मंदाक्रांता-आत्मन्युच्चैर्भवति नियतं सच्चिदानंदमूर्तौ
धर्म: साक्षात् स्ववशजनितावश्यकर्मात्मकोऽयम्।
सोऽयं कर्मक्षयकरपटुर्निर्वृतेरेकमार्ग:
तेनैवाहं किमपि तरसा यामि शं निर्विकल्पम्।।२३८।।
अर्थ-स्ववश में होने से उत्पन्न हुआ आवश्यक क्रियास्वरूप यह धर्म साक्षात् नियम से सच्चिदानंद मूर्ति स्वरूप आत्मा में अतिशय रूप से होता है। सो यह धर्म कर्मों का क्षय करने में कुशल है और निर्वाण का एक मार्ग है। इस मार्ग से ही मैं शीघ्र ही कोई एक अद्भुत ऐसे निर्विकल्प सुख को प्राप्त होता हूँ।
भावार्थ-अन्य पदार्थ के अवलंबन से रहित होकर अपने आप जो अपनी आत्मा का अवलंबन ले लेते हैं, वास्तव में वे शीघ्र ही आत्मा से उत्पन्न हुए सांसारिक सुख की तुलना से रहित ऐसा कोई एक विलक्षण सुख प्राप्त कर लेते हैं।
मंदाक्रांता-योगी कश्चित्स्वहितनिरत: शुद्धजीवास्तिकायाद्
अन्येषां यो न वश इति या संस्थिति: सा निरुक्ति:।
तस्यादस्य प्रहतदुरितध्वान्तपुंजस्य नित्यं
स्फूर्जज्ज्योति:स्फुटितसहजावस्थयामूर्तता स्यात्।।२३९।।
अर्थ-कोई स्वहित में तत्पर हुए योगी जो कि शुद्ध जीवास्तिकाय से अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश नहीं है और इस प्रकार से उनकी जो सम्यक््â स्थिति है सो निरुक्ति है। इस हेतु से जिसने पापरूपी अंधकार के पुंज को नष्ट कर दिया है वे योगी नित्य ही स्फुरायमान ज्योतिरूप प्रगट हुई सहज अवस्था से अमूर्तिक हो जाते हैं।
भावार्थ-अपने स्वाभाविक आत्मस्वरूप में स्थित हुए योगी अन्य के आश्रय से रहित होकर देहमयी मूर्ति रहित ऐसे अमूर्तिक, अशरीरी सिद्ध हो जाते हैं।
मालिनी– अभिनवमिदमुच्चैर्मोहनीयं मुनीनां
त्रिभुवनभुवनान्तर्ध्वांतपुंजायमानम्।
तृणगृहमपि मुक्त्वा तीव्रवैराग्यभावाद्
वसतिमनुपमां तामस्मदीयां स्मरन्ति।।२४०।।
अर्थ-त्रिभुवनरूपी भवन के अन्तर्गत हुए तिमिरपुंज के समान मुनियों का यह (कोई एक) नवीन तीव्र मोहकर्म है कि जिससे (पूर्व में) वे तीव्र वैराग्य भाव से तृण के घर को भी छोड़कर पुन: ‘हमारी वह अनुपम वसति है’ ऐसा स्मरण करते हैं।
भावार्थ-जिन्होंने वैराग्य की उज्ज्वलता से पहले फूस की झोपड़ी तक को छोड़ दिया, पुन: यदि वे अपने या अन्य किसी वसतिका आदि में ममत्व भाव रखते हैं तो आचार्य कहते हैं कि यह कोई अद्भुत ही उनका मोहनीय कर्म का विपाक दिख रहा है।
शार्दूलविक्रीडित– कोपि क्वापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावप्यलं
मिथ्यात्वादिकलंकपंकरहित: सद्धर्मरक्षामणि:।
सोऽयं संप्रति भूतले दिवि पुनर्देवैश्च संपूज्यते
मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकर: पापाटवीपावक:।।२४१।।
अर्थ-कलिकाल में भी कहीं कोई पुण्यशाली जीव मिथ्यात्व आदि कलंक पंक से रहित तथा सच्चे धर्म की रक्षा के लिये मणिस्वरूप ऐसे मुनि होते हैं। अनेक परिग्रह समूह का जिन्होंने त्याग कर दिया है और जो पापरूपी वन के लिये अग्नि के समान हैं ऐसे ये मुनिराज इस समय पृथ्वीतल पर तथा स्वर्ग में देवों से पूजे जाते हैं।
भावार्थ-आज इस दु:षम काल में भी निर्दोष मुनि विचरण करते हैं जो कि सच्चे धर्म की रक्षा करने वाले एक मणि विशेष के सदृश हैं। जैसे कोई उत्तम जाति का हीरा गरुत्मणि आदि जीवों को भूत, पिशाचों से या अन्य आपत्तियों से रक्षित करता है उसी प्रकार पंचमकाल के अंत तक जिनशासन की परम्परा को अविच्छिन्न चलाने वाले ये साधु आज भी विद्यमान हैं जो कि मनुष्यों से तो क्या देवों से भी पूजित माने गये हैं।
शिखरिणी– तपस्या लोकेस्मिन्निखिलसुधियां प्राणदयिता
नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम्।
परिप्राप्यैतां य: स्मरतिमिरसंसारजनितं
सुखं रेमे कश्चिद्बत कलिहतोऽसौ जडमति:।।२४२।।
अर्थ-इस लोक में तपस्या समस्त बुद्धिमानों को प्राणों से भी अधिक प्यारी है वह सौ इन्द्रों से भी सतत नमस्कार करने योग्य है। जो कोई इस तपस्या को प्राप्त करके कामांधकार से सहित ऐसे सांसारिक सुख में रमते हैं, बड़े खेद की बात है कि वे जड़मति कलिकाल से मारे गये हैं।
भावार्थ-यह जैनेन्द्रमार्ग की तपश्चर्या तीनों लोकों में इन्द्र, नरेन्द्रों से भी पूज्य है, सर्वोत्तम है, जो इसको प्राप्त करके-जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करके पुन: विषयसुख के लोलुपी होते हैं वे बेचारे इस कलिकाल के प्रभाव से ही नष्ट हो रहे हैं ऐसा समझना क्योंकि यदि कोई अद्भुत िंचतामणि रत्न को प्राप्त करके भी उसे कौवे को उड़ाने में फेंक दे पुन: सुख की आशा करे तो वह जड़बुद्धि ही कहलावेगा।
आर्या– अन्यवश: संसारी मुनिवेषधरोपि दु:खभाङ्नित्यम्।
स्ववशो जीवन्मुक्त: िंकचिन्न्यूनो जिनेश्वरादेष:।।२४३।।
अर्थ-अन्य के वश में हुये संसारी जीव मुनिवेषधारी होते हुए भी नित्य ही दु:ख को भोगने वाले होते हैं और स्ववश हुये जीवन्मुक्त हैं, ये जिनेश्वर से िंकचित् ही न्यून हैं।
भावार्थ-वास्तव में यहाँ पर बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतरागी क्षीणमोह हुए ऐसे मुनि की अवस्थाविशेष का कथन है क्योंकि वे ही अंतर्मुहूर्त तक इस गुणस्थान में रहकर अंत में तीनों घातिया कर्मों को समाप्त कर जिनेश्वर होने वाले हैं वे मोहकर्म के अभाव से पूर्णतया स्ववश हो चुके हैं।
आर्या– अत एव भाति नित्यं स्ववशो जिननाथमार्गमुनिवर्गे।
अन्यवशो भात्येवं भृत्यप्रकरेषु राजवल्लभवत्।।२४४।।
अर्थ-इसीलिये जिननाथ के शासन में रहने वाले मुनियों के समुदाय में वे स्ववश हुये मुनिराज नित्य ही शोभायमान होते हैं और इस प्रकार से अन्य के वश हुए मुनि नौकर के समूह में राजप्रिय नौकर के समान शोभा को नहीं पाते हैं।
भावार्थ-अन्य परद्रव्यों के आश्रित हुए मुनि नौकर के समान पराधीन हैं। किन्तु परद्रव्यों के सम्पर्क से सर्वथा पृथक् हुए ऐसे महामुनि वीतराग निर्विकल्प समाधि में लीन होते हुए स्वाधीन रहते हैं वे ही जिनशासन की शोभा बढ़ाने वाले हैं क्योंकि वे कुछ ही काल में अर्हंत अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं।
हरिणी– त्यजतु सुरलोकादिक्लेशे रिंत मुनिपुंगवो
भजतु परमानंदं निर्वाणकारणकारणम्।
सकलविमलज्ञानावासं निरावरणात्मकं
सहजपरमात्मानं दूरं नयानयसंहते:।।२४५।।
अर्थ-मुनिपुंगव-श्रेष्ठ मुनिजन सुरलोक आदि के क्लेश में रति को छोड़ो और परमानंदमय निर्वाण के कारण का कारण, सकल विमल केवलज्ञान का निवासगृह, आवरण रहित, सुनय और कुनय समूह से दूर ऐसे सहज परमात्मा को भजो-आश्रय लेवो।
अनुष्टुप्– यावच्चिन्तास्ति जन्तूनां तावद्भवति संसृति:।
यथेंधनसनाथस्य स्वाहानाथस्य वर्द्धनम्।।२४६।।
अर्थ-जीवों को जब तक चिंता है तभी तक संसार है जैसे ईंधन सहित, स्वाहानाथ-अग्नि की वृद्धि ही होती है।
भावार्थ-अग्नि में ईंधन के डालते रहने से वह बढ़ती ही है उसी प्रकार िंचता से संसार की वृद्धि ही होती है।
पृथ्वी– जयत्ययमुदारधी: स्ववशयोगिवृन्दारक:
प्रनष्टभवकारण: प्रहतपूर्वकर्मावलि:।
स्फुटोत्कटविवेकत: स्फुटितशुद्धबोधात्मिकां
सदाशिवमयीं मुदा व्रजति सर्वथा निर्वृतिम्।।२४७।।
अर्थ-जिन्होंने संसार के कारण को नष्ट कर दिया है तथा जो पूर्व में संचित ऐसे कर्मसमूह को नष्ट करने वाले हैं, ऐसे ये उदार बुद्धि वाले स्ववश हुए योगिपुंगव जयशील हो रहे हैं। वे स्पष्ट रूप उत्कट विवेक से प्रगटित शुद्ध ज्ञानस्वरूप, सदाशिवमय ऐसी मुक्ति को हर्षपूर्वक सर्वथा प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ-यहाँ पर स्ववश हुये मुनि की जो अवस्था बतलाई है, उसके प्रसाद से वे शीघ्र ही घातिया कर्मों से रहित होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।
अनुष्टुप्– प्रध्वस्तपंचबाणस्य पंचाचारांचिताकृते:।
अवंचकगुरोर्वाक्यं कारणं मुक्तिसंपद:।।२४८।।
अर्थ-जिन्होंने पाँच बाणों से सहित ऐसे कामदेव को ध्वस्त कर दिया है, जो पाँच आचारों से सहित पूज्य आकृति वाले हैं ऐसे अवंचक गुरु के वचन मुक्तिसंपदा के कारणभूत हैं
भावार्थ-दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पाँच आचार रूप ही है आकार जिनका, ऐसे वे पंचाचार परिणत साधुजन किसी की वंचना नहीं करते हैं इसलिये इनके पूर्ण विश्वस्त गुरुदेव के वचन निर्वाण के कारण माने गये हैं।
अनुष्टुप्– इत्थं बुद्ध्वा जिनेन्द्रस्य मार्गं निर्वाणकारणम्।
निर्वाणसंपदं याति यस्तं वन्दे पुन: पुन:।।२४९।।
अर्थ-जिनेन्द्रदेव का मार्ग निर्वाण का कारण है, ऐसा जानकर जो मुनि निर्वाण संपत्ति को प्राप्त करते हैं उनको मैं पुन:-पुन: वंदन करता हूँ।
द्रुतविलंबित– स्ववशयोगिनिकायविशेषक
प्रहतचारुवधूकनकस्पृह ।
त्वमसि नश्शरणं भवकानने
स्मरकिरातशरक्षतचेतसाम्।।२५०।।
अर्थ-जिसने सुन्दर कामिनी और कनक से स्पृहा को नष्ट कर दिया है ऐसे स्ववश योगी समूह में तिलकस्वरूप हे योगिराज! कामदेवरूपी भील के बाणों से क्षत चित्त वाले ऐसे हम लोगों को इस भववन में आप ही शरण हैं।
द्रुतविलंबित-अनशनादितपश्चरणै: फलं
तनुविशोषणमेव न चापरम्।
तव पदांबुरुहद्वयिंचतया
स्ववश जन्म सदा सफलं मम।।२५१।।
अर्थ-अनशन आदि तपश्चरणों के द्वारा होने वाला फल शरीर शोषण मात्र ही है अन्य कुछ भी नहीं है। हे स्ववश मुनिराज ! आपके चरणकमलयुगल की िंचता से ही सदा मेरा जन्म सफल है।
भावार्थ-अनशन, अवमौदर्य आदि तपश्चरणों के फल की यहाँ अवहेलना की है ऐसा प्रतीत होता है किन्तु ऐसी बात नहीं है क्योंकि अन्यत्र ग्रंथों में इन तपश्चरणों से अत्यधिक कर्मों की निर्जरा मानी है। तपश्चरण के बिना भी पूर्णतया कर्मों की निर्जरा होना असंभव है। श्री समंतभद्र स्वामी ने कहा है कि-
‘‘हे भगवन् ! आपने१ आध्यात्मिक तप की वृद्धि के लिए परम दुश्चर ऐसे बाह्य तपश्चरण को किया था इसलिये यहाँ एकांत नहीं समझना, तत्त्वज्ञान शून्य तपश्चरण ही मात्र ऐसा है जो मुक्ति को प्राप्त कराने में असमर्थ है, फिर भी यह निर्दोष तपश्चरण मात्र द्रव्यिंलगी मुनि को नव ग्रैवेयक तक भी पहुँचा देता है तथा इससे लौकिक अभ्युदय फल भी मिलते हैं अत: यहाँ सर्वथा तपश्चरण का निषेध नहीं है प्रत्युत गुरुभक्ति से गुरुओं के चरणों की उपासना का ही महत्व स्पष्ट है।
मालिनी–जयति सहजतेजोराशिनिर्मग्नलोक:।
स्वरसविसरपूरक्षालितांहा: समंतात्।
सहजसमरसेनापूर्णपुण्य: पुराण:
स्ववशमनसि नित्यं संस्थित: शुद्धसिद्ध:।।२५२।।
अर्थ-सहज तेज की राशि में डूबा हुआ लोकजीव जयशील हो रहा है जो कि सब ओर से निज रस के विस्तार के पूर से पाप को धो चुका है, सहज समरस के द्वारा परिपूर्ण भरे हुए होने से पुण्य-पवित्र है, पुराण-सनातन है, स्ववश हुये योगी के मन में नित्य ही विराजमान है और शुद्ध सिद्ध है।
अनुष्टुप्– सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिन:।
न कामपि भिदां क्वापि तां विद्मो हा जडा वयम्।।२५३।।
अर्थ-सर्वज्ञ वीतराग में और स्वात्माधीन इन योगियों में कभी कुछ भी भेद नहीं है, किन्तु हाय ! खेद की बात है कि हम जड़बुद्धि उनमें भेद मानते हैं।
भावार्थ-शुद्ध निश्चयनय से प्रत्येक संसारी आत्मा और परमात्मा सिद्धों में कोई अन्तर नहीं है, यह अंतर मात्र व्यवहारनय से ही है किन्तु यहाँ पर तो स्ववश योगी बारहवें गुणस्थान में स्थित हैं, अंतर्मुहूर्त में ही शेष तीन घातिया को भी समाप्त करके सर्वज्ञ वीतराग होने वाले हैं। उसके पहले वीतरागी तो हो ही चुके हैं, निर्ग्रंथ संज्ञा भी वहीं पर सार्थक है इसलिये भेद मानना अज्ञान ही है।
अनुष्टुप्– एक एव सदा धन्यो जन्मन्यस्मिन्महामुनि:।
स्ववश: सर्वकर्मभ्यो बहिस्तिष्ठत्यनन्यधी:।।२५४।।
अर्थ-इस जन्म-संसार में स्ववश महामुनि ही एक सदा धन्य हैं जो कि अन्य में उपयोग से रहित ऐसे अनन्य बुद्धि वाले होते हुए सभी कर्मों से बाहर स्थित हैं।
भावार्थ-वास्तव में वे ही इस संसार में धन्यवाद के पात्र हैं कि जो वीतराग निर्विकल्प ध्यान में अपने उपयोग को स्थिर कर चुके हैं। उनसे सभी कर्म अपने आप पृथक््â हो जाते हैं, उनका उपयोग अन्य तरफ न होने से वे ‘अनन्यधी’ कहलाते हैं।
शार्दूलविक्रीडित– यद्येवं चरणं निजात्मनियतं संसारदु:खापहं
मुक्तिश्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चैरिदं कारणम्।
बुद्ध्वेत्थं समयस्य सारमनघं जानाति य: सर्वदा।
सोयं त्यक्तबहि:क्रियो मुनिपति: पापाटवीपावक:।।२५५।।
अर्थ-यदि इस प्रकार संसार के दु:खों को दूर करने वाला और आत्मा में ही नियम से निश्चित ऐसा चारित्र हो तो यह मुक्तिलक्ष्मी रूपी रमणी से उत्पन्न होने वाले सुख का अतिशयरूप से कारण है। ऐसा समझकर जो मुनिनाथ समय-आत्मा के निर्दोष सार को सदा जानते हैं सो यह बाह्य क्रियाओं से रहित हुए पापरूपी वनी को भस्मसात् करने के लिए अग्निस्वरूप होते हैं।
मंदाक्रांता-आत्मावश्यं सहजपरमावश्यकं चैकमेकं
कुर्यादुच्चैरघुकुलहरं निर्वृतेर्मूलभूतम्।
सोऽयं नित्यं स्वरसविसरापूर्णपुण्य: पुराण:
वाचां दूरं किमपि सहजं शाश्वतं शं प्रयाति।।२५६।।
अर्थ-आत्मा अवश्य ही पापकुल की नाशक और निर्वाण के लिये मूलभूत ऐसी केवल एक सहज परमावश्यक क्रिया को ही अतिशय रूप से करे। नित्य ही स्वरस-अपने अनुभव के विस्तार से परिपूर्ण भरित पुण्यस्वरूप और पुराणरूप सो वह आत्मा वचनों के अगोचर कोई एक अद्भुत सहज और शाश्वतसुख को प्राप्त कर लेगा।
अनुष्टुप्– स्ववशस्य मुनीन्द्रस्य स्वात्मचिन्तनमुत्तमम्।
इदं चावश्यकं कर्म स्यान्मूलं मुक्तिशर्मण:।।२५७।।
अर्थ-स्ववश मुनीन्द्र का यह उत्तम स्वात्मचिंतन ही आवश्यक कर्म है जो कि मुक्तिसुख का मूल है।
भावार्थ-शुद्धोपयोगी मुनि के जो अपनी आत्मा के स्वरूप का ध्यान होता है वही आवश्यक क्रिया है तथा मुक्ति का मूल कारण कहा गया है।
मंदाक्रांता-योगी नित्यं सहजपरमावश्यककर्मप्रयुक्त:
संसारोत्थप्रबलसुखदु:खाटवीदूरवर्ती ।
तस्मात्सोऽयं भवति नितरामन्तरात्मात्मनिष्ठ:
स्वात्मभ्रष्टो भवति बहिरात्मा बहिस्तत्त्वनिष्ठ:।।२५८।।
अर्थ-जो योगी नित्य ही सहज परमावश्यक क्रिया का प्रयोग करता हुआ, संसार में उत्पन्न हुए प्रबल सुख-दु:खरूपी वनी के दूरवर्ती होता है इसलिये यह अतिशयरूप से आत्मा में स्थित होता हुआ अंतरात्मा होता है और जो स्वात्मा से भ्रष्ट है तथा बाह्य तत्त्वों में निष्ठ है वह बहिरात्मा होता है।
भावार्थ-यहाँ पर मात्र उत्तम अंतरात्मा ही विवक्षित है, गौण रूप से मध्यम और जघन्य अंतरात्मा भी आ जाते हैं क्योंकि वे भी आत्मतत्त्व की भावना में तथा उसके साधनभूत ऐसे जिनेन्द्रदेव कथित व्यवहार मार्ग में स्थित हैं किन्तु जो आत्मतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान आदि से रहित हैं वे बहिरात्मा हैं।
मंदाक्रांता– मुक्त्वा जल्पं भवभयकरं बाह्यमाभ्यन्तरं च
स्मृत्वा नित्यं समरसमयं चिच्चमत्कारमेकम्।
ज्ञानज्योति:प्रकटितनिजाभ्यन्तरंगान्तरात्मा
क्षीणे मोहे किमपि परमं तत्त्वमन्तर्ददर्श।।२५८।।
अर्थ-भवभयकारी ऐसे बाह्य और आभ्यंतर जल्प को छोड़कर समरसमयी एक चैतन्य चमत्कार का ही नित्य स्मरण करके, जिसने ज्ञानज्योति से अपने अभ्यंतर स्वरूप को प्रगट किया है ऐसा अंतरात्मा मोह के क्षीण-समाप्त हो जाने पर कोई एक अद्भुत परमतत्त्व को अंतरंग में देख लेता है।
वसंततिलका– कश्चिन्मुनि: सततनिर्मलधर्म्यशुक्ल-
ध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ।
ताभ्यां विहीनमुनिको बहिरात्मकोऽयं
पूर्वोक्तयोगिनमहं शरणं प्रपद्ये।।२६०।।
अर्थ-कोई मुनि सतत निर्मल धर्म और शुक्ल ध्यानामृतरूपी समरस में वर्तते हैं वे सचमुच में अंतरात्मा हैं तथा इन दो ध्यानों से रहित मुनि बहिरात्मा हैं। मैं पूर्वकथित (अंतरात्मा) योगी की शरण को प्राप्त होता हूँ।
अनुष्टुप्– बहिरात्मान्तरात्मेति विकल्प: कुधियामयम्।
सुधियां न समस्त्येष संसाररमणीप्रिय:।।२६१।।
अर्थ-बहिरात्मा और अंतरात्मा ऐसा यह विकल्प कुबुद्धियों को होता है किन्तु संसाररूपी रमणी के लिये प्रिय ऐसा यह विकल्प सुबुद्धियों को नहीं होता है।
भावार्थ-यहाँ मात्र शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से ही यह कथन है क्योंकि ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’’ शुद्ध निश्चयनय से सभी जीव शुद्ध ही हैं, संसार और मोक्ष की वहाँ बात ही नहीं है क्योंकि जब सभी संसारी जीव भी सिद्ध सदृश पूर्णतया शुद्ध ही हैं तब संसार क्या होगा ? किन्तु जब व्यवहारनय से भेद करके संसारी आत्मा को शुद्ध करने का पुरुषार्थ किया जाता है उस समय पूर्व में यह विकल्प होता ही है। अनंतर निर्विकल्प अवस्था रूप ध्यान में विकल्प छूट जाता है, इस अपेक्षा से कुबुद्धि कहा है।
मंदाक्रांता-आत्मा तिष्ठत्यतुलमहिमा नष्टदृक््शीलमोहो
य: संसारोद्भवसुखकरं कर्म मुक्त्वा विमुक्ते:।
मूले शीले मलविरहिते सोऽयमाचारराशि:
तं वंदेऽहं समरससुधासिन्धुराकाशशांकम्।।२६१।।
अर्थ-जिसके दर्शनमोह और चारित्रमोह नष्ट हो चुके हैं ऐसा जो अतुल महिमाशाली आत्मा संसार में उत्पन्न होने वाले सुख के कारणभूत कर्म को छोड़कर मुक्ति के लिये मूल ऐसे मल से रहित चारित्र में स्थित होता है, सो यह आत्मा आचार की राशिस्वरूप-चारित्र का समूह ही है। समरसरूपी सुधा के सागर को वृद्धिंगत करने के लिए पूर्णिमा के चन्द्रमास्वरूप ऐसे उस आत्मा को मैं वंदन करता हूँ।
मंदाक्रांता– मुक्त्वा भव्यो वचनरचनां सर्वदात: समस्तां
निर्वाणस्त्रीस्तनभरयुगाश्लेषसौख्यस्पृहाढ्य:।
नित्यानंदाद्यतुलमहिमाधारके स्वस्वरूपे
स्थित्वा सर्वं तृणमिव जगज्जालमेको ददर्श।।२६३।।
अर्थ-निर्वाणरूपी स्त्री के पुष्ट स्तनयुगल के आलिंगनजन्य सौख्य की स्पृहा से सहित भव्य जीव इसी हेतु से समस्त वचन रचना को छोड़कर और नित्यानंद आदि अतुल महिमा के धारक ऐसे अपने स्वरूप में स्थित होकर वह एकाकी समस्त जगतजाल को तृण के समान देखता है।
शिखरिणी– असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले
न मुक्तिर्मार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति।
अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवेन्निर्मलधियां
निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम्।।२६४।।
अर्थ-पाप से भरपूर और कलिकाल के विलास से सहित इस असार संसार में निर्दोष जिननाथ को इस मार्ग में मुक्ति नहीं होती है इसलिये इस काल में अध्यात्म ध्यान वैâसे हो सकता है ? निर्मल बुद्धि वालों ने भवभयहारी ऐसे इस निजात्मा के श्रद्धान को ही स्वीकृत किया है।
भावार्थ-यहाँ टीकाकार का स्पष्ट रूप से कहना है कि इस निकृष्ट काल में हीन संहनन होने से अध्यात्म ध्यान नहीं हो सकता है अत: आत्मतत्त्व का श्रद्धान करना ही उचित है। इस पर यह प्रश्न हो सकता है कि पुन: इन अध्यात्म ग्रंथों की रचना क्यों की गई है ? किन्तु ऐसी बात नहीं है क्योंकि जिनागम के द्वारा ऊँची से ऊँची अवस्थाओं की सभी बातों का वर्णन ग्रंथों में तो रहेगा ही और अपनी योग्यता के अनुसार ही ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिये। पहले श्रावकों को श्रावकाचार आदि ग्रंथों से अपनी जीवनचर्या अवश्य निर्दोष बनाना चाहिये, अनंतर इन विशेष ग्रंथों के स्वाध्याय से सम्यग्ज्ञान की वृद्धि करना चाहिये।
भगवती आराधना ग्रंथ में एक इसी प्रकार से प्रश्न हुआ है यथा-‘‘यदि ते वर्तयितुं इदानींतनानामसामर्थ्यं किं तदुपदेशेनेति चेत् तत्स्वरूप परिज्ञानात्सम्यग्ज्ञानं। तच्च मुमुक्षूणामुपयोग्येवेति।’’ अर्थात् यदि भक्तप्रत्याख्यान मरण ही आजकल हो सकता है तथा उत्तम संहनन के अभाव में प्रायोपगमन और इंगिनी इन दो मरण को करने के लिए आजकल के साधुओं में सामर्थ्य नहीं है तो यहाँ पर इनका उपदेश क्यों करते हैं ? ऐसी बात नहीं है क्योंकि उनका स्वरूप जानने से सम्यग्ज्ञान होता है जो कि मुमुक्षुओं के लिये उपयोगी ही है।
मंदाक्रांता-हित्वा भीिंत पशुजनकृतां लौकिकीमात्मवेदी
शस्ताशस्तां वचनरचनां घोरसंसारकर्त्रीम्।
मुक्त्वा मोहं कनकरमणीगोचरं चात्मनात्मा
स्वात्मन्येव स्थितिमविचलां याति मुक्त्यै मुमुक्षु:।।२६५।।
अर्थ-आत्मज्ञानी मुमुक्षु आत्मा अज्ञानीजनों द्वारा की गई लौकिक भीति को तथा घोर संसार की करने वाली प्रशस्त और अप्रशस्तरूप वचन रचना को छोड़कर और कनक-कामिनी संबंधी मोह को तजकर मुक्ति प्राप्ति के लिए अपनी आत्मा में ही आत्मा के द्वारा अविचल स्थिति को प्राप्त होता है।
बसंततिलका– भीिंत विहाय पशुभिर्मनुजै: कृतां तं
मुक्त्वा मुनि: सकललौकिकजल्पजालम्।
आत्मप्रवादकुशल: परमात्मवेदी
प्राप्नोति नित्यसुखदं निजतत्त्वमेकम्।।२६६।।
अर्थ-आत्मप्रवाद पूर्व में कुशल परमात्मज्ञानी पशुसदृश-अज्ञानी मनुष्यों के द्वारा किये गए भय को छोड़कर तथा लौकिकजन से संबंधित उस सकल जल्पजाल को भी त्यागकर नित्य सुखदायी ऐसे एक निजतत्त्व को प्राप्त लेता है।
भावार्थ-जो साधु परकृत निन्दा से क्षुब्ध नहीं होते हैं और संसारीजनों से संबंधित लौकिक प्रपंचों से सर्वथा दूर रहते हैं वे ही निर्विकल्प ध्यान के अधिकारी हो सकते हैं तथा वे ही आत्मतत्त्व की सिद्धि कर सकते हैं अन्य नहीं।
शिखरिणी– विकल्पो जीवानां भवति बहुधा संसृतिकर:
तथा कर्मानेकविधमपि सदा जन्मजनकम्।
असौ लब्धिर्नाना विमलजिनमार्गे हि विदिता
तत: कर्त्तव्यं नो स्वपरसमयैर्वादवचनम्।।२६७।।
अर्थ-जीवों के संसार को करने वाले ऐसे बहुत प्रकार के भेद हैं तथा सदा जन्म के उत्पन्न करने वाले ऐसे कर्म भी अनेक प्रकार के हैं, यह लब्धि भी विमल जिनदेव के शासन में अनेक प्रकार की प्रसिद्ध है इसलिये स्वसमय और परसमयों के साथ वचन विवाद नहीं करना चाहिए।
शालिनी– अस्मिन् लोके लौकिक: कश्चिदेक:
लब्ध्वा पुण्यात्कांचनानां समूहम्।
गूढो भूत्वा वर्तते त्यक्तसंगो
ज्ञानी तद्वत् ज्ञानरक्षां करोति।।२६८।।
अर्थ-इस लोक में कोई एक लौकिकजन पुण्य से कंचन-धन के समूह प्राप्तकर तथा गुप्त होकर रहता है वैसे ही परिग्रहरहित निर्ग्रंथ ऐसा ज्ञानी साधु ज्ञान की रक्षा करता है।
मंदाक्रांता-त्यक्त्वा संगं जननमरणातंकहेतुं समस्तं
कृत्वां बुद्ध्या हृदयकमले पूर्णवैराग्यभावम्।
स्थित्वा शक्त्या सहजपरमानंदनिर्व्यग्ररूपे
क्षीणे मोहे तृणमिव सदा लोकमालोकयाम:।।२६९।।
अर्थ-जन्म-मरण रूपी आतंक-व्याधि के कारण ऐसे समस्त परिग्रह को छोड़कर अपने हृदयकमल में बुद्धि से पूर्ण वैराग्य भाव को करके तथा स्वाभाविक परमानंदमय निराकुलरूप ऐसे अपने स्वरूप में शक्तिपूर्वक स्थित होकर मोह के क्षीण हो जाने पर हम इस लोक को नित्य ही तृण सदृश देखते हैं।
शार्दूलविक्रीडित– स्वात्माराधनया पुराणपुरुषा: सर्वे पुरा योगिन:
प्रध्वस्ताखिलकर्मराक्षसगणा ये विष्णवो जिष्णव:।
तान्नित्यं प्रणमत्यनन्यमनसा मुक्तिस्पृहो निस्पृह:
स स्यात् सर्वजनार्चितांघ्रिकमल: पापाटवीपावक:।।२७०।।
अर्थ-पहले जो सभी पुराणपुरुष योगी अपनी आत्मा की आराधना से अखिल कर्मरूपी राक्षणगणों को ध्वस्त करके विष्णु-ज्ञान से तीन लोक में व्यापक और जिष्णु-जयशील हुये हैं। उनको जो मुक्ति की स्पृहा वाला भी नि:स्पृह जीव एकाग्रमन से नित्य ही प्रणाम करता है वह पापरूपी अटवी को दग्ध करने में अग्निस्वरूप और सर्व जनों से अर्चित चरणकमल वाला हो जाता है।
भावार्थ-जो भव्य जीव स्वात्मा की आराधना से स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धि को प्राप्त कर चुके हैं, उनको एकाग्रचित्त से नमस्कार करने वाला भक्त भी स्वयं सर्वजनपूज्य भगवान बन जाता है।
मंदाक्रांता-मुक्त्वा मोहं कनकरमणीगोचरं हेयरूपं
नित्यानंदं निरुपमगुणालंकृतं दिव्यबोधम्।
चेत: शीघ्रं प्रविश परमात्मानमव्यग्ररूपं
लब्ध्वा धर्मं परमगुरुत: शर्मणे निर्मलाय।।२६९।।
अर्थ-हे मन! तू निर्मल सुख के लिए परमगुरु से धर्म को प्राप्त करके कनक और कामिनी संबंधी हेयरूप मोह को छोड़कर, नित्यानंद रूप, निरुपम गुणों से अलंकृत, दिव्य ज्ञान वाले, अव्यग्ररूप-व्यग्रता (आकुलता रहित) ऐसे परमात्मा में शीघ्र ही प्रवेश कर।
भावार्थ-यहाँ टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारी देव महामुनि अपने मन को प्रेरणा देते हुये कहते हैं कि हे मन! यदि तू परमात्मा में तन्मय होगा तो परमात्मा बन जाएगा अन्यथा बाह्य वस्तुओं में उलझा रहने से दु:ख ही दु:ख उठाएगा।इस प्रकार से नियमसार की तात्पर्यवृत्ति टीका से उद्धृत कलश काव्य के भाषानुवाद रूप निश्चय परमावश्यक अधिकार नामक ग्यारहवां श्रुतस्कन्ध पूर्ण हुआ।