मंदाक्रांता-सम्यग्दृष्टिस्त्यजति सकलं कर्मनोकर्मजातं
प्रत्याख्यानं भवति नियतं तस्य संज्ञानमूर्ते:।
सच्चारित्राण्यघकुलहराण्यस्य तानि स्युरुच्चै:
तं वंदेऽहं भवपरिभवक्लेशनाशाय नित्यम्।।१२७।।
अर्थ-जो सम्यग्दृष्टि सम्पूर्ण कर्म और नोकर्म के समूह को छोड़ देता है उस सम्यग्ज्ञान की मूर्तिस्वरूप साधु के निश्चित ही प्रत्याख्यान होता है और उसके ही पाप समूह को नष्ट करने वाले ऐसे सम्यक््âचारित्र भी अतिशय रूप से होते हैं। ऐसे उन रत्नत्रयस्वरूप मुनिराज को मैं भव के परिभव-तिरस्काररूप क्लेश का नाश करने के लिये नित्य ही वंदन करता हूँ।
भावार्थ-यहाँ पर सम्यग्दृष्टि शब्द से वीतराग चारित्र के साथ अविनाभावी वीतराग सम्यक्त्व से सहित निश्चय सम्यग्दृष्टि को ग्रहण किया गया है क्योंकि उसी के ही सामायिक आदि से यथाख्यात पर्यंत सभी चारित्र हो सकते हैं ऐसे मुनिराज ही अपने तथा हमारे भव के पराभव से होने वाले दु:खों को नाश करने में समर्थ होते हैं इसीलिये यहाँ उनको नमस्कार किया है।
मालिनी– जयति स परमात्मा केवलज्ञानमूर्ति:
सकलविमलदृष्टि: शाश्वतानंदरूप:।
सहजपरमचिच्छक्त्यात्मक: शाश्वतोयं।
निखिलमुनिजनानां चित्तपंकेजहंस:।।१२८।।
अर्थ-सकल मुनिजनों के मन सरोज का हंसस्वरूप ऐसा जो यह शाश्वत केवलज्ञान की मूर्तिरूप, सकल विमल दर्शनरूप, शाश्वत आनंद-सौख्यरूप और सहज परम चैतन्य वीर्य रूप परमात्मा है वह जयशील होता है।
भावार्थ-स्वाभाविक अनंत चतुष्टय से युक्त परमात्मा निश्चयनय से अथवा शक्ति रूप से मुनियों के हृदयकमल में विराजमान है, वो ही कारण परमात्मा है क्योंकि शुद्धोपयोगी साधु ही ऐसी शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हुए उसमें तन्मय हो जाते हैं, ऐसे कारण परमात्मा को यहाँ पर टीकाकार ने जयवन्त कहा है।
बसंततिलका– आत्मानमात्मनि निजात्मगुणाढ्यमात्मा
जानाति पश्यति च पंचमभावमेकम्।
तत्याज नैव सहजं परभावमन्यं
गृह्वाति नैव खलु पौद्गलिकं विकारम्।।१२९।।
अर्थ-आत्मा अपने आत्मगुणों से समृद्ध, पंचम भावरूप-परम पारिणामिक भाव स्वरूप ऐसी एक आत्मा को अपनी आत्मा में जानता है और देखता है उस सहज, पंचमभाव स्वरूप आत्मा को आत्मा ने छोड़ा ही नहीं है तथा निश्चितरूप से जो पौद्गलिक विकार रूप अन्य परभाव है उनको ग्रहण ही नहीं करता है अर्थात् शुद्ध निश्चयनय से आत्मा त्रैकालिक शुद्ध है पुन: स्वभाव को छोड़ने और परभाव को ग्रहण करने की कुछ बात ही नहीं उठती है। निश्चयनय के अवलंबन से ऐसे निज के स्वभाव को समझकर उसी को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिये।
शार्दूलविक्रीडित-मत्स्वान्तं मयि लग्नमेतदनिशं चिन्मात्रिंचतामणा-
वन्यद्रव्यकृताग्रहोद्भवमिमं मुक्त्वाधुना विग्रहम्।
तच्चित्रं न विशुद्धपूर्णसहजज्ञानात्मने शर्मणे
देवानाममृताशनोद्भवरुचिं ज्ञात्वा किमन्याशने।।१३०।।
अर्थ-यह मेरा मन अन्य द्रव्य के आग्रह करने से या अन्य द्रव्य को आ-समंतात्-सब तरफ से ग्रहण करने से उत्पन्न हुए इस शरीर को या विग्रहराग द्वेषादि कलह को छोड़कर इस समय विशुद्ध, पूर्ण, सहजज्ञान स्वरूप सुख के लिये चिन्मात्र िंचतामणि स्वरूप ऐसे मुझमें हमेशा लीन हो गया है इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है, क्योंकि अमृत भोजन से उत्पन्न स्वाद को जान करके देवों को अन्य भोजन से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् नहीं है।
भावार्थ-एक बार अमृत का आस्वाद आ जाने पर कौन ऐसा है कि जो अन्य खारा जल पीना चाहेगा? उसी प्रकार से एक बार जिनको अपने ही घट में विराजमान भगवान आत्मा के अनुभव का आनंद आ चुका है वह साधु क्या पर संकल्प-विकल्पों में या ऐसे निकृष्ट शरीर में आनंद मानेगा ? नहीं मानेगा, वह तो अपने स्वरूप में ही तन्मय होकर कर्मों का नाश करके रहेगा।
शार्दूलविक्रीडित-निर्द्वन्द्वं निरुपद्रवं निरुपमं नित्यं निजात्मोद्भवं
नान्यद्रव्यविभावनोद्भवमिदं शर्मामृतं निर्मलम्।
पीत्वा य: सुकृतात्मक: सुकृतमप्येतद्विहायाधुना
प्राप्नोति स्फुटमद्वितीयमतुलं चिन्मात्रिंचतामाणिम्।।१३१।।
अर्थ-द्वंद रहित, उपद्रव रहित, उपमा रहित, नित्य अपनी आत्मा से उत्पन्न होने वाले और अन्य द्रव्य की विभावना-विकल्प से उत्पन्न न होने वाले ऐसे निर्मल सुख रूपी अमृत को पी करके जो सुकृतात्मा-पुण्यात्मा इस समय इस सुकृत-पुण्य को भी छोड़कर प्रगट रूप से अद्वितीय और अतुल ऐसे चिन्मात्र चिंतामणि को प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ-लोक में िंचतामणि रत्न िंचतित वस्तु को देने वाला होता है वैसे ही यह चिन्मात्र िंचतामणि रत्नस्वरूप आत्मा अपने इस देहरूपी देवालय में विराजमान है, जो उसको प्राप्त कर लेते हैं उनको सम्पूर्ण अलौकिक, अचिन्त्य ऐसे अनंतगुण रूप फल मिल जाते हैं, पुन: िंचतित की तो बात ही क्या है ? वे पुण्यात्मा पुण्य की राशिस्वरूप हैं फिर भी पुण्य को छोड़कर ऐसे फल को प्राप्त करते हैं अर्थात् पुण्य-पाप रूपी सभी कर्मों के निरोध से ही पूर्णतया कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष होता है। यह पुण्य का छूटना वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप निश्चय ध्यान में ही होता है उसके पूर्व नहीं।
आर्या– को नाम वक्ति विद्वान् मम च परद्रव्यमेतदेव स्यात्।
निजमहिमानं जानन् गुरुचरणसमर्च्चनासमुद्भूतम्।।१३२।।
अर्थ-गुरु के चरणों की सम्यक््â प्रकार अर्चना से उत्पन्न हुई ऐसी निज महिमा को जानता हुआ कौन विद्वान् ऐसा कहता है कि यह पर द्रव्य मेरा ही है? अर्थात् कोई भी विद्वान् ऐसा नहीं कहता है, अज्ञानी ही कहते हैं।
भावार्थ-वास्तव में गुरुदेव के चरणकमलों की उपासना से ही अपने आत्मस्वरूप का सही बोध होता है। जो गुरुचरणों का आश्रय नहीं लेते हैं वे शास्त्र के सच्चे मर्म को न समझकर एकांत से निश्चयाभासी बन जाते हैं। गुरुपरम्परागत अर्थ को समझने के लिए और आत्मतत्त्व को प्राप्त करने के प्रयत्नों का अभ्यास सीखने के लिए गुरुओं का आश्रय लेना चाहिये। और तो क्या ? तीर्थंकर भी पूर्व भवों में गुरुओं के पादमूल में दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों आदि का अध्ययन कर तथा गुरुओं के पादमूल में ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं। गुरुओं के पादमूल के अतिरिक्त तीर्थंकर प्रकृति का बंध और क्षायिक सम्यक्त्व हो नहीं सकते हैं ऐसा नियम है। गुरुओं के आश्रय की अचिन्त्य महिमा है।
मंदाक्रांता– प्रेक्षावद्भि: सहजपरमानन्दचिद्रूपमेकं
संग्राह्यं तैर्निरूपममिदं मुक्तिसाम्राज्यमूलम्। तस्मादुच्चैस्त्वमपि च सखे मद्वच:सारमस्मिन्
श्रुत्वा शीघ्रं कुरु तव मिंत चिच्चमत्कारमात्रे।।१३३।।
अर्थ-बुद्धिमानजनों को मुक्तिसाम्राज्य के मूल कारण, निरुपम, सहज परमानंदमय चैतन्यस्वरूप यह एक आत्मा ही सम्यक््â प्रकार ग्रहण करने योग्य है इसलिये हे मित्र ! तुम भी सारभूत ऐसे मेरे वचनों को सुन करके अतिशय रूप से चिच्चमत्कार मात्र इस आत्मा में शीघ्र ही अपनी बुद्धि लगावो।
भावार्थ-यह आत्मा चिच्चमत्कार मात्र है, इसके ध्यान करने से अलौकिक तीनों लोकों को और तीनों कालों को एक साथ जानने वाला परम चमत्कारिक दिव्यज्योति रूप केवलज्ञान प्रगट हो जाता है।
मालिनी– अथ नियत मनोवाक्कायकृत्स्नेन्द्रियेच्छो
भववनधिसमुत्थं मोहयाद:समूहम्।
कनकयुवतिवांच्छामप्यहं सर्वशक्त्या
प्रबलतरविशुद्धध्यानमय्या त्यजामि।।१३४।।
अर्थ-मन, वचन, काय संबंधी और सम्पूर्ण पाँचों इन्द्रिय संबंधी इच्छाओं का जिसने नियंत्रण कर दिया है ऐसा मैं अब भव समुद्र में उत्पन्न हुये ऐसे मोहरूप मत्स्य१ के समूह को तथा कनक और कामिनी की वाञ्छा को भी प्रबलतर विशुद्ध ध्यानमयी सर्वशक्ति से छोड़ता हूँ।
भावार्थ-सम्पूर्ण इच्छाओं के निरोध से ही मोह के निमित्त से होने वाली पर वस्तु की चाह रूप विभाव भावनाएं छोड़ी जा सकती हैं अन्यथा एक पर एक इच्छाएँ तो होती ही जाती हैं। यहाँ पर टीकाकार ने ऐसा संकेत किया है कि इन वांछाओं को त्याग करने में सर्वशक्ति लगा देनी चाहिये क्योंकि तप और त्याग-दान शक्ति के अनुसार कहे गये हैं किन्तु विभाव भावों को छोड़ने में सारी शक्ति लगा देनी चाहिये अर्थात् अत्यधिक पुरुषार्थ करके वांछाओं का दमन करना चाहिये।
मालिनी– मम सहजसुदृष्टौ शुद्धबोधे चरित्रे
सुकृतदुरितकर्मद्वन्दसंन्यासकाले ।
भवति स परमात्मा संवरे शुद्धयोगे
न च न च भुवि कोप्यन्योस्ति मुक्त्यै पदार्थ:।।१३५।।
अर्थ-मेरे सहज शुद्ध दर्शन में, शुद्ध ज्ञान में, चारित्र में, पुण्य-पाप रूपी कर्मद्वय के त्याग रूप-प्रत्याख्यान के समय में, संवर में और शुद्ध योग, शुद्धध्यान रूप शुद्धोपयोग में वह परमात्मा ही है क्योंकि मुक्ति की प्राप्ति के लिये इस संसार में अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है-नहीं है।
भावार्थ-वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप ध्यान में लीन होने पर यह आत्मा ही कारण परमात्मा रूप से स्थित है, वही परमात्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर और ध्यान रूप है क्योंकि वही उस समय निश्चय रत्नत्रय की एकाग्र परिणति से परिणत हो रहा है। उस निश्चयरूप एकाग्र अवस्था में ही ये निश्चय दर्शनादि घटित होते हैं अन्यत्र नहीं इसीलिये इस आत्मा को छोड़कर अन्य किसी भी अनुष्ठान से मोक्ष की प्राप्ति असंभव है।
पृथ्वी– क्वचिल्लसति निर्मलं क्वचन निर्मलानिर्मलं
क्वचित्पुनरनिर्मलं गहनमेवमज्ञस्य यत्।
तदेव निजबोधदीपनिहताघभूछायकं
सतां हृदयपद्मसद्मनि च संस्थितं निश्चलम्।।१३६।।
अर्थ-जो क्वचित्-कहीं पर किसी अवस्था में निर्मल शोभित हो रहा है-दिखाई दे रहा है, कहीं पर निर्मलानिर्मल-उभय से निश्चित रूप दिखाई दे रहा है, कहीं पर अनिर्मल मलिन ही दिखाई दे रहा है, ऐसा जो यह आत्मा है वह अज्ञानी लोगों के लिये समझने में गहन ही है-अत्यन्त कठिन है। अपने ज्ञानरूपी दीपक से जिसने पापरूपी अंधकार को नष्ट कर दिया है ऐसा वही आत्मा सज्जन पुरुष-साधुओं के हृदयकमलरूपी महल में निश्चल रूप से विराजमान है।
भावार्थ-यह आत्मा सिद्धावस्था में पूर्णतया निर्मल हो चुका है, अर्हंत अवस्था में चार अघातिया कर्मों के शेष रहने से कथंचित् असिद्धत्व अवस्था की अपेक्षा से अनिर्मल भी होने से निर्मलानिर्मल है अथवा वीतरागी मुनि के शुद्धोपयोग रूप ध्यान में-उपयोग में निर्मल होने से भी निर्मलानिर्मल है अथवा चतुर्थ गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक सराग अवस्था होते हुए पुण्य जीव कहलाने से और अंश-अंश रूप अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान आदि कषायों का अभाव होने से निर्मल भी है अत: उनकी आत्मा भी निर्मलानिर्मल है और पहले गुणस्थान से लेकर तृतीय गुणस्थान तक पाप जीव होने से अनिर्मल ही है।
अथवा शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से संसारी जीव भी शुद्ध ही है अत: इन नय की अपेक्षा में सभी जीवराशि निर्मल हैं, व्यवहारनय की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि आत्मा से लेकर संयत आदि आत्मा निर्मलानिर्मल है और शेष संसारी जीव अनिर्मल हैं।
मंदाक्रांता-एको याति प्रबलदुरघाज्जन्म मृत्युं च जीव:
कर्मद्वन्द्वोद्भवफलमयं चारुसौख्यं च दु:खम्।
भूयो भुंक्ते स्वसुखविमुख: सन् सदा तीव्रमोहा-
देकं तत्त्वं किमपि गुरुत: प्राप्य तिष्ठत्यमुष्मिन्।।१३६।।
अर्थ-यह जीव अकेला ही प्रबल दुष्कृत से जन्म और मृत्यु को प्राप्त करता है तथा अकेला ही सदा तीव्र मोह के निमित्त से स्वसुख से विमुख होता हुआ कर्मद्वंद्व-पुण्य पाप रूप दो प्रकार के कर्मोदय के फलरूप सुन्दर सौख्य और दुख को पुन:-पुन: भोगता है और अकेला ही गुरुदेव के प्रसाद से कोई एक अद्भुत तत्त्व-स्वात्मतत्त्व को प्राप्त करके उसी में स्थित हो जाता है।
मालिनी– अथ मम परमात्मा शाश्वत: कश्चिदेक:
सहजपरमचिच्चिन्तामणिर्नित्यशुद्ध: ।
निरवधिनिजदिव्यज्ञानदृग्भ्यां समुद्ध: (समृद्ध:)।
किमिह बहुविकल्पैर्मे फलं बाह्यभावै:।।१३८।।
अर्थ-मेरा परमात्मा शाश्वत है, कोई एक अद्भुत है, सहज परम चैतन्य िंचतामणि रूप है, नित्य ही शुद्ध है और अनंत निज दिव्य ज्ञान दर्शन से समृद्ध है, इस अवस्था में पुन: बहुत से भेदरूप इन बाह्य भावों से मुझे क्या फल है? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं है।
भावार्थ-शुद्ध निश्चयनय के अवलम्बन से िंचतामणिस्वरूप आत्मा को समझ लेने के बाद मुझे बाह्य पदार्थों से कुछ भी नहीं होगा।
अनुष्टुप्– चित्तत्त्वभावनासक्तमतयो यतयो यमम्।
यतंते यातनाशीलयमनाशनकारणम्।।१३९।।
अर्थ-चैतन्य तत्त्व की भावना में जिनकी मति असक्त है ऐसे यतिगण, यातना-कष्ट देने के स्वभाव वाले यमराज के नाश में कारणभूत ऐसे यम-संयम में प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्त होते हैं।
भावार्थ-व्यवहार संयम के बिना निश्चय संयम की सिद्धि असंभव है अतएव आत्मतत्त्व की सिद्धि के इच्छुक मुमुक्षुजन पहले सम्यक्त्व सहित व्यवहार संयम को निरतिचार पालते हैं पुन: उसी के बल से निश्चयचारित्र रूप ध्यान के द्वारा यमराज इस अपरनाम वाले आयु कर्म को भी समाप्त कर मृत्युंजयी भगवान बन जाते हैं।
बसंततिलका– मुक्त्यंगनालिमपुनर्भवसौख्यमूलं
दुर्भावनातिमिरसंहतिचन्द्रकीर्तिम्।
संभावयामि समतामहमुच्चवैâस्तां
या संमता भवति संयमिनामजस्रम्।।१४०।।
अर्थ-मुक्तिरूपी स्त्री के प्रति भ्रमर सदृश, निर्वाण सौख्य के लिये मूल कारण, दुर्भावनारूपी अंधकार समूह के लिए चन्द्रमा की चाँदनी स्वरूप ऐसी उस समता की मैं अतिशय रूप से सम्यक् प्रकार भावना करता हूँ जो कि संयमी साधुओं को हमेशा ही सम्मत अर्थात् मान्य है।
भावार्थ-जीवन, मरण, शत्रु, मित्र, सुख, दुख और लाभ, अलाभ में राग द्वेष का अभाव होना, हर्ष-विषाद परिणति नहीं करना, मध्यस्थ भावना से स्थित रहना समता है। इस समता के बिना दुर्भावों का विनाश नहीं हो सकता है, पुन: संकल्प-विकल्पों के होते रहने से निर्विकल्प ध्यान की सिद्धि असंभव है अत: हमेशा साम्यभाव का अवलंबन लेना चाहिये।
हरिणी– जयति समता नित्यं या योगिनामपि दुर्लभा।
निजमुखसुखाम्भोधिप्रस्फारपूर्णशशिप्रभा।
परमयमिनां प्रव्रज्यास्त्रीमन:प्रियमैत्रिका
मुनिवरगणस्योच्चै: सालंक्रिया जगतामपि।।१४१।।
अर्थ-जो योगियों को भी दुर्लभ है, अपने अभिमुख होने से उत्पन्न हुए सुख समुद्र की अतिशय वृद्धि के लिये पूर्णिमा के चन्द्रमा की चाँदनी रूप है, परम संयमियों की दीक्षारूपी स्त्री की प्रिय सहेली है तथा मुनि समूह के लिये और जगत के लिये भी अतिशयरूप से अलंकार स्वरूप है, वह समता नित्य ही जयशील हो रही है।
भावार्थ-इस समभाव के बिना अंत:सुख प्रगट नहीं हो सकता है तथा इसके बिना मुनिराज सुशोभित नहीं होते हैं इसलिये जैसे यह मुनिवरों का भूषण है वैसे ही जगत का भी भूषण है। वीतरागता के बिना जगत में शांति का लेश नहीं हो सकता है।
हरिणी– जयति सततं प्रत्याख्यानं जिनेन्द्रमतोद्भवं
परमयमिनामेतन्निर्वाणसौख्यकरं परम्।
सहजसमतादेवीसत्कर्णभूषणमुच्चवैâ:
मुनिप शृणु ते दीक्षाकान्तातियौवनकारणम्।।१४२।।
अर्थ-जिनेन्द्र भगवान के मत में होने वाला प्रत्याख्यान सदैव जयशील हो रहा है। यह परम संयमियों के लिये निर्वाण सौख्य को करने वाला है, उत्कृष्ट है और अतिशयरूप से सहज समता देवी के सुन्दर कानों का आभूषण है। हे मुनिपते ! सुनो, यह आपकी दीक्षारूपी प्रिय पत्नी के अतिशय रूप यौवन का कारण है।
भावार्थ-यौवन से सहित स्त्री अपने पति को जितना सुख प्राप्त कराती है उतना बाला स्त्री या वृद्धा स्त्री से नहीं होता है, इसीलिये टीकाकार ने यहाँ प्रलोभन रूप शब्दों में कहा है कि हे मुनिराज ! यह प्रत्याख्यान तुम्हारी दीक्षा के जीवन में अत्यधिक हितकर होने से अत्यधिक सुखदायी है।
रथोद्धता– भाविकालभवभावनिवृत्त:
सोहमित्यनुदिनं मुनिनाथ:।
भावयेदखिलसौख्यनिधानं
स्वस्वरूपममलं मलमुक्त्यै।।१४३।।
अर्थ-जो भविष्यकाल में भव को करने वाले ऐसे भावों से रहित हो चुके हैं ‘सो ही मैं हूँ ‘मुनियों के नाथ ऐसे महामुनि मल से मुक्त होने के लिये समस्त सौख्य का निधान और अमल-निर्दोष ऐसे अपने स्वरूप की प्रतिदिन भावना करें।
भावार्थ-जो संसार में भ्रमण कराने वाले ऐसे भावों से पूर्ण प्रत्याख्यान स्वरूप हो चुके हैं, ऐसे पूर्ण शुद्ध सिद्ध भगवान हैं। शुद्ध निश्चय से ‘वही मैं हूँ’ अर्थात् मैं भी समस्त विभाव भावों से रहित ही हूँ ऐसी भावना के द्वारा नित्य ही अपने स्वरूप का चिंतवन करना चाहिये।
स्वागता– घोरसंसृतिमहार्णवभास्वद्यानपात्रमिदमाह जिनेन्द्र:।
तत्त्वत: परमतत्त्वमजस्रं भावयाम्यहमतो जितमोह:।।१४४।।
अर्थ-घोर संसाररूपी महासमुद्र में यह देदीप्यमान जलयान-जहाज है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है अतएव मोह को जीत लिया है जिसने ऐसा मैं परमार्थ से इस परमतत्त्व को नित्य ही भाता हूँ।
मंदाक्राता-प्रत्याख्यानं भवति सततं शुद्धचारित्रमूर्ते:
भ्रान्तिध्वंसात्सहजपरमानंदचिन्निष्ठबुद्धे:।
नास्त्यन्येषामपरसमये योगिनामास्पदानां
भूयो भूयो भवति भविनां संसृतिर्घोररूपा।।१४५।।
अर्थ-भ्रान्ति के नष्ट हो जाने से सहज परमानंदमय चैतन्य में तल्लीन है बुद्धि जिनकी, तथा जो शुद्ध चारित्र की मूर्तिस्वरूप हैं, ऐसे साधु के सतत ही प्रत्याख्यान होता है किन्तु अपर समय-अन्य संप्रदाय में स्थान रखने वाले ऐसे अन्य योगियों के वह नहीं होता है प्रत्युत उन संसारी जीवों के पुन:-पुन: घोर संसार ही होता है।
भावार्थ-१अन्य प्रति में पाठ भेद होने से अन्य भाषाकार ने उसका अर्थ भी वैसा ही किया है। जैसे-‘चिन्निष्ठ बुद्धे:’ की जगह ‘चिन्निष्ट बुद्धे: है जिसने ……. चैतन्य शक्ति के द्वारा विकल्परूप बुद्धि को नष्ट कर दिया है। आगे ‘योगिनामास्पदानां’ की जगह ‘योगिनामास्यदानं’ पाठ होने से उसका अर्थ-‘अन्य आगम में लीन अन्य योगियों का मुखदान (उपयोग) इस ओर नहीं हो सकता है, ऐसा अर्थ देखा जाता है।
शिखरिणी-महानंदानंदो जगति विदित: शाश्वतमय:
स सिद्धात्मन्युच्चैर्नियतवसतिनिर्मलगुणे।
अर्मा विद्वान्सोपि स्मरनिशितशस्त्रैरभिहता:
कथं कांक्षंत्येनं बत कलिहतास्ते जडधिय:।।१४६।।
अर्थ-जो महान आनन्द से भी अधिक आनन्दरूप ऐसा महान आनन्द आनन्दस्वरूप जगत में प्रसिद्ध है, शाश्वतमय है, वह अतिशय रूप से निर्मल गुणों से सहित, सिद्धात्माओं में निश्चित रूप से निवास करता है किन्तु ये विद्वान् लोग भी जो कामदेव के तीक्ष्ण शस्त्रों से घायल हैं, वे ऐसे इस परमतत्त्व की वाञ्छा वैâसे करते हैं ? अहो! बड़ा आश्चर्य है कि वे जड़बुद्धि जीव पाप से नष्ट हो रहे हैं।
भावार्थ-जो परम तत्त्व मुक्त जीवों के पास है, संसारी प्राणी सम्पूर्ण विभाव विकल्पों से रहित उन्हीं सिद्धों में तन्मय-एकरूप होकर उसे प्राप्त कर सकते हैं किन्तु जो विषय वासना में लिप्त हैं उनके लिए चाहने पर भी वह तत्त्व दुर्लभ है, नहीं मिलता है। इंद्रिय और अतीन्द्रिय सुख एक साथ असंभव है, विषयसुख भी मिले और परमार्थ सुख भी, ऐसा कभी किसी ने न देखा है और न सुना ही है। साधुजन जब पूर्ण ब्रह्मचर्य के अवलंबन से अंत: शुद्ध करते हैं तभी उन्हें अंशात्मक आत्मा का आनन्द आता है वह आनन्द भोगी गृहस्थी को स्वप्न में भी दुर्लभ है।
मंदाक्रांता-प्रत्याख्यानाद्भवति यमिषु प्रस्फुटं शुद्धशुद्धं
सच्चारित्रं दुरघतरुसांद्राटवीवन्हिरूपम्।
तत्त्वं शीघ्रं कुरु तव मतौ भव्यशार्दूल नित्यं
यिंत्कभूतं सहजसुखदं शीलमूलं मुनीनाम्।।१४७।।
अर्थ-जो सम्यक््चारित्र संयमियों में प्रगट रूप है, शुद्ध में भी शुद्ध अत्यन्त शुद्ध है और दुष्ट पापकर्म रूपी वृक्षों से सघन ऐसे वन को जलाने के लिये अग्नि के सदृश है वह चारित्र प्रत्याख्यान से ही होता है, अत: हे भव्योत्तम! तुम शीघ्र ही अपनी बुद्धि में उस तत्त्व को नितप्रति धारण करो। जो कि वैâसा है ? सहज सुख को देने वाला ऐसा मुनियों के शील-चारित्र का मूल है।
भावार्थ-प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग, इसके बिना सम्यक््चारित्र ही असंभव है अतएव यह त्याग ही मुनियों के सम्पूर्ण चारित्र वृक्ष की जड़स्वरूप है, ऐसा समझना।
मालिनी– जयति सहजतत्त्वं तत्त्वनिष्णातबुद्धे:।
हृदयसरसिजाताभ्यन्तरे संस्थितं यत्।
तदपि सहजतेज: प्रास्तमोहान्धकारं
स्वरसविसरभास्वद्बोधविस्फूर्तिमात्रम्।।१४८।।
अर्थ-सहजतत्त्व जयशील हो रहा है, जो कि तत्त्व में निष्णात बुद्धि वाले ऐसे महामुनि के हृदयकमल के मध्य में विराजमान है। अस्त कर दिया है मोह रूपी अंधकार को जिसने, ऐसा वह सहज तेज (स्वाभाविक ज्योति) अपने रस-अनुभव के विस्तार से देदीप्यमान ज्ञान का स्फुरण मात्र-प्रकाश मात्र है।
पृथ्वी– अखंडितमनारतं सकलदोषदूरं परं
भवांबुनिधिमग्नजीवततियानपात्रोपमम्।
अथ प्रबलदुर्गवर्गदववन्हिकीलालकं
नमामि सततं पुन: सहजमेव तत्त्वं मुदा।।१४९।।
अर्थ-जो अखंडित-अखंड एक, अनारत-अविच्छिन्न, सकल दोषों से दूर, उत्कृष्ट, संसार समुद्र में डूबे हुए जीवसमूह के लिये जहाज स्वरूप, प्रबल दुर्ग-संकट समूह रूपी दावानल को बुझाने के लिए जल के सदृश है। ऐसे उस सहजतत्त्व को ही मैं हर्ष से पुनरपि सतत नमस्कार करता हूँ।
पृथ्वी– जिनप्रभुमुखारविन्दविदितं स्वरूपस्थितं
मुनीश्वरमनोगृहान्तरसुरत्नदीपप्रभम् ।
नमस्यमिह योगिभिर्विजितदृष्टिमोहादिभि:
नमामि सुखमन्दिरं सहजतत्त्वमुच्चैरद:।।१५०।।
अर्थ-जो जिनप्रभु के मुखकमल से विश्रुत है, स्वरूप में स्थित है-अपने आपमें ही विराजमान है, मुनीश्वरों के मनरूपी महल के भीतर रखे हुए सुन्दर रत्नदीप के समान है, दर्शनमोह को जीतने वाले योगियों के द्वारा इस जगत में नमस्कार करने योग्य है, ऐसे सुख के मन्दिर उस सहजतत्त्व को मैं अतिशय रूप से नमस्कार करता हूँ।
पृथ्वी– प्रनष्टदुरितोत्करं प्रहतपुण्यकर्मव्रजं
प्रधूतमदनादिकं प्रबलबोधसौधालयम्।
प्रणामकृततत्त्ववित् प्रकरणप्रणाशात्मकं
प्रवृद्धगुणमंदिरं प्रहृतमोहरात्रिं नुम:।।१५१।।
अर्थ-जिसने प्रकर्षरूप से पाप समूह को नष्ट कर दिया है, जिसने पुण्य कर्म के समूह को भी प्रकर्ष रूप से मार दिया है, जिसने कामदेव आदि को प्रकर्ष रूप से समाप्त कर दिया है। जो प्रबल अर्थात् प्रकृष्ट बलशाली ज्ञान-केवलज्ञान का निवासगृह है, जिसको तत्ववेत्ता प्रणाम करते हैं, जो प्रकृष्ट रूप से करण-इन्द्रियों का नाश करने वाला है अथवा जो प्रकरण-करने योग्य कार्य के नाश स्वरूप-कृतकृत्य है, जो प्रकृष्ट रूप से वृद्धिंगत गुणों के रहने के लिए स्थानस्वरूप है और जिसने प्रकर्ष रूप से मोहरात्रि को नष्ट कर दिया है ऐसे उस सहज परमतत्त्व को हम नमस्कार करते हैं।
भावार्थ-यहाँ काव्य के प्रकांड विद्वान् पद्मप्रभमलधारी मुनिराज ने प्रत्येक पद के प्रारम्भ में ‘प्र’ शब्द का प्रयोग किया है जो कि आठ बार आया है। जिससे शब्द में ही नहीं बल्कि अर्थ में भी लालित्य आ गया है।
विशेषार्थ-साधु देववंदना, गुरुवंदना करके शरीर की शुद्धि करके आहार के लिये जाते हैं। श्रावक के द्वारा पड़गाहन होने पर वे उनके घर में प्रवेश करते हैं। पश्चात् नवधाभक्ति होने के बाद वे सिद्धभक्तिपूर्वक प्रत्याख्यान की निष्ठापना करते हैं और चतुरंगुल पाद के अंतराल से खड़े होकर आहार करते हैं। यथा-१सभी प्रतिज्ञा पूर्ण हो चुकने पर सिद्धभक्तिपूर्वक पूर्व दिन के ग्रहण किये हुए प्रत्याख्यान का त्याग करके…………..खड़े होकर आहार ग्रहण करते हैं अर्थात् कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि गुरु के पास से प्रत्याख्यान त्याग करके आहारार्थ जावें सो गलत है, क्योंकि मार्ग में प्रत्याख्यान बिना रहना उचित नहीं है इसी बात को यहाँ स्पष्ट किया है।जैसे वहाँ प्रत्याख्यान का निष्ठापन कर आहार ग्रहण करें वैसे ही वहीं पर शीघ्र ही भोजन के अनंतर लघु सिद्धभक्तिपूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेवें, पुन: आकर गुरु के पास लघु सिद्ध, योगि भक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान लेवें। यदि वहाँ ग्रहण नहीं करें और मार्ग में जाते हुये अकस्मात् किसी कारण से मरण हो जावे तो अप्रत्याख्यान२ हो जावेगा।यहाँ इस अधिकार में व्यवहार प्रत्याख्यान करने वाले ऐसे महामुनियों के निश्चय प्रत्याख्यान का वर्णन है और यह निश्चय रत्नत्रय में ही घटित होता है। व्यवहार प्रत्याख्यान जिनके है उनके निश्चय है और नहीं भी है किन्तु जिनके निश्चय प्रत्याख्यान है उनके व्यवहार अवश्य हो चुका है, क्योंकि व्यवहार के बिना निश्चय नहीं हो सकता है। इस अधिकार को पढ़कर नित्य ही निश्चय प्रत्याख्यान रूप शुद्ध आत्मा की भावना करना चाहिये।इस प्रकार से नियमसार की तात्पर्यवृत्ति टीका से उद्धृत कलश काव्य के भाषानुवाद रूप निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार नामक छठा श्रुतस्कंध पूर्ण हुआ।