर्थ —मैं ही चैतन्यस्वरूप हूँ और मेरे चैतन्यस्वरूप का आश्रय वह चैतन्य से भिन्न वस्तु चैतन्यस्वरूप नहीं है और न चैतन्य से भिन्नवस्तु मेरे चैतन्य की आश्रय हैं क्योंकि वे जड़ हैं मेरी प्रीति उनमें नहीं हो सकती, प्रीति समान पदार्थों में ही कल्याण की करने वाली होती है।
भावार्थ-जिस प्रकार अग्नि का लक्षण उष्णता है वह कदापि अग्नि से जुदा नहीं रह सकता, उसी प्रकार आत्मा का लक्षण ज्ञान है और वह कदापि आत्मा से जुदा नहीं रह सकता इसलिए वह ज्ञानस्वयप मैं हूँ और मेरे चैतनयस्वरूप का आश्रय ज्ञानादिस्वरूप चैतन्य ही है किन्तु चैतन्य से भिन्न अर्थात् जिनमें चेतनता नहीं रहती है ऐसे पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश आदि पदार्थों में मेरी प्रीति भी नहीं हो सकती क्योंकि वे मेरे समान जातीय नहीं हैं, मेरे समान जातीय तो चैतन्य ही है इसलिए मेरी प्रीति उसी में ही है और चैतन्य में की हुई प्रीति ही मुझे सुख को दे सकती है और देती है।।४१।।
स्व पर के विवेक से ही आत्मा पर को छोड़कर शुद्ध होता है, ऐसा आचार्य प्रवर दिखाते हैं-
स्वपर विभागावगमे जाते सम्यक् परे परित्यक्ते।
१सजहबोधैकरूपे तिष्ठत्यात्मा स्वयं शुद्ध:।।४२।।
अर्थ-जिस समय आत्मा में स्वपर के विभाग का ज्ञान हो जाता है और त्यागने योग्य जो वस्तु उनका त्याग हो जाता है उस समय स्वाभाविक निर्मलज्ञान स्वरूप जो अपना रूप है उसमें आत्मा ठहरता है और पीछे स्वयं शुद्ध हो जाता है।
भावार्थ — यह वस्तु मेरी है और यह वस्तु मेरी नहीं है, जब तक इस प्रकार का स्वपर का विवेक आत्मा में नहीं होता है और जब तक आत्मा परपदार्थों को नहीं छोड़ता है, तब तक आत्मा बाह्य पदार्थों में ही घूमा करता है और स्वरूप में कभी भी स्थिर नहीं रहता इसीलिये शुद्ध भी नहीं होता किन्तु जिस समय ज्ञान, दर्शन आदिक मेरे हैं और रूप, रस आदिक मेरे नहीं हैं इस प्रकार का आत्मा में विवेकज्ञान हो जाता है और रूप, रस आदिक जो पर हैं उनसे वह जुदा हो जाता है उस समय वह स्वाभाविक निर्मलज्ञानरूप अपने स्वरूप में स्थिर हो जाता है और अत्यंत शुद्ध हो जाता है।।४२।।
इसी श्लोक के आशय को लेकर समयसार में भी कहा है-
चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतो: कृत्वा विभागं द्वयोरन्तर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च।
भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिता: शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युता:।।४२।।
अर्थ —चैतन्यरूपता और जड़रूपता को धारण करने वाले अर्थात् चेतन और जड़ जो आत्मा और शरीर हैं, उनके विभाग करके (उनको जुदी-जुदी रीति से जानकर) और अच्छी तरह अंतरंग से ज्ञान के तथा राग विभाग को करके ‘‘अर्थात् ज्ञान आत्मा का धर्म है तथा राग शरीर का धर्म है ‘‘इस बात को भलीभाँति जानकर’’ यह निर्मल भेदज्ञान उत्पन्न होता है इस समय मोक्षाभिलाषी जो भव्य जीव हैं, वे शुद्ध जो ज्ञान वही है धन का समूह जिसके, उसको अर्थात् आत्मा को प्राप्त होकर और पर पदार्थों के संबंध से रहित होकर चिरकाल तक आनंद से रहो।
भावार्थ —स्व तथा पर के विभाग से आत्मा शुद्ध होता है इसलिये भव्यजीवों को स्वपर विभाग की ओर अवश्य लक्ष्य देना चाहिये।।४२।।
निश्चयकर आत्मा हेयोपादेय के विभाग से भी रहित है, इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं-
हेयोपादेयविभागभावना कथ्यमानमपि तत्त्वम्।
हेयोपादेयविभागभावनावर्जितं विद्धि।।४३।।
अर्थ —जो तत्त्व हेय तथा उपादेय की भावना कर रहित कहा गया है, वह तत्त्व भी निश्चित से हेय तथा उपादेय की भावना कर रहित ही है, ऐसा समझो।
भावार्थ —जड़रूप जो परतत्त्व है वह तो हेय है और चैतन्यरूप जो स्वतत्त्व है, वह उपादेय है इस प्रकार स्वपर विभाग की भावना से जो चैतन्यतत्त्व का वर्णन किया गया है, वह तत्त्व भी वास्तविक रीति से हेय तथा उपादेय की भावना कर रहित ही है क्योंकि जिस समय शुद्ध निश्चयनय का आश्रयण किया जाता है, उस समय निर्विकल्पक अवस्था होती है तथा उस अवस्था में हेय-उपादेय आदिक कोई भी किसी प्रकार का विकल्प नहीं होता।।४३।।
शुद्धात्मतत्त्व मन के गोचर नहीं है, इस बात को भी आचार्य बतलाते हैं-
प्रतिपद्यमानमपि च श्रुतादिशुद्धं परात्मनस्तत्त्वम्।
उररीकरोतु चेतस्तदपि न तच्चेतसो गम्यम्।।४४।।
अर्थ — शास्त्र के द्वारा भलीभाँति कहे हुये भी अत्यन्त विशुद्ध परमात्म तत्त्व को चाहे मन स्वीकार करो तो भी वह मन के गम्य नहीं है अर्थात् मन उसको नहीं जान सकता है ।
भावार्थ —यद्यपि शास्त्र ने उस अत्यंत शुद्ध परमात्मा के स्वरूप का भलीभाँति वर्णन किया है और उस परमात्म तत्त्व को मन ने स्वीकार भी कर लिया है तो भी वह मन के गोचर नहीं है अर्थात् मन उसको भलीभाँति जान नहीं सकता क्योंकि मन सविकल्पक है तथा आत्मा निर्विकल्पक है इसलिये मन उसको वैâसे जान सकता है ?।।४४।।
अद्वैतभावना से मोक्ष होती है, इस बात को आचार्य वर्णन करते हैं-
अहमेकाक्यद्वैतं द्वैतमहं कर्मकलित इति बुद्धे:।
आद्यमनपायि मुक्तेरद्विविकल्पं भवस्य परम्।।४५।।
अर्थ —मैं अकेला हूँ इस प्रकार की जो बुद्धि है, वह तो अद्वैत बुद्धि है और कर्मोंकर सहित हूँ इस प्रकार की जो बुद्धि है, वह द्वैत बुद्धि है, इन दोनों बुद्धियों में आदि की जो अविनाशी अद्वैत बुद्धि है, वह तो मोक्ष की कारण है और दूसरी जो द्वैतबुद्धि है, वह संसार की कारण है।
भावार्थ —जब तक मैं तथा अन्य, इस प्रकार का द्वैतभाव रहता है, तब तक जीव को संसार में डालना पड़ता है किन्तु जिस समय में यह द्वैतभाव नष्ट हो जाता है अर्थात् अद्वैतभाव हो जाता है उसी समय जीव मोक्ष को प्राप्त होता है क्योंकि मैं तथा तू इत्यादिविकल्प रहित निर्विकल्पक अवस्था ही का तो नाम मोक्ष है इसलिये मोक्षाभिलाषी भव्यजीवों को चाहिये कि वे मैं अकेला ही हूँ इस प्रकार के अद्वैतभाव का ही चिंतवन करें।।४५।।
द्वैत तथा अद्वैतभाव से रहितपना ही मोक्ष है, इस बात को आचार्य बतलाते हैं-
बद्धो मुक्तोऽहमथ द्वैते सति जायते ननु द्वैतम्।
मोक्षायेत्युभयमनोविकल्परहितो भवति मुक्त:।।४६।।
अर्थ —मैं बंधा हुवा हूँ तथा मैं मुक्त हूँ इस प्रकार के द्वैत के होते सन्ते निश्चय से द्वैत होता है और इस प्रकार के दोनों विकल्पों से रहित जीव मुक्त होता है।
भावार्थ —द्वैत तथा अद्वैत का जिस समय सर्वथा त्याग हो जाता है उसी समय मुक्ति होती है इसलिये जो जीव मुक्त होना चाहते हैं, उनको दोनों प्रकार के विकल्पों के त्याग करने का प्रयत्न करना चाहिये।।४६।।
निर्विकल्पचित्त से परमानंद की प्राप्ति होती है, इस बात का आचार्यवर वर्णन करते हैं-
गतभाविभवद्भावाभावप्रतिभावभावितं चित्तम्।
अभ्यासाच्चिद्रूपं परमानन्दान्वितं कुरुते।।४७।।
अर्थ —भूत-भविष्यत-वर्तमानकाल के जो पदार्थ, उनकी भावना से भाया हुवा जो चित्त है, वह अभ्यास से चैतन्यरूप को परमानंदकर सहित करता है।
भावार्थ —भूत-भविष्यत-वर्तमान जो विकल्प, उनसे रहित भाया हुवा जो चित्त, वह चैतन्य को परमानंद कर युक्त करता है अर्थात् उस प्रकार की भावना से चित्त अत्यंत आनंदित हो जाता है ।।४७।।
जो मनुष्य जिस रीति से आत्मा को देखता है, उसको उसी प्रकार के आत्मा की प्राप्ति होती है, इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं-
बद्धं पश्यन् बद्धो मुक्तं मुक्तो भवेत् सदात्मानं।
याति यदीयेन पथा तदेव पुरमश्नुते पान्थ:।।४८।।
अर्थ —जिस प्रकार जो रस्तागीर, जिस पुर के मार्ग से गमन करता है, वह उसी पुर को प्राप्त होता है उसी प्रकार जो जीव आत्मा को सदा बंधा हुवा देखता है, वह कर्मों से बद्ध ही रहता है और जो पुरुष आत्मा को सदा कर्मों से रहित देखता है, वह मुक्त ही होता है।
भावार्थ —जिस प्रकार जो मनुष्य जिस नगर के मार्ग से गमन करता है, वह उसी नगर में पहुँचता है उसी प्रकार जो मनुष्य जिस प्रकार के आत्मा का आराधन करता है, वह उसी प्रकार के आत्मस्वरूप को प्राप्त होता है अर्थात् यदि वह आत्मा की भावना करने वाला कर्मों से बद्ध आत्मा का ध्यान करेगा तो उसकी आत्मा कर्मों से बद्ध ही रहेगी और यदि वह कर्मों से मुक्त आत्मा का ध्यान करेगा तो उसकी आत्मा मुक्त ही होवेगी।।४८।।
मन को इस रीति से शिक्षा देनी चाहिये-
मागा बहिरन्तर्वा साम्यसुधापानवर्द्धितानन्द।
आस्व यथैव तथैव च विकारपरिवर्जित: सततम्।।४९।।
अर्थ —समतारूपी जो अमृत, उसके पीने से बढ़ा है आनंद जिसको, ऐसा हे मन! तू बाहर तथा भीतर मत गमन कर और जिस रीति से तू समस्त प्रकार के विकारों से रहित हो, उसी प्रकार से रह।
भावार्थ —जब तक मन जहाँ-तहाँ घूमता फिरता है, तब तक साम्यभाव का अनुभव नहीं कर सकता और नाना प्रकार के विकारों से विकृत हो जाता है किन्तु जिस समय उसका जहाँ-तहाँ घूमना बंद हो जाता है उस समय वह समता का अनुभव करता है तथा विकारों से विकृत भी नहीं होता इसलिये आचार्यवर इस बात को समझाते हैं कि भव्यजीवों को मन को इस रीति से शिक्षा देनी चाहिये कि हे समतारूपी अमृत के पान से अत्यंत आनंदित मन! तू बाहर तथा भीतर कहीं भी मत घूमे और जिस प्रकार से बने, उस प्रकार से तू समस्त विकाररहित ही रह।।४९।।
तज्जयति यत्र लब्धे श्रुतभुवि मत्यापगातिधावन्ती।
व्यावृत्ता दूरादपि झटिति स्वस्थानमाश्रयति।।५०।।
अर्थ —जिस चैतन्यरूप तत्त्व के प्राप्त होने पर शास्त्ररूपी भूमि में अत्यंत दौड़ती हुई बुद्धिरूपी नदी दूर से ही लौट कर शीघ्र ही अपने स्थान को प्राप्त हो जाती है ऐसा वह चैतन्यरूपीतत्त्व सदा इस लोक में जयवंत है।
भावार्थ —जब तक बुद्धि शास्त्र में लगी रहती है, तब तक कदापि उस चैतन्यतत्त्व (परमात्मतत्त्व) की प्राप्ति नहीं होती किन्तु जिस समय चैतन्य की प्राप्ति होने पर बुद्धि शास्त्र से व्यावृत्त हो जाती है अर्थात् शास्त्र से फिर जाती है उस समय बुद्धि शीघ्र ही अपने चैतन्यस्वरूप को प्राप्त होती है इसलिये वह चैतन्यरूपीतत्त्व सदा इस लोक में जयवंत है।।५०।।
और भी आचार्यवर उपदेश देते हैं-
तन्नमत गृहीताखिलकालत्रयजगत्त्रयव्याप्ति।
यत्रास्तमेति सहसा सकलोऽपि हि वाक्परिस्पन्द:।।५१।।
अर्थ —ग्रहण की है तीनों कालों में तीनों जगत की व्याप्ति जिसने तथा जिसके होते संते समस्त वाणी का परिस्पन्द शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, उस चैतन्य को नमस्कार करो।
भावार्थ —जो चैतन्य तीनों कालों में, तीनों जगत में व्याप रहा है और जिस चैतन्य का वाणी से सर्वथा वर्णन नहीं कर सकते, उस चैतन्यरूपी तेज को नमस्कार करो।।५१।।
तन्नमत वनिष्टाखिलविकल्पजालद्रुमाणि परिकलिते।
यत्र वहन्ति विदग्धा दग्धवनानीव हृदयानि।।५२।।
अर्थ —उस चैतन्यरूप को नमस्कार करो जिस चैतन्यरूप की प्राप्ति के होने पर मुनिगण, सर्वथा नष्ट हो गये हैं विकल्परूपी वृक्ष जिनसे, ऐसे हृदयों को जले हुवे वनों के मानिन्द धारण करते हैं ।
भावार्थ —जब तक मनुष्यों के चित्त में नाना प्रकार के विकल्प लगे रहते हैं, तब तक मनुष्यों को कभी भी सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती किन्तु जिस चैतन्य के होते सन्ते मनुष्यों के मन के समस्त विकल्प नष्ट हो जाते हैं ऐसे उस चैतन्यतत्त्व को नमस्कार करो।।५२।।
जिस समय समस्तनयों का पक्षपात नष्ट हो जाता है उस समय समयसार की प्राप्ति है, इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं-
बद्धो वा मुक्तो वा चिद्रूपो नयविचारविधिरेष:।
सर्वनयपक्षरहितो भवति हि साक्षात्समयसार:।।५३।।
अर्थ — चैतन्यस्वरूप आत्मा कर्मों से बँधा हुवा है तथा कर्मों से रहित भी है, यह नयविचार की विधि है और समस्त नयों के पक्ष से रहित होने पर ही निश्चय से समयसार होता है।
भावार्थ —समयसार नाम शुद्धात्मा का है, उस शुद्धात्मा की प्राप्ति उसी समय होती है, जिस समय समस्त निश्चय तथा व्यवहारनय का पक्षपात दूर हो जाता है किन्तु जब तक व्यवहारनय से आत्मा बंधा हुवा है तथा निश्चयनय से आत्मा मुक्त है इस प्रकार का नय का पक्षपात रहता है, तब तक उस समयसार शुद्धात्मा की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती इसलिये शुद्धात्मा की प्राप्ति के इच्छुकों को नयों के पक्षपात कर रहित ही रहना चाहिये।।५३।।
नाटक समयसार में भी कहा है-
एकस्य बद्धो न तथा परस्य चितिद्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।।१।।
अर्थ —व्यवहारनय से तो आत्मा कर्मों से बंधा हुवा है और निश्चयनय से आत्मा मुक्त है, इस प्रकार इन दोनों प्रकार की आत्माओं में दोनों प्रकार के पक्षपात हैं, जो मनुष्य वास्तविक तत्त्व का जानने वाला है और समस्त प्रकार के नयों के पक्षपातों से रहित है, उसका चैतन्य है सो निश्चय करके चैतन्य ही है।।१।।
और भी कहा है-
अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पैरयमिव परमार्थ: सेव्यतां नित्यमेव।
स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रान्न खलु समयसारादुत्तरं किञ्चिदस्ति।।२।।
अर्थ —नाना प्रकार के जो खोटे—खोटे विकल्प उनके अत्यंत कहने से पूर्ण हो पूर्ण हो सदा इस परमार्थ परमात्मा की ही सेवा करो क्योंकि अपना रस जो विसर अर्थात् पैâलाव उससे परिपूर्ण जो ज्ञान उसकी है केवल प्रकटता जिसमें ऐसे समय सार से उत्कृष्ट, यहां पर कोई भी वस्तु नहीं है अर्थात् समय सार ही उत्कृष्ट वस्तु हैं।।२।।
आत्मा नय-प्रमाण-निक्षेप आदि विकल्पों से भी रहित है, इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं–
नयनिक्षेपप्रमितिप्रभृतिविकल्पोज्भितं परं शान्तम्।
शुद्धानुभूतिगोचरमहमेकं धाम चिद्रूपम्।।५४।।
अर्थ —जिसमें नय-निक्षेप-प्रमिति आदि किसी प्रकार के विकल्प नहीं हैं और जो उत्कृष्ट है तथा शांत है और शुद्धानुभव के गोचर है तथा एक है वह चैतन्यरूपी तेज मैं ही हूँ।
भावार्थ —न तो मुझमें द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकस्वरूप नय का विकल्प है और न प्रत्यक्ष-परोक्षरूप प्रमाण का विकल्प है तथा नाम-स्थापना आदि निक्षेप का विकल्प भी मुझमें नहीं है और मैं उत्कृष्ट हूँ तथा शांत हूँ तथा शुद्धानुभव के गोचर हूूँ और चैतन्यस्वरूप तेज हूँ।।५४।।
समयसार में भी कहा है-
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम्।
किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव।।१।।
अर्थ —सबको कषने वाले इस चैतन्यरूपी तेज के अनुभव होने पर द्रव्यार्थिक नय भी उदय को प्राप्त नहीं होते तथा प्रत्यक्ष तथा परोक्षप्रमाण अस्त हो जाते हैं और नाम-स्थापना-द्रव्य-भावरूपी निक्षेप न जाने कहाँ चला जाते हैं और अधिक कहाँ तक कहा जावे, द्वैत भी दृष्टिगोचर नहीं होता।।१।।
चैतन्यरूप के जानने पर सब जाना जाता है तथा चैतन्यरूप के देखने पर देखा जाता है, इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं।
ज्ञाते ज्ञातमशेषं दृष्टे दृष्टं च शुद्धाचिद्रूपे।
निश्शेषबोध्यविषयौ दृग्बोधौ यन्न तद्भिन्नौ।।५५।।
अर्थ —जिस चैतन्यस्वरूप तेज के जानने पर तो समस्त वस्तु जानी जाती है और देखने पर समस्त वस्तु देखी जाती हैं क्योंकि समस्त जो ज्ञेयपदार्थ वे हैं विषय जिनके, ऐसे जो दर्शन और ज्ञान हैं, वे आत्मस्वरूप ही हैं आत्मा से भिन्न नहीं हैं।।५५।।
जब तक आत्मा का वर्णन नहीं होता, तब तक अन्य पदार्थों में प्रीति होती है किन्तु जिस समय आत्मा का दर्शन हो जाता है, उस समय बाह्यपदार्थों में प्रीति नहीं होती, इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं-
भावे मनोहरेऽपि च काचिन्नियता च जायते प्रीति:।
अपि सर्वा: परमात्मनि दृष्टे तु स्वयं समाप्यन्ते।।५६।।
अर्थ —अत्यंतमनोहर भी पदार्थ में कोई विचित्र तथा निश्चितप्रीति हो जाती है किन्तु जिस समय परमात्मा का दर्शन हो जाता है, उस समय उन अन्य पदार्थों में प्रीति की समाप्ति हो जाती है।
भावार्थ —जब तक मनुष्य परमात्मा को नहीं देखता, तभी तक उस मनुष्य को बाह्य पदार्थ प्रीति के करने वाले होते हैं, बाह्य पदार्थों को अंशमात्र भी प्रिय नहीं मानता है किन्तु जिस समय उसको परमात्मा दर्शन हो जाता है, उस समय वह बाह्य पदार्थों को अंशमात्र भी प्रिय नहीं मानता, अप्रिय ही मानता है।।५६।।
बुद्धिमान् पुरुषों के आत्मा के साथ विद्यमान भी कर्मों का संबंध अविद्यमान सरीखा ही है, इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं-
सन्नप्यसन्निव विदां जनसामान्योऽपि कर्मणो योग:।
तरणपटूनामृद्ध: पथिकानामिव सरित्पूर:।।५७।।
अर्थ —यद्यपि कर्मों का संबंध सब प्राणियों के समान है, तो भी बुद्धिमान पुरुष के वह विद्यमान भी नहीं विद्यमान के समान ही है जिस प्रकार तैरने में चतुर रास्तागीरों को बढ़ा हुवा नदी का प्रवाह।
भावार्थ —यद्यपि जिस प्रकार नदी का प्रवाह समस्त प्राणियों को समान भय का करने वाला है तो भी रस्तागीर तैरने में चतुर हैं अर्थात् जिनको तैरना अच्छा आता है उनको वह भय का करने वाला नहीं होता उसी प्रकार यद्यपि कर्मों का संबंध सब जीवों के समान है तो भी जो पुरुष बुद्धिमान हैं अर्थात् जिनको स्वपर का विवेक है, उन पुरुषों को आत्मा के साथ विद्यमान भी कर्मों का संबंध नहीं विद्यमान सा ही है।।५७।।
तत्त्वज्ञानियों को हेय तथा उपादेय का अवश्य ध्यान रखना चाहिये, इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं-
मृगयमाणेन सुचिरं रोहणभुवि रत्नमीप्सितं प्राप्य।
हेयाहेयश्रुतिरपि विलोक्यते लब्धतत्त्वेन।।५८।।
अर्थ —रोहणपर्वत की भूमि में चिरकाल से रत्नों को ढूढ़ने वाला मनुष्य दैवयोग से इष्ट रत्न को पाकर जिस प्रकार यह तत्त्व हेय है अथवा उपादेय है, इस बात का विचार करता है उसी प्रकार जिस मनुष्य को वास्तविकतत्त्व की प्राप्ति हो गई है उसको भी यह तत्त्व हेय है अथवा उपादेय है, ऐसा विचार करना चाहिये।
भावार्थ —जिस प्रकार किसी मनुष्य को रत्न की इच्छा हुई और उसी इच्छा से वह रोहणाचल की भूमि में रत्न ढूढ़ने लग गया और उसको इष्ट रत्न की प्राप्ति भी हो गई उस समय जिस प्रकार वह मनुष्य विचार करता है कि वह तत्त्व हेय है अथवा अहेय है अर्थात् छोड़ने योग्य है अथवा ग्रहण करने योग्य है उसी प्रकार अनादिकाल से तत्त्व की प्राप्ति के इच्छुक मनुष्य को यदि भाग्यवश तत्त्व मिल जावे तो उसको भी इस प्रकार का विचार करना चाहिये कि यह तत्त्व मुझे ग्रहण करने योग्य है कि छोड़ने योग्य है।।५८।।
तत्त्वज्ञानी को इस रीति से विचार करना चाहिये-
कर्मकलितोपि मुक्त:सश्री को दुर्गतोप्यहमतीव।
तपसा दुख्यपि च सुखी श्रीगुरुपादप्रसादेन।।५९।।
अर्थ —यद्यपि ज्ञानावरण आदि कर्मों से मेरी आत्मा संयुक्त है तो भी मैं श्रीगुरू के चरणारविंद की कृपा से सदा मुक्त हूँ और यद्यपि मैं अत्यंत दरिद्री हूँ तो भी मैं श्रीगुरू के चरणों के प्रसाद से लक्ष्मी कर सहित हूँ और यद्यपि मैं तप से दु:खित हूं तो भी श्रीगुरू के चरणों की कृपा से मैं सदा सुखी ही हूँ अर्थात् मुझे किसी प्रकार का संसार में दु:ख नहीं है।।५९।।
बोधादस्ति न किञ्चित्कार्यं यद्दृश्यते मलात्तन्मे।
आकृष्टयंत्रसूत्रादद्दारुनर: स्फुरति नटकानाम्।।६०।।
अर्थ-जो कुछ मेरे कार्य मौजूद हैं अर्थात् जो कुछ कार्य मैं कर रहा रहूँ वह कर्म की कृपा से कर रहा हूँ, ज्ञान से कुछ भी कार्य नहीं क्योंकि नट के द्वारा खींचे हुए यंत्र के सूत्र से ही पुतली नाचती है।
भावार्थ —जिस प्रकार पुतली के नृत्य में नट द्वारा खींचा हुवा सूत्र ही कारण है उसी प्रकार मेरे जो कार्य दृष्टिगोचर हो रहे हैं उनमें कर्म ही कारण है अर्थात् कर्म की कृपा से ही मुझमें कार्य दीख रहे हैं, ज्ञान की कृपा से नहीं।।६०।।
निश्चयपंचाशत्पद्मनन्दिनं सूरिमाश्रिभि: वैâश्चित्।
शब्दै: स्वभक्तिसूचितवस्तुगुणैर्विरचितेयमिति।।६१।।
अर्थ —श्री पद्मनन्दी आचार्य को आश्रित तथा अपनी भक्ति से प्रकट किया है वस्तु का गुण जिन्होंने, ऐसे जिन्होंने ऐसे कई एक शब्दों द्वारा इस निश्चयपञ्चाशत् की रचना की गई है।
भावार्थ —इस श्लोक से आचार्य ने अपनी लघुता का वर्णन किया गया है कि इस निश्चयपञ्चाशत्नामक अधिकार की रचना मैंने नहीं की है किन्तु मुझको आश्रित कई एक वचनों ने की है।।६१।।
तृणं नृपश्री: किमु वच्मि तस्यां न कार्यमाखण्डलसम्पदोऽपि।
तत्त्वं परं चेतसि चेन्ममास्ति अशेषवाञ्छाविलयैकरूपं।।६२।।
अर्थ —समस्त प्रकार की इच्छाओं को दूर करने वाला यदि चैतन्यरूपी तत्त्व मेरे मन में मौजूद है तो राजलक्ष्मी तो तृण के समान है इसलिये मैं उसके विषय में तो क्या हूँ ? इन्द्र की संपदा भी मेरे लिये किसी काम की नहीं ।।६२।।
इस प्रकार श्रीपद्मनन्दिपंचविंशतिका में निश्चयपंचाशत्
नामक अधिकार समाप्त हुवा।