वर्षायोग समाप्ति के अनंतर वर्तमान साधुओं को नूतन पिच्छिका ग्रहण करने की परम्परा है अर्थात् श्रावक अथवा साधु-साध्वियाँ कार्तिक मास में स्वयं पतित ऐसे मयूर पंखों की पिच्छिका का निर्माण करते हैं और उन्हें लाकर आचार्यश्री के सामने रख देते हैंं। संघस्थ प्रमुख साधु अर्थात् आचार्य के प्रमुख शिष्य या अन्य कोई प्रमुख श्रावक सबसे पहले आचार्यश्री को पिच्छिका प्रदान करते हैं तब आचार्यदेव नूतन पिच्छिका ग्रहण कर पुरानी पिच्छिका का त्याग कर देते हैंं। अनंतर आचार्य महाराज क्रमश: अपने शिष्यों को-मुनियों को, आर्यिकाओं को और क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं को नूतन पिच्छिका देते हैं। सभी साधु नूतन पिच्छिका ग्रहण कर पुरानी पिच्छिका को छोड़ देते हं
श्रावकगण आवश्यकतानुसार साधुओं को कमंंडलु, शास्त्र आदि भी प्रदान करते हैं। आर्यिकाओं, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं को वस्त्र भी देते हैंं।
वर्षायोग के प्रारंभ और अंत में श्रावकगण चतुर्विध संघ की भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं।