नेपाल में जैन धर्म का इतिहास लिच्छविकाल से प्रारम्भ होकर मल्लकाल तक आते—आते समय के प्रवाह में विलीन हो गया। इतिहासकारों ने लिखा है कि लिच्छवि, उत्तरी बिहार से नेपाल में आये थे और वे जैन धर्मावलम्बी थे। हाल ही में कुछ तथ्य सामने आये हैं, जिनके विषय में अनुसंधान की आवश्यकता है। पिछले दिनों करीब १ वर्ष पूर्व बागमती नदी के किनारे पाटन के शंखमूल स्थान से एक प्रतिमा प्राप्त हुई है। यह आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु की खड्गासन प्रतिमा है, अनुमान किया जाता है कि यह प्रतिमा १४०० वर्ष पुरानी है। इसके वक्षस्थल पर श्रीवत्सचिन्ह तथा चरणों के नीचे अर्धचन्द्राकार चिन्ह है। यह प्रतिमा पंचपरमेष्ठी की है जिसमें मूलनायक श्री चन्द्रप्रभु भगवान तथा नीचे यक्ष एवं यक्षिणी भी हैं। यह प्रतिमा काठमाण्डू के राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित है। नेपाल के राष्ट्रीय अभिलेखालय में एक पुस्तक की पुरानी पाण्डुलिपि है, जिसका नाम ‘प्रश्नव्याकरण टीका’ है। विद्वानों के अनुसार जैन धर्म का नेपाल से अति घनिष्ठ सम्बन्ध पुरातन काल से है। यह बहुश्रुत है कि भारतवर्ष का नाम ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भारत के नाम से है। कहा जाता है कि सम्राट भरत ने नेपाल की काली गण्डकी के किनारे पुलहाश्रम में तपस्या की थी, जो आज भी हिन्दुओं का एक तीर्थस्थल है। काठमांडू में दक्षिण पूर्व तराई क्षेत्र में मिथिला नगरी जनकपुर धाम में जैन धर्म के १९ वें तीर्थंकर मल्लिनाथ भगवान तथा २१ वें तीर्थंकर नमिनाथ भगवान का जन्म हुआ था। इसी क्षेत्र में इन्हीं दोनों तीर्थंकरों के आठ कल्याणक भी हुए है। इस पावन स्थान का आधुनिक रूप में विकास करने के लिए भगवान मल्लि—नमि तीर्थ क्षेत्र स्थापित करने का कार्यक्रम बनाया है, जिसमें दशांगी मंदिर (देवालय, विद्यालय, ग्रंथालय, वाचनालय, औषधालय, अनाथालय, संग्रहालय, दानशाला, अतिथिशाला, शोधशाला) का प्रावधान किया है। इस योजना की कल्पना को साकार करना सभी का कर्तव्य है। प्रसिद्ध यूरोपीय इतिहासकार परसीवल लेंडन ने १९२८ में लिखा था कि भद्रबाहु स्वामी ने नेपाल की कन्दराओं में उदयपुर के क्षेत्र में लगभग १३०० वर्ष पूर्व तपस्या की थी जिसे जैनधर्मावलम्बी महाप्राण की साधना कहते हैं। इसी समय में स्थूलिभद्र स्वामी (श्वेताम्बर) के नेतृत्व में ५०० विद्वानों का संघ विशेष ज्ञानार्जन के लिये आया था। अधिकांश इतिहासकार यह मानते हैं कि भगवान महावीर का जन्म वैशाली में हुआ था जो नेपाल की सीमा से अधिक दूर नहीं है। जैन धर्म से सम्बन्धित इस पुण्यभूमि पर आज तक कोई जैन मंदिर नहीं है। नेपाल के जैन धर्मावलम्बियों की समस्त समाज ने संयुक्त रूप से एक होकर नेपाल की भूमि पर प्रथम जैन मंदिर के निर्माण का कार्य का बीड़ा उठाया है। इसें दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों मन्दिर स्थापित होंगे तथा यह मन्दिर समाज की आधुनिकतम विचारधारा के समन्वयवाद का अनुपम उदाहरण होगा जिसमें आचार्यों का आर्शीवाद प्राप्त है।
सचित्त—शक्ति—संवृता: