श्री वर्धमानमर्हन्तं नत्वा बालप्रबुद्धये। विरच्यते मितस्पष्टसन्दर्भ-न्यायदीपिका।।१।।
अन्तरंग केवलज्ञानादि रूप और बाह्य समवशरण आदि रूप लक्ष्मी से युक्त श्री वर्धमान भगवान को नमस्कार करके जो व्याकरण, काव्य, कोष, छंद, अलंकार आदि अनेक ग्रंथों में प्रवीण हैं परन्तु ‘‘न्यायशास्त्र’’ में अनभिज्ञ हैं उनको न्यायशास्त्र में प्रवेश कराने के लिए मैं धर्मभूषण यति संक्षिप्त और सरल रचनायुक्त न्यायदीपिका की रचना करता हूँ।
।।‘‘प्रमाणनयैरधिगम:’’।।
प्रमाण और नय के द्वारा जीवादिक पदार्थों का ज्ञान होता है इस प्रकार से महाशास्त्र तत्वार्थसूत्र में कहा है। वह परम मोक्ष पुरुषार्थ के लिए साधनभूत सम्यग्दर्शनादिक और उनके विषयभूत जीवादि तत्त्वों के जानने के उपाय को बताता है अर्थात् प्रमाण और नयों के द्वारा ही जीवादि तत्त्वों का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होता है क्योंकि प्रमाण और नय के बिना तत्त्वों को जानने का दूसरा कोई उपाय नहीं है इसलिए जीवादि को जानने के उपायभूत प्रमाण और नयों का वर्णन करना चाहिए। प्रमाण और नयों का वर्णन करने वाले प्राचीन शास्त्र बहुत से हैं फिर भी उनमें से कुछ शास्त्र विस्तारपूर्वक हैं, कुछ शास्त्र गंभीरता लिए हुए हैं तथा कुछ गंभीर अर्थ को लिए हैं। उनमें बालकों का प्रवेश नहीं है इसलिए उन बालकों को सुखपूर्वक प्रमाण नयात्मक न्यायशास्त्रों का पूर्णतया बोध कराने के लिए यह प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है। यहां पर प्रमाण और नयों का वर्णन करने में उद्देश्य, लक्षण निर्देश तथा परीक्षा इन तीन की आवश्यकता है क्योंकि जिसका कथन नहीं किया है उसका लक्षण निर्देश नहीं बन सकता तथा जिसका लक्षण निर्देश नहीं किया उसकी परीक्षा नहीं हो सकती और जिसकी परीक्षा नहीं की है उसका विवेचन भी नहीं हो सकता, लोक में और शास्त्र में भी उसी प्रकार से वस्तु विवेचन की प्रसिद्धि है।
।। विवेक्तव्यनाममात्रकथनमुद्देश:।।
जिस वस्तु का विचार करना है उसके नाम मात्र कहने को उद्देश्य कहते हैं।
।। व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम्।।
वस्तु समूह में से किसी एक विवक्षित वस्तु के (निश्चय) पृथक कराने वाले हेतु को लक्षण कहते हैं। इसी प्रकार अकलंकदेव ने भी कहा है-
परस्पर मिली हुई वस्तु में से किसी एक वस्तु की भिन्नता जिसके द्वारा समझी जाए उसको लक्षण कहते हैं। उस लक्षण के दो भेद हैं- आत्मभूत अनात्मभूत जो वस्तु के स्वभाव से अभिन्न है उसको आत्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे-अग्नि का लक्षण उष्णता है क्योंकि उष्णता अग्नि का स्वरूप है और वह अग्नि को जलादि से पृथक् करा देती है। जो वस्तु के स्वरूप से भिन्न है उसको अनात्मभूत लक्षण कहते हैं, जैसे-पुरुष का लक्षण दण्ड। किसी ने कहा ‘‘दण्डिनम् आनय’’ अर्थात दण्डा जिसके हाथ में है उसको लाओ। दण्ड, यह पुरुष का स्वभाव न होकर भी पुरुष को अन्य पुरुषों से पृथक् कर देता है।
।।असाधारणधर्मवचनं लक्षणम् इति केचित्।।
असाधारण धर्म के कथन को लक्षण कहते हैं, ऐसा किन्हीं-किन्हीं मत वालों का कथन है। यह ठीक नहीं है क्योंकि लक्ष्य धर्मी वचन का लक्षण धर्म वचन के साथ समानाधिकरण के अभाव का प्रसंग आ जायेगा क्योंकि दण्डादि वस्तु के धर्म न होते हुए भी लक्षण माने जाते हैं तथा अव्याप्त नाम का लक्षणाभास भी इसी प्रकार है। सदोष लक्षण को लक्षणाभास कहते हैं। लक्षणाभास-जो लक्षण के समान दिखे परंतु लक्षण नहीं हो, उसके ३ भेद हैं- अव्याप्त अतिव्याप्त असम्भवि।
जिसके लक्ष्य में रहने में बाधा आती हो उसे असम्भवि कहते हैं, जैसे-मनुष्य का लक्षण सींग। यहां पर असाधारण धर्म लक्षण, लक्ष्य के एकदेश में रहने से अव्याप्त दोषयुक्त है। लक्ष्यभूत में पूर्णतया व्याप्त नहीं है इसलिए उपर्युक्त लक्षण ही निर्दोष है उसका कथन करना लक्षण निर्देश कहलाता है। परीक्षा का लक्षण-विरुद्धनानायुक्तिप्राबल्यदौर्बल्ययावधारणाय प्रवर्तमानो विचार: परीक्षा। सा खल्वेवं चेदेवं न स्यादेवं चेदेवं स्यादित्येवं प्रवत्र्तते। विरोधी नाना युक्तियों की प्रबलता और दुर्बलता का निर्णय करने के लिए प्रवृत्त हुए विचार को परीक्षा कहते हैं। वह परीक्षा यदि ऐसा हो तो ऐसा होना चाहिए और यदि ऐसा हो तो ऐसा नहीं होना चाहिए, इस प्रकार से प्रवृत्त होती है। प्रमाण और नय का भी उद्देश्य सूत्रों में ही किया गया है अब उनका लक्षण निर्देश करना चाहिए और परीक्षा यथाअवसर होगी। उद्देश्य के अनुसार लक्षण का कथन होता है। इस न्याय के अनुसार प्रधान होने के कारण प्रमाण का पहले लक्षण किया जाता है।
।। सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं।।
समीचीन ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, यहां प्रमाण लक्ष्य है तथा सम्यग्ज्ञानत्व उसका लक्षण है। जैसे-गाय का लक्षण ‘‘सास्नादिमत्व’’ एवं अग्नि का लक्षण ‘उष्णता’। यहां सम्यव्â पद संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय के लिए किया गया है क्योंकि ये तीनों ज्ञान अप्रमाण हैं।
विरुद्ध अनेक कोटि का स्पर्श करने वाला ज्ञान संशय कहलाता है। जैसे-यह स्थाणु ‘ठूंठ’ है अथवा पुरुष। स्थाणु और पुरुष दोनों में सााधरण रूप से रहने वाले ऊंचाई आदि साधारण धर्मों के देखने से और विशेष धर्म स्थाणुगत टेड़ापन कोटरत्व आदि तथा पुरुषगत सिर, पैर आदि साधक प्रमाणों का अभाव होने से नाना जातियों का अवगाहन करने वाला ही संशय ज्ञान है।
विपरीत एक कोटि के निश्चय कराने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं। जैसे-सीप में ‘‘यह चांदी है’’ का ज्ञान। इस ज्ञान में सदृशता आदि कारणों से सीप से विपरीत चांदी में निश्चय होता है इसलिए विपर्यय है।
क्या है ? इस प्रकार के अनिश्चय रूप सामान्य ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं। जैसे- मार्ग में चलते हुए तृण आदि के स्पर्श हो जाने पर ‘‘यह क्या है’’ ऐसा ज्ञान होता है। यह ज्ञान नाना कोटि का अवलंबन न करने से संशय भी नहीं है, विपरीत एक पक्ष का निश्चय न करने से विपर्यय भी नहीं है इसलिए दोनों ज्ञानो से पृथक् यह ज्ञान ही अनध्यवसाय ज्ञान है। यह तीनों ज्ञान अपने विषय में प्रमिति (सच्चे ज्ञान) को उत्पन्न नहीं कर सकते इसलिए अप्रमाणिक हैं। सम्यव् नहीं हो सकते इसलिए सम्यव्â पद से उपरोक्त तीनों ज्ञानों का निराकरण-खण्डन किया। ज्ञान पद से प्रमाता, प्रमिति और ‘‘च’’ शब्द से जानने योग्य पदार्थ प्रमेय की व्यावृत्ति हो जाती है। यद्यपि निर्दोष होने से इनमें भी सम्यक्त्व है परंतु ज्ञानत्व नहीं है। शंका – प्रमिति का कर्ता जो प्रमाता है वह ज्ञाता है किन्तु स्वयं ज्ञान नहीं है इसलिए यद्यपि प्रमाता की ज्ञान शब्द से व्यावृत्ति हो सकती है तथापि प्रमिति की व्यावृत्ति नहीं हो सकती क्योंकि प्रमिति भी यथार्थ ज्ञान स्वरूप ही है। समाधान – ऐसा तब हो सकता था जबकि यहां पर ज्ञान शब्द भाव साधन होता किन्तु यहां पर इस ज्ञान शब्द को माना है करण साधन। उसकी व्याकरण के अनुसार ‘‘ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्’’ ऐसी निरुक्ति भी होती है तथा ‘करणा धारे चानट्’ इस व्याकरण सूत्र से करण अर्थ में अनट् प्रत्यय होता है। जो ज्ञान शब्द भाव साधन है वह प्रमिति का ही वाचक है किन्तु भाव साधन ज्ञान शब्द से करण साधन ज्ञान शब्द एक भिन्न ही शब्द है। इसी प्रकार प्रमाण शब्द को भी ‘‘प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्’’ ऐसी निरुक्ति के अनुसार यहां पर करण साधन ही समझना चाहिए क्योंकि यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो प्रमाण शब्द की सम्यक्ज्ञान शब्द के साथ एकाधिकरणता नहीं बन सकेगी। इससे यह बात सिद्ध हुई कि प्रमिति क्रिया के जानने रूप क्रिया के प्रति जो करण है, वह प्रमाण है। प्रमाण निर्णय में भी ऐसा ही कहा है कि-‘‘प्रमाण की प्रमाणता यही है कि जो प्रमिति रूप क्रिया के प्रति साधकतम रूप से करण हो।’’ शंका – प्रमाण में प्रमाणता की उत्पत्ति और ज्ञप्ति कैसे होती है ? समाधान – मीमांसक मत वाले प्रमाण की उत्पत्ति स्वत: मानते हैं और यौग मत वाले प्रमाण की उत्पत्ति की तरह ज्ञप्ति भी पर से ही मानते हैं परन्तु यह ठीक नहीं है। जैनियों ने प्रमाणता की उत्पत्ति पर से ही मानी है परन्तु प्रमाणता की ज्ञप्ति अभ्यस्त दशा में स्वत: और अनभ्यस्त दशा में पर से होती है। बौद्धों के प्रमाण-लक्षण की परीक्षा-
।। अविसंवादी ज्ञानं प्रमाणं।।
जो ज्ञान विसंवाद रहित है उसे प्रमाण कहते हैं किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि यह असम्भवि दोष से दूषित है। बौद्ध ने प्रमाण के प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो भेद माने हैं। बौद्धों ने प्रत्यक्ष को निर्विकल्प-निर्णय रहित माना है और वह अपने विषय का निश्चय कराने वाला न होने से समारोप का विरोधी नहीं है तथा उनके मत के अनुसार अनुमान भी अपरमार्थभूत (अवास्तविक) है इसलिए उनके माने हुए प्रमाण लक्ष्य में (अविसंवादिज्ञान) यह लक्षण घटित नहीं होता इसलिए असम्भवि दोष है। भाट्टों के प्रमाण-लक्षण की परीक्षा-
।। अनधिगत-तथाभूतार्थनिश्चायकं प्रमाणम्।।
पहले नहीं जाने हुए तथा यथार्थ अर्थ का निश्चय कराने वाला ज्ञान प्रमाण है ऐसा भाट्टों का कहना है किन्तु यह लक्षण अव्याप्त दोष से दूषित है क्योंकि इन्हीं के द्वारा प्रमाण रूप से माने हुए धारावाहिक ज्ञान अपूर्व अर्थग्राही नहीं हैं। यदि वे कहें कि धारावाहिक ज्ञान में उत्तरोत्तर क्षण विशेषों से युक्त पदार्थ का प्रतिभास होता है इसलिए वह पहले से अज्ञात पदार्थों को ही ग्रहण करता है किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि क्षण अत्यन्त सूक्ष्म है इसलिए हमारे जैसे लोगों को उसका आभास भी नहीं हो सकता है। इस कारण से भाट्टों का लक्षण सदोष है। प्रभाकरों के प्रमाण-लक्षण की परीक्षा-
।। अनुभूति: प्रमाणम्।।
अनुभूति को प्रमाण का लक्षण प्रभाकर मत वाले मानते हैं किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि अनुभूति शब्द भाव साधन है और प्रमाण शब्द करण साधन है और उन्होंने करण व भाव दोनों ही को प्रमाण माना है। सालिकानाथ ने कहा है कि- जब प्रमाण शब्द को
।। प्रमिति प्रमाणं।।
भाव साधन करते हैं तब ज्ञान ही प्रमाण है।
।।प्रमीयतेऽनेन इति प्रमाणं।।
इस प्रकार करण साधन करने पर आत्मा और मन का सन्निकर्ष प्रमाण होता है अत: अनुभव को प्रमाण का लक्षण मानने में अव्याप्ति दोष आता है। नैयायिक के प्रमाण-लक्षण की परीक्षा-
।। प्रमाकरणं प्रमाणं।।
जानने रूप क्रिया के प्रति जो करण ‘हेतु’ है उसे प्रमाण कहते हैं किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि यह लक्षण अव्याप्ति दोष से दूषित है। उनके यहां उदयन आचार्य ने कहा है-कि ‘‘तन्मे प्रमाणं शिव:’’ वह महेश्वर को प्रमाण मानते हैं और महेश्वर को प्रमाज्ञान का अधिकरण मानते हैं करण नहीं मानते हैं इसीलिए महेश्वर जाननेरूप क्रिया के आधार हैं, हेतु नहीं हैं इसीलिए जब ‘‘प्रमाकरणं प्रमाणं’’ कहेंगे तब महेश्वर से अव्याप्ति आयेगी और जब महेश्वर प्रमा का अधिकरण मानकर प्रमाण कहेंगे तब उपर्युक्त लक्षण में अव्याप्ति आवेगी। इस प्रकार पर के द्वारा माने गए प्रमाण के लक्षण सभी सदोष हैं इसलिए स्व और पर को जानने में समर्थ, सविकल्प और अग्रहीत को ग्रहण करने वाला सम्यव्क ज्ञान ही प्रमाण है ऐसा अर्हन्त भगवान का मत है। द्वितीय प्रकाश-प्रत्यक्ष प्रकाश- प्रमाण के दो भेद हैं- # प्रत्यक्ष # परोक्ष। ‘‘विशद प्रतिभासं प्रत्यक्षम्’’-स्पष्ट प्रतिभास को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। चार्वाक लोग एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं तथा बौद्ध और वैशेषिक प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो प्रमाण मानते हैं। नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ऐसे चार प्रमाण मानते हैं। इन्हीं चारों में अर्थापत्ति मिलाकर प्रभाकर लोग पांच प्रमाण मानते हैं इन्हीं पांचों में सहानुपलब्धि मिलाकर भाट्ट लोग छह प्रमाण मानते हैं। पौराणिक लोग उपरोक्त छह में संभव तथा ऐतीह्य ये दो और मिलाकर आठ प्रमाण मानते हैं। बौद्धों के प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण- कल्पना पोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षं – जो कल्पना से रहित अर्थात् निर्विकल्प ज्ञान है और समीचीन अर्थात् भ्रांति रहित है उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं किन्तु उनका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो निर्विकल्प है वह समारोप का विरोधी नहीं है इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हो सकता। जो पदार्थों का निर्णय कराता है वही प्रमाण कहलाता है। (नैयायिक ओर वैशेषिक) यौग मत वाले सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। सन्निकर्ष का लक्षण – इन्द्रियों का पदार्थों को स्पर्श करके जानना सन्निकर्ष कहलाता है अत: यह सन्निकर्ष चेतन न होने से प्रमिति क्रिया के प्रति करण नहीं हो सकता इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण भी नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि चक्षु अप्राप्यकारी है वह पदार्थ को स्पर्श न करके भी रूप ज्ञान को कराने में कारण है इसीलिए सन्निकर्ष के अभाव में भी प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। नैयायिक कहता है कि चक्षु पदार्थ को स्पर्श करके ही जानती है स्पर्शन इन्द्रिय की तरह परन्तु इस कथन में चक्षु शब्द से कौन सी चक्षु को समझना ? लौकिक अर्थात् गोलक रूप अथवा अलौकिक ‘किरणरूप’। यदि गोलकरूप चक्षु पदार्थ को स्पर्श से जानती है ऐसा कहो तो प्रत्यक्ष से बाधा आती है और किरणरूप चक्षु को मानो तो यह बात भी ठीक नहीं है इसलिए सन्निकर्ष में अव्याप्ति दोष आता है। इस प्रकार बौद्धों के द्वारा माना गया निर्विकल्प प्रत्यक्ष और नैयायिकों के द्वारा माना गया इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष में दोनों प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हैं।
प्रत्यक्ष के दो भेद हैं- सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष पारमार्थिक प्रत्यक्ष। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष-‘‘देशतो विशदं सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षं’’ एक देश स्पष्ट ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं।
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेद- अवग्रह ईहा अवाय धारणा।
अवग्रह की व्याख्या – इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध होने के बाद उत्पन्न हुए सामान्य अवभास (दर्शन) के अनन्तर होने वाले और अवान्तर सत्ता जाति से युक्त वस्तु को ग्रहण करने वाले ज्ञान विशेष को अवग्रह कहते हैं जैसे-यह पुरुष है।
ईहा – अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा को ईहा कहते हैं। जैसे – यह पुरुष दक्षिणी है या उत्तरी।
अवाय – भाषा, वेश आदि विशेष को जानकर निश्चित करना अवाय है। जैसे-यह दक्षिणी ही है।
धारणा –अवाय से जाने हुए पदार्थ को कालान्तर में न भूलना धारणा कहलाता है। धारणा से ही स्मृति की उत्पत्ति होती है अत: इसका दूसरा नाम संस्कार भी है।
शंका – यह ईहादिक ज्ञान पहले-पहले ज्ञान से जाने हुए पदार्थ को ही जानते हैं अत: धारावाहिक ज्ञान की तरह अप्रमाण हैं ?
समाधान – भिन्न विषय होने से अगृहीत ग्राही हैं। जो पदार्थ अवग्रह का विषय है वह ईहा का नहीं है और जो ईहा का है वह अवाय का नहीं है एवं जो अवाय का है वह धारणा का नहीं है इसलिए इनका विषय भेद बिल्कुल स्पष्ट होने से यह धारावाहिक नहीं है। ये अवग्रहादिक चारों ज्ञान जब इन्द्रियों से जाने जाते हैं तब इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहे जाते हैं और जब मन से उत्पन्न होते हैं तब अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहलाते हैं। पांच इन्द्रिय और मन इन दोनों के निमित्त से होने वाला अवग्रहादिकरूप ज्ञान लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष प्रसिद्ध है। इसलिए इसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। वास्तव में मति और श्रुतज्ञान को तत्त्वार्थसूत्र में परोक्ष माना है इसलिए यहां मतिज्ञान को उपचार से प्रत्यक्ष समझना चाहिए। पारमार्थिक प्रत्यक्ष का लक्षण-
।। सर्वतो विशदं पारमार्थिकं।।
सम्पूर्ण रूप से स्पष्ट ज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं। उसके दो भेद हैं-# सकल पारमार्थिक विकल पारमार्थिक सकल पारमार्थिक – ज्ञानावरणादि घातिया कर्मों के नाश से प्रगट हुआ समस्त द्रव्य और समस्त पर्यायों को जानने वाला केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। विकल पारमार्थिक – कुछ पदार्थों को स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को विकल पारमार्थिक कहते हैं। इसके दो भेद हैं- # अवधिज्ञान # मन:पर्ययज्ञान। अवधिज्ञान का लक्षण-अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले तथा मूर्तिक द्रव्य मात्र को विषय करने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। मन:पर्यय ज्ञान का लक्षण-मन:पर्यय ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए और दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जानने वाले ज्ञान को मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं। प्रश्न – ये तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष कैसे हैं ? उत्तर – ये तीनों ज्ञान आत्मा की अपेक्षा लेकर उत्पन्न हैं। इंद्रिय आदिक पर पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखते इसीलिए प्रत्यक्ष है। प्रश्न – केवलज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहना ठीक है परन्तु अवधि, मन:पर्यय ज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष नहीं कह सकते हैं क्योंकि ये दोनों सम्पूर्ण द्रव्य पर्यायों को नहीं जानते हैं ? उत्तर – यह कहना ठीक नहीं है, जिस प्रकार केवलज्ञान आत्मा से उत्पन्न होता है और पदार्थों को स्पष्टरूप से जानता है उसी प्रकार से दोनों ज्ञान भी आत्मा से उत्पन्न होते हैं तथा रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानते हैं अत: ये दोनों ज्ञान पारमार्थिक ही हैं। प्रश्न – कोई कहता है कि अक्ष नाम इंद्रिय का है और इंद्रिय से जो उत्पन्न हो उसे प्रत्यक्ष कहते हैं ? उत्तर – यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि यहां अक्ष नाम आत्मा का है इसीलिए अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान आत्मा से ही उत्पन्न होने से प्रत्यक्ष हैं एवं मति, श्रुत इंद्रिय के निमित्त से होते हैं इसलिए वास्तव में ये परोक्ष हैं किन्तु यहां न्यायशास्त्र में इन्हें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अथवा उपचार से प्रत्यक्ष माना है। शंका – अतीन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं कह सकते ? समाधान – ऐसा कहना ठीक नहीं है। अतीन्द्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है और वह अरहन्त भगवान में पाया जाता है क्योंकि अरहंत भगवान सर्वज्ञ हैं। शंका – जब सर्वज्ञ की ही सिद्धि नहीं है तब अरहंत भगवान सर्वज्ञ हैं यह वैâसे कह सकते हैं ? समाधान – यह शंका ठीक नहीं क्योंकि सर्वज्ञ की सिद्धि अनुमान से होती है। समन्तभद्र स्वामी ने कहा है-
सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी न किसी के प्रत्यक्ष हैं क्योंकि ये अनुमान के विषय हैं, जैसे-अग्नि आदि। इस अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। सूक्ष्म अर्थात् जो स्वभाव से दूरवर्ती हैं, जैसे-परमाणु आदि। अन्तरित अर्थात् जो काल से दूरवर्ती हैं, जैसे-राम, रावण आदि। दूरार्थ अर्थात् जो पदार्थ क्षेत्र से दूरवर्ती हैं, जैसे-मेरु आदि। ये सभी पदार्थ किसी न किसी के प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय अवश्य हैं क्योंकि ये पदार्थ अनुमान ज्ञान के विषय हैं। जो-जो अनुमान के द्वारा जाने जाते हैं वे पदार्थ किसी न किसी ज्ञान के विषय अवश्य होते हैं, जैसे-अग्नि आदि। शंका – यह बात तो हम मान सकते हैं कि सूक्ष्मादि पदार्थ को जानने वाला कोई न कोई सर्वज्ञ अवश्य है और उस सर्वज्ञ का ज्ञान प्रत्यक्ष है कन्तु वह ज्ञान अतीन्द्रिय है, इन्द्रियों से उत्पन्न नहीं होता है यह कैसे ? समाधान – यदि वह ज्ञान इन्द्रिय से उत्पन्न होता तो सम्पूर्ण पदार्थों को नहीं जान सकता है क्योंकि इन्द्रियां अपने-अपने विषय को ही ग्रहण करती हैं, जैसे-घ्राण इन्द्रिय देखने का कार्य नहीं कर सकती तथा इन्द्रियों का ज्ञान सीमित भी है। सम्पूर्ण पदार्थों को वह एक साथ नहीं जान सकता है इसलिए इन्द्रिय के ज्ञान से कोई सर्वज्ञ नहीं बन सकता है। शंका – सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाला अतीन्द्रिय ज्ञान तो सिद्ध हुआ परन्तु वह अरहन्त में ही है, यह वैâसे ? कपिल, बौद्ध, महादेव आदि सभी में ही अतीन्द्रिय ज्ञान रह सकता है और सभी ही सर्वज्ञ बन सकते हैं ? सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाला अनुमान- समाधान – ऐसा नहीं है, अरहन्त भगवान ही सर्वज्ञ हैं क्योंकि ये निर्दोष हैं। जो सर्वज्ञ नहीं है वह निर्दोष भी नहीं हो सकता, जैसे-रास्ते में चलने वाले साधारण मनुष्य। ज्ञानावरणादि कर्म तथा रागादिकरूप दोषों से रहित है उसे निर्दोष कहते हैं। यह निर्दोषता सर्वज्ञता के बिना नहीं हो सकती क्योंकि जो अल्पज्ञानी हैं उनमें ज्ञानावरणादि दोष पाये जाते हैं। इसलिए कपिल, बौद्ध, महादेव आदि सर्वज्ञ नहीं हो सकते हैं क्योंकि वे सदोष हैं और उनके वचन न्याय और आगम से विरुद्ध हैं। उनके माने हुए एकान्त तत्त्व में प्रमाण से बाधा आती है और सर्वज्ञ भगवान के वचन स्यात्कार अर्थात् कथंचित् शब्द से सहित हैं इसलिए अतीन्द्रिय केवलज्ञान अरहन्त में ही पाया जाता है और उनके वचन की प्रमाणता से अवधि और मन:पर्यय ज्ञान भी अतीन्द्रिय हैं यह सिद्ध हो गया इसलिए प्रमाण के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ये दो भेद सिद्ध हुए। परोक्ष-प्रकाश परोक्ष प्रमाण का लक्षण-
।। अविशदं प्रतिभासं परोक्षम्।।
अविशद अर्थात् अस्पष्ट प्रतिभास को परोक्ष प्रमाण कहते हैं। कोई कहता है कि परोक्ष प्रमाण सामान्य मात्र को विषय करता है किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह परोक्ष प्रमाण भी सामान्य और विशेषात्मक वस्तु को विषय करते हैं। परोक्ष प्रमाण के पांच भेद हैं- स्मृति का लक्षण- स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्वक अनुमान आगम
।। तदित्याकारा प्रागनुभूत वस्तु विषया स्मृति:, यथा स देवदत्त इति।।
पहले ग्रहण किए हुए पदार्थ को विषय करने वाले ‘‘वह’’ इस आकार वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं जैसे-वह देवदत्त। जिस पदार्थ का पहले कभी अनुभव नहीं हुआ उस पदार्थ की स्मृति भी नहीं हो सकती इसलिए स्मृति का मूल कारण धारणारूप अनुभव ही है। शंका – धारणा के द्वारा ग्रहण किए गए पदार्थ में ही स्मरण की उत्पत्ति होती है इसलिए यह स्मृति ग्रहीत ग्राही होने से अप्रमाणीक है ? समाधान – ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि ईहादिक की तरह इनके विषय में भी विशेषता है अर्थात् जिस प्रकार ईहादिक ज्ञानों की प्रवृत्ति अवग्रहादिक के द्वारा ग्रहण किए हुए विषय में ही होने पर भी उनके विषय में कुछ न कुछ विशेषता रखती है क्योंकि धारणा का विषय ‘‘यह ऐसा है’’ और स्मरण का विषय ‘‘यह ऐसा है’’ एवं अविसंवादी होने से स्मृति ज्ञान भी प्रमाण है प्रत्यक्षादि की तरह। जिसमें विस्मरण, संशय और विपर्ययास पाया जाता है वह स्मृति न होकर स्मरणाभास रूप अप्रमाण है। प्रत्यभिज्ञान का लक्षण-
अनुभव तथा स्मृति के निमित्त से होने वाले जोड़रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं अर्थात् ‘‘यह’’ इस प्रकार के ज्ञान को अनुभव कहते हैं और ‘‘वह’’ शब्द के उल्लेखि ज्ञान को स्मरण कहते हैं, अनुभव और स्मरण इन दोनों से उत्पन्न होने वाला ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। इसके मुख्य चार भेद हैं- # एकत्व # सादृश्य # विलक्षण # तत्प्रतियोगी। # यह वही देवदत्त है जिसे कल देखा था। # यह गाय रोज के सदृश है। # यह भैंस गाय से विलक्षण है। # यह इससे दूर है इत्यादि। शंका – कोई कहता है कि अनुभव और स्मृति को छोड़कर अन्य कोई प्रत्यभिज्ञान नाम का प्रमाण नहीं है ? समाधान – यह ठीक नहीं है, अनुभव वर्तमानकालवर्ती पर्याय को ग्रहण करता है और स्मृति भूतकालवर्ती पर्याय को विषय करती है। तब अनुभव या स्मृतिज्ञान भूत और वर्तमान इन दोनों कालों के जोड़रूप एकत्व या सदृशपने को कैसे ग्रहण करेंगे इसलिए स्मृति तथा अनुभव से भिन्न उसके अनन्तर होने वाला दोनों का जोड़रूप ज्ञान एक भिन्न ही मानना चाहिए। शंका – दूसरे कोई लोग एकत्व प्रत्यभिज्ञान को मानकर उसे प्रत्यक्ष में अन्तर्भूत करते हैं क्योंकि वे कहते हैं कि जिस ज्ञान का इन्द्रियों के साथ अन्वय व्यतिरेक है वह प्रत्यक्ष है, यह प्रत्यभिज्ञान इन्द्रियों के साथ अन्वय व्यतिरेक रखता है इसलिए प्रत्यक्ष है ? समाधान – यह ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियां केवल वर्तमान दशा को ग्रहण करती हैं इसलिए वे भूत और वर्तमान दोनों दशा में रहने वाली एकता को प्रकाशित नहीं कर सकती हैं क्योंकि इन्द्रियां भूतकालीन अविषय में प्रवृत्ति नहीं कर सकती हैं। शंका – इन्द्रियां वर्तमान दशा को ही ग्रहण करती हैं फिर भी सहकारी कारणों की सामथ्र्य से पूर्वोत्तर दोनों दिशाओं में रहने वाले एकत्व आदिक प्रत्यभिज्ञान को कर लेती हैं। जैसे कि-सिद्ध अंजनादि लगाने पर चक्षु से ढके पदार्थ की भी प्रतीति हो जाती है ? समाधान – यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि हजार सहकारी कारण मिलने पर भी इन्द्रियां अविषय में प्रवृत्ति नहीं कर सकती। चक्षु को अंजन आदि सहकारी कारण मिलने पर भी रूपादिक पदार्थों का ही ज्ञान होगा, रस और गंध का ज्ञान नहीं हो सकता। रस और गंध का ज्ञान रसना और घ्राण इन्द्रिय को ही होगा इसलिए पूर्वोत्तर दशा में रहने वाले एकत्व का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता अत: उसका ज्ञान कराने के लिए प्रत्यभिज्ञान नाम का प्रमाण मानना ही चाहिए। शंका – कोई-कोई सादृश्य प्रत्यभिज्ञान को उपमान नाम का पृथव्â प्रमाण मानते हैं ? समाधान – यह भी ठीक नहीं है क्योंकि स्मृति और अनुभवपूर्वक जो-जो भी जोड़रूप ज्ञान होते हैं वे सभी प्रत्यभिज्ञान ही हैं। तर्वक का लक्षण-
।। व्याप्तिज्ञानं तर्वक:।।
व्याप्ति के ज्ञान को तर्वक कहते हैं। साध्य और साधन में गम्य और गमक भाव का साधक और व्यभिचार की गंध से रहित जो संबंध विशेष है उसे व्याप्ति कहते हैं। उसी को अविनाभाव भी कहते हैं।’’ उस व्याप्ति के रहने से धूम आदिक हेतु अग्नि आदिक को ही बताते हैं घटादिक को नहीं। इस अविनाभावरूप व्याप्ति के ज्ञान में साधकतम है, यह वही तर्वâ नाम का प्रमाण है इसे ऊह भी कहते हैं। यह तर्वक व्याप्ति को सर्वदेश और सर्वकाल की अपेक्षा से विषय करता है। तर्वक का उदाहरण-
।। यत्र यत्र धूमत्वं तत्र तत्राग्निमत्वमिति।।
जहां-जहां धूम है वहां-वहां अग्नि है अर्थात् किसी स्थान में धूम के होने का सद्भाव देखा पुन:-पुन: देखकर यह निश्चय किया कि किसी क्षेत्र और किसी काल में भी धूम अग्नि से व्यभिचरित नहीं होती है। इस प्रकार सब देश, काल के उपसंहारपूर्वक अर्थात् सामान्यरूप से होने वाले साध्य साधन संबंधी ज्ञान को तर्वâ कहते हैं यह प्रत्यक्षादि से भिन्न है। शंका – बौद्ध कहता है कि प्रत्यक्ष के अनन्तर होने वाला विकल्प ज्ञान व्याप्ति को ग्रहण करता है ? समाधान – यह ठीक नहीं है, जैनी उनसे पूछते हैं कि वह विकल्प प्रमाण है या अप्रमाण। यदि अप्रमाण है तो उस विकल्प से ग्रहण की गई व्याप्ति में किस प्रकार विश्वास हो सकता है। यदि प्रमाण है तो प्रत्यक्ष है या अनुमान। प्रत्यक्ष तो कह नहीं सकते क्योंकि उसका प्रतिभास स्पष्ट नहीं है। अनुमान भी नहीं कह सकते क्योंकि उनमें लिंग, दर्शनादि की अपेक्षा नहीं है अत: वह विकल्प प्रत्यक्ष और अनुमान से भिन्न तीसरा तर्वâ नाम का प्रमाण है। अनुमान का लक्षण-
।। साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानं।।
साधन से उत्पन्न हुए साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। नैयायिक के अनुमान का लक्षण-
।। लिंग परामर्शोनुमानं।।
लिंग के ‘परामर्शात्मक’ ज्ञान को अनुमान कहते हैं किन्तु यह कहना ठीक नहीं है। जैन ऐसा कहते हैं कि जैसे स्मृति आदि की उत्पत्ति में अनुभव आदि कारण हैं उसी प्रकार अनुमान प्रमाण की उत्पत्ति में व्याप्ति स्मरण के साथ-साथ उत्पन्न हुआ लिंग परामर्श ज्ञान का कारण है; न कि अनुमान है। साधन का लक्षण-
।। निश्चितसाध्यान्यथानुपपत्तिकं साधनं।।
जिसका साध्य के बिना न होना निश्चित है उसे साधन कहते हैं। साध्य का लक्षण-
।। शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं साध्यं।।
जो शक्य तथा अप्रसिद्ध एवं अभिप्रेत है उसे साध्य कहते हैं। जिसमें प्रत्यक्षादि से बाधा न आवे उसे शक्य कहते हैं। जिसमें संदेह आदिक मौजूद हों उसे अप्रसिद्ध कहते हैं। जो वादी को अभिमत हो उसे अभिप्रेत करते हैं। अत: अविनाभाव ही है मुख्य लक्षण जिसका ऐसे साधन से उत्पन्न हुए शक्य, अभिप्रेत तथा अप्रसिद्ध- रूप साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। उस अनुमान के दो भेद हैं-१. स्वार्थानुमान २. परार्थानुमान। स्वार्थानुमान का लक्षण-
स्वयं ही निश्चित साधन से उत्पन्न हुए साध्य के ज्ञान को स्वार्थानुमान कहते हैं। जैसे-यह पर्वत अग्नि वाला है धूम वाला होने से। स्वार्थानुमान के तीन अंग हैं-१. धर्मी २. साध्य ३. साधन। साधन तो गमक अर्थात् ज्ञान कराने वाला है। साध्य गम्य अर्थात् जानने योग्य है एवं धर्मी साध्यरूप धर्म का आधार है इसीलिए ये तीनों स्वार्थानुमान के तीन अंग हैं। स्वार्थानुमान के और भी दो अंग हैं-१. पक्ष २. साधन। पक्ष का लक्षण-साध्य धर्म से विशिष्ट धर्मी को पक्ष कहते हैं। धर्मी प्रसिद्ध होता है। धर्मी की प्रसिद्धि कहीं तो प्रमाण से और कहीं विकल्प से और कहीं प्रमाण और विकल्प से होती है। परार्थानुमान का लक्षण-
दूसरे का उपदेश सुनने से साधन से जो साध्य का ज्ञान होता है उसे परार्थानुमान कहते हैं। शंका-नैयायिक कहता है कि दूसरे के वचन को ही परार्थानुमान कहते हैं ? समाधान-किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि परोपदेश के वचन को गौणरूप से परार्थानुमान कह सकते हैं मुख्यरूप से नहीं। उस परार्थानुमान प्रयोजक वचन के भी दो अंग हैं-१. प्रतिज्ञा २. हेतु। प्रतिज्ञा का लक्षण-
धर्म और धर्मी के समुदायरूप पक्ष कहने को प्रतिज्ञा कहते हैं। जैसे-यह पर्वत अग्नि वाला है। हेतु का लक्षण-साध्य के बिना न होने वाले साधन को हेतु कहते हैं। जैसे-
।। धूमत्त्वान्यथानुपपत्ते।। अथवा ।।धूमवत्त्वोपपत्ते:।।
१. अन्यथा यहां पर धूम नहीं हो सकता है। २. अग्नि रहने पर ही धूम रह सकता है। इन दोनों में से किसी एक ही हेतु का प्रयोग करना चाहिए। नैयायिक परार्थानुमान प्रयोग के ५ अवयव मानते हैं। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन। साधम्र्य उदाहरण का लक्षण-जो-जो धूमवान होता है वह-वह अग्निमान होता है जैसे-रसोईघर, यह अन्वयरूप उदाहरण है। वैधम्र्य उदाहरण का लक्षण-जो-जो अग्निमान नहीं होता वह-वह धूमवान भी नहीं होता है, जैसे-तालाब, यह व्यतिरेकरूप उदाहरण है। उपनय का लक्षण-
दृष्टान्त की अपेक्षा से पक्ष और हेतु के दोहराने के वचन को उपनय कहते हैं। जैसे-यह भी उसी तरह धूमवान है। निगमन का लक्षण-
।। हेतुपूर्वकं पक्षवचनं निगमनं।।
हेतुपूर्वक पक्ष के दोहराने को निगमन कहते हैं। जैसे-इसीलिए यह अग्निमान है। ये परार्थानुमान के पांच अवयव हैं। इनमें से एक के भी न होने पर वीतराग कथा हो या विजिगीषु कथा हो, कहीं भी अनुमान नहीं हो सकता। यह नैयायिकों की मान्यता ठीक नहीं है क्योंकि वीतराग कथा में शिष्य के आशय के अनुसार यद्यपि अधिक अवयव माने जा सकते हैं तथापि विजिगीषु कथा में प्रतिज्ञा और हेतु इन दो ही अवयवों की अवश्यकता है। विजिगीषु कथा का लक्षण-वादी और प्रतिवादी अपने-अपने मत का स्थापन करने के लिए जय-पराजय की अपेक्षा रखते हुए जो चर्चा करते हैं उसे विजिगीषु कथा कहते हैं। वीतराग कथा का लक्षण-गुरु अथवा शिष्यजन अथवा विद्वान्जन तत्त्व निर्णय के लिए जो आपस में चर्चा करते हैं उसे वीतराग कथा कहते हैं। शंका-बौद्ध कहता है कि हेतु से ही अनुमान समझ में आ जावेगा प्रतिज्ञा की आवश्यकता नहीं है ? समाधान-यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि केवल हेतु का प्रयोग करने से विद्वान को भी साध्य में संदेह बना रह सकता है इसलिए प्रतिज्ञा का प्रयोग करना ही चाहिए अत: सारांश यह है कि वीतराग कथा में प्रतिज्ञा हेतुरूप दो अथवा तीन अथवा चार एवं पांच अवयवों का भी प्रयोग कर सकते हैं किन्तु विजिगीषु कथा में प्रतिज्ञा और हेतु इन दो ही अवयव का प्रयोग करना चाहिए। बौद्ध के हेतु का लक्षण-हेतु के तीन रूप-
पक्ष में धर्म सपक्ष में सत्त्व और विपक्ष में व्यावृत्ति इस प्रकार हेतु के तीन रूप हैं। जैन कहते हैं यह ठीक नहीं है क्योंकि-
।। उदेष्यति शकटं कृतकोदयात्।।
यहां कृतकोदय हेतु पक्षरूप शकट में नहीं रहता है इसलिए इसमें पक्ष धर्मत्व नहीं रहा फिर भी अन्यथानुपपत्ति (अविनाभाव) के बल से शकटोदयरूप साध्य का निश्चय कराता ही है इसलिए बौद्ध के द्वारा माना गया हेतु का लक्षण सदोष है। नैयायिक हेतु के पाँच रूप मानते हैं- पक्षधर्मत्व सपक्षसत्व # विपक्षाद्व्यावृत्ति अबाधित विषयत्व असत्प्रतिपक्षत्व। पक्ष के अन्दर हेतु के रहने को पक्षधर्मत्व कहते हैं। जहां साध्य साधन दोनों उपलब्ध हों उस धर्मी को सपक्ष कहते हैं। उस सपक्ष के एकदेश में अथवा संपूर्ण देश में हेतु के रहने को सपक्षसत्व कहते हैं। साध्य के विरुद्ध धर्म वाले स्थल को विपक्ष कहते हैं। ऐसे सम्पूर्ण विपक्षों से हेतु के सर्वथा अलग रहने को विपक्षाद्व्यावृत्ति कहते हैं। साध्य से विपरीतपने को निश्चय कराने वाला प्रबल प्रमाण जिसमें सम्भव न हो उसे अबाधित विषयत्व कहते हैं। समान बल के धारक ऐसे साध्य विपरीत निश्चायक किसी विरुद्ध प्रमाण का सम्भव न होना उसे असत्प्रतिपक्षत्व कहते हैं। नैयायिक पंच अवयव वाला अनुमान
।।पर्वतोयमग्निमान् धूमवत्त्वात्।। (प्रतिज्ञा और हेतु)
अन्वय उदाहरण-
।।यो यो धूमवान् स सोऽग्निमान् यथा महानस:।।
व्यतिरेक उदाहरण-‘‘यो योऽग्निमान् न भवति स स धूमवान् न भवति, यथा महाह्रद:।।
(उपनय और निगमन) ।।
तथा चायं धूमवांस्तस्यादग्निमानेवेति।।
१. प्रतिज्ञा-यह पर्वत अग्निमान है। २. हेतु-क्योंकि यहां पर धूम है। अन्वय उदाहरण-जहां-जहां धूम होता है वहां-वहां अग्नि है। जैसे-रसोईघर। व्यतिरेक उदाहरण-जहां-जहां अग्नि नहीं होती है वहां-वहां धूम भी नहीं होता, जैसे-तालाब। ४. उपनय-यह भी उसी प्रकार धूमवान है। ५. निगमन-इसलिए अग्निमान भी होना चाहिए। यहां धूमवान हेतु पक्ष (पर्वत) में है, सपक्ष रसोईघर में है एवं विपक्ष तालाब में नहीं पाया जाता है। अबाधित विषय भी है और असत्प्रतिपक्षत्व भी है इसलिए साध्य की सिद्धि के लिए हेतु में पांच अवयव होना ही चाहिए। इन पांच अवयवों के विपरीत पांच हेत्वाभास हैं। हेत्वाभास के भेद-१. असिद्ध २. विरुद्ध ३. अनैकान्तिक ४. कालात्यापदिष्ट ५. प्रकरण सम। असिद्ध हेत्वाभास का लक्षण एवं उदाहरण-
।।अनिश्चितपक्षवृत्तिरसिद्धा:।।”’
जिस पक्ष का हेतु में रहना निश्चित न हो उसे असिद्ध कहते हैं। जैसे-असिद्ध शब्द अनित्य है क्योंकि चक्षु इन्द्रिय का विषय है। यह हेतु पक्ष धर्म में न रहने से हेत्वाभास है। विरुद्ध हेत्वाभास का लक्षण-
।।साध्यविपरीतव्याप्तो विरुद्ध:।।
जिस हेतु की साध्य से विपरीत के साथ व्याप्ति हो उसे विरुद्ध कहते हैं। जैसे-शब्द नित्य है क्योंकि किया हुआ है। यहां पर ‘किया हुआ’ यह हेतु अनित्य के साथ व्याप्त है इसलिए यह विरुद्ध हेत्वाभास है। अनैकान्तिक हेत्वाभास-
।।सव्यभिचारोऽनैकान्तिक:।।
व्यभिचार सहित हेतु को अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं। जैसे-शब्द अनित्य है क्योंकि प्रमेय है। यह प्रमेयत्व हेतु साध्यभूत अनित्य में और विपक्षभूत आकाश आदि नित्य में भी है अत: विपक्ष से व्यावृत्त न होने से अनैकान्तिक हेत्वाभास है। कालात्यापदिष्ट हेत्वाभास-जिस हेतु का विषय किसी प्रमाण से बाधित हो उसे कालात्यापदिष्ट हेत्वाभास कहते हैं। जैसे-अग्नि ठंडी है क्योंकि वह पदार्थ है। प्रकरण सम हेत्वाभास-जिसका विरोधी साधन मौजूद हो उस हेतु को प्रकरण सम हेत्वाभास कहते हैं। जैसे-शब्द अनित्य है क्योंकि वह नित्य धर्म से रहित है। नैयायिकों का यह सब कहना ठीक नहीं है क्योंकि कृतिकोदय हेतु पक्ष धर्म में न रहकर भी रोहिणी के उदय को सिद्ध करता है दूसरी बात यह है कि नैयायिक ने हेतु के तीन भेद माने हैं। १. अन्वयव्यतिरेकी २. केवलान्वयी ३. केवलव्यतिरेकी। प्रथम भेद अन्वयव्यतिरेकी में पांचों अवयव पाये जाते हैं, शेष दो में पांचों अवयव नहीं पाये जाते फिर भी उसने उन्हें हेतु माना है। अन्वयव्यतिरेकी का उदाहरण-शब्द अनित्य है क्योंकि वह कृतक है। जो-जो कृतक होता है वह-वह अनित्य होता है। जैसे-आकाश शब्द भी कृतक है इसलिए अनित्य ही है। यहां पर कृतकत्व हेतु शब्दरूप पक्ष में एवं घटादि सपक्ष में रहता है तथा आकाशादि विपक्ष में नहीं रहता है। केवलान्वयी का उदाहरण-जो हेतु पक्ष और सपक्ष में रहे किन्तु उसका विपक्ष कोई नहीं हो उसे केवलान्वयी कहते हैं। जैसे-अदृष्टादिक ‘भाग्य’ किसी के प्रत्यक्ष है क्योंकि अनुमेय है, जैसे-अग्नि आदि। यहां अनुमेयत्व हेतु का विपक्ष कोई है ही नहीं। पक्ष-सपक्ष में ही सारा विश्व आ गया अत: विपक्ष से व्यावृत्ति होना सम्भव नहीं है। केवलव्यतिरेकी का उदाहरण-जो पक्ष में रहे और विपक्ष से व्यावृत्त हो किन्तु जिसका सपक्ष न हो। जैसे कि-जीवित का शरीर आत्मा कर सहित है क्योंकि उसमें स्वासोच्छ्वास है जो आत्मा कर सहित नहीं होता उसमें स्वांसादिक नहीं होता, जैसे-मिट्टी का ढेला। यह स्वासोच्छ्वास आदि हेतु पक्ष में है और विपक्ष से व्यावृत्त है तथा सपक्ष सम्भव ही नहीं है। अत: नैयायिक के द्वारा माने गए तीनों हेतुओं में दो हेतु उसी के कथन से दूषित हो जाते हैं। तीनरूप और पांचरूप कर सहित अनुमान-गर्भ में स्थित मैत्री का पुत्र काला होना चाहिए क्योंकि वह मैत्री का पुत्र है अन्य मौजूद मैत्री के पुत्रों की तरह, इस मैत्री पुत्र हेतु में बौद्धों के तीनरूप और नैयायिकों के पांचरूप पाये जाते हैं परन्तु अन्यथानुपपत्ति एक लक्षण इसमें नहीं पाया जाता है अत: यह हेत्वाभास है। कहा भी है
बौद्धों के प्रति उत्तर-अर्थ-जहां पर अन्यथानुपपत्ति है वहां तीनरूप से क्या प्रयोजन है और जहां अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहां पांचरूप मानने से भी क्या फल है। यौगों के प्रति उत्तर- अर्थ-जहाँ पर अन्यथानुपपत्ति है, वहाँ पाँचरूप से क्या प्रयोजन है और जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहाँ पाँचरूप मानने से भी क्या फल है। हेतु के भेद-१. विधिरूप २. प्रतिषेधरूप। विधिरूप के दो भेद हैं-१. विधि साधक २. प्रतिषेध साधक। प्रतिषेधरूप के दो भेद हैं-१. विधि साधक २. प्रतिषेध साधक। विधि साधक हेतु का दूसरा नाम अविरुद्धोपलब्धि भी है। विधि साधक हेतु के भेद-विधिरूप हेतु के अनेक भेद हैं यहां पर ६ भेद बताये हैं। १. कार्यरूप हेतु का उदाहरण-जैसे-यह पर्वत अग्नि वाला है धूम वाला होने से। २. कारणरूप हेतु का उदाहरण-जैसे-वृष्टि होवेगी क्योंकि विशिष्ट मेघ हो रहे हैं। विशेषरूप हेतु (व्याप्यरूप हेतु)-जैसे-यह वृक्ष है क्योंकि शीशमपना इसमें पाया जाता है। पूर्वचररूप हेतु का उदाहरण-जैसे-एक मुहूर्त के बाद रोहिणी का उदय होगा क्योंकि उसके पूर्वचर कृतिका का उदय हो रहा है। उत्तरचररूप हेतु का लक्षण-जैसे-एक मुहूर्त पहले भरणी का उदय हो चुका है क्योंकि कृतिका का उदय हो रहा है। यहां भरणी का उत्तरचर कृतिका का उदय है। सहचररूप हेतु का उदाहरण-जैसे-इस बिजौरे में रूप है क्योंकि रूप का सहचर हेतु रस पाया जाता है। इस प्रकार से ये भावरूप पदार्थ को सिद्ध करते हैं इसलिए इनका अविरुद्धोपलब्धि भी नाम है। विधिरूप हेतु के दूसरे भेद प्रतिसाधकरूप हेतु का दूसरा नाम विरुद्धोपलब्धि भी है। विरुद्धोपलब्धि (प्रतिषेध साधक) का उदाहरण-इस प्राणी के मिथ्यात्व नहीं है क्योंकि यदि मिथ्यात्व होता तो आस्तिक्य नहीं हो सकता था। यहां आस्तिक्य हेतु निषेध साधक है। यह आस्तिक्य मिथ्यात्व में नहीं रह सकता। अरहन्त के द्वारा कथित तत्त्वों में रुचि होने को आस्तिक्य कहते हैं। अथवा दूसरा उदाहरण-वस्तु सर्वथा एकान्तरूप नहीं है क्योंकि सर्वथा एकान्तरूप हो तो अनेकात्मकता बन नहीं सकती। अनेकान्त का लक्षण-सम्पूर्ण जीवादि पदार्थों में भाव-अभाव, एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि अनेक धर्मों के रहने को अनेकान्त धर्म कहते हैं। प्रतिषेधरूप साधक के दो भेद-१. विधि साधक २. प्रतिषेध साधक प्रतिषेधरूप विधि साधक का उदाहरण-इस प्राणी के सम्यक्त्व है क्योंकि इसको विपरीत दुराग्रह नहीं है। विपरीत दुराग्रह न होना प्रतिषेधरूप है। वह सम्यक्त्व के सद्भाव को सिद्ध करता है इसलिए ये प्रतिषेधरूप साधक है। प्रतिषेधरूप प्रतिषेध का उदाहरण-यहां पर धूम नहीं है क्योंकि अग्नि नहीं दिखती है यह अग्नि अभाव हेतु अभावरूप है और अभावरूप ही धूम के अभाव को सिद्ध करता है इसलिए यह प्रतिषेधरूप प्रतिषेध साधक है। हेत्वाभास का लक्षण और उसके भेद-हेतु के लक्षण से रहित किन्तु हेतु के समान मालूम पड़े उसे हेत्वाभास कहते हैं। १. असिद्ध २. विरुद्ध ३. अनैकान्तिक ४. अकिंचित्कर असिद्ध हेत्वाभास का लक्षण-जिसकी साध्य के साथ व्याप्ति निश्चित है उसे असिद्ध हेत्वाभास कहते हैं। इसके दो भेद हैं-१. स्वरूपासिद्ध २. संदिग्धासिद्ध। विरुद्ध का लक्षण-जिस हेतु की विरुद्ध के साथ व्याप्ति हो उसे विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं। अनैकान्तिक का लक्षण-जो पक्ष, सपक्ष और विपक्ष में रहता है उसे अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं। इसके दो भेद हैं-१. निश्चित विपक्ष वृत्ति २. शंकित विपक्ष वृत्ति। अकिंचित्कर का लक्षण-जो हेतु साध्य की सिद्धि करने में असमर्थ है उसे अकिंचित्कर हेत्वाभास कहते हैं। इसके दो भेद हैं-१. सिद्ध साधन २. बाधित विषय। बाधित विषय के पांच भेद हैं-१. प्रत्यक्ष बाधित २. अनुमान बाधित ३. आगम बाधित ४. लोक बाधित ५. स्ववचन बाधित। उदाहरण का लक्षण-दृष्टान्त के कहने को उदाहरण कहते हैं। इसके दो भेद हैं-(१) अन्वय दृष्टान्त। (२) व्यतिरेक दृष्टान्त। उदाहरणाभास का लक्षण-जो उदाहरण के लक्षण से रहित है और उदाहरण के समान दिखता है उसे उदाहरणाभास कहते हैं। उदाहरणाभास के भेद-१. अन्वय उदाहरणाभास २. व्यतिरेकाभास। उपनय का लक्षण-पर्व की दृष्टान्त के साथ साम्यता का कथन करना उपनय कहलाता है। जैसे-इसीलिए यह धूम वाला है। निगमन का लक्षण-साधन को दोहराते हुए साध्य के निश्चयरूप वचन को निगमन कहते हैं। जैसे-यह धूम वाला होने से अग्नि वाला है। इन दोनों का गलत उपयोग करने पर उपनयाभास और निगमनाभास होता है। आगम का लक्षण-
।।आप्तवाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमागम:।।
आप्त के वचनों से होने वाले अर्थ ज्ञान को आगम कहते हैं। जैसे-
।। सम्यव्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:।।
आप्त का लक्षण-‘‘आप्त: प्रत्यक्षप्रमितिसकलार्थत्वे सति परमहितोपदेशक:’’ जो प्रत्यक्ष ज्ञान से समस्त पदार्थों का ज्ञाता है और परम हितोपदेशी है, वही आप्त है। समस्त पदार्थों का ज्ञाता कहने से श्रुतकेवली में लक्षण चला जाता इसलिए प्रत्यक्ष ज्ञान से ऐसा शब्द दिया है और परम हितोपदेशी पद से अरहन्त ही ग्रहण किए गए हैं सिद्ध नहीं क्योंकि वे अनुपदेशक हैं इसलिए गौणरूप आप्त हैं अत: नैयायिक आदि के द्वारा माने गए आप्त सर्वज्ञ नहीं हैं इसलिए आप्ताभास हैं। शंका – नैयायिक के द्वारा माना गया आप्त सर्वज्ञ क्यों नहीं है ? समाधान – नैयायिकों ने जो आप्त माना है वह अपने ज्ञान का ही ज्ञाता नहीं है क्योंकि उनके यहां ज्ञान को अस्वसंवेदी अर्थात् ‘‘स्व’’ को नहीं जानने वाला माना है। जब वह ज्ञान अपने को नहीं जानता है तो ज्ञान से विशिष्ट अपनी आत्मा को मैं सर्वज्ञ हूं, ऐसा वैâसे जानेगा। इस प्रकार जब वह अनात्मज्ञ है तब वह असर्वज्ञ ही है, सर्वज्ञ नहीं है। अर्थ का लक्षण-अनेकान्त को अर्थ कहते हैं। अनेकान्त का लक्षण-।। अनेके अन्ता धर्मा: सामान्य-विशेषपर्याया गुणा यस्येति सिद्धोऽनेकांत:।। जिसमें अनेक अंत अर्थात धर्म सामान्य विशेष पर्याय और गुण पाये जाते हैं उसे अनेकान्त कहते हैं। पर्याय के दो भेद-१. अर्थ पर्याय २. व्यंजन पर्याय। भूत और भविष्यत् का स्पर्श न करने वाले केवल शुद्ध वर्तमानकालीन वस्तु स्वरूप को अर्थ पर्याय कहते हैं। आचार्यों ने इसे ऋजुसूत्र नय का विषय माना है। इसी के एकदेश को मानने वाले क्षणिकवादी बौद्ध हैं। जो पदार्थों में प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप जल, आनयन आदि अर्थ क्रिया करने में समर्थ पर्याय है वह व्यंजन पर्याय है। जैसे-मिट्टी की पिंड, स्थास, कोश, कुशल, घट, कपाल आदि पर्यायें। जो संपूर्ण द्रव्य में व्याप्त होकर और समस्त पर्यायों के साथ रहने वाले हैं उन्हें गुण कहते हैं। इसके दो भेद हैं-१. सामान्य गुण २. विशेष गुण। १. जो सभी द्रव्यों में रहे उसे सामान्य गुण कहते हैं। २. जो एक ही द्रव्य में रहे उसे विशेष गुण कहते हैं। गुण पर्याय का लक्षणान्तर-
।। क्रमभुव: पर्याया:, सहवर्तिन: गुणा:।।
द्रव्य का लक्षण-
।। गुणपर्ययवत् द्रव्यं।।
द्रव्य के भेद-१. जीव द्रव्य २. अजीव द्रव्य। द्रव्य का लक्षणान्तर-द्रव्य का लक्षण सत् भी है।
।। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्।।
जैसे-जीव का मनुष्य स्वभाव का विनाश, देव पर्याय का उत्पाद और चेतन स्वभाव ध्रौव्यपना, ये तीनों पाये जाते हैं अत: जीव द्रव्यरूप से अभेदरूप हैं तथा पर्यायरूप से भेदरूप है। नयों का लक्षण-प्रमाण के द्वारा जाने हुए पदार्थ के एकदेश को विषय करने वाले ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। नय के भेद-
१.द्रव्यार्थिक नय २. पर्यायार्थिक नय १. यहां द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से ‘‘सुवर्ण लाओ’’इतना कहने से कड़ा, कुंडल आदि कोई भी वस्तु लाई जा सकती है।
२.पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से ‘‘कुंडल लाओ’’इतना कहने से कुंडल ही ला सकते हैं, कड़ा नहीं। इसलिए द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सुवर्ण कथंचित् एक ही है। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से कथंचित् अनेक भी है। क्रम से दोनों नयों की अपेक्षा कथंचित् एक भी है और अनेक भी है। एक काल में दोनों स्वभावों की अपेक्षा रखने से कथंचित् अवक्तव्य भी है। यदि द्रव्यार्थिक को प्रधान करें और उसी काल में दोनों स्वभावों की अपेक्षा रखें तो कथंचित् एक और अवक्तव्य भी है एवं पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा रखें और उसी काल में दोनों स्वभावों की अपेक्षा रखें, तो अनेक और अवक्तव्य है। इसी प्रकार दोनों नयों की क्रम से और युगपत् प्रवृत्ति की अपेक्षा करने पर वस्तु एक, अनेक और अवक्तव्य है। इस प्रकार नयों के प्रयोग की प्रक्रिया को ही सप्तभंगी कहते हैं।
शंका –एक ही वस्तु में सात भंग वैâसे हो सकते हैं ?
समाधान –जिस प्रकार एक घड़ा रूप, रस, गंध और स्पर्श वाला है उसी प्रकार एक द्रव्य में भी अनेक गुण या धर्मों की अपेक्षा से सप्तभंगी घट जाती है। नय के परम द्रव्यार्थिक और परम पर्यायार्थिक ऐसे भी दो भेद हैं।
१.परम द्रव्यार्थिक शुद्ध सत्रूप द्रव्य को विषय करता है।
२.परम पर्यायार्थिक भूत, भविष्यत् पर्याय को छोड़कर वर्तमान की एक समयवर्ती पर्याय को विषय करता है। समन्तभद्र स्वामी ने कहा है-
प्रमाण और नय की अपेक्षा से अनेकान्त भी अनेकान्तरूप है क्योंकि वह अनियत सब धर्मों से युक्त अभेद वस्तुओं को विषय करता है। जहां नय की अपेक्षा है वहाँ एकांत है क्योंकि वह नियत एक धर्म से युक्त वस्तु को विषय करता है। इस जिनेन्द्र मार्ग का उल्लंघन करके जो यह आग्रह करते हैं कि सर्वथा एक अद्वितीय ब्रह्म है इसके सिवाय कुछ भिन्न नहीं है यह उनका अर्थाभास है और उसके प्रतिपादक वचन आगमाभास हैं क्योंकि प्रत्यक्ष से वस्तु में भेद सज्य है और वास्तविक है। यदि सर्वथा भेद ही माना जाए तो भी यही दोष आवेगा क्योंकि वस्तु अभेदरूप भी है। शंका – भिन्न-भिन्न सिद्ध होने वाले एक, अनेक आदि धर्म परस्पर में अपेक्षा न रखने से मिथ्या हैं तो इनका समुदाय वह भी मिथ्या ठहरेगा।
समाधान – हम इसको स्वीकार करते हैं। कहा भी है-
मिथ्यासमूहो मिथ्याचेन्न मिथ्यैकान्ततास्तिन:। निरपेक्षा नया मिथ्या: सापेक्षा वस्तुतोऽर्थकृत्।।
प्रश्न – मिथ्या नयों का समूह मिथ्या ही है ?
उत्तर – नय यदि निरपेक्ष हैं तो मिथ्या हैं और यदि वे परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं तो सही हैं और कार्यकारी हैं। जैसे-वस्त्र अवस्था से रहित अनेक तन्तु मिल जाने पर भी ठंडी को दूर करने का वस्त्ररूप कार्य नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार से नय और प्रमाण के द्वारा तत्त्व की सिद्धि की गई है। इस प्रकार आगम प्रमाण का वर्णन हुआ।