श्री पूज्यपाद स्वामी जो कि सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ के कर्ता महान् आचार्य हैं उनका बनाया हुआ ‘‘महाभिषेक” प्रसिद्ध है। यह ‘‘इन्द्रध्वज विधान” में छपाया जा चुका है। सन् १९८७ में मैंने इस ‘‘महाभिषेक’ का हिन्दी पद्यानुवाद भी कर दिया है जो कि सभी के लिए सरल बन गया है।
श्री पूज्यपाद स्वामी ने अभिषेकपाठ में प्रारंभ में दो श्लोक दिये हैं जिनमें नित्यपूजा के प्रारंभ में करने योग्य विधि का संकेत दिया है पुन: अंत में पैंतीस से चालीस श्लोकों में से अंत के चार श्लोकों में अभिषेक के बाद में करने योग्य पूजा, मंत्रजाप, यक्ष, यक्षी आदि के अर्घ्य का संकेत दिया है। इसे ही देखिए-
आनम्यार्हन्तमादा-वहमपि विहितस्नानशुद्धि: पवित्रै:।
तोयै: सन्मंत्रयंत्रै-र्जिनपतिसवनाम्भोभिरप्यात्तशुद्धि:।।
आचम्यार्घ्यं च कृत्वा, शुचिधवलदुकूलान्तरीयोत्तरीय:।
श्रीचैत्यावासमानौम्यवनतिविधिना त्रि:परीत्य क्रमेण।।१।।
द्वारं चोद्घाट्य वक्त्राम्बरमपि विधिनेर्यापथाख्यां च शुद्धिं।
कृत्वाहं सिद्धभक्ंित, बुधनुतसकली-सत्क्रियां चादरेण।।
श्री जैनेन्द्रार्चनार्थं, क्षितिमपि यजन-द्रव्यपात्रात्मशुद्धिं।
कृत्वा भक्त्या त्रिशुद्ध्या, महमहमधुना प्रारभेयं जिनस्य।।२।।
पूजा अभिषेक के प्रारम्भ में स्नान करके शुद्ध हुआ मैं अर्हन्त देव को नमस्कार करके पवित्र जलस्नान से, मंत्र स्नान से और व्रत स्नान से शुद्ध होकर आचमन कर, अर्घ्य देकर, धुले हुए सफेद धोती और दुपट्टा को धारण कर, वंदना विधि के अनुसार तीन प्रदक्षिणा देकर जिनालय को नमस्कार करता हूँ तथा द्वारोद्घाटनकर और मुख वस्त्र हटाकर विधिपूर्वक ईर्यापथशुद्धि करके, सिद्धभक्ति करके, सकलीकरण करके, जिनेन्द्रदेव की पूजा के लिए भूमिशुद्धि, पूजा-द्रव्य की शुद्धि, पूजा-पात्रों की शुद्धि और आत्मशुद्धि करके भक्तिपूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धि से अब जिनेन्द्रदेव का महामह अर्थात् अभिषेक-पूजा प्रारम्भ करता हूँ।
पुन: विधिवत् अभिषेक करने का विधान है। पुन: अंत के श्लोक ये हैं-
निष्ठाप्यैवं जिनानां, सवनविधिरपि प्रार्च्यभूभागमन्यं।
पूर्वोक्तैर्मंत्रयंत्रै-रिव भुवि विधिनाराधनापीठयंत्रम्।।
कृत्वा सच्चंदनाद्यैर्वसुदलकमलं कर्णिकायां जिनेंद्रान्।
प्राच्यां संस्थाप्य सिद्धा-नितरदिशि गुरून् मंत्ररूपान् निधाय।।३७।।
जैनं धर्मागमार्चा-निलयमपि विदिक्-पत्रमध्ये लिखित्वा।
बाह्ये कृत्वाथ चूर्णै:, प्रविशदसदवैâ:, पंचकं मंडलानाम्।।
तत्र स्थाप्यास्तिथीशा, ग्रहसुरपतयो, यक्षयक्ष्य: क्रमेण।
द्वारेशा लोकपाला, विधिवदिह मया, मंत्रतो व्याह्रियन्ते।।३८।।
एवं पंचोपचारै-रिह जिनयजनं, पूर्ववन्मूलमंत्रे-
णापाद्यानेकपुष्पै-रमलमणिगणै-रङ्गुलीभि: समंत्रै:।।
आराध्यार्हंतमष्टोत्तरशतममलं, चैत्यभक्त्यादिभिश्च।
स्तुत्वा श्रीशांतिमंत्रं, गणधरवलयं, पंचकृत्व: पठित्वा।।३९।।
पुण्याहं घोषयित्वा, तदनु जिनपते: पादपद्मार्चितां श्री-
शेषां संधार्य मूर्ध्ना, जिनपतिनिलयं, त्रि:परीत्य त्रिशुद्ध्या।।
आनम्येशं विसृज्या-मरगणमपि य:, पूजयेत् पूज्यपादं।
प्राप्नोत्येवाशु सौख्यं, भुवि दिवि विबुधो, देवनंदीडितश्री:।।४०।।
अर्थ-इस प्रकार जिनेन्द्रदेव की पूजाविधि को पूर्ण करके पूर्वोक्त मंत्र-यंत्रों से विधिपूर्वक आराधनापीठ यंत्र की पूजा करें पुन: चंदन आदि के द्वारा आठ दल का कमल बनाकर कर्णिका में श्री जिनेन्द्रदेव को स्थापित कर पूर्व दिशा में सिद्धों को, शेष तीन दिशा में आचार्य, उपाध्याय और साधु को विराजमान करके पुन: विदिशा के दलों में क्रम से जिनधर्म, जिनागम, जिनप्रतिमा और जिनमंदिर को लिखकर बाहर में चूर्ण से और धुले हुये उज्ज्वल चावल आदि से पंचवर्णी मण्डल बना लेवें। इस कमल के बाहर पंचदश तिथिदेवता को, नवग्रहों को, बत्तीस इन्द्रोेंं को, चौबीस यक्षों को, चौबीस यक्षिणी को तथा द्वारपालों को और लोकपालों को विधिवत् मंत्रपूर्वक मैं आह्वानन विधि से बुलाता हूँ ।
इस तरह पंचोपचारों से मंत्रपूर्वक जिन भगवान की पूजन कर पूर्ववत् मूल मंत्रों द्वारा अनेक प्रकार के पुष्पों से, निर्मल मणियों की माला से या अंगुली से एक सौ आठ जाप्य करके अरहंत देव की आराधना करें। पुन: चैत्यभक्ति आदि शब्द से पंचगुरूभक्ति और शांतिभक्ति के द्वारा स्तवन करके शांतिमंत्र और गणधरवलय मंत्रों को पाँच बार पढ़कर पुण्याहवाचन करना, इसके बाद जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों से पूजित श्रीशेषा-आसिका को मस्तक पर चढ़ाकर जिनमंदिर की तीन प्रदक्षिणा देकर, मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके और अमरगण अर्थात पूजा के लिए बुलाये गये देवोें का विसर्जन करके जो व्यक्ति ‘‘पूज्यपाद”-जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता है वह ‘‘देवनन्दी” से पूजित श्री विद्वान् मर्त्यलोक और देवलोक में शीघ्र ही सुख को प्राप्त करता है।। ३६ से ४०।।
यह अभिषेकपाठ सर्वार्थसिद्धि के कर्ता श्री पूज्यपाद स्वामीकृत ही है। यह अभिषेक पाठ संग्रह की प्रस्तावना में स्पष्ट किया गया है। यथा-‘‘शिलालेख”१ नं. ४० (६४) में निम्नलिखित दो पद्य दिये गये हैं-
यो देवनंदिप्रथमाभिधानो, बुद्ध्या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धि:।
श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभि-र्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम्।।१०।।
जैनेन्द्रं निजशब्दभोगमतुलं, सर्वार्थसिद्धि: परा।
सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां, जैनाभिषेक: स्वक:।।
छन्दस्सूक्ष्मधियं समाधिशतक-स्वास्थ्यं यदीयं विदा-
माख्यातीह स पूज्यपादमुनिप:, पूज्यो मुनीनां गण्ौ:२।।११।।
पहले पद्य में पूज्यपाद स्वामी के तीन नाम प्रख्यात होने का हेतु बताया हैै अर्थात् जिनका ‘‘देवनंदि” यह प्रथम नाम था, बुद्धि और महानता से जो जिनेन्द्रबुद्धि कहलाए, पुन: देवताओं के द्वारा उनके पाद युगल की पूजा की गयी थी इसलिए वे ‘‘श्री पूज्यपाद” नाम से प्रसिद्ध हुए हैं।
पुन: दूसरे पद्य में उनके बनाये गये ग्रंथों के नाम हैं। अर्थात् जिनका ‘‘जैनेन्द्र व्याकरण” अतुल शब्दों का कथन करता है, जिनकी ‘‘सर्वार्थसिद्धि” सिद्धांत में निपुणता को सूचित करती है एवं जिनका बनाया हुआ ‘‘जैनाभिषेक” छंद ग्रन्थ और ‘समाधिशतक’ उनके श्रेष्ठ कवित्व को कहते हैं ऐसे वे श्री पूज्यपाद मुनिनाथ, मुनियों के समूह से पूज्य हैं।
यह शिलालेख शक संवत् १०८५, विक्रम संवत् १२२० में उत्कीर्ण किया गया है।
इस अभिषेकपाठ में ‘‘ॐ ह्रीं अत्रस्थ क्षेत्रपालाय स्वाहा। क्षेत्रपालबलिदानम्।”
इस मंत्र से क्षेत्रपाल को अर्घ्य दिलाया है। आगे दश दिक्पालों का अर्घ्य है। यथा-
पूर्वाशा-देश-हव्या-सन-महिषगते नैऋते पाशपाणे।
वायो यक्षेंद्र-चन्द्राभरण-फणिपते रोहिणी-जीवितेश।।
सर्वेऽप्यायात यानायुधयुवतिजनै: सार्धमों भूर्भुव: स्व:।
स्वाहा गृण्हीत चार्र्घ्यं, चरूममृतमिदं स्वस्तिकं यज्ञभागं ।।११।।
ॐ ह्रीं क्रोें प्रशस्तवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधू-चिन्हसपरिवारा इंद्राग्नियमनैर्ऋतवरुणवायुकुबेरेशानधरणेंद्रसोमनाम-दशलोकपाला! आगच्छत आगच्छत संवौषट्, स्वस्थाने तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ: अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् इदमर्घ्यं पाद्यं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं ॐ भूर्भुव: स्व: स्वाहा स्वधा।
इसी ‘‘महाभिषेक” में पंचामृत अभिषेक है उसमें एक मंत्र देखिये, दूध के अभिषेक का-
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं झ्वीं क्ष्वीं हं सस्त्रैलोक्यस्वामिन: क्षीराभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा।
यह अभिषेकपाठ श्री पूज्यपाद स्वामी विरचित ही है और ये पूज्यपाद स्वामी मूलसंघ के महान आचार्य हैं। यह बात सर्वजनविदित है और जब इन आचार्यदेव को महान माना जाएगा तब पुन: इनके द्वारा रचित पंचामृत अभिषेक भी किसे प्रमाणिक नहीं होगा ?
सन् १९३६, वीर निर्वाण संवत् २४६२ में पं. पन्नालाल जी सोनी (ब्यावर वाले), राज. ने एक ‘‘अभिषेकपाठ संग्रह’’ प्रकाशित किया था। उसमें सर्वप्रथम श्री पूज्यपाद स्वामी का ही अभिषेकपाठ संगृहीत है। इसके बाद १५ अभिषेक पाठ और दिये गये हैं। ये सभी पंचामृत अभिषेकपाठ हैं। इन सबमें क्षेत्रपाल, दिक्पाल और शासनदेव-देवियों के आह्वानन व अर्घ्य दिये गये हैं। ये सभी अभिषेक पाठ मूलसंघाम्नाय के आचार्यों एवं विद्वानों के द्वारा ही रचे गये हैं। इनकी तालिका निम्न प्रकार है-
इन अभिषेक पाठों में श्री गुणभद्र भदंत, श्री अभयनंदिसूरि, श्री इंद्रनंदि आचार्य आदि महान आचार्य मूल संघ के महान आचार्य माने गये हैं। इन्हें कोई भी पाप-भीरू विद्वान दुराग्रही नहीं कह सकता है। तब भला इनके द्वारा बनाए हुए ये पंचामृत अभिषेकपाठ अप्रमाणीक वैâसे कहे जा सकते हैं?इन अभिषेक पाठों में पुष्पवृष्टि करने के, चंदन विलेपन आदि के प्रमाण विद्यमान हैं। सबसे बड़ा प्रमाण ‘‘कसायपाहुड़’’ की टीका जयधवला में आता है। देखिए-
चउवीस वि तित्थयरा सावज्जा; छज्जीवविराहणहेउसावयधम्मोवएस-कारित्तादो। तं जहा, दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो। एसो चउव्विहो वि छज्जीवविराहओ; पयण-पायणग्गिसंधुक्कण-जालण-सूदि-सूदाणादिवावारेहि जीवविराहणाए विणा दाणाणुववत्तीदो। तरुवरछिंदण-छिंदावणिट्टपादण-पादावण-तद्दहण-दहावणादिवावारेण छज्जीवविराहणहेउणा विणा जिणभवणकरणकरावणण्णहाणुववत्तीदो। ण्हवणोवलेवण-संमज्जण-छुहावण-पु (फु) ल्लारोवण-धूवदहणादिवावारेहि जीववहाविणाभावीहि विणा पूजकरणाणुववत्तीदो च। कथं सीलरक्खणं सावज्जं ? ण; सदारपीडाए विणा सीलपरिवालणाणुववत्तीदो।कधमुववासो सावज्जो ? ण; सपोट्टत्थपाणिपीडाए विणा उववासाणुववत्तीदो। थावरजीवे मोत्तूण तसजीवे चेव मा मारेहु त्ति सावियाणमुवदेसदाणदो वा ण जिणा णिरवज्जा। अणसणोमोदरियउत्तिपरिसंखाण-रसपरिच्चाय-विवित्तसयणासण-रुक्खमूलादावणब्भावासुक्कुदासण-पलियंकद्धू-पलियंक-ठाण-गोण-वीरासण-विणय-वेज्जावच्च-सज्झायझाणादिकिलेसेसु जीवे पयिसारिय खलियारणादो वा ण जिणा णिरवज्जा तम्हा ते ण वंदणिज्जा त्ति ?
एत्थ परिहारो उच्चदे। तं जहा, जयवि एवमुवदिसंति तित्थयरा तो वि ण तेसिं कम्मबंधो अत्थि, तत्थ मिच्छत्तासंजमकसायपच्चयाभावेण वेयणीयवज्जा-सेसकम्माणं बंधाभावादो। वेयणीयस्स वि ण ट्ठिदिअणुभागबंधा अत्थि, तत्थ कसायपच्चयाभावादो। जोगो अत्थि त्ति ण तत्थ पयाfडपदेसबंधाणमत्थित्तं वोत्तुं सक्किजदे ? ट्ठिदिबंधेण विणा उदयसरूवेण आगच्छमाणाणं पदेसाणमुवयारेण बंधववएसुवदेसादो। ण च जिणेसु देस-सयलधम्मोवदेसेण अज्जियकम्मसंचओ वि अत्थि, उदयसरूवकम्मागमादो असंखेज्जगुणाए सेढीए पुव्वसंचियकम्मणिज्जरं पडिसमयं करेंतेसु कम्मसंचयाणुववत्तीदो। ण च तित्थयरमण-वयण-कायवुत्तीओ इच्छापुव्वियायो जेण तेसिं बंधो होज्ज, किन्तु दिणयर-कप्परुक्खाणं पउत्तिओ व्व वयिससियाओ।१
आगे शंका-समाधान द्वारा चतुर्विंशतिस्तव का स्वरूप बतलाते हैं-
शंका-छह काय के जीवों की विराधना के कारणभूत श्रावकधर्म का उपदेश करने वाले होने से चौबीसों ही तीर्थंकर सावद्य अर्थात् सदोष हैं। आगे इसी विषय का स्पष्टीकरण करते हैं-दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकों के धर्म हैं। यह चारों ही प्रकार का श्रावकधर्म छह काय के जीवों की विराधना का कारण है, क्योंकि भोजन का पकाना, दूसरे से पकवाना, अग्नि का सुलगाना, अग्नि का जलाना, अग्नि का खूतना और खुतवाना आदि व्यापारों से होने वाली जीवविराधना के बिना दान नहीं बन सकता है। उसी प्रकार वृक्ष का काटना और कटवाना, ईंट का गिराना और गिरवाना तथा उनको पकाना और पकवाना आदि छह काय के जीवों की विराधना के कारणभूत व्यापार के बिना जिनभवन का निर्माण करना अथवा करवाना नहीं बन सकता है तथा अभिषेक करना, अवलेप करना, संमार्जन करना, चन्दन लगाना, फूल चढ़ाना और धूप का जलाना आदि जीववध के अविनाभावी व्यापारों के बिना पूजा करना नहीं बन सकता है।
प्रतिशंका-शील का रक्षण करना सावद्य वैâसे है ?
शंकाकार-नहीं, क्योंकि अपनी स्त्री को पीड़ा दिये बिना शील का परिपालन नहीं हो सकता है, इसलिए शील की रक्षा भी सावद्य है।
प्रतिशंका-उपवास सावद्य वैâसे है ?
शंकाकार-नहीं, क्योंकि अपने पेट में स्थित प्राणियों को पीड़ा दिये बिना उपवास बन नहीं सकता है, इसलिए उपवास भी सावद्य है।
अथवा, ‘स्थावर जीवों को छोड़कर केवल त्रसजीवों को ही मत मारो’ श्रावकों को इस प्रकार का उपदेश देने से जिनदेव निरवद्य नहीं हो सकते हैं।
अथवा अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, वृक्ष के मूल में, सूर्य के आताप में और खुले हुए स्थान में निवास करना, उत्कुटासन, पल्यंकासन, अर्धपल्यंकासन, खड्गासन, गवासन, वीरासन, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यानादि क्लेशों में जीवों को डालकर उन्हें ठगने के कारण भी जिन निरवद्य नहीं है और इसलिए वे वन्दनीय नहीं है।
समाधान-यहाँ पर उपर्युक्त शंका का परिहार करते हैं। वह इस प्रकार है-यद्यपि तीर्थंकर पूर्वोक्त प्रकार का उपदेश देते हैं, तो भी उनके कर्मबंध नहीं होता हे, क्योंकि जिनदेव के तेरहवें गुणस्थान में कर्मबंध के कारणभूत मिथ्यात्व, असंयम और कषाय का अभाव हो जाने से वेदनीय कर्म को छोड़कर शेष समस्त कर्मों का बंध नहीं होता है। वेदनीय कर्म का बंध होता हुआ भी उसमें स्थितिबंध और अनुभागबंध नहीं होता है, क्योंकि वहाँ पर स्थितिबंध और अनुभागबंध के कारणभूत कषाय का अभाव है। तेरहवें गुणस्थान में योग है, इसलिए वहाँ पर प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध के अस्तित्व का भी कथन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि स्थितिबंध के बिना उदयरूप से आने वाले निषेकों में उपचार से बंध के व्यवहार का कथन किया गया है। जिनदेव देशव्रती श्रावकों के और सकलव्रती मुनियोें के धर्म का उपदेश करते हैं, इसलिए उनके अर्जित कर्मों का संचय बना रहता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि उनके जिन नवीन कर्मों का बंध होता है, जो कि उदयरूप ही हैं, उनसे भी असंख्यातगुणी श्रेणीरूप से वे प्रतिसमय पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा करते हैं, इसलिए उनके कर्मोंे का संचय नहीं बन सकता है और तीर्थंकर के मन, वचन तथा काय की प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक नहीं होती है, जिससे उनके नवीन कर्मों का बंध होवे। जिस प्रकार सूर्य और कल्पवृक्षों की प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक होती हैं, उसी प्रकार उनके भी मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक अर्थात् बिना इच्छा के समझना चाहिए।
तित्थयरस्स विहारो लोअसुहो णेव तत्थ पुण्णफलो।
वयणं च दाणपूजारंभयरं तं ण लेवेइ।।५४।।
‘‘तीर्थंकर का विहार संसार के लिए सुखकर है परन्तु उससे तीर्थंकरों को पुण्यरूप फल प्राप्त होता है, ऐसा नहीं है तथा दान और पूजा आदि आरंभ के करने वाले वचन, उन्हें कर्मबंध से लिप्त नहीं करते हैं। अर्थात् वे दान पूजा आदि आरंभों का जो उपदेश देते हैं, उससे भी उन्हें कर्मबंध नहीं होता है।
पावागमदाराइं अणाइरूवट्ठियार जीवम्मि।
तत्थ सुहासवदारं उग्घादेंते कउ सदोसो।।५७।।
जीव में पापास्रव के द्वार अनादिकाल से स्थित हैं। उनके रहते हुए जो जीव शुभास्रव के द्वार का उद्घाटन करता है, अर्थात् शुभास्रव के कारणभूत कामों को करता है, वह सदोष वैâसे हो सकता है ?
घडियाजलं व कम्मे अणुसमयसंखगुणियसेढीए।
णिज्जरमाणे संते वि महव्वईणं कुदो पावं।।६०।।
परमरहस्समिसीणं समत्तगणिपिदयझरिदसाराणं।
परिणामियं पमाणं णिच्छयमवलंबमाणाणं।।६१।।
वियोजयति चासुभिर्न न वधेन संयुज्यते,
शिवं च न परोपघातपरुषस्मृतेविद्यते।
वधोपनयमभ्युपैति च पराननिघ्नन्नपि,
त्वयाऽयमतिदुर्गम: प्रशमहेतुरुद्योतित:।।६२।।
तम्हा चउवीसं पि तित्थयरा णिरवज्जा तेण ते वंदणिज्जा विबुहजणेण।
सुरदुंदुहि-धय-चामर-सीहासण-धवलामलछत्त-भेरि-संख-काहलादिगंथ-कंथंतो वट्टमाणत्तादो तिहुवणस्सोलंगदाणदो वा ण णिरवज्जा तित्थयरा त्ति णासंकणिज्जं, घाइचउक्काभावेण पत्तणवकेवललद्धिविरायियाणं सावज्जेण संबंधाणुववत्तीदो। एवमायिए चउवीसतित्थयरविसयदुण्णये णिराकरिय चउवीसं पि तित्थयराणं थवणविहाणं णाम-ट्ठवणा-दव्व-भावभेएण भिण्णं तत्फलं च चउवीसत्थओ परूवेदि।१
जब महाव्रतियों के प्रतिसमय घटिकायंत्र के जल के समान असंख्यातगुणित श्रेणीरूप से कर्मों की निर्जरा होती रहती है, तब उनके पाप वैâसे संभव है ?।।६०।।
समग्र द्वादशाङ्गका प्रधानरूप से अवलम्बन न करने वाले निश्चयनयावलम्बी ऋषियों के संबंध में यह एक मूल तत्त्व है कि वे अपनी शुद्धाशुद्ध चित्तवृत्ति को ही प्रमाण मानते हैं।।६१।।
कोई प्राणी दूसरे को प्राणों से वियुक्त करता है फिर भी वह वध से संयुक्त नहीं होता है तथा परोपघात से जिसकी स्मृति कठोर हो गई है, अर्थात् जो परोपघात का विचार करता है, उसका कल्याण नहीं होता है तथा कोई दूसरे जीवों को नहीं मारता हुआ भी िंहसकपने को प्राप्त होता है। इस प्रकार हे जिन! तुमने यह अति गहन प्रशम का हेतु प्रकाशित किया है अर्थात् शांति का मार्ग बतलाया है।।६२।।
इसलिए चौबीसों तीर्थंकर निरवद्य हैं और इसीलिए वे विबुधजनों से वन्दनीय हैं।
यदि कोई ऐसी आशंका करे कि तीर्थंकर सुरदुंदभि, ध्वजा, चमर, सिंहासन, धवल और निर्मल छत्र, भेरी, शंख तथा काहल (नगारा) आदि परिग्रहरूपी गूदड़ी के मध्य विद्यमान रहते हैं और वे त्रिभुवन के व्यवस्थापक हैं अर्थात् त्रिभुवन को सहारा देते हैं, इसलिए वे निरवद्य नहीं है, सो उसका ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि चार घातिकर्मों के अभाव से प्राप्त हुई नौ केवललब्धियों से वे सुशोभित हैं इसलिए उनका पाप के साथ संबंध नहीं बन सकता है। इत्यादिक रूप से चौबीसों तीर्थंकर विषयक दुर्नयों का निराकरण करके नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से भिन्न चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन के विधान का और उसके फल का कथन चतुर्विंशतिस्तव करता है।