अहो! दु:षमकालांतं श्रमणाश्चार्यिका इह।
विहरन्ति निराबाधं कुर्युस्ते ताश्च मंगलम्।।१।।
अहो! प्रसन्नता की बात है कि इस भरतक्षेत्र में दु:षमकाल के अंत तक मुनि और आर्यिकायें निराबाध विहार करते रहेंगे। वे मुनि और आर्यिकायें सदा मंगल करें।
निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनियों में जो जिनकल्पी और स्थविरकल्पी भेद हैं, उनका क्या स्वरूप है ? वर्तमान में जिनकल्पी मुनि हो सकते हैं क्या ? संघ परंपरा और श्रुतपरम्परा का क्या महत्त्व है ? आचार्य कुंदकुंददेव आदि महामुनि संघ के अधिपति हुये थे या एकलविहारी थे ? क्या वे सदा वन में रहते थे ?
पुलाक आदि पाँच प्रकार के मुनि प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में होते चले आये हैं। पुन: वे प्रामाणिक हैं या नहीं ? द्रव्य लिंग और भाव लिंग की क्या व्यवस्था है ? इस पंचमकाल में चातुर्वर्ण संघ का व्युच्छेद हो सकता है क्या ? आज के मुनि ग्राम, नगर, मंदिर या धर्मशाला आदि में रह सकते हैं या नहीं ? एक स्थान पर अधिक दिन रह सकते हैं या नहीं ?
आर्यिकाओं की क्या चर्या है ? वे पूजा के योग्य हैं या नहीं ? इत्यादि सामयिक शंकाओं का समाधान जब आगमरूपी दर्पण में दिख जायेगा, तब आप स्वयं निर्णय कर लेंगे कि आज भी सच्चे भावलिंगी मुनि होते हैं। उनकी चर्या आगम के अनुकूल है और पंचमकाल के अंत तक निर्दोष मुनि विचरण करते रहेंगे किन्तु ऐसा जो नहीं मानते हैं वे अज्ञानी हैं; आगम की अवहेलना करने वाले हैं।
अब सबसे पहले आप जिनकल्पी और स्थविरकल्पी मुनियों की चर्या देखिये-
‘‘जिनेन्द्रदेव ने मुनियों के जिनकल्प और स्थविरकल्प ऐसे दो भेद कहे हैं।’’
जो उत्तम संहननधारी हैं उनके जिनकल्प होता है। जो मुनि पैर में कांटा लग जाने पर या नेत्र में धूलि पड़ जाने पर स्वयं नहीं निकालते हैं। यदि कोई निकाल देता है तो मौन रहते हैं। जल वर्षा हो जाने पर गमन रुक जाने से छह मास तक निराहार रहते हुए कायोत्सर्ग में स्थित हो जाते हैं। जो ग्यारह अंगधारी हैं, धर्मध्यान अथवा शुक्लध्यान में तत्पर हैं। अशेष कषायों को छोड़ चुके हैं, मौनव्रती हैं और गिरि कंदराओं में निवास करने वाले हैं। जो बाह्याभ्यंतर परिग्रह से रहित, स्नेहरहित, नि:स्पृही, यतिपति ‘जिन’ (तीर्थंकर) के समान विचरण करते हैं वे ही श्रमण जिनकल्प में स्थित हैं अर्थात् जिनकल्पी होते हैं१।’’
‘जिनेन्द्रदेव ने अनगारों के लिये स्थविरकल्प भी बताया है। सो यह ऐसा है कि पाँच प्रकार के वस्त्रों का त्याग करना, अिंकचन वृत्ति धारण करना और प्रतिलेखन-पिच्छिका ग्रहण करना। पाँच महाव्रत धारण करना, स्थिति भोजन और एकभक्त करना, भक्ति सहित श्रावक के द्वारा दिया गया आहार करपात्र में ग्रहण करना, याचना करके भिक्षा नहीं लेना। बारह विध तपश्चरण में उद्युक्त रहना, छह आवश्यक क्रियाओं को सदा पालना, क्षितिशयन करना, शिर के केशों का लोच करना। जिनेन्द्रदेव की मुद्रा को धारण करना। संहनन की अपेक्षा से इस दु:षमा काल में पुर, नगर और ग्राम में निवास करना। ऐसी चर्या करने वाले साधु स्थविरकल्प में स्थित हैं। ये वही उपकरण रखते हैं कि जिससे चारित्र का भंग न होवे, अपने योग्य पुस्तक आदि को ग्रहण करते हैं। ये स्थविरकल्पी साधु समुदाय में-संघ सहित विहार करते हैं। अपनी शक्ति के अनुसार धर्म की प्रभावना करते हुये भव्यों को धर्मोपदेश सुनाते हैं और शिष्यों का संग्रह करके उनका पालन भी करते हैं।
इस समय संहनन अतिहीन है, दु:षम काल है और मन चंचल है, फिर भी वे धीर-वीर पुरुष ही हैं जो कि महाव्रत के भार को धारण करने में उत्साही हैंं।
पूर्व में-चतुर्थ काल में जिस शरीर से एक हजार वर्ष में जितने कर्मों की निर्जरा की जाती थी, इस समय हीन संहनन वाले शरीर से एक वर्ष में उतने ही कर्मों की निर्जरा हो जाती है१।
अन्यत्र भी ऐसे ही कहा है। यथा-
‘‘जो जितेन्द्रिय साधु सम्यक्त्वरत्न से विभूषित हैं, एक अक्षर के समान एकादश अंग के ज्ञाता हैं। निरंतर मौन रहते हैं, वङ्कावृषभनाराच संहनन के धारक हैं, पर्वत की गुफा, वन, पर्वतों पर तथा नदियों के किनारे रहते हैं। वर्षाकाल में षट्मासपर्यंत निराहार रहकर कायोत्सर्ग करते हैं। जो ‘जिन भगवान्’ के सदृश विहार करते हैं वे जिनकल्पी कहे गये हैं।
जो जिनमुद्रा के धारक हैं, संघ के साथ-साथ विहार करते हैं, धर्मप्रभावना तथा उत्तम-उत्तम शिष्यों के रक्षण में और वृद्ध साधुओं के रक्षण व पोषण में सावधान रहते हैं इसीलिये महर्षिगण इन्हें स्थविरकल्पी कहते हैं। इस भीषण कलिकाल में हीन संहनन होने से ये साधु स्थानीय नगर, ग्राम आदि के जिनालय में रहते हैं। यद्यपि यह काल दुस्सह है, संहननहीन है, मन अत्यंत चंचल है और मिथ्यामत सारे संसार में विस्तीर्ण हो गया है तो भी ये साधु संयम पालन में तत्पर रहते हैं।
जो कर्म पूर्व काल में हजार वर्ष में नष्ट किये जाते थे, वे कलियुग में एक वर्ष में ही नष्ट किये जा सकते हैं२।’’
इन उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तम संहननधारी मुनि ही जिनकल्पी कहलाते हैं। इस पंचम काल में उत्तम संहनन का अभाव है, तीन हीन संहनन ही होते हैं अत: आज के युग में जिनकल्पी मुनि न होकर स्थविरकल्पी ही होते हैं। श्री कुंदकुंददेव आदि भी जिनकल्पी नहीं थे। चूँकि न इनके उत्तम संहनन ही था, न ये ग्यारह अंगों के ज्ञाता ही थे, न ये छह-छह मास तक कायोत्सर्ग में लीन हो सकते थे और न ये सदा गिरि, गुफा, पर्वतों पर ही रहते थे क्योंकि इस स्थिति में ग्रंथों के लेखन आदि का कार्य संभव नहीं हो सकता था।
अब आचार ग्रंथों में सबसे प्रमुख मूलाचार का विधान देखिये-
पदविभागी समाचारी का निरूपण करते हुये आचार्य कहते हैं कि ‘‘कोई धैर्य, वीर्य, उत्साह आदि गुणों से सहित मुनि अपने गुरु के पास उपलब्ध शास्त्रों को पढ़कर पुन: और विशेष अध्ययन के लिये अन्य आचार्य के पास जाना चाहता है तो वह अपने गुरु के पास विनय से अन्यत्र जाने हेतु बार-बार प्रश्न करता है। अवसर देखकर तीन, पाँच या छह बार प्रश्न करता है, पुन: दीक्षागुरु और शिक्षागुरु की आज्ञा लेकर अपने साथ एक, दो या तीन मुनियों को साथ लेकर जाता है क्योंकि एकाकी गमन करने की शास्त्र में आज्ञा नहीं है१।’’
‘‘जो साधु बारह प्रकार के तप करने वाले हैं, द्वादश अंग और चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता हैं अथवा क्षेत्र, काल आदि के अनुरूप आगम के ज्ञाता हैं या प्रायश्चित्त आदि ग्रंथों के वेत्ता हैं, देह की शक्ति और हड्डियों के बल से अथवा भाव के सत्त्व से सहित हैं, शरीरादि से भिन्नरूप ऐसी एकत्व भावना में तत्पर हैं। वङ्कार्षभनाराच आदि तीन संहनन में से किसी एक संहनन के धारक हैं, मनोबल से सहित हैं-क्षुधादि बाधाओं को सहने में समर्थ हैं, बहुत दिनों के दीक्षित हैं, तपस्या से वृद्ध हैं और आचारशास्त्रों के पारंगत हैं ऐसे मुनि को ही एकलविहारी होने की जिनेन्द्रदेव ने आज्ञा दी है।’’२
ग्रंथकार पुन: कहते हैं कि-‘‘गमनागमन में, सोने में, उठने में, कुछ वस्तु के ग्रहण करने में, आहार लेने में, मलमूत्रादि विसर्जन करने में और बोलने आदि क्रियाओं में स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला ऐसा कोई भी मुनि चाहे वह मेरा शत्रु ही क्यों न हो तो भी वह एकाकी विचरण न करे।’’३
जो संघ के अधिपति आचार्य को और संघ में रहने वाले साधुओं को परिग्रही, मोही आदि संज्ञा देकर उन्हें आगम के विरुद्ध समझते हैं, उन्हें इस आगम आधार से संघ की व्यवस्था को शास्त्रोक्त ही समझकर अपनी धारणा सुधार लेनी चाहिए क्योंकि श्री कुंदकुंददेव ने प्रवचनसार में भी आचार्य को संघ संचालन का आदेश दिया है। यथा-
‘‘जो अरहंतादि की भक्ति, आचार्य आदि के प्रति वात्सल्य पाया जाता है वह शुभयुक्त चर्या शुभोपयोगी चारित्र है। वंदना-नमस्कार आदि करना, विनय प्रवृत्ति करना, उनकी थकान दूर करना सरागचर्या में निषिद्ध नहीं है। अनुग्रह की इच्छा से दर्शन और ज्ञान का उपदेश देना, शिष्यों का ग्रहण करना और उनका पोषण करना और जिनेन्द्रदेव की पूजा का उपदेश देना, यह सरागी मुनियों की चर्या है। जो मुनि नित्य ही चातुर्वर्ण संघ या जीवों की विराधना से रहित उपकार करता है वह राग की प्रधानता वाला है। रोगी, गुरु, बाल या वृद्ध श्रमणों की वैयावृत्य के लिए शुभोपयोगी मुनि को लौकिकजन से वार्तालाप करने का निषेध नहीं है।४’’
यहाँ पर जो ‘शिष्यों का ग्रहण करना और उनका पोषण करना’ यह आदेश ही संघ के संचालन का द्योतक है।
मूलाचार में भी आचार्यों के लिये संघ बनाने का आदेश दिया है, यथा-
‘‘जो शिष्यों का संग्रह और उनके ऊपर अनुग्रह करने में कुशल हैं, सूत्र और उसके अर्थ में विशारद हैं, कीर्तिमान हैं, क्रिया और आचरण से युक्त हैं, जिनके वचन प्रमाणीभूत हैं और जिन्हें सब मानते हैं ऐसे आचार्य होते हैं।’’१
ऐसे ही भगवती आराधना में भी संघ की व्यवस्था मानी गई है। एक संघ के आचार्य अपनी सल्लेखना हेतु अपने योग्य शिष्य पर संघ का भार छोड़कर अर्थात् उन्हें आचार्य बनाकर द्वितीय संघ में प्रवेश करते हैं कि जिससे शिष्यों के मोह आदि के निमित्त से हमारी सल्लेखना में विघ्न न आ जावे तथा वहाँ पर भी वे आचार्य अड़तालीस मुनि के साथ उनको सल्लेखना कराते हैं। कम से कम दो मुनि सल्लेखनारत मुनि की परिचर्या के लिये अवश्य होना चाहिये ऐसा ही वहाँ विधान किया गया है।
भगवान महावीर स्वामी के समय से ही आचार्य परम्परा चली आ रही है। यथा-‘‘वर्धमान तीर्थंकर के निमित्त से गौतम गणधर श्रुतपर्याय से परिणत हुये, इसलिये द्रव्यश्रुत के कर्त्ता गौतम गणधर हैं। उन गौतमस्वामी ने दोनों प्रकार का श्रुतज्ञान लोहाचार्य को दिया। लोहाचार्य ने जम्बूस्वामी को दिया। परिपाटी क्रम में तीनों ही सकलश्रुत के धारक कहे गये हैं। यदि परिपाटीक्रम की अपेक्षा न की जाये तो संख्यात हजार सकलश्रुत के धारी हुये हैं। गौतमस्वामी, लोहाचार्य और जम्बूस्वामी ये तीनों केवलज्ञानी होकर निर्वाण को प्राप्त हुये हैं। इसके बाद विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पाँचों ही आचार्य परिपाटी क्रम से चौदहपूर्व के पाठी हुये। तदनंतर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थदेव, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह ही साधु परिपाटीक्रम से ग्यारह अंग और दशपूर्व के धारी हुए। इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पांडुस्वामी, ध्रुवसेन एवं कंसाचार्य ये पाँचों ही आचार्य परिपाटी क्रम से ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वों के एकदेश के धारक हुए। तदनंतर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य ये चारों ही आचार्य सम्पूर्ण आचारांग के धारक और शेष अंग तथा पूर्वों के एकदेश के धारक हुये। इसके बाद सभी अंग और पूर्वों का एकदेश ज्ञान आचार्य परम्परा से आता हुआ धरसेन आचार्य को प्राप्त हुआ।’’२
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि धरसेनाचार्य पर्यंत श्रुतपरम्परा और आचार्यपरम्परा का व्युच्छेद नहीं हुआ है क्योंकि ‘‘आइरियपरम्पराए आगच्छमाणो’’ यह वाक्य स्पष्ट आचार्य परम्परा को घोषित कर रहा है।
पुन: अपना यह श्रुतज्ञान श्रीधरसेनाचार्य ने पुष्पदंत और भूतबलि महामुनियों को दिया है जिन्होेंने ‘षट्खंडागम’ सूत्र रूप में उसे लिपिबद्ध किया है।
‘प्रथम शुभचंद्र की गुर्वावली’ में श्री गुप्तिगुप्त अर्थात् अर्हद्वलि आचार्य से लेकर उन-उन के पट्ट पर आसीन होने वाले आचार्यों की नामावली दी गई है। जिसमें १०२ आचार्यों के नाम हैं। यथा-
श्रीमानशेषनरनायकवंदिताघ्री: श्रीगुप्तिगुप्त (१) इति विश्रुतनामधेय:।
यो भद्रबाहु (२) मुनिपुंगवपट्टपद्म:, सूर्य: स वो दिशतु निर्मलसंघ वृद्धिम्।।१।।
श्रीमूलसंघेऽजनि नंदिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्य:।
तत्राभवत्पूर्वपदांशवेदी श्रीमाघनन्दी (३) नरदेववंद्य:।।२।।
पट्टे तदीये मुनिमान्यवृत्तो जिनादिचन्द्र (४) स्समभूदतन्त्र:-
ततोऽभवत्पंचसुनामधाम श्रीपद्मनंदी मुनिचक्रवर्ती।।३।।
आचार्य: कुंदकुंदाख्यो (५) वक्रग्रीवो महामुनि:।
एलाचार्यो गृद्धपिच्छ: पद्मनंदीति तन्नुति:।।४।।
पद्मनंदी गुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी।
पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती।
ऊर्ज्जयंतगिरौ तेन गच्छ: सारस्वतोऽभवत्।
अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नम: श्रीपद्मनंदिने१।।६३।।
समस्त राजाओं से पूजित पादपद्म वाले मुनिवर ‘भद्रबाहु’ स्वामी के पट्टकमल को उद्योत करने में सूर्य के समान ‘श्री गुप्तिगुप्त’ मुनि आप लोगों को शुभ संगति दें। श्री मूलसंघ में नंदिसंघ उत्पन्न हुआ, इस संघ में अतिरमणीय बलात्कारगण हुआ और उस गण में पूर्व के जानने वाले, मनुष्य व देवों से वंद्य श्री ‘माघनंदिस्वामी’ हुये। उनके पट्ट पर मुनिश्रेष्ठ ‘जिनचंद्र’ हुये और इनके पट्ट पर पाँच नामधारक मुनिचक्रवर्ती ‘श्री पद्मनंदी स्वामी’ हुये। कुंदकुंद, वक्रग्रीव, एलाचार्य, गृद्धपिच्छ और पद्मनंदी उनके ये पाँच नाम थे। (ये ही कुंदकुंदाचार्य समयसार आदि ग्रंथ के कर्त्ता हैं।)
पुन: उनके पट्ट पर दशाध्यायी तत्त्वार्थसूत्र के प्रसिद्धकर्त्ता मिथ्यात्व तिमिर के लिये सूर्य के समान ‘उमास्वाति’ (उमास्वामी) आचार्य हुये, इत्यादि।
इसी क्रम से १०२ आचार्यों की परम्परा बताकर अंत में श्री कुंदकुंद स्वामी की विशेषताओं का स्मरण करते हुए उन्हें नमस्कार किया है।
‘‘श्री पद्मनंदी (कुंदकुंद) गुरु ने बलात्कारगण में अग्रसर होकर पट्टारोहण किया और जिन्होंने पाषाण घटित सरस्वती को ऊर्जयंत गिरि पर वादी के साथ वादित कराया (बुलवाया), तब से ही सारस्वतगच्छ चला। इसी उपकृति के स्मरणार्थ उन श्री पद्मनंदी मुनि को मैं नमस्कार करता हूँ।’’
इस श्लोक से वृन्दावन कवि की पंक्तियाँ स्मरण में आये बिना नहीं रहती हैं जो कि उन्होंने गुरु के मंगलाष्टक में कही हैं-
संघ सहित श्री कुंदकुंद गुरु वंदन हेतु गये गिरनार।
वाद पर्यो जहं संशय मति सों साक्षी वदी अंबिकाकार।।
‘‘सत्यपंथ निर्ग्रंथ दिगम्बर’’ कही सुरी तहं प्रकट पुकार।
सो गुरुदेव बसो उर मेरे विघ्नहरण मंगल करतार।।१।।
इस प्रकरण से श्री कुंदकुंद आचार्य द्वारा गिरनार पर्वत पर श्वेतांबर साधुओं से विवाद होकर निर्ग्रंथ दिगम्बर पंथ ही सत्य है इस बात को सरस्वती की मूर्ति से कहला देने की कथा सत्य सिद्ध हो जाती है।
नंदिसंघ की पट्टावली में तो एक-एक आचार्य किस संवत् में पट्टासीन हुये उनका समय भी दिया गया है। यथा-
१. भद्रबाहु द्वितीय (४),
२. गुप्तिगुप्त (२६),
३. माघनन्दी (६),
४. जिनचंद्र (४०),
५. कुंदकुंदाचार्य (४९),
६. उमास्वामी (१०१) ’’२ इत्यादि।
अर्थात् भद्रबाहु द्वितीय विक्रम संवत् ४ में पट्ट पर बैठे, उनके पट्ट पर श्रीगुप्तिगुप्त वि.सं. २६ में आसीन हुये इत्यादि।
इन पट्टावलियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री कुंदकुंदस्वामी अपने गुरु जिनचंद्र के पट्ट पर आचार्य हुये हैं पुन: उन्होंने संघ सहित गिरनार पर्वत की यात्रा की है, अनंतर अपना पट्ट उन्होंने श्रीउमास्वामी को सौंपा है। इस कथन से ‘‘श्रीकुंदकुंददेव एकलविहारी थे या वन में ही रहते थे’ ऐसी मान्यता का निराकरण हो जाता है।
वर्तमान में आचार्य श्री शांतिसागर महामुनि आदि ने श्रीकुंदकुंदाचार्य की परम्परा को ही समुद्योतित किया है। उनके पट्टाचार्यों की परम्परा भी मूलसंघ के अंतर्गत नंदिसंघ, बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छ का आश्रय करने वाली है। इस परम्परा के आचार्य और मुनिगण मूलाचार, भगवती आराधना, आचारसार, अनगार धर्मामृत आदि ग्रंथों के आधार से ही अपनी चर्या का पालन कर रहे हैं।
श्री इंद्रनंदि आचार्य कहते हैं-
‘‘श्री भद्रबाहु, श्रीचंद्र, जिनचंद्र, गृद्धपिच्छाचार्य, लोहाचार्य, एलाचार्य, पूज्यपाद, सिंहनंदी, जिनसेन, वीरसेन, गुणनंदी, समंतभद्र, श्रीकुम्भ, शिवकोटि, शिवायन, विष्णुसेन, गुणभद्र, अकलंकदेव, सोमदेव, प्रभाचंद्र और नेमिचंद्र इत्यादि मुनिपुंगवों के द्वारा रचित शास्त्र ही ग्रहण करने योग्य हैं। इनसे अतिरिक्त (सिंह, नंदि, सेन और देवसंघ इन चार संघ के आचार्यों से अतिरिक्त) विसंघ्य अर्थात् परम्पराविरुद्ध जनों के द्वारा रचित ग्रंथ अच्छे होकर भी प्रमाण नहीं हैं क्योंकि परम्परागत पूर्वाचार्यों के वचन सर्वज्ञ भगवान के वचनों के सदृश हैं। उन्हीं से ज्ञान प्राप्त करता हुआ अनगार साधु अखिल जनों में पूज्य होता है१।’’
इस कथन से षट्खंडागमसूत्र तथा कषायपाहुड़ ग्रंथ और उनकी धवला, जयधवलाटीका, तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, रत्नकरंड श्रावकाचार, भगवती आराधना, महापुराण, उत्तरपुराण, यशस्तिलकचंपू, न्यायकुमुदचंद्र, गोम्मटसार, समयसार आदि ग्रंथ पूर्णतया प्रमाणिक सिद्ध हो जाते हैं।
प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में पुलाक, वकुश आदि पाँच प्रकार के मुनि होते आये हैं। उनका क्या लक्षण है ? और आजकल कौन से मुनि होते हैं कौन से नहीं ? सो ही देखिये-
मुनियों के पाँच भेद हैं-पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रंथ और स्नातक।
पुलाक-जो उत्तर गुणों से हीन हैं और व्रतों में क्वचित् कदाचित् दोष लगा देते हैं। ये बिना धुले हुये (िंकचित् लालिमा सहित) धान्य सदृश होने से पुलाक कहलाते हैं।
वकुश-जो मूलगुणों को तो पूर्णतया पालते हैं किन्तु शरीर के संस्कार, ऋद्धि, सुख, यश और विभूति के इच्छुक हैं वे वकुश हैं।
कुशील-कुशील मुनि के दो भेद हैं-प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील। जो परिग्रह की भावना सहित हैं, मूल और उत्तर गुणों में परिपूर्ण हैं किन्तु कभी-कभी उत्तर गुणों की विराधना करने वाले हैं वे प्रतिसेवना कुशील हैं। ग्रीष्मकाल में जो जंघा प्रक्षालन आदि का सेवन करते हैं, संज्वलनमात्र कषाय के वशीभूत हैं, वे कषाय कुशील हैं।
निर्ग्रंथ-जल में खींची हुई रेखा के समान जिनके कर्मों का उदय अनभिव्यक्त है और जिनके अंतर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान उत्पन्न होने वाला है वे निर्ग्रंथ हैं। (ये बारहवें गुणस्थानवर्ती ही हैं।)
स्नातक-केवली भगवान स्नातक हैं।
ये पाँचों ही निर्ग्रंथ हैं।
शंका-उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम की अपेक्षा चारित्र भेद होने से इन सब में निर्ग्रंथता नहीं हो सकती ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे जाति से और चारित्र, अध्ययन आदि भेदों से भेद होने पर भी ब्राह्मण शब्द से सभी ब्राह्मणों में कोई भेद नहीं है उसी प्रकार से इन सबमें निर्ग्रंथ शब्द से कोई भेद नहीं है।
दूसरी बात यह है कि-
संग्रह और व्यवहारनय की अपेक्षा से भी सर्वविशेष का संग्रह हो जाता है तथा सम्यग्दर्शन सहित और वेश, भूषा, आयुध आदि से रहित निर्ग्रंथरूप सामान्यरूप से सभी पुलाक आदि में विद्यमान हैै अत: सभी में निर्ग्रंथ शब्द का प्रयोग युक्त है।
शंका-यदि खंडित व्रत वालों में भी निर्गं्रथ शब्द का प्रयोग किया जावेगा तब तो श्रावक में भी करना चाहिए ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उसके निर्ग्रंथरूप नहीं है। यहाँ पर हमें निर्ग्रंथरूप प्रमाण है और वह श्रावक में नहीं है अत: यह दोष नहीं आता है।
शंका-यदि रूप ही प्रमाण है तो अन्य भी निर्ग्रंथ सदृश नग्नरूप वाले१में निर्ग्र्रंथ शब्द का प्रयोग करना चाहिये ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि उनमें सम्यग्दर्शन नहीं है। जहाँ सम्यग्दर्शन के साथ मुद्रा है वहीं पर निर्ग्रंथ शब्द का प्रयोग होता है किन्तु नग्नरूप मात्र में नहीं।
शंका-पुन: ये पुलाक आदि नाम क्यों हैं ?
समाधान-चारित्र गुण की उत्तर-उत्तर प्रकर्षता बतलाने के लिये ये संज्ञायें हैं२।’’
अब इसमें समझना यह है कि पुलाक मुनियों के ही मूलगुणों में विराधना हो सकती है अथवा यों समझिये कि जिनके मूलगुणों में कदाचित् विराधना हो जाती है वे ‘पुलाक’ कहलाते हैं। बाकी के मुनियों में मूलगुण परिपूर्ण हैं किन्तु उत्तर गुणों में किन्हीं के दोष संभव हैं। फिर भी ये पुलाकसंज्ञक मुनि भावलिंगी हैं या नहीं ? पूज्य हैं या नहीं ? इसका समाधान स्वयं श्रीभट्टाकलंक देव के शब्दों में आगे देखिये-
इन पाँचों ही निर्ग्रंथों का संयम आदि आठ अनुयोगों द्वारा व्याख्यान करना चाहिये।
पुलाक, वकुश और प्रतिसेवनाकुशील इनके सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो ही संयम होते हैं। कषायकुशील के सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पराय ये चार संयम होते हैं तथा निर्ग्रंथ और स्नातक के एक यथाख्यात संयम ही है१।
इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये पुलाक मुनि भावलिंगी हैं न कि द्रव्यलिंगी, क्योंकि द्रव्यलिंगी में सामायिक और छेदोपस्थापना संयम का होना असंभव है। ये संयम तो छठे, सातवें आदि गुणस्थानों में ही होते हैं।
‘‘पुलाक, वकुश और प्रतिसेवना को श्रुतज्ञान उत्कृष्ट से अभिन्नदशपूर्व तक हो सकता है।’’
यहाँ पर भी समझ लेना चाहिये कि द्रव्यलिंगी मुनि को पूर्व का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि अधिक से अधिक ग्यारह अंग का ज्ञान हो सकता है।
प्रतिसेवना में-पाँच मूलगुण और रात्रिभोजनत्याग इनमें किसी एक का पर की जबरदस्ती से सेवन कर लेने वाला पुलाक होता है।
इस प्रकरण में तत्त्वार्थवृत्तिकार का स्पष्टीकरण ऐसा है-
‘‘रात्रि भोजन त्याग का विराधक मुनि कैसा होगा ?’’
‘श्रावक आदिकों का इससे उपकार होगा’ ऐसा सोचकर अपने छात्र आदि को जो रात्रि में भोजन करा देते हैं इसलिये विराधक हो जाते हैं२।’’
इस कथन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आचार्यादि मुनिसंघ में अविरत छात्रादि को भी रखते हैं।
‘‘वकुश के भी दो भेद हैं-उपकरण वकुश और शरीर वकुश। जो उपकरणों में आसक्ति रखते हैं, नाना प्रकार के विचित्र परिग्रहों से युक्त हैं, बहुत विशेषता सहित उपकरणों के इच्छुक हैं, उन उपकरणों के संस्कार और प्रतीकार को करने वाले हैं वे साधु उपकरण वकुश हैं। शरीर के संस्कार को करने वाले शरीर वकुश हैं।’’
वकुश मुनि के लक्षण में तत्त्वार्थवृत्तिकार ने कहा है कि जो निर्ग्रंथमुनि व्रतों में दोष न लगाते हुये भी शरीर, उपकरण-पिच्छी, कमंडलु, पुस्तक आदि की शोभा चाहते हैं, ऋद्धि, सुख, वैभव की आकांक्षा करते हैं और असंयत शिष्यों से सहित हैं वे वकुश हैं।
तीर्थ की अपेक्षा से-‘‘सभी तीर्थंकरों के तीर्थों में ये पाँचों प्रकार के मुनि होते हैं।’’
‘‘लिंग में-भावलिंग की अपेक्षा सभी पाँचों प्रकार के मुनि निर्ग्रंथलिंगी हैं। द्रव्यलिंग की अपेक्षा भाज्य हैं।’’
इन सभी प्रकरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि मुनि के कदाचित् मूलगुणों में दोष लग जाता है या वे संघ में असंयत छात्रों को रखते हैं अथवा पिच्छी, कमण्डलु, शरीर आदि को संस्कारित करते रहते हैं, कदाचित् क्वचित् गर्मी के दिनों में जंघा प्रक्षालन आदि कर लेते हैं तो वे सब मुनि पुलाक, वकुश या कुशील भेदों में आते हैं वे भावलिंगी हैं। सामायिक तथा छेदोपस्थापना संयम के धारी हैं अत: पूज्य हैं।
आज के युग में निर्ग्रंथ और स्नातक मुनि नहीं हो सकते हैं।
सराग और वीतराग चारित्र की अपेक्षा मुनियों के सरागी और वीतरागी ऐसे दो भेद भी हो जाते हैं। सिद्धांत की भाषा में ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में वीतरागता मानी है किन्तु अध्यात्म की भाषा में अथवा बुद्धिपूर्वक राग के न होने से सातवें से भी वीतरागता शुरू हो जाती है चूँकि सातवें में शुद्धोपयोग माना गया है।
जब कोई भी पुरुष दीक्षा लेता है तब उस समय उसके पहले गुणस्थान से या चौथे गुणस्थान से अथवा पाँचवें गुणस्थान से सातवें गुणस्थानरूप परिणाम होते हैं चूँकि छठा गुणस्थान गिरने से ही होता है।
तात्पर्य यह है कि दीक्षा लेकर मुनि एकदम सातवें गुणस्थान में सामायिक संयमरूप अभेद रत्नत्रय को प्राप्त कर लेते हैं, पुन: अंतर्मुहूर्त के बाद वहाँ ठहरने में असमर्थ होने से मूलगुणों में अपने को स्थापित करते हुये भेदरूप छेदोपस्थापना संयम में आ जाते हैं, चूँकि ये अट्ठाईस मूूलगुण निर्विकल्प सामायिकसंयम के ही भेद हैं। जैसे सुवर्ण के इच्छुक को यदि सुवर्ण न मिले तो वह उससे बनी अंगूठी आदि को ही ले लेता है उसे छोड़कर दोनों तरफ से रिक्तहस्त नहीं होता है। वैसे ही मुनि अभेदरूप सामायिक संयम में जब अधिक देर ठहर नहीं पाते हैं तो वे भेदरूप छेदोपस्थापना में आ जाते हैं१।’’
इसमें जो सामायिक संयम में स्थित हैं वे वीतरागी कहलाते हैं क्योंकि बुद्धिपूर्वक उनके राग का अभाव है, वे शुद्धोपयोगरूप निर्विकल्पध्यान में स्थित हैं और छेदोपस्थापनारूप भेदचारित्र में प्रवृत्ति करते हैं वे सरागी मुनि माने जाते हैं चूँकि वे शुभोपयोगी हैं।
आगे इन्हीं के पर्यायवाची नाम को बतलाते हैं, उनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है। यथा-
‘‘शुद्धात्मा से अतिरिक्त अन्य सभी बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर देना उत्सर्ग है। उत्सर्ग, निश्चयनय, सर्वपरित्याग, परमोपेक्षासंयम, वीतराग-चारित्र और शुद्धोपयोग, ये सब एक अर्थ वाले हैं। जो मुनि इसमें ठहरने में असमर्थ है वह शुद्धात्मभावना के लिये सहकारीभूत कुछ भी प्रासुक आहार और ज्ञान के उपकरण-शास्त्र आदि को ग्रहण करता है, सो यह अपवाद है। अपवाद, व्यवहारनय, एकदेश परित्याग, अपहृतसंयम, सरागचारित्र और शुभोपयोग ये सब एकार्थवाची हैं।’’
श्री कुंदकुंददेव ने प्रवचनसार में अपवादमार्ग के आश्रय का विधान किया है। यथा-
‘‘बाल, वृद्ध, श्रांत या व्याधिग्रस्त श्रमण मूल का छेद जैसे न हो उस प्रकार से अपने योग्य आचरण आचरो। यदि श्रमण आहार या विहार में देश, काल, क्षमता तथा उपाधि इनको जानकर प्रवृत्ति करता है तो वह अल्प ही कर्मों से बंधता है।२।
इन गाथाओं की टीका में श्री अमृतचंद्रसूरि ने उत्सर्ग और अपवाद की मैत्री का अच्छा वर्णन किया है। वे कहते हैं कि यदि कोई साधु बाल, वृद्ध, श्रांत या रुग्ण अवस्था के निमित्त से आहार, विहार आदि में अल्पकर्मबंध के डर से प्रवृत्ति न करे अर्थात् अपवाद का आश्रय न लेवे, दृढ़तापूर्वक उत्सर्गरूप कठोर आचरण में ही लगा रहे तो वह अक्रम से शरीर का घात करके संयमरूपी अमृत का वमन करके देवलोक को प्राप्त होगा। वहाँ तप का अवकाश न होने से महान कर्मबंध होगा, इसलिये अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं है। तात्पर्य यही है कि उत्सर्गसापेक्ष अपवाद और अपवादसापेक्ष उत्सर्ग ही श्रेयस्कर है अथवा यों कहिये कि निश्चय सापेक्ष व्यवहार और व्यवहार सापेक्ष निश्चय ही कल्याणकारी है। परस्पर निरपेक्ष होने से ठीक नहीं है।
आज के युग में मुनियों के छठा और सातवाँ ये दोनों गुणस्थान होते हैं। उत्तम संहनन के अभाव में इसके ऊपर श्रेणी में आरोहण करना संभव नहीं है। संघ में रहते हुये भी आचार्यों को या सामान्य साधुओं को सातवें गुणस्थान के योग्य शुद्धोपयोग होता है। उसे ही सामायिक संयम वीतराग चारित्र आदि भी कहते हैं चूँकि इन दोनों गुणस्थानों का पृथक-पृथक काल अंतर्मुहूर्त ही है।
प्राचीनकाल में भी आचार्यों के संघ थे। वे ग्रंथ लिखते थे, पढ़ते थे, पढ़ाते थे, विहार करते थे और धर्मोपदेश करते थे। इन सभी कार्यों में कई-कई घंटे भी लग जाते होंगे अत: यह निश्चित हो जाता है कि उस समय भी उनका गुणस्थान छठे से सातवाँ हो जाता था अन्यथा वे द्रव्यलिंगी माने जायेंगे।
श्री कुंंदकुंददेव कहते हैं-
भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स।
तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।।७६।।
इस भरतक्षेत्र में दु:षमकाल में मुनि को आत्मस्वभाव में स्थित होने पर धर्मध्यान होता है। जो ऐसा नहीं मानता है वह अज्ञानी है।
अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं।
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुदा णिव्वुदिं जंति।।७७।।
आज भी इस पंचमकाल में रत्नत्रय से शुद्ध आत्मा (मुनि) आत्मा का ध्यान करके इंद्रत्व और लौकांतिक देव के पद को प्राप्त कर लेते हैं और वहाँ से चयकर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।१
श्री पद्मनंदि आचार्य कहते हैं-
संप्रत्यस्ति न केवली किल कलौ त्रैलोक्यचूडामणि:।
तद्वाच: परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगद्द्योतिका:।।
सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवरास्तासां समालंबनं।
तत्पूजा जिनवाचि पूजनमत: साक्षाज्जिन: पूजित:।।६८।।
इस समय भरतक्षेत्र में त्रैलोक्यचूड़ामणि केवली भगवान नहीं हैं। फिर भी लोक को प्रकाशित करने वाले उनके वचन तो यहाँ विद्यमान हैं और उनके वचनों का अवलंबन लेने वाले रत्नत्रयधारी श्रेष्ठ यतिगण भी मौजूद हैं इसलिये उन मुनियों की पूजा जिनवचनों की पूजा है और जिनवचन की पूजा से साक्षात् जिनदेव की पूजा की गई है ऐसा समझना।’’२
श्री कुंदकुंददेव नियमसार में निश्चय प्रतिक्रमण आदि छह आवश्यकों का वर्णन करते हुए अंत में कहते हैं-
जदि सक्कदि कादुं जे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं।
सत्तिविहीणो जो जइ सद्दहणं चेव कायव्वं।।१५४।।
यदि करना शक्य हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि करना चाहिए और यदि वैसी शक्ति नहीं हो तो तब तक (वैसी शक्ति आने तक) श्रद्धान ही करना चाहिए।’’३ टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारी देव कहते हैं-
‘‘हे मुनिपुंगव! यदि संहनन शक्ति का प्रादुर्भाव हो तो तुम ध्यानरूप निश्चय प्रतिक्रमण आदि करो और यदि शक्तिहीन हो तो अर्थात् इस ‘दग्धकालेऽकाले’ दु:षमकाल रूप अकाल में तुम्हें निज परमात्मतत्त्व का केवल श्रद्धान ही करना चाहिए। पुन: टीकाकार कहते हैं- असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले,
न मुक्तिर्मार्गेऽस्मिन्नघजिननाथस्य भवति।
अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवेन्निर्मलधियाम्।
निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम्।।२६४।।
इस असार संसार में पाप से बहुल कलिकाल का विलास होने पर निर्दोष जिननाथ के इस मार्ग-शासन में मुक्ति नहीं है अत: इस काल में अध्यात्म ध्यान वैâसे हो सकता है ? इसलिये निर्मल बुद्धि वालों के लिये भव भय का नाश करने वाला यह निजात्मा का श्रद्धान करना ही स्वीकृत किया गया है।’’१
इस कथन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जब मुनियों का निजात्म तत्त्व का ध्यान आज हीन संहनन में नहीं है उन्हें शक्ति के अभाव में श्रद्धान करने का आदेश श्री कुंदकुंददेव ने दिया है तथा टीकाकार ने तो बिल्कुल ही स्पष्ट कर दिया है, पुन: श्रावक व असंयत को ‘आत्मध्यान’ होता है ऐसा मानने वालों को इन पंक्तियों पर ध्यान देना चाहिए। हाँ, धर्मध्यान अर्थात् आज्ञाविचय आदि तथा पिडस्थ आदि ध्यानों में पाँच परमेष्ठियों का अवलंबन ध्यान होता है उसका निषेध नहीं है।
तथा इसी कलशकाव्य से पंचमकाल में मुनियोें का अस्तित्व भी स्पष्ट ही दिख रहा है।
श्री गुणभद्रस्वामी भी कहते हैं-
‘‘जो स्वयं मोह को छोड़कर कुलपर्वत के समान पृथ्वी का उद्धार अथवा पोषण करने वाले हैं, जो समुद्रों के समान स्वयं धन की इच्छा से रहित होकर रत्नों की निधि-खान अर्थात् स्वामी हैं तथा जो आकाश के समान व्यापक होने से किन्हीं के द्वारा स्पर्शित न होकर विश्व की विश्रांति के लिये हैं, ऐसे अपूर्व गुणों के धारक चिरंतन महामुनियों के शिष्य और सन्मार्र्ग में तत्पर कितने ही साधु आज भी विद्यमान हैं२।’’
श्री यतिवृषभाचार्य कहते हैं-
‘‘सुविधिनाथ को आदि में लेकर सात तीर्थों में उस धर्म की व्युच्छित्ति हुई थी और शेष सोलह तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की परम्परा निरंतर बनी रही है। उक्त सात तीर्थों में क्रम से पावपल्य, अर्द्धपल्य, पौन पल्य, पल्य, पौन पल्य, अर्द्धपल्य और पावपल्य प्रमाण धर्मतीर्थ का व्युच्छेद रहा है। हुँडावसर्पिणी के दोष से यहाँ सात धर्म के विच्छेद हुये हैं। उस समय दीक्षा के अभिमुख होने वालों का अभाव होने पर धर्मरूपी सूर्यदेव अस्तमित हो गया था।३’’
तात्पर्य यह है कि वृषभदेव से लेकर पुष्पदंतनाथ तक धर्म परम्परा अव्युच्छिन्न रूप से चली आई थी। पुन: पुष्पदंत के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्म का अभाव रहा है, अनंतर जब शीतलनाथ तीर्थंकर हुये तब धर्मतीर्थ चला उनके तीर्थ में पौन पल्य, वासुपूज्य के तीर्थ में एक पल्य, विमलनाथ के तीर्थ में पौन पल्य, अनंतनाथ के तीर्थ में अर्द्धपल्य और धर्मनाथ के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्म का अभाव रहा है अर्थात् कोई भी मनुष्य जैनेश्वरी दीक्षा लेने वाले नहीं हुए अत: धर्म का अभाव हो गया।
यहाँ पर यह बात समझने की है कि मुनिसंघ के बिना धर्म की परम्परा नहीं चल सकती है। इसी का स्पष्टीकरण और भी देखिये श्री यतिवृषभाचार्य के शब्दों में-
गौतमस्वामी से लेकर अंग-पूर्व के एक देश के जानने वाले मुनियों की परम्परा के काल का प्रमाण छह सौ तेरासी (६८३) वर्ष होता है। उसके बाद-
‘‘जो श्रुततीर्थ धर्म प्रवर्तन का कारण है, वह बीस हजार तीन सौ सत्रह वर्षों में कालदोष से व्युच्छेद को प्राप्त हो जायेगा।’’१
अर्थात् ६८३ + २०३१७= २१००० इक्कीस हजार वर्ष का यह पंचमकाल है तब तक धर्म रहेगा, अंत में व्युच्छेद को प्राप्त हो जायेगा।
इतने पूरे समय तक चातुर्वर्ण्य संघ जन्म लेता रहेगा किन्तु लोग प्राय: अविनीत, दुर्बुद्धि, असूयक, सात भय व आठ मदों से संयुक्त, शल्य एवं गारवों से सहित, कलहप्रिय, रागिष्ठ, क्रूर एवं क्रोधी होंगे२।’’
इन पंक्तियों से बिल्कुल ही स्पष्ट है कि इक्कीस हजार वर्ष के इस काल में हमेशा चातुर्वर्ण्य संघ रहेगा ही रहेगा।
मुनि के अभाव में धर्म, राजा और अग्नि का भी अभाव हो जावेगा। यथा-
‘‘इस पंचमकाल के अंत में इक्कीसवाँ कल्की होगा। उसके समय में वीरांगज नामक एक मुनि, सर्वश्री नामक आर्यिका तथा अग्निदत्त और पंगुश्री नामक श्रावक युगल होंगे। एक दिन कल्की की आज्ञा से मंत्री द्वारा मुनि के प्रथम ग्रास को शुल्करूप से माँगे जाने पर मुनि अंतराय करके वापस आ जायेंगे। उसी समय अवधिज्ञान को प्राप्तकर ‘दु:षमाकाल का अंत आ गया है, ऐसा जानकर प्रसन्नचित्त होते हुए आर्यिका और श्रावक युगल को बुलाकर वे चारों जन चतुराहार का त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लेंगे और तीन दिन बाद कार्तिक कृष्णा अमावस्या के स्वातिनक्षत्र में शरीर को छोड़कर देवपद प्राप्त करेंगे।
उसी दिन मध्याह्नकाल में क्रोध को प्राप्त हुआ कोई असुरकुमार देव राजा को मार डालेगा और सूर्यास्त के समय अग्नि नष्ट हो जावेगी।
इसके पश्चात् तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष के बीत जाने पर महाविषम छठा काल प्रवेश करेगा३।’’
इन वीरांगज मुनि के पहले-पहले हमेशा मुनियों का विहार इस पृथ्वीतल पर होता ही रहेगा।
शंका-अभी चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के पहले निर्दोष मुनि कहाँ थे ? अत: मुनि की अविच्छिन्न परम्परा वैâसे मानी जा सकती है ?
समाधान-उस समय भी दक्षिण में मुनि विचरते थे। हाँ, इतना अवश्य है कि वे अधिक परिचित नहीं थे।
आजकल के मुनियों के प्रति श्रावकों का क्या कर्त्तव्य है ? देखिये-
कलौ काले चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके।
एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नरा:।।७९६।।
यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम्।
तथा पूर्वमुनिच्छाया: पूज्या: संप्रति संयता:।।७९७।।
भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम्।
ते सन्त: सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्ध्यति।।७९८।।
‘‘इस कलिकाल में मनुष्यों का चित्त चंचल है, शरीर अन्न का कीड़ा बना हुआ है। फिर भी बड़े आश्चर्य की बात है कि आज भी जिनरूप को धारण करने वाले मनुष्य विद्यमान हैं। जैसे लेप, पाषाण आदि से निर्मित जिनेन्द्रप्रतिमायें पूज्य हैं वैसे ही आजकल के मुनियों को भी पूर्वकाल के मुनियों की प्रतिकृति मानकर पूजना चाहिये। ‘आहार मात्र को देने के लिए तपस्वियों की परीक्षा क्या करना ? वे सज्जन हों या दुर्जन ? गृहस्थ तो दान से शुद्ध हो जाता है।’ सब तरह से आरम्भ में प्रवृत्त हुए गृहस्थों का धन व्यय बहुत प्रकार से हुआ करता है अत: बहुत सोच-विचार नहीं करना चाहिये। मुनिजन जैसे-जैसे तप ज्ञान आदि गुणों से विशेष होवें, वैसे-वैसे गृहस्थों को उनकी अधिक-अधिक पूजा करना चाहिये। धन बड़े भाग्य से मिलता है अत: भाग्यशाली पुरुषों को आगमानुकूल कोई मुनि मिले या न मिले किन्तु उन्हें अपना धन जैन धर्माश्रितों में अवश्य खर्च करना चाहिए। जिनेन्द्रदेव का यह शासन प्राय: उच्च और हीन जनों से भरा हुआ है। जैसे एक खम्भे पर मकान नहीं ठहर सकता वैसे ही यह शासन भी एक पुरुष के आश्रय से नहीं ठहर सकता है१।’’
अन्यत्र भी कहा है-
‘‘जैसे पाषाण आदि की प्रतिमाओं में जिनेन्द्रदेव की स्थापना करके पूजते हैं वैसे ही आजकल के मुनियों में पूर्व के मुनियों की स्थापना करके भक्ति से उनकी अर्चा करिये, क्योंकि अति क्षोद-क्षेम करने वालों का हित वैâसे हो सकता है?२’’
श्री इंद्रनंदि आचार्य कहते हैं-
‘‘द्रव्यलिंग को धारण करके ही यति भावलिंगी होता है इसके बिना अनेकों व्रतों को धारण करने पर भी मुनि नहीं हो सकता। यह द्रव्यलिंग ही भावलिंग का कारण है क्योंकि भावलिंग तो अंतरंगकृत है वह नेत्र का विषय नहीं है। मुद्रा ही सर्वत्र मान्य होती है मुद्रारहित कोई भी मान्य नहीं होता जैसे कि राजमुद्रा को धारण करने वाला अत्यन्त हीन भी हो तो भी वह राजपुरुष माना जाता है।’’३
वारिषेण मुनि का मित्र पुष्पडाल बारह वर्ष तक द्रव्यलिंग धारण करके भी अंतरंग में मुनि नहीं बन पाया। पुन: वारिषेण के द्वारा स्थितिकरण किये जाने पर प्रायश्चित लेकर शुद्ध हुआ। उसके पहले संघ में सभी मुनि उसके साथ वंदना करते थे या नहीं ? श्रावक उसे नवधाभक्ति करके आहार देते थे या नहीं ? कहना पड़ेगा कि साधुओं के संघ में बराबर वंदना प्रतिवंदना चल रही थी और श्रावक भी भक्ति से आहारदान आदि दे रहे थे क्योंकि भावों की स्थिति केवलीगम्य ही हुआ करती है। बाहर से तो द्रव्यलिंग ही दिखता है और बाह्य चर्या भी दिखती है उसी के अनुरूप पूज्य-पूजा की व्यवस्था चलती है।
मुनि द्रव्य से निर्ग्रंथ वेष रखते हैं, केशलोंच करते हैं, पिच्छी-कमण्डलु रखते हैं और स्नान आदि नहीं करते हैं। यही उनका द्रव्यलिंग है तथा उस वेष में छठे-सातवें गुणस्थानरूप भावों का होना भावलिंग है। कदाचित् उन मुनि के पाँचवें, चौथे आदि गुणस्थानरूप भाव हो जावें तो भी वे द्रव्यलिंगी माने जायेंगे भावलिंगी नहीं। ऐसे ही यदि पहले गुणस्थान के भाव हो जाते हैं तब तो वे द्रव्यलिंगी हैं ही हैं। अभव्य मुनि ऊपर से निर्दोष, निरतिचार चर्या पालते हुए भी और ग्यारह अंग के ज्ञानी होते हुये भी भावों से मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहते हैं, अत: ये द्रव्यलिंगी ही हैं।
तथा मूलगुणों में कदाचित् दोष लग भी जावे किन्तु छठे-सातवें गुणस्थान में रहने वाले मुनि को पुलाक संज्ञा दी है, वे भावलिंगी हैं।
अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि भावलिंगी मुनि का निर्णय हम आप जैसे अल्पज्ञ जनों से परे है। हमें तो मुनि के द्रव्य वेष और बाह्य आचरण को देखकर ही मुनिमुद्रा को पूज्य मानकर उनका यथोचित सत्कार करना चाहिये।
शंका-निर्ग्रंथ दिगम्बर मुनि तो पूज्य होते हैं किन्तु वर्तमान के मुनियों में बहुत कुछ शिथिलाचार दिख रहा है इसलिए ये वर्तमान के मुनि पूज्य नहीं हैं ?
प्रतिशंका-आपकी दृष्टि में वे शिथिलाचार क्या-क्या हैं ?
(१) शंका-‘‘अनेकों हैं। हाँ, देखिए-’’
जहाँ पर वे पहुँचते हैं लोग उनके निमित्त से ही आहार बनाते हैं और वे उसे ग्रहण करते हैं अत: आजकल के सभी मुनि उद्दिष्ट आहार करते हैं ?
समाधान-इस विषय को आगम से समझने की आवश्यकता है। मूलाचार आदि ग्रंथों में क्या विधान है और पुराणों में महामुनियों की चर्या के वैâसे-वैâसे उदाहरण मिलते हैं। उन्हें अवश्य समझना चाहिए, देखिए-
‘श्री कुंदकुंददेव कहते हैं कि कृत, कारित, अनुमोदना से रहित प्रासुक और प्रशस्त आहार जो कि पर के द्वारा दिया गया है उसे समभावों से ग्रहण करना एषणा समिति है।१
श्री अमृतचंद्रसूरि भी कहते हैं-
‘दाता के सात गुणों से युक्त गृहस्थ को स्व और पर के अनुग्रह के हेतु जातरूपधारी अतिथि के लिए द्रव्यविशेष का विधिवत् अवश्य ही भाग करना चाहिए। इसी का नाम अतिथिसंविभाग व्रत है अर्थात् ‘‘अतिथि के लिए सम्यक् प्रकार से विभाग करना अतिथि संविभाग है।२’’ पुराणों में देखिए-पूर्वविदेह के वत्स्ाकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा प्रीतिवर्धन किसी समय निकट के पर्वत पर ठहरे थे। पुरोहित ने कहा कि राजन्! आज आपको विशेष लाभ का निमित्त है। पुन: राजाज्ञा से पुरोहित ने नगर मेंं घोषणा करा दी कि ‘आज राजा के महान् उत्सव का दिन होने से सभी लोग घर के आँगन को, नगर की गलियों को सुगन्धित जल से सींचकर इस प्रकार फूल बिखेर दो कि बीच में कहीं कोई रंध्र खाली न रहे।’ एक मासोपवासी पिहितास्रव नाम के मुनि चर्या के लिये नगर में जा रहे थे। सर्वत्र पुष्पमय गलियों को देखकर वापस उसी पर्वत पर राजा के शिविर की तरफ आ गये। राजा ने पड़गाहन कर आहार दिया उस समय देवों ने पंचाश्चर्य वृष्टि की।’’
इस उदाहरण से स्पष्ट है कि राजा ने मुनि के अपने यहाँ आहार हेतु ही उस दिन सारे नगर का मार्ग अप्रासुक करवाया और आहार दिया किन्तु इसमें मुनि की कृत, कारित, अनुमोदना आदि न होने से वे निर्दोष ही रहे।
अन्य उदाहरण और हेैं-‘‘नंदिषेण मुनिराज ग्यारह अंग के धारी थे और अनेक ऋद्धियों के स्वामी थे। एक दिन इंद्र द्वारा सभा में उनके वैयावृत्य गुण की प्रशंसा होने पर एक देव परीक्षा हेतु रुग्ण मुनि का रूप बनाकर वहाँ आया। नंदिषेण ने यथोचित परिचर्या करके उससे पूछा कि हे मुने! आपकी किस भोजन में रुचि है ? मुनि ने कहा-पूर्वदेश के धान का भात, पाँचाल देश के मूँग की दाल, पश्चिम देश की गायों का घी और किंलग देश की गाय का दूध इत्यादि मिल जाये तो मैं स्वस्थ हो जाऊँ। मुनि नंदिषेण ने गोचरी बेला में जाकर अपनी ऋद्धियों के बल से उपर्युक्त चीजें उपलब्ध कराकर लाकर उन्हें आहार करा दिया।’’१
इससे स्पष्ट है कि श्रावक मुनि वैयावृत्य हेतु अपनी ऋद्धियों का भी प्रयोग करते थे और मुनि द्वारा बताई हुई वस्तुओं का आहार प्रयोग भी कराते थे, इत्यादि।
‘‘एक समय श्रीकृष्ण ने मुनिराज से पूछा-‘‘भगवन्! आपके इस रोग में कौन-सी औषधि हितकर होगी। मुनिराज ने कहा यदि कापिष्ट चूर्ण मिल जाये तो यह रोग शांत हो जायेगा।’’ श्रीकृष्ण ने अपने घर में औषधि आदि की व्यवस्था कराकर नगर में सर्वत्र उन मुनि को पड़गाहन करने की मनाही कर दी। मुनि चर्या हेतु भ्रमण कर अंत में वहीं आ गये। रुक्मिणी ने पड़गाहन कर विधिवत् आहार दिया। कुछ दिन बाद वह रोग समाप्त हो गया।’’२
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि श्रावक मुनि के उद्देश्य से भोजन, औषधि आदि बनाकर देते थे और साधु अनभिज्ञ रहकर आहार लेते थे अत: वे निर्दोष आहार के करने वाले ही रहते थे।
(२) शंका-आजकल के मुनि अधिकतर ग्राम या शहरों में ठहरते हैं ?
समाधान-भावसंग्रह, भद्रबाहु चरित, पद्मनंदिपंचिंवशतिका आदि ग्रंथों में मुनियों को इस पंचमकाल में ग्राम या नगर के मंदिर, धर्मशाला आदि में ठहरने का विधान है।३
प्रथमानुयोग में भी अनेकों उदाहरण हैं।
‘‘एक समय सात ऋषि अयोध्या में आहारार्थ आये। आहार करके मंदिर में गए। द्युति नामक भट्टारक ने उनकी वंदना की और रत्नत्रय कुशल पूछा।’’४
ये ‘द्युति’ महान आचार्य थे पद्मपुराण में कई जगह इनके संघ सहित अयोध्या के मंदिर में रहने का प्रकरण आया है। इससे चतुर्थ काल में भी मुनि शहरों में रहते थे यह स्पष्ट है।
‘‘देविल कुंभकार ने धर्मशाला में मुनि को ठहरा दिया’’५ ऐसा अभयदान के कथानक में आया है।
‘‘मणिमाली मुनि के स्वस्थ हो जाने पर श्रावकों के आग्रह से उन्होंने उसी उज्जयिनी नगरी में उसी जिनदत्त सेठ के घर चौमासा किया।’’६
(३) शंका-आजकल के मुनि एक स्थान पर महीनों रहते हैं जबकि पाँच दिन से अधिक नहीं रहना चाहिए ?
समाधान-‘‘अनगार धर्मामृत, मूलाचार आदि ग्रंथों में एक मास तक एक ग्राम में रहने का विधान है७।’’ यह पाँच दिन रहने की चर्या तो विशेष मुनियों के लिए है।
(४) शंका-कुछ साधु डोली या नाव में बैठकर विहार करते हैं ?
समाधान-‘‘डोली में बैठकर गमन करने से आचार्य उन्हें मार्गशुद्धि (मार्ग गमन प्रायश्चित) से दूनी शुद्धि दें।’’८
इस कथन से अस्वस्थ अवस्था में डोली में बैठने का विधान स्पष्ट है।
नाव का विधान भी मिलता है। यथा-‘‘जल में प्रवेश करते समय मुनि धूलि को पिच्छी से साफ कर जल में प्रवेश करते हैंं। कदाचित् बड़ी नदियों को पार करने में प्रत्याख्यान करके नौका पर चढ़ते हैं।’’१
(५) शंका-आजकल के आचार्य बहुत बड़े संघ का परिकर रखते हैं ?
समाधान-यशस्तिलकचंपू में श्री सुदत्त नामक आचार्य के संघ वर्णन पढ़ते समय उसकी विशालता का परिचय हो जाता है।’’२
(६) शंका-संघ के श्रावक लोग संघ में बहुत परिग्रह रखते हैं ?
समाधान-संघ में श्रावक-श्राविका और ब्रह्मचारीगण रहने से वे अपने भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था करेंगे, गुरुओं को भी आहारदान देंगे, मार्ग में गुरुओं के लिए समुचित व्यवस्था करेंगे अत: उनके पास सभी वस्तुएँ रह सकती हैं।
श्रावक पहले भी मुनिसंघ में रहते थे। यथा-सभा में स्थित श्रीरामचंद्र ने अर्हद्दास सेठ को देखते ही पूछा कि, ‘‘मुनिसंघ कुशलपूूर्वक है ?’’ सेठ ने कहा कि-‘‘हे महाराज! आपके इस कष्ट से पृथ्वीतल पर मुनि भी परम व्यथा को प्राप्त हुए हैं३।’’
यदि वे सेठ संघ में न होते तो उन्हें देखते ही रामचंद्र मुनिसंघ का कुशल क्यों पूछते ?
(७) शंका-साधु वसतिका के किवाड़ स्वयं बंद करते और खोलते हैं जबकि वसतिका बिना किवाड़ की होनी चाहिए ?
समाधान-भगवती आराधना में मुनियों के लिए वसतिका किवाड़ सहित बताई है। यथा-‘‘जिसकी दीवालें मजबूत हैं, जिसमें किवाड़ हैं, जिसमें बाल, वृद्ध आदि साधु आ जा सकते हैं, ऐसी वसतिका ग्राम के बाहर होवे। उद्यानगृह, गुफा और शून्यगृह भी वसतिका के योग्य माने गए हैं४।’’
अन्यत्र भी वर्णन है कि ‘‘यदि साधु वसतिका का दरवाजा भूल से खुला छोड़कर चले जाएँ और उसमें कदाचित् बिल्ली आदि प्रवेश कर जाए तो गुरु उन्हें प्रायश्चित देवें५।’’
(८) शंका-ये बैठने-सोने के पाटा-घास-चटाई आदि का उपयोग करते हैं ?
समाधान-मूलाचार में मुनियों के लिए क्षितिशयन मूलगुण के प्रकरण में चार प्रकार के संस्तर बताए गए हैं-‘‘भूमिसंस्तर, शिलासंस्तर, फलकसंस्तर और तृणसंस्तर६।’’ औपचारिक विनय में ‘‘शिष्य गुरु का संस्तर करे’ ऐसा वर्णन है। उसमें चटाई का भी विधान है। यथा-‘‘संस्तरकरणं-चट्टिकादि-प्रस्तरणं७।’’ अनगारधर्मामृत८ में भी चटाई का वर्णन है।
(९) शंका-संघ में आर्यिका, ब्रह्मचारिणी व असंयत शिष्यों को रखते हैं ?
समाधान-यशस्तिलकचम्पू में जो सुदत्ताचार्य के संघ का वर्णन है उसमें ‘‘क्षुल्लक अभयरुचि और क्षुल्लिका अभयमति को आहारहेतु गाँव में भेजा।’ इसमें आर्यिका, क्षुल्लिका आदि संघ में रहती थीं, यह स्पष्ट है।
मूलाचार में भी आर्यिका का आचार्यत्व कौन करे ? ऐसा प्रश्न होने पर उनके गुणों का वर्णन किया है। इससे आचार शास्त्रों का विधान भी स्पष्ट हो जाता है। अनंतमती कन्या आर्यिका के पास रहती थी। जब उसके पिता अयोध्या पहुँचे तब उन्होंने उसे पहचान लिया, इत्यादि उदाहरणों से असंयतजन भी संघ में रहते थे यह स्पष्ट हो जाता है। हाँ, एक मुनि के साथ एक आर्यिका अथवा ब्रह्मचारिणी का रहना विरुद्ध है।
(१०) शंका-श्रावकों को व्रत, अनुष्ठान व मंत्र-तंत्रादि बताते हैं ?
समाधान-चतुर्थकाल में भी मुनियों ने श्रावक-श्राविकाओं के दु:खों को सुनकर उन्हें कुछ न कुछ व्रत-उपवास, विधि-विधान, मंत्र आदि करके संकट दूर करने का मार्ग दिखाया था। जैसे कि मैनासुंदरी को मुनिराज ने आष्टान्हिक व्रत करने का और सिद्धचक्र यंत्र के अनुष्ठान करने का उपदेश दिया था। दशलक्षण आदि व्रतों की कथाओं में तो मुनियों द्वारा ही व्रतों के देने का विधान है। यदि मुनि मंत्रादि का प्रयोग अपने लिए मिष्ट आहार आदि हेतु से करते हैं तो दोष है अन्यथा धर्मप्रभावना आदि के लिए करने में कोई दोष नहीं, ऐसा कथन मूलाचार, मूलाराधना आदि में पाया जाता है। यथा-
‘‘जिसके द्वारा मार्ग को प्रभावशील किया जाता है वह प्रभावना है। शास्त्रार्थ, पूजामहोत्सव, दान, व्याख्यान और मंत्र-तन्त्रादि से तथा इनके समीचीन उपदेशों से मिथ्यादृष्टि के प्रभाव को रोककर अर्हंतदेव के शासन का उद्योत करना प्रभावना है१।’’
ऐसे ही मूलाराधना में भी कहा है२ कि ‘धर्मप्रभावना आदि के लिए मंत्रादि का प्रयोग करने में कोई दोष नहीं है। आज के युग में बहुत से लोग रोग आदि किसी संकट के समय अनेकों प्रकार के मिथ्यात्व का सेवन करने लगते हैंं। बहुत सी महिलाओं ने मिथ्या देवी-देवताओं के व्रत करना शुरू कर दिया है। ऐसी स्थिति में यदि साधुगण उन्हें रोगादि की शांति के लिए कोई शांतिमंत्र आदि बता देते हैं तो कोई दोष नहीं है क्योंकि मिथ्यात्व से बढ़कर संसार में और कोई महापाप नहीं है ऐसे पाप से छुड़ाने में दोष नहीं प्रत्युत् गुण ही है। श्रावक यदि किसी धन आदि के लोभ से भी धर्म का नाम लेते हैं, जाप्य आदि करते हैं तो यह उनके लिए अच्छा ही है, बुरा क्या है ?
(११) शंका-वृत्तपरिसंख्यान लेकर आहारार्थ शहरों में घूमते हैं तथा उनके आहार देखने हेतु लोग एकत्रित हो जाते हैं ?
समाधान-वृत्तपरिसंख्यान में तो भीम मुनिराज ने भाले के अग्रभाग से आहार लेने का नियम लिया था जो कि छह महीने बाद मिला था। श्री रामचंद्र जी जिस समय आहार हेतु निकले इतनी भीड़ एकत्रित हुई और इतना कोलाहल हुआ कि हाथियों ने आलानस्तंभ तोड़ दिये३।’
राजा वङ्काजंघ जब वन में आहार दे रहे थे तब देखने वाले मंत्री, पुरोहित व नकुल, वानर आदि ने भी दान की अनुमोदना से वैसा ही महान पुण्य संचित कर लिया था अत: आहारदान को देखने वाले भी पुण्य का संचय कर लेते हैं।
(१२) शंका-प्रभावना के लोभ में आसक्त रहते हैं ?
समाधान-प्रभावना सम्यग्दर्शन का आठवां अंग है जो कि मुनि और श्रावक सभी के लिए ही उपादेय है।
श्री अमृतचंद्र सूरि कहते हैं-
आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव।
दानतपोजिनपूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्म:।।१
रत्नत्रयरूप तेज के द्वारा हमेशा अपनी आत्मा को प्रभावित करना चाहिए और दान, तप, जिनपूजा, विद्या, अतिशय आदि के द्वारा जिनधर्म की प्रभावना करना चाहिए।
मुनियों के लिए भी प्रभावना अंग में यह सभी बातें मूलाचार आदि ग्रंथों में कही गई हैं।
वङ्काकुमार मुनि ने भी उर्विला रानी के जैन रथ को निकलवाने के लिए विद्याधरों को आदेश दिया था। श्री अकलंकदेव ने वाद के द्वारा धर्म का उद्योत किया है। श्री कुंदकुंददेव ने भी गिरनार पर्वत पर धर्म के अतिशय के द्वारा अम्बिका की मूर्ति को बुलाकर धर्म की प्रभावना की थी, इत्यादि अनेकों उदाहरण प्रसिद्ध हैं।
उपर्युक्त सभी शंकाओं के समाधान आचार ग्रंथ और प्रथमानुयोग ग्रंथों में दिख रहे हैं। इनको देखकर भी जो आजकल के सभी मुनियों को सदोष कहते हैं वे वास्तव में श्री रविषेणाचार्य के शब्दों के अनुरूप ही हैं। यथा-सप्तर्षि मुनियों में से प्रधान मुनि शत्रुघ्न महाराज को उपदेश देते हुए कह रहे हैं-
‘‘हे शत्रुघ्न! आगे आने वाले कलिकाल में तीव्र मिथ्यात्व से युक्त मनुष्य व्रत और गुणों से संयुक्त दिगम्बर मुद्रा के धारक मुनियों को देखकर ग्लानि करेंगे।
हंसी करने में उद्यत कितने ही मनुष्य शांतचित्त मुनियों को तिरस्कृत कर मूढ़ मनुष्यों के लिए आहार देवेंगे। इस प्रकार अनिष्ट भावना के धारक गृहस्थ उत्तम मुनियों का तिरस्कार करके तथा मोही मुनि को बुलाकर उसके लिए योग्य आहार आदि देंगे। जिस प्रकार शिलातल पर रखा हुआ बीज यद्यपि सींचा जाय तो भी उसमें फल नहीं लगता उसी प्रकार शीलरहित मनुष्यों के लिए दिया हुआ दान भी निरर्थक ही है। जो गृहस्थ मुनियों की अवज्ञा कर गृहस्थ के लिए आहार देता है वह मूर्ख चंदन को छोड़कर बहेड़ा ग्रहण करता है। हे राजन्। आगे आने वाले काल में थके हुए मुनियों के लिए भिक्षा देना अपने गृहदान के समान एक बड़ा भारी आश्रय होगा।’’२
इस प्रकरण को पढ़कर आचार्यों की आज्ञानुसार इस पंचमकाल के मुनियों की अवज्ञा न करके उनकी विनय, भक्ति आदि करते हुए अपने सम्यक्त्व धन को सुरक्षित रखना चाहिए।
प्रश्न-आर्यिकाओं की क्या चर्या है ?
उत्तर-मूलाचार में अट्ठाईस मूलगुणों का वर्णन करके औघिक और पदविभागी समाचार विधि का वर्णन किया गया है। पुन: आचार्य कहते हैं कि ‘‘जिस प्रकार से यह सर्व समाचार नीति मुनियों के लिये बतलाई गई है, उसी प्रकार से आर्यिकाओं को भी अहोरात्र इन क्रियाओं का यथायोग्य पालन करते रहना चाहिये।’’३
इसमें जो ‘यथायोग्य’ पद है उससे आर्यिकाओं के लिये वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाश ये तीन योग और प्रतिमायोग आदि धारण करने का निषेध है तथा उन्हें एक वस्त्र धारण करने का और बैठकर करपात्र में एक बार आहार लेने का विधान है एवं आगे बतलाया है कि परस्पर में एक-दूसरे की अनुकूलता रखते हुए तीन, पाँच, सात आदि आर्यिकायें मिलकर ही वसतिका में रहें व आहार आदि के लिए जाते समय भी मिलकर ही विचरण करें।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यिकाओं की सभी चर्या मुनियों के अनुसार होती है। मात्र दो साड़ी रखती हैं और बैठकर आहार लेती हैं इतना ही व्यवहार चर्या में अंतर है तथा इनके भावसंयम न हो सकने से संयमासंयम ही माना गया है अत: ये उपचार से महाव्रती कहलाती हैं फिर भी क्षुल्लक व ऐलक के द्वारा भी पूज्य हैं।१
पूर्वकाल की आर्यिकायें ग्यारह अंग तक ज्ञान प्राप्त कर लेती थीं। यथा- ‘आर्यिका सुलोचना ग्यारह अंग के ज्ञान की धारक हो गई।’२
प्रायश्चित ग्रंथों में आर्यिकाओं की प्रायश्चित विधि भी मुनियों के बराबर बताई है और क्षुल्लक, ऐलक आदि की उससे आधी कही है। इनकी दीक्षा विधि भी मुनिदीक्षा विधि के आधार से ही की जाती है। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि आर्यिकायें मुनि के तुल्य नवधाभक्ति की पात्र हैं।
शंका-क्या आर्यिकाओं की पूजा की जा सकती है ?
समाधान-नवधाभक्ति में पूजा भी की जाती है तथा इसके लिए प्रमाण भी मौजूद हैं। यथा-
‘मंदिर में संघ के साथ जो ‘वरधर्मा’ नाम की गणिनी आर्यिका ठहरी हुई थीं। रामचंद्र ने सीता के साथ उनकी पूजा की।’’३
आर्यिकाओं के लिए ‘महाव्रतपवित्रांगा, श्रमणी, संयता, महाव्रतिनी, संयमिनी’ आदि शब्दों के प्रयोग शास्त्रों में आये हुये हैं अत: आर्यिकायें भी पूज्य हैं।
शंका-आर्यिकायें एक स्थान पर अधिक दिन रह सकती हैं क्या ?
समाधान-जैसे मुनिसंघ के लिये एक ग्राम में एक मास पर्यंत रहने का विधान है ऐसे ही आर्यिकाओं के लिये भी है।
विशेष प्रसंगवश मुनि व आर्यिका एक स्थान पर रहते थे ऐसे प्रमाण मिलते हैं। जैसे-द्युति नाम के आचार्य; जब रामचंद्र वन को चले गये हैं उस समय वे वहाँ मंदिर में थे। भरत ने उनके पास प्रतिज्ञा की कि रामचंद्र के वापस आते ही मैं दीक्षा ले लूँगा। वे ही आचार्य रामचंद्र के वापस आने के बाद शत्रुघ्न के मथुरा में राज्य करने पर वहीं थे और सीता के निर्वासन के बाद भी वहीं थे।
ऐसे ही जीवंधरकुमार ने अपनी माता विजया और सुनंदा के दीक्षित हो जाने पर बार-बार उनके चरण छुये और यह याचना की कि इसी नगरी में आपको रहना चाहिये, अन्यत्र जाने का स्मरण भी नहीं करना चाहिए। उनके विनयबल से जब माताओं ने ‘‘तथास्तु’ कहकर वहीं रहना स्वीकृत कर लिया तब जीवंधर स्वामी उनको प्रणाम करके अपने स्थान पर लौट आये।’’४
इस प्रकार से अनेकों शंकाओं के समाधान चरणानुयोग और प्रथमानुयोग से प्राप्त कर यह निश्चय कर लेना चाहिए कि पंचमकाल के अंत तक मुनि, आर्यिका और श्रावक-श्राविका ऐसा चातुर्वर्ण संघ निर्दोष चर्या का पालन करते हुये विचरण करता रहेगा।