(३२ अर्घ्य)
—दोहा—
बत्तीस देश विदेह में, तीर्थंकर के शिष्य।
पुष्पांजलि से मैं जजूं, गणधर गुरुवर नित्य।।१।।
अथ मंडलस्योपरि पंचमवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—शंभु छंद—
कच्छा विदेह के आर्यखंड में क्षेमा नगरी रजधानी।
इस शाश्वत कर्मभूमि में नित, तीर्थंकर होते शिवगामी।।
सब गणधर सात ऋद्धिधारी, मनपर्यय ज्ञानी होते हैं।
उनको पूजूँ मैं अर्घ चढ़ा, वे भव भव का मल धोते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं कच्छादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे क्षेमानगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
है देश सुकच्छा आर्यखंड, मधि क्षेमपुरी नगरी जानो।
उसमें नित होते तीर्थंकर, वहाँ शाश्वत कर्मभूमि मानो।।
तीर्थंकर की सुन दिव्यध्वनि, गणधर भी प्रमुदित होते हैं।
हम इनको अर्घ चढ़ाते ही, तन मन से पुलकित होते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं सुकच्छादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे क्षेमपुरीनगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
है देश महाकच्छा विदेह, उस आर्यखंड के ठीक बीच।
सब तीर्थंकर के गणनायक, मनपर्यय ज्ञानी मुनिगणीश।।
ये विघ्न निवारक मंगलकर, सब दुख दारिद को हरते हैं।
इनकी पूजा भक्ति करके, हम सर्व व्याधि को हरते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं महाकच्छादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे अरिष्टानगर्यां सर्वगणधर-चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के गणधर अगणित, कच्छावति अरिष्टपुरि में हैं।
जिन बिन दिव्यध्वनि नहीं खिर, जो अतिशय गुण से पूरण हैं।।
उन चार ज्ञानधर गणनायक, गणधर परमेष्ठी को वंदूँ।
नित अर्घ चढ़ा करके प्रणमूँ, सब आधि व्याधि दुख को खंडूँ।।४।।
ॐ ह्रीं कच्छावतीदेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे अरिष्टापुरीनगर्यां सर्वगणधर-चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवर्ता देश विदेह कहा, उसमें आरजखंड शाश्वत है।
उनके मधि है खड्गानगरी, में तीर्थंकर धर्मतीर्थपति हैं।।
द्वादशगण के नायक गणधर, सब समवसरण में रहते हैं।
सब ऋद्धि सिद्धि नव निधि देकर, भक्तों के सब दुख हरते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं आवर्तादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे खड्गानगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभदेश लांगतावर्ता में, मंजूषानगरी अति प्यारी।
वहां तीर्थंकर के समवसरण उनकी पूजा भव दुखहारी।।
उनके गणधर गुरु को पूजें, वे भव्यों के रक्षक माने।
उनकी पूजा से सब सुख हो, सब मंगल हो यह सरधाने।।६।।
ॐ ह्रीं लांगलावर्तादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे मंजूषानगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्कला देश सप्तम विदेह, उसमें औषधि नगरी मानी।
तीर्थंकर के बारहगण के, गणधर होते चारों ज्ञानी।।
हम सब गणधर गुरु को पूजें, वे हमको निज सम्पत्ति देवें।
सब रोग शोक दुख दारिद को, वे इक क्षण में ही हर लेवें।।७।।
ॐ ह्रीं पुष्कलादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे औषधीनगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्कलावती अष्टमविदेह, इसमें छ: खण्ड कहे जाते।
है आर्य खण्ड में पुंडरीकणी, नगरी उसमें सुर आते।।
तीर्थंकर के अगणित गणधर, सब ऋद्धी के स्वामी होते।
मैं पूजूँ विघ्न विनाशक ये, जग के अंतर्यामी होते।।८।।
ॐ ह्रीं पुष्कलावतीदेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे पुण्डरीकणीनगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-रोला छंद-
वत्सादेशविदेह, आर्य खण्ड है उसमें।
पुरी सुसीमा एक, रजधानी है उसमें।।
श्री गणधर गुरुदेव, रहते समवसरण में।
अर्घ्य चढ़ाऊँ नित्य, विघ्न विनाशक जग में।।९।।
ॐ ह्रीं वत्सादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे सुसीमानगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुवत्सा रम्य, आर्यखण्ड उसमें हैं।
पुरी कुण्डला एक, तीर्थंकर उसमें हैं।।
तीर्थंकर के पास, गणधर देव विराजें।
करूं अर्चना नित्य, भविजन कमल विकासें।।१०।।
ॐ ह्रीं सुवत्सादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे कुण्डलानगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महावत्सा सुविदेह अपराजिता पुरी में।
तीर्थंकर प्रभु नित्य, गणधर उन चरणन में।।
उन गणधर को नित्य, सुरनर गण मिल पूजें।
मैं भी पूजूँ नित्य, जन्म मरण दुख छूटें।।११।।
ॐ ह्रीं महावत्सादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे अपराजितानगर्यां सर्वगणधर-चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वत्सावतीविदेह उसके आरजखंड में।
तीर्थंकर नित होय नगरी प्रभंकरा में।।
बारहगण के नाथ, गणधर देव कहाते।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आज, समवसरण में राजे।।१२।।
ॐ ह्रीं वत्सावतीदेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे प्रभंकरानगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रम्यादेश विदेह, आर्यखण्ड है उसमें।
अंका नगरी नित्य, तीर्थंकर हो उसमें।।
तीर्थंकर के शिष्य, गणधर देव प्रमुख हैं।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, वे जग मंगलप्रद हैं।।१३।।
ॐ ह्रीं रम्यादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे अंकानगर्याम् सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुरम्या रम्य, आर्यखंड उसमें है।
तीर्थंकर से युक्त, पद्मावति नगरी है।।
तीर्थनाथ के शिष्य, गणधर देव कहे हैं।
उनको पूजूं नित्य, वे सुखकर गुरुवर हैं।।१४।।
ॐ ह्रीं सुरम्यादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे पद्मावतीनगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रमणीया शुभदेश, नगरी शुभा वहाँ पर।
तीर्थंकर परमेश, होते रहते सुखकर।।
गुणधर गणधर देव, सर्वगुणों के दाता।
ऋद्धि सिद्धि से पूर्ण, पूजूं सौख्य विधाता।।१५।।
ॐ ह्रीं रमणीयादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे शुभानगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश मंगलावति में, आर्यखंड मधि नगरी।
रत्नसंचया नाम, तीर्थंकर गुण लहरी।।
गणनायक गुरुदेव, विघ्न विनाशक ख्याता।
पूजूं भक्ति समेत, नवनिधि सिद्धि विधाता।।१६।।
ॐ ह्रीं मंगलावतीदेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे रत्नसंचयानगर्यां सर्वगणधर-चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
पद्मादेश विदेह में, अश्वपुरी में नित्य।
गणधर सब तीर्थेश के, करें अर्चना नित्य।।१७।।
ॐ ह्रीं पद्मादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे अश्वपुरीनगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुपद्मा िंसहपुरि, गणधर गुरु राजंत।
उन सब की पूजा करूँ, हो सब दुख का अंत।।१८।।
ॐ ह्रीं सुपद्मादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे सिंहपुरीनगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महापद्मा में महापुरी, गणधर गुरु जगत्राण।
जजूँ अर्घ्य ले भक्ति से, शत शत करूँ प्रणाम।।१९।।
ॐ ह्रीं महापद्मादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे महापुरीनगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश पद्मकावति विषे, विजयपुरी विख्यात।
गणधर गुरु को मैं जजूँ, विघ्न विनाशक ख्यात।।२०।।
ॐ ह्रीं पद्मकावतीदेशविदेहमध्ये विजयपुरीनगर्यां सर्वगणधरदेवेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संखादेश विदेह में, अरजा नगरी मान्य।
गुणधर गणधर चरण की, शरण लिया सुख साम्य।।२१।।
ॐ ह्रीं शंखादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे अरजानगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नलिनी देह विदेह में, विरजानगरी मध्य।
गणधर देव महान हैं, जजत मिले सुख नव्य।।२२।।
ॐ ह्रीं नलिनीदेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे विरजानगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुमुदा देश विदेह में, पुरी अशोका मान्य।
गणधर मुनिगण अमित हैं, जजत मिले सुख साम्य।।२३।।
ॐ ह्रीं कुमुदादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे अशोकानगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सरिता देश विदेह में, वीतशोक पुरि दक्ष।
गणधर गुरु को नित नमूँ, मम आत्मा हो स्वच्छ।।२४।।
ॐ ह्रीं सरितादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे वीतशोकनगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वप्रादेश विदेह महान्, विजयापुरि आर्यखंड प्रधान।
तीर्थंकर के शिष्य प्रधान, गणधर देव जजूँ गुण खान।।२५।।
ॐ ह्रीं वप्रादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे विजयापुरीनगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुवप्रा कहा विदेह, वैजयंति पुरि सुखप्रद येह।
बारहगण नायक यति ईश, नमूं नमूं मैं अतिशय प्रीत।।२६।।
ॐ ह्रीं सुवप्रादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे वैजयंतीनगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश महावप्रा के मध्य, पुरी जयंती सुखकर नित्य।
समवसरण में रहे गणींद्र, नमें उन्हें शत इन्द्र मुनीन्द्र।।२७।।
ॐ ह्रीं महावप्रादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे जयंतीनगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश वप्रकावती विदेह, अपराजिता पुरी सुखदेह।
गणधर देव चरण अमलान, पूजत देवें ऋद्धि निधान।।२८।।
ॐ ह्रीं वप्रकावतीदेशविदेहसंबंधि-आर्यखंडे अपराजितानगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गंधादेश विदेह अनूप, चक्रपुरी नगरी सुखरूप।
गणधर गुरु को पूजूँ यहाँ, पापपुंज सब खंडें यहाँ।।२९।।
ॐ ह्रीं गंधादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे चक्रपुरीनगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देशसुगंधानाम विदेह, खड्गपुरी नगरी सुख देह।
गणधर चरणों वंदन करूँ, निज के सब दुख खंडन करूँ।।३०।।
ॐ ह्रीं सुगंधादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे खड्गपुरीनगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश गंधिला में कहा विदेह, पुरी अयोध्या सुखप्रद येह।
वहां गणधर गुरु अर्चंत, मिले आत्मगुण सौख्य अनंत।।३१।।
ॐ ह्रीं गंधिलादेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे अयोध्यानगर्यां सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गंधमालिनी देश विदेह, पुरी अवध्या है सुखदेह।
गणधर देवों के चरणाब्ज, जजते खिले भव्य मन अब्ज।।३२।।
ॐ ह्रीं गंधमालिनीदेशविदेहसंबंधिआर्यखंडे अवध्यानगर्यां सर्वगणधर-चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—दोहा—
बत्तीस देश विदेह के, गणधर देव महान्।
नमूँ नमूँ गणधर गुरु, बनूँ स्वात्म निधिमान।।१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधि—त्रैकालिकतीर्थंकरदेवसमवसरणस्थितसर्वत्रैकालिक— गणधरचरणेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितसर्वगणधरदेवेभ्यो नम:।