—दोहा—
तीन लोक की सम्पदा, करें हस्तगत भव्य।
तुम गुणमाला कंठधर, पूरें सब कर्तव्य।।१।।
—शेर छंद—
जैवंत मुक्तिकन्त देवदेव हमारे।
जैवंत भक्त जन्तु भवोदधि से उबारे।।
हे नाथ ! आप जन्म के छह मास ही पहले।
धनराज रत्नवृष्टि करें मातु के महले।।२।।
माता की सेव करतीं श्री आदि देवियां।
अद्भुत अपूर्व भाव धरें सर्व देवियां।।
जब आप मात गर्भ में अवतार धारते।
तब इन्द्र सपरिवार आय भक्ति भार से।।३।।
प्रभु गर्भ कल्याणक महाउत्सव विधि करें।
माता पिता की भक्ति से अर्चन विधी करें।।
हे नाथ ! आप जन्मते सुरलोक हिल उठे।
इन्द्रासनों के कम्प से आश्चर्य हो उठे।।४।।
इन्द्रों के मुकुट आप से ही आप झुके हैं।
सुरकल्पवृक्ष हर्ष से ही फूल उठे हैं।।
वे सुरतरु स्वयमेव सुमन वृष्टि करे हैं।
तब इन्द्र आप जन्म जान हर्ष भरे हैं।।५।।
तत्काल इन्द्र िंसहपीठ से उतर पड़ें।
प्रभु को प्रणाम करके बार बार पग पड़ें।।
भेरी करा सब देव का आह्वान करे हैं।
जन्माभिषेक करने का उत्साह भरे हैं।।६।।
सुरराज आ जिनराज को सुरशैल ले जाते।
सुरगण असंख्य मिलके महोत्सव को मनाते।।
जब आप हो विरक्त देव सर्व आवते।
दीक्षा विधी उत्सव महामुद से मनावते।।७।।
जब घातिया को घात ज्ञान सम्पदा भरें।
तब इन्द्र आ अद्भुत समवसरण विभव करें।।
तुम दिव्य वच पियूष को पीते असंख्यजन।
क्रम से करें वे मुक्ति वल्लभा का आिंलगन।।८।।
जब आप मृत्यु जीत मुक्ति धाम में बसे।
सिद्ध्यंगना के साथ परमानन्द सुख चखें।।
सब इन्द्र आ निर्वाण महोत्सव मनावते।
प्रभु पंचकल्याणक पती को शीश नावते।।९।।
हे नाथ ! आप कीर्ति कोटि ग्रंथ गा रहे।
इस हेतु से ही भव्य आप शरण आ रहे।।
मैं आप शरण पाय के सचमुच कृतार्थ हूँ।
बस ‘ज्ञानमती’ पूर्ण होने तक ही दास हूँ।।१०।।
—दोहा—
पांच कल्याणक पुण्यमय, हुये आपके नाथ।
बस एकहि कल्याण मुझ, कर दीजे हे नाथ।।११।।