न्यायशास्त्र को तर्वशास्त्र, हेतुविद्या और प्रमाणशास्त्र भी कहते हैं, किन्तु इसका प्राचीन नाम आन्वीक्षिका है। कौटिल्य ने (३२७ ई. पूर्व) अपने अर्थशास्त्र में आन्वीक्षिका, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति, इन चार विद्याओं का निर्देश किया है और लिखा है कि त्रयी में धर्म-अधर्म का, वार्ता में अर्थ-अनर्थ का तथा दण्डनीति में नय-अनय का कथन होता है और हेतु के द्वारा इनके बलाबल का अन्वीक्षण करने से लोगों का उपकार होता है। संकट और आनन्द में यह बुद्धि को स्थिर रखती है, प्रज्ञा वचन और कर्म को निपुण बनाती है। यह आन्वीक्षिकी विद्या सर्व विद्याओं का प्रदीप, सब धर्मों का आधार है। कौटिल्य का अनुसरण करते हुए जैनाचार्य सोमदेव ने (९५९ ई.) भी लिखा है कि आन्वीक्षिकी विद्या का पाठक हेतुओं के द्वारा कार्यों के बलाबल का विचार करता है, संकट में खेद-खिन्न नहीं होता, अभ्युदय में मदोन्मत्त नहीं होता और बुद्धिकौशल तथा वाक्कौशल को प्राप्त करता है। किन्तु मनुस्मृति (अ.७, श्लो. ४३) में आन्वीक्षिकी को आत्मविद्या कहा है सोमदेव ने भी आन्वीक्षिकी को अध्यात्म विषय में प्रयोजनीय बतलाया है। नैयायिक वात्स्यायन ने अपने न्यायभाष्य के आरम्भ में लिखा है कि ये चारो विद्याएँ प्राणियों के उपकार के लिए कही गयी हैं। उनमें से चतुर्थी यह आन्वीक्षिकी न्यायविद्या है। उसके पृथक् प्रस्थान संशय आदि पदार्थ हैं। यदि उन संशय आदि का कथन न किया जाए तो यह केवल अध्यात्मविद्या मात्र हो जाए, जैसे कि उपनिषद्। इसका आशय यह है कि यदि आन्वीक्षिकी में न्यायशास्त्र प्रतिपादित संशय, छल, जाति आदि का प्रयोग किया जाता है तो वह न्यायविद्या है, अन्यथा तो आध्यात्मविद्या है। इस तरह आन्वीक्षिकी का विषय आत्मविद्या भी हेतुवाद भी है। इनमें से आत्मविद्या रूप आन्वीक्षिकी का विकास दर्शन कहलाया, जिसे अंग्रेजी में फिलॉसफी कहते हैं और हेतुविद्या रूप आन्वीक्षिकी का विकास न्याय कहलाया जिसे अंगे्रजी में लॉजिक कहते हैं। वात्स्यायन भाष्य में आन्वीक्षिकी का अर्थ न्यायविद्या करते हुए लिखा है- ‘‘प्रत्यक्ष और आगम के अनुकूल अनुमान को अन्वीक्षा कहते हैं। अत: प्रत्यक्ष और आगम से देखे हुए वस्तुतत्त्व के पर्यालोचन या युक्तायुक्तविचार का नाम अन्वीक्षा है और जिसमें वह हो उसे आन्वीक्षिकी कहते है।’’ न्याय’६ शब्द की व्युपत्ति करते हुए भी शास्त्रकारों ने उसका यही अर्थ किया है। जिसके द्वारा निश्चित और निर्बाध वस्तुतत्त्व का ज्ञान होता है उसे न्याय कहते हैं। ऐसा ज्ञान प्रमाण के द्वारा होता इसी से न्यायविषयक ग्रन्थों का मुख्य प्रतिपाद्य प्रमाण होता है। प्रमाण के ही भेद प्रत्यक्ष, अनुमान आगम वगैरह माने गये हें किन्तु प्रत्यक्ष और आगम के द्वारा वस्तुतत्त्व को जानकर भी उसकी स्थापना और परीक्षा में हेतुवाद और युक्तिवाद का अवलम्बन लेना पड़ता है, क्योंकि उसके बिना प्रतिपक्षी दार्शनिकों के सामने उस तत्त्व की प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती। इसी से न्याय को तर्वमार्ग और युक्तिशास्त्र भी कहा है। उसके बिना दर्शन की गाड़ी आगे नहीं बढ़ती। वह उसका प्रतिष्ठाता और संरक्षक है। सम्भवतया इसी हेतु से अक्षपाद ने न्यायशास्त्र को लेकर ही एक दर्शन की स्थापना की थी जिसे न्यायदर्शन कहते हैं।इस दर्शन ने सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष माना। उन सोलह पदार्थों में जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति आदि भी हैं जिनका उपयोग मुख्य रूप से वाद-विवाद में ही होता है। न्याय दर्शन के न्यायसूत्र नामक मूल ग्रन्थ में इन सबका सांगोपांग वर्णन है। जब बौद्धों और जैनों ने न्यायशास्त्र की ओर ध्यान दिया, न्यायदर्शन उसमें पूर्ण उन्नति कर न्यायसूत्रों के उद्भव का सुनिश्चित काल ज्ञात नहीं है। किन्तु एक सुव्यवस्थित दर्शन के रूप में न्याय दर्शन का उद्भव अन्य प्राचीन दर्शनों से अर्वाचीन है। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने अपनी कृति में न्यायदर्शन के सोलह पदार्थों पर आक्षेप किया है। अत: नागार्जुन के समय में न्यायसूत्र किसी-न-किसी रूप में उपस्थित होना चाहिए। जब तक बौद्ध धर्म में किसी ने न्यायशास्त्र की ओर ध्यान नहीं दिया था। जब नागार्जुन के सिद्धान्त को अमान्य किया गया तो असंग और वसुबन्धु ने न्यायशास्त्र की ओर ध्यान दिया। बसुबन्धु तर्वशास्त्र का प्रसिद्ध विद्वान हुआ। उसने उस पर तीन प्रकरण भी रचे थे। उनके पश्चात् दिङ्नाग और धर्मकीर्ति न्यायशास्त्र को यथार्थ रूप में स्वीकार करके बौद्धन्याय को प्रतिष्ठित किया। बौद्धन्याय के पिता दिड्नाग और उनके अनुयायी धर्मकीर्ति के पश्चात् जैन परम्परा में जैनन्याय के प्रस्थापक अकलंकदेव का उदय हुआ, और जैनदर्शन में जैन न्याय पर स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना हुई। जैसे युद्धकाल में युद्ध के उपकरणों का विकास होता है, वैसे ही विविध दर्शनों के पारस्परिक संघर्षकाल में स्वपक्ष के रक्षण और परपक्ष के निराकरण के लिए तर्वशास्त्र का विकास हुआ। न्याय या तर्वâशास्त्र का मुख्य अंग प्रमाण है। और प्रमाण के भेदों में से भी अनुमान प्रमाण है। क्योंकि प्रत्यक्ष अगोचर पदार्थों की सिद्धि अनुमान प्रमाण से की जाती है। दूसरों को समझाने के लिए जो अनुमान प्रयोग किया जाता है उसे परार्थानुमान कहते हैं। रशियन विद्वान चिरविट्स्की ने ‘बौद्धन्याय’ नामक विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ के प्रारम्भ में लिखा है कि बौद्धन्याय से हम तर्वशास्त्र की उस पद्वति का बोध करते हैं जिसका निर्माण ईसा की ६-७वीं शताब्दी में बौद्धधर्म के दो महान् तार्विक दिङ्नाग और धर्मकीर्ति ने किया था। उनके साहित्य में सबसे प्रथम परार्थानुमान का वर्णन है। अत: परार्थानुमान ही तर्व या न्याय शब्द से कहे जाने के लिए सर्वथा उपयुक्त है। विकल्प या अध्यवसाय, अपोहवाद और स्वार्थानुमान के सिद्धान्त उसी परार्थानुमान की देन है। इस तरह न्यायशास्त्र में अनुमान प्रमाण और उसके अंग-उपांगो का ही प्राधान्य है और उसको लेकर स्वतन्त्र ग्रन्थ रचे गये हैं, तथापि जब हम बौद्धन्याय या जैन न्याय शब्द का प्रयोग करते हैं तो उसका तात्पर्य केवल अनुमान प्रमाण न होकर कुछ विशेष होता है। और उन विशेषताओं के कारण ही वह बौद्धन्याय या जैन न्याय कहा जाता है ==
प्रत्येक दर्शन या धर्म के प्रवर्तक की एक विशेष दृष्टि होती है जो उसकी आधारभूत होती है। जैसे भगवान बुद्ध की अपने धर्मप्रवर्तन में मध्यम प्रतिपदा दृष्टि है या शंकराचार्य की अद्वैत दृष्टि है। जैन दर्शन के प्रवर्तक महापुरुषों की भी उसके मूल में एक विशेष दृष्टि रही है। उसे ही अनेकान्तवाद कहते हैं। जैनदर्शन का समस्त आचार-विचार उसी के आधार पर है। इसी से जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन कहलाता है और अनेकान्तवाद तथा जैनदर्शन शब्द परस्पर में पर्यायवाची जैसे हो गये हैं। वस्तु सत् ही है या असत् ही है, या नित्य ही है, अथवा अनित्य ही है इस प्रकार की मान्यता को एकान्त कहते हैं और उसका निराकरण करके वस्तु को अपेक्षा भेद से सत-असत्, नित्य-अनित्य आदि मानना अनेकान्तवाद है। अन्य दर्शनों ने किसी को नित्य और किसी को अनित्य माना है। किन्तु जैन दर्शन कहता है-
‘‘आदीपमाव्योमसमस्वभाव: स्याद् वादमुद्रानतिभेदि वस्तु।
तन्नित्यमेवैकमनित्यन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापा:।।’’’
दीपक से लेकार आकाश तक एक-से स्वभाव वाले हैं। यह बात नहीं है कि आकाश नित्य हो और दीपक अनित्य हो। द्रव्यदृष्टि से प्रत्येक वस्तु नित्य है और पर्यायदृष्टि से अनित्य है। अत: कोई भी वस्तु इस स्वभाव का अतिक्रमण नहीं करती, क्योंकि सब पर स्याद्वाद या अनेकान्त स्वभाव की छाप लगी हुई है। जिन-आज्ञा के द्वेषी ही ऐसा कहते हैं कि अमुक वस्तु केवल नित्य ही है और अमुख केवल अनित्य ही है। ‘स्याद्वाद’ शब्द में ‘स्यात्’ शब्द अनेकान्त रूप अर्थ का वाचक अव्यय हैं। अतएव स्याद्वाद का अर्थ अनेकान्तवाद कहा जाता है। यह स्याद्वाद जैनदर्शन की विशेषता है। इसी से समन्तभद्र स्वामी ने कहा है-हे जिनेन्द्र ! स्यात् शब्द केवल जैन न्याय मे है, अन्य एकान्तवादी दर्शनों में नहीं है। जैनदर्शन एक द्रव्य पदार्थ ही मानता है। उसे मानने पर दूसरे पदार्थ के मानने की आवश्यकता नहीं रहती।गुण और पर्याय के आधार को द्रव्य कहते हैं। ये गुण और पर्याय इस द्रव्य के ही आत्मस्वरूप हैं। इसलिए ये किसी भी हालत में द्रव्य से पृथक् नहीं होते। द्रव्य के परिणमन को पर्याय कहते हैं। जो बतलाता है कि द्रव्य सदा एक-सा कायम न रहकर प्रतिक्षण बदलता रहता है। जिसके कारण द्रव्य सजातीय से मिलते हुए और विजातीय से भिन्न प्रतीत होते हैं वे गुण कहलाते हैं। ये गुण ही अनुवृत्ति और व्यावृत्ति के साधन होते हैं। इसी से जैनदर्शन में सामान्य और विशेष को पृथक् मानने की आवश्यकता नहीं रहती। गुण, कर्म, समवाय, सामान्य, विशेष और अभाव-ये सब द्रव्य की ही अवस्थाएँ हैं। इनमें से कोई भी स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। वेदान्त दर्शन पर्याय को अवास्तविक और पर्याय से भिन्न द्रव्य को वास्तविक मानता है। जैनदर्शन दोनों को ही वास्तविक मानता है। इसी से वस्तु न केवल द्रव्यरूप है और न केवल पर्यायरूप है, किन्तु द्रव्यपर्यायात्मक है, वही प्रमाण का विषय है। जैनदर्शन प्रमाण और नय से वस्तु की सिद्धि मानता है। स्वपरप्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है। ज्ञान आत्मा का स्वरूप है, अत: उसे आत्मा शब्द से भी कहते हैं। अनन्त धर्मवाली वस्तु के किसी एक धर्म को जाननेवाले ज्ञान को नय कहते हैं। जो नय वस्तु को केवल द्रव्य की मुख्यता से ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं, और जो नय वस्तु को पर्याय की मुख्यता से ग्रहण करता है, उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं। ये नय भी स्याद्वाद या अनेकान्तवाद की देन है। इसी से अन्य दर्शनों में इनकी ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती। अनेकान्तवाद के दो फलितवाद हैं-सप्तभंगीवाद और नयवाद। अत: स्याद्वाद सप्तभंगीवाद और नयवाद, ये सब जैन न्याय की विशेषताएँ हैं। जैन विद्वानों ने उनके निरूपण और विवेचन में बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे हैं और अनेकान्तवाद के बल से ही अन्य दार्शनिकों का निराकरण और खण्डन किया है। जब बादरायण जैसे सूत्रकारों ने उसके खण्डन में सूत्र रचे और उन सूत्रों के भाष्यकारों ने अपने भाष्यों में स्याद्वाद का खण्डन किया तथा वसुबन्धु, दिङ् नाग, धर्मकीर्ति और शान्तरक्षित जैसे बड़े-बड़े विद्वानों ने भी अनेकान्तवाद की आलोचना की तो जैन विद्वानों ने भी उनका सामना किया और उसके संरक्षण के लिए वाद भी किये। इस संघर्ष के फलस्वरूप जहाँ एक ओर अनेकान्त का तर्वâपूर्ण विकास हुआ वहाँ दूसरी उसका प्रभाव भी विरोधी दार्शनिकों पर पड़ा। दक्षिण भारत में जैनाचार्यों और मीमांसक तथा वेदान्तियों के बीच में जो विवाद हुए उसका असर मीमांसादर्शन तथा वेदान्त पर पड़ा। मीमांसक कुमारिल भट्ट ने अपने मीमांसाश्लोकवार्तिक में जैनाचार्य समन्तभद्र की शैली और शब्दों में तत्त्व को त्रयात्मक बतलाया है तथा रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के मायावाद के विरुद्ध विशिष्टाद्धैत का निरूपण करते समय अनेकान्त दृष्टि का ही उपयोग किया जाता है। जैनदर्शन न तो सृष्टिकर्ता ईश्वर को मानता है और न ही वेद के प्रामाण्य को स्वीकार करता है। इसी से उसकी गणना नास्तिक दर्शनों में की जाती है, यघपि वह कट्टर आस्तिक है। अत: अनेकान्त के साथ सृष्टिकर्ता ईश्वर और वेद के प्रामाण्य को लेकर भी ईश्वर और वेदवादी दार्शनिकों से जैनो का संघर्ष होता था। ये ही तथा इसी प्रकार की कुछ अन्य विशेषताएँ हैं जिनको लेकर जैन न्याय का उद्गम तथा विकास हुआ।
-‘जैन न्याय’ (भारतीय ज्ञानपीठ) से साभार
१. ‘आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीयतिश्चेति विद्या:।’ धर्माधर्मौ त्रयाम्।अर्थानर्थौ वार्तायाम्।नयानयौ दण्डनीत्याम्। बलाबले चैतासां हेतुभिरन्वीक्षमाणा लोकस्योपकरोति, व्यसनेऽभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति, प्रज्ञावाक्यक्रियावेशारद्यं च करोति। प्रदीप: सर्वविद्यानामुपाय: सर्वकर्मणाम्। आश्रय: सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता।‘ -कौ. अर्थ. १-२
२. ‘आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्चेति चतस्त्रो राजविद्या:। अधीयानो ह्यन्वीक्षिकीं कार्याणां बलाबलं हेतुभिर्विचारयति, व्यसनेषु न विषीदति, नाभ्युदयेन विकार्यते, समधिगच्छति प्रज्ञावाक्यवैशारद्यम् ।।५६।।’ -नी.वा.,५ समुद्देश।
३. आन्वीक्षिक्यध्यात्मविषये…..।।६०।।नी.वा.
४. ‘‘इमास्तु चतस्रो विद्या: पृथक् प्रस्थाना: प्राणभृतामनुग्रहाय उपदिश्यन्ते। यासां चतुर्थीयमान्वीक्षिकी न्यायविद्या। तस्या: पृथक् प्रस्थाना: संशयादय: पदार्था:।तेषां पृथग्वचनमन्तरेण अध्यात्मविद्यामात्रमिदं स्याद् यथोपनिषद:।’ -न्यायभाष्य १.१.१
५. ‘क: पुनरयं न्याय:? प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय: प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानं साऽन्वीक्षा। प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा तया प्रवर्तत इत्यान्वीक्षिकी-न्यायविद्यान्यायशास्त्रम्। वात्स्या. भा. १.१.१
६. ‘नीयते ज्ञायते विवक्षितार्थोऽनेनेति न्याय:।’ -(न्यायकुसुमांजलि)। ‘नितरामीयन्ते गम्यन्ते गत्यर्थानां ज्ञानार्थत्वात् , ज्ञायन्तेऽर्था: अनित्यत्वास्ति- त्वादयोऽनेनेति न्याय: तर्कमार्ग:।’ न्यायप्रवेश-पंजिका, पृ. १, ‘निश्चितं च निर्बाधं च वस्तुतत्त्वमीयतेऽनेनेति न्याय:’। -न्यायविनिश्चया-लंकार, भा. १,पृ.३३
७. विद्याभूषण, हिस्ट्री ऑफ इ. ला., पृ.२५७
८. बुद्धिष्ट लॉजिक, भा. १, पृ. २९