कारकसाकल्य भी प्रमाण नहीं है क्योंकि वह भी अचेतन है सन्निकर्षादि के समान। यदि कारक साकल्य को प्रमाण मानेंगे तो कर्ता, कर्म आदि को पृथक् करने का अभाव होने से वह प्रमाण अवलंबनरहित और निष्कल हो जावेगा।
नैयायिक-कारक और उनके साकल्य में अत्यंत भेद होने से यह दोष नहीं आता है।
जैन-यदि आप अत्यंत भेद मान लेते हैं तब तो प्रमाण (कारक) और उसकी सकलता में अभेद वैâसे होगा ? क्योंकि प्रमाण को करणरूप से मानने से वह तदात्मक नहीं हो सकेगा।
नैयायिक-करणरहित ही प्रमाण है।
जैन-ऐसा आप नहीं कह सकते, अन्यथा क्रिया और कारक से भिन्न प्रमाण की सिद्धि हो जाने पर तो वह प्रमाण अर्थक्रिया से शून्य हो जावेगा, आकाश पुष्प के समान।
नैयायिक-कारकों का समुदाय ही प्रमाण है।
जैन-ऐसा पक्ष स्वीकार करने पर भी उस कारक समुदायरूप प्रमाण के जानने में कारक साकल्य लक्षण एक और प्रमाण मानना पड़ेगा, पुन: उसके भी जानने के लिए एक और कारक साकल्य नाम वाला प्रमाण स्वीकार करना पड़ेगा। इस प्रकार से तो अनवस्था का प्रसंग आ जावेगा इसलिए कारक साकल्य भी प्रमाण नहीं है क्योंकि वह भी अज्ञानरूप ही है।
भावार्थ-एक जरन्नैयायिक कहलाते हैं वे लोग कारक-कर्ता कर्म करण आदि कारकों की सफलता- पूर्णता को प्रमाण कहते हैं। तब आचार्य ने कहा है कि वास्तव में सभी कारक मिलकर भी अचेतन ही रहते हैं पुन: वे प्रमाण वैâसे हो सकेंगे। हाँ, ये कारक ज्ञान को उत्पन्न करने में सहकारी कारण हो जाते हैं और इसीलिए इन्हें उपचार से प्रमाण माना जा सकता है किन्तु मुख्यरूप से ज्ञान ही प्रमाण है।