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ग्रंथी अर्थात् गांठ । ग्रंथी को कहीं से भी कभी भी चखो, उसमें रस नहीं मिलेगा। वह नीरस ही लगेगी। यद्यपि इक्षु रस मधुर और सरस होता है। पर इक्षुखंड की गांठ रसहीन ही होती हैं। वैसी ही हैं राग—द्वेष की गांठे! कुटिलता—जटिलता की ग्रन्थियाँ । उसमें रस तो क्या मिलेगा अपितु वे जीवन के सारे रस को निचोड़कर …..सोंखकर उसे शुष्क, रसहीन और अमधुर बना देगी। जीवन के धरातल को उपजाऊ बनाना है। तो प्रेम की खाद डालिये। आचार में सुन्दर विचार— बीजों का वपन करना है तो स्वाध्याय के भण्डार में प्रवेश पाइये। धर्म के बाग को हरा—भरा बनाना है तो त्याग—वैराग्य के जल से सिंचन कीजिये। शान्ति और समाधि के फल और फसल प्राप्त करनी है तो तप का ताप दीजिए और मर्यादा की चारदीवारी बनाईये।
वैसे भी Medical Research के द्वारा यह प्रमाणित हो चुका है कि गांठ का मूल कारण मानसिक एवं हार्दिक राग —द्वेष, ईष्र्या—घृणा, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आभ्यन्तर गांठे हैं। इन गाठों को उखाड फैकने का थोड़ा प्रयत्न कीजिये और जिन्दगी भर का आनंद पाईये।
राग—द्वेष का दुष्फल मुझे ही भोगना होगा। क्रोधादि कषाय जीवन व मन को अशान्त एवं बैचेन बनाते हैं । जब मुझे सोचना ही है तो सकल सृष्टि के हित, कल्याण और श्रेय की कामना करूं। इसी में मेरा सुख है। कीचड़ उछालने वाला दूसरों को गंदा कर पाये, न पाये पर अपने हाथों को गन्दा करता ही है।