प्राकृत भावसंग्रह में श्री देवसेन सूरि ने कहा है-
अंगे णासं किच्चा, इंदो हं कप्पिऊण णियकाए।
कंकण-सेहर-मुद्दी, कुणओ जण्णोपवीयं च।।४३६।।
पीढं मेरुं कप्पिय, तस्सोवरि ठाविऊण जिणपडिमा।
पच्चक्खं अरहंतं, चित्ते भावेउ भावेण।।४३७।।
कलसचउक्कं ठाविय, चउसु वि कोणेसु णीरपरिपुण्णं।
घयदुद्धदहियभरियं, णवसयदलछण्णमुहकमलं।।४३८।।
आवाहिऊण देवे, सुरवइ-सिहि-काल-णेरिए-वरुणे।
पवणे जखे ससूली, सपियसवाहणे ससत्थे य।।४३९।।
दाऊण पुज्जदव्वं, बलिचरुयं तह य जण्णभायं च।
सव्वेसिं भंत्तेहि य , बीयक्खरणामजुत्तेहिं।।४४०।।
उच्चारिऊण मंते, अहिसेयं कुणउ देवदेवस्स।
णीर-घय-खीर-दहियं, खिवउ अणुक्कमेण जिणसीसे।।४४१।।
णहवणं काऊण पुणो, अमलं गंधोवयं च वंदित्ता।
सवलहणं च जिणिंदे, कुणऊ कस्सीरमलएंिहं १।।४४२।।
ये देवसेन सूरि दर्शनसार के कर्ता देवसेन सूरि से जुदे हैं। दर्शनसार के कर्ता देवसेन सूरि ने दर्शनसार वि.सं. ९९० में बनाया है। उसमें श्वेताम्बर संघ द्राविड़संघ, यापनीयसंघ, काष्ठासंघ आदि का उल्लेख है परन्तु प्राकृतभावसंग्रह में श्वेताम्बर संघ को छोड़कर औरों का उल्लेख नहीं है। यदि प्राकृत भावसंग्रह और दर्शनसार के कर्ता एक ही होते तो श्वेताम्बर संघ की तरह इन संघों का भी वे उल्लेख करते। इससे मालूम पड़ता है कि प्राकृतभाव संग्रह के कर्ता देवसेन सूरि और हैं तथा दर्शनसार के कर्ता देवसेन सूरि और। संभवत: प्राकृतभावसंग्रह और नयचक्र के कर्ता देवसेन सूरि एक हैं। नयचक्र का उल्लेख स्वामी विद्यानंदि श्लोकवार्तिक में करते हैं। विद्यानंदि स्वामी का समय करीब विक्रम की आठवीं शताब्दी का प्रारंभ सुनिश्चित होता है। इससे मालूम पड़ता है कि भावसंग्रह के कर्ता सातवीं शताब्दी से भी पहले हो गये हैं और उस समय हुए हैं जिस समय कि श्वेताम्बर संघ को छोड़कर काष्ठासंघ आदि की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी।
पद्मपराुण में श्री रविषेणाचार्य ने कहा है-
अभिषेकं जिनेन्द्राणां, कृत्वा सुरभिवारिणा।
अभिषेकमवाप्नोति, यत्र यत्रोपजायते।।१६५।।
अभिषेकं जिनेन्द्राणां, विधाय क्षीरधारया।
विमाने क्षीरधवले, जायते परमद्युति:।।१६६।।
दधिकुम्भैर्जिनेन्द्राणां, य: करोत्यभिषेचनम्।
दध्याभकुट्टमे स्वर्गे, जायते स सुरोत्तम:।।१६७।।
सर्पिषा जिननाथानां, कुरुते योऽभिषेचनम्।
कान्तिद्युतिप्रभावाढ्यो, विमानेश: स जायते।।१६८।।
अभिषेकप्रभावेण, श्रूयन्ते बहवो बुधा:।
पुराणेऽन्तवीर्याद्या, द्युभूलब्धाभिषेचना:१।।१६९।।
१-इनने वीर नि. संवत् १२०३ (वि.सं. ७३३, शक सं. ५९८) में इस पुराण को बनाया था। आचार्य रविषेण काष्ठासंघ के अनुयायी थे, ऐसी किंवदन्ती प्रचलित है परन्तु यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि काष्ठासंघ की वि.सं. ७५३ में कुमारसेन द्वारा उत्पत्ति हुई है ऐसा दर्शनसार में स्पष्ट उल्लेख है। अत: यह वैâसे संभव माना जाए कि रविषेणाचार्य काष्ठासंघी थे। मूलसंघ और श्वेताम्बर संघ के आचार्यों ने इन की खूब ही प्रशंसा की है। इतना ही नहीं, इनके पद्मपुराण का आधार लेकर बड़े-बड़े ग्रन्थोें की रचना की है।
हरिवंश पुराण में जिनसेनाचार्य कहते हैं-
क्षीरेक्षुरसधारौघै-र्घृतदध्युदकादिभि: ।
अभिषिच्य जिनेन्द्रार्चा-मर्चितां नृसुरासुरै:।।२१।।
हरिचन्दनगन्धाढ्यै – र्गन्धशाल्यक्षताक्षतै:।
पुष्पैर्नानाविधैरुद्धै-र्धूपैै: कालागुरूद्भवै:।।२२।।
दीपैर्दीप्रशिखाजालै-र्नेवेद्यैर्निरवद्यवैâ: ।
तावानर्चतुरर्चां ता-मर्चनाविधिकोविदौ२।।२३।।
१-आचार्य जिनसेन ने इस पुराण की रचना शक संवत् ७०५ (वि.सं
८४०) में की है। ये जिनसेन आदिपुराण के कर्ता भगवज्जिनसेन से जुदे हैं।
वसुनंदि-श्रावकाचार में-
गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्खमण-णाण-णिव्वाणं।
जम्हि दिणे संजादं, जिणण्हवणं तद्दिणे कुज्जा।।४५३।।
इक्खुरस-सप्पि-दहि-खीर-गंधजलपुण्णविविहकलसेहिं।
णिसिजागरणं च संगीय-णाडयाईहिं कायव्वं।।४५४।।
णंदीसरट्ठदिवसेसु तहा अण्णेसु उचियपव्वेसु।
जं कीरइ जिणमहिमं, विण्णेया कालपूजा सा१।।४५५।।
१-आचार्य वसुनन्दी का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी है। इनने मूलाचार की आचारवृत्ति में आचार्य अमितगति-कृत श्रावकाचार के कुछ पद्य उद्धरण में दिये हैं। आचार्य अमितगति १०७० के बाद तक जीवित थे। इनने एक मूलाराधना या भगवती-आराधना नाम का ग्रन्थ भी संस्कृत में लिखा है। उसमें उनने इस आराधना की पुष्टि में ‘‘वसुनन्दियोगिमहिता” ऐसा एक पद दिया है, इससे मालूम पड़ता है कि वसुनन्दी और अमितगति दोनों समसामयिक हैं और वह समय विक्रम की ग्यारहवीं सदी है।
नागकुमार चरित्र पंचमी कथा में मल्लिषेण आचार्य ने कहा-
कारयित्वा जिनेन्द्राणां, सद्विम्बं स्नापयन्ति ये।
चोचेक्ष्वाम्ररसैर्नित्य-माज्यदुग्धादिभिस्तथा ।।११२।।
पूजयन्ति च ये देवं, नित्यमष्टाविधार्चनै:।
पूजां देवनिकायस्य लभन्ते तेऽन्यजन्मनि।।११३।।
१-आचार्य मल्लिषेण उभयभाषा के चक्रवर्ती थे, पद्मावती और सरस्वती इन पर प्रसन्न थीं। त्रिषष्टिलक्षण-महापुराण, स्वोपज्ञ टीका युक्त पद्मावतीकल्प, सरस्वतीकल्प आदि अनेक ग्रंथ इनके बनाए हुये हैं। इनमें त्रिषष्टिलक्षण महापुराण को शक संवत ९६९ वि.सं. ११०४ में इनने बनाया था और शक संवत् १०५० वि.स. ११८५ में इनका स्वर्गवास हुआ था। इससे मालूम पड़ता है कि ये कम से कम शतायु थे।
जिनसंहिता में भगवद् एकसंधि ने कहा-
ततस्तुर्यरवैर्व्योम-सरत्युद्दामगीतिभि:।
अप्युद्धरेन्मुदा पूर्ण-कुम्भं स्नपयितुं प्रभुम्।।१।।
तोयैश्चोचजलैरिक्षु-रसैश्चूतरसैर्घृतै:।
क्षीरैर्दधिभिरप्यर्घ्यै: ,स्नापयेदनघं क्रमात्।।२।।
तत उन्मार्जयेत्कल्क-चूर्णैश्चोद्वर्तनैरलम्।
जिनेन्द्र श्रीतनुस्नेहं, चन्दनक्षोदशालिभि:।।३।।
वर्णोदनादिभि:पश्चा-द्वीतदोषं निवर्तयेत्।
निवर्तनविधिद्रव्यै-र्जगतामभिवृद्धये ।।४।।
तत: क्षीरतरुत्वग्भि:, कषायै: स्नापयेज्जलै:।
तत: संस्नापयेत्कुम्भैश्-चतुर्भि: कोणसंश्रितै:।।५।।
जलादिस्नपने निष्ठां, गते गन्धाम्बुधारया।
अभिषिच्येशमर्हन्त-ममलं त्रिजगद्गुरुम्।।६।।
१-इनका आसन जैन समाज में बहुत ऊँचा रहा है। यह पीछे के ग्रंथकर्ताओं के स्मरण से प्रतीत होता है। जिनसंहिता की कई प्रतियाँ हमने देखी हैं वे सब अपूर्ण हैं। सबमें अन्तिम पाठ भी समान है। अत: नहीं कहा जा सकता कि प्रति का अंतिम पाठ नष्ट हो गया या काल के वैचित्र्य से यहीं तक बन पाई थी। अस्तु, भगवदेकसंधि का समय विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के लगभग है। इतना निश्चित है कि वि.स. १३७६ के पहले यह संहिता बन चुकी थी।
संस्कृत भावसंग्रह में श्री वामदेव पंडित ने कहा-
पश्चात्स्नानविधिं कृत्वा, धौतवस्त्रपरिग्रह:।
मंत्रस्नानं व्रतस्नानं, कर्तव्यं मंत्रवत्तत:२।।४७०।।
एवं स्नानत्रयं कृत्वा, शुद्धित्रयसमन्वित:।
जिनावासं विशेन्मंत्री, समुच्चार्य निषेधिकाम्।।४७१।।
कृत्वेर्यापथसंशुद्धिं, जिनं स्तुत्वातिभक्तित:।
उपविश्य जिनस्याग्रे, कुर्याद्विधिमिमां पुरा।।४७२।।
तत्रादौ शोषणं स्वांंगे, दहनं प्लावनं तत:।
इत्येवं मंत्रविन्मंत्री, स्वकीयांङ्ग पवित्रयेत्।।४७३।।
हस्तशुद्धिं विधायाथ, प्रकुर्यात्सकली-क्रियाम्।
कूटबीजाक्षरैर्मंत्रै-र्दशदिग्बंधनं तत:।।४७४।।
पूजापात्राणि सर्वाणि, समीपीकृत्य सादरम्।
भूमिशुद्धिं विधायोच्चै, र्दर्भाग्निज्वलनादिभि:।।४७५।।
भूमिपूजां च निर्वृत्य, ततस्तु नागतर्पणम्।
आग्नेयदिशि संस्थाप्य, क्षेत्रपालं प्रतर्प्य १ च ।।४७६।।
स्नानपीठं दृढं स्थाप्य, प्रक्षाल्य शुद्धवारिणा।
श्रीबीजं च विलिख्यात्र, गन्धाद्यैस्तत्प्रपूजयेत्।।४७७।।
परित: स्नानपीठस्य, मुखार्पितसपल्लवान्।
पूरितांस्तीर्थसत्तोयै:, कलशांश्चतुरो न्यसेत्।।४७८।।
जिनेश्वरं समभ्यर्च्य, मूलपीठोपरिस्थितम्।
कृत्वाह्वानविधिं सम्यक्, प्रापयेत् स्नानपीठिकाम्।।४७९।।
कुर्यात्संस्थापनं तत्र, सन्निधानविधानकम्।
नीराजनैश्च निर्वृत्य, जलगंधादिभिर्यजेत्।।४८०।।
इन्द्राद्यष्टदिशापालान्, दिशाष्टसु निशापतिम्।
रक्षोवरुणयोर्मध्ये, शेषमीशानशक्रयो: ।।४८१।।
न्यस्याह्वानादिकं कृत्वा, क्रमेणैतान् मुदं नयेत्।
बलिप्रदानत: सर्वान्, स्वस्वमंत्रैर्यथादिशम् ।।४८२।।
तत: कुंभं समुद्धार्य, तोयचोचेक्षुसद्रसै:।
सद्घृतैश्च ततो दुग्धै-र्दधिभि: स्नापयेज्जिनम्।।४८३।।
तोयै: प्रक्षाल्य सच्चूर्णै:, कुर्यादुद्वर्त्तनक्रियाम्।
पुनर्नीराजनं कृत्वा, स्नानं कषायवारिभि:।।४८४।।
चतुष्कोणस्थितै: कुम्भै-स्ततो गन्धाम्बुपूरितै:।
अभिषेकं, प्रकुर्वीरन्, जिनेशस्य सुखार्थिन:।।४८५।।
स्वोत्तमांगं प्रसिंच्याथ, जिनाभिषेकवारिणा।
जलगन्धादिभि: पश्चा-दर्चयेद्विम्बमर्हत: ।।४८६।।
स्तुत्वा जिनं विसर्ज्यापि, दिगीशादिमरुद्गणान्।
अर्चिते मूलपीठेऽथ, स्थायपेज्जिननायकम्।।४८७।।
१-पण्डित वामदेव का समय लगभग पन्द्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। १५३९ की लिखी हुई पंजिका की एक प्रति है और १४८८ की लिखी हुयी प्रा. भावसंग्रह की प्रति में इनके बनाए हुए भावसंग्रह के श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इससे मालूम पड़ता है कि वि.सं. १५३९ और १४८८ के पूर्ववर्ती लगभग पन्द्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के ये विद्वान हैं। मूलसंघ में एक विनयचन्द्र नाम के आचार्य हो गये हैं, उनके शिष्य त्रिलोककीर्ति और त्रिलोककीर्ति के शिष्य लक्ष्मीचन्द्र हुए हैं। इन्हीं त्रिलोककीर्ति और लक्ष्मीचन्द्र के पंडित वामदेव शिष्य थे। इनका कुल नैगम कुल था। इनके बनाए हुए त्रिलोकदीपक, संस्कृत भावसंग्रह, महाभिषेक पंजिका आदि ग्रन्थ हैं।
वरांगचरित में वर्धमान भट्टारक आचार्य ने कहा-
य: संस्थाप्य जिनेशं, विधिवत्पंचामृतैर्जिनं यजते।
जलगन्धाक्षतपुष्पै-र्नैवेद्यैर्दीपधूपफलनिवहै: ।।१६।।
यो नित्यं जिनमर्चति, स एव धन्यो निजेन हस्तेन।
ध्यायति मनसा शुचिना, स्तौति च जिह्वागतै: स्तोत्रै:।।१७।।
श्रीपालचरित्र में सकलकीर्ति आचार्य ने कहा-
कृत्वा पंचामृतैर्नित्य-मभिषेकं जिनेशिनाम्।
ये भव्या: पूजयन्त्युच्चै-स्ते पूज्यन्ते सुरादिभि:।।
१-आचार्य सकलकीर्ति आचार्य पद्मनंदी के पट्ट पर हुए हैं। इन्होंने अनेक ग्रन्थ बनाए हैं जो जैन समाज में बड़ी ही भक्ति के साथ पढ़े जाते हैं। इतना ही नहीं, ये बहुत ही प्रामाणिक भी माने जाते हैं। वि.सं. १४९० और १४९२ की इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ भी पाई जाती हैं। सुनते हैं, इनका स्वर्गवास १४९९ में गुजरात के महसाना नगर में हुआ था। कहते हैं, वहाँ इनकी समाधि भी बनी हुई है।
मूर्ध्ना गत्वानु संस्नाप्या-मृतै: पंचविधैर्वरै:।
जिनेन्द्रप्रतिमां भक्त्या, पूजयेत्स्वशुभाप्तये।।
उपदेशरत्नमाला में पंडिताचार्य सकलभूषण१ ने कहा-
पंचामृतै: सुमंत्रेण, मंत्रितैर्भक्तिनिर्भर:।
अभिषिच्य जिनेन्द्राणां, प्रतिबिम्बानि पुण्यवान्।।
णमोकारकल्प में श्री सिंहनंदि२ ने कहा है-
पूजाद्रव्यं कुंकुमं च, सदकं चस्संचयं।
रत्नदीपकं वामे च, धूपकुंडं च दक्षिणे।।
फलं देयं जिनेशस्य, पुरतो बीजपूरकं।
चूतं चोचाम्रकदली-मुखं षट्कर्तुषु क्रमात्।।
कंकोलैलालवंगादि-सर्वौषध्याभिषेचनं ।
दधिदुग्धेक्षुसर्पिर्भि-रभिषेको जिनस्य च।।
पद्मपुराणभाषा में पं. दौलतराम जी ने लिखा है-
जो नीर कर जिनेन्द्र का अभिषेक करै सो देवों कर मनुष्यों कर सेवनीक चक्रवर्ती होय, जिसका राज्याभिषेक देव विद्याधर करैं और जो दुग्धकर अरहंत का अभिषेक करै सो क्षीरसागर के जल समान उज्वल विमान के विषैं परम कांति धारक देव होय फिर मनुष्य होय मोक्ष पावै और जो दधिकर सर्वज्ञ वीतराग का अभिषेक करै सो दधिसमान उज्ज्वल यश को पाय कर भवोदधि को तरै और जो घृत कर जिननाथ का अभिषेक करै सो स्वर्ग विमानविषैं महाबलवान् देव होय परंपराय अनन्तवीर्य को धरै और जो ईष रस कर जिननाथ का अभिषेक करै सो अमृत का आहारी सुरेश्वर होय। नरेश्वर पद पाय मुनीश्वर होय अविनश्वर पद पावै। अभिषेक के प्रभाव कर अनेक भव्यजीव देवों कर इंद्रों कर अभिषेक पावते भये तिनकी कथा पुराणों में प्रसिद्ध है।
१-पद्मपुराण की भाषा पं. दौलतराम जी ने वि.सं. १८२३ में बनाई है। पद्मपुराण के मूलश्लोकों का यह अनुवाद है। यह भाषा जैन समाज में अत्यधिक आदरणीय मानी जाती है। पं. दौलतराम जी जयपुर की तेरहपंथ शैली में एक समादृत विद्वान थे।
वसुनंदि-श्रावकाचार भाषा में बाबा दुलीचन्द जी१ ने कहा है-
भगवान का गर्भावतार अर जन्माभिषेक, तपकल्याण, ज्ञानकल्याण, निर्वाणकल्याण जिस दिन विषैं हुवा तिह दिन विषै कलशाभिषेक अर प्रभावना करणी। इक्षुरस, घृत, दही, दूध, सुगंध जल का पवित्र नाना प्रकार का कलशां करि अभिषेक करणा। बहुरि रात्रि विषैं जागरण संगीत नाटकादिक जो संगीत नृत्य तथा गानादिक करणा। अर नंदीश्वर के आठ दिन विषैं तथा और भी उचित परव्या विषैं जो करै भगवान की महिमा सो काल पूजा जाणनी, या कालपूजा कही।
कलस चउक्कं ठाविय चउसु वि कोणेसु णीरपरिपुण्णं।
घयदुद्धदहियभरियं णवसयदलछण्णमुहकमलं।।
कलश चतुष्कं स्थापयित्वा चतुर्ष्वपि कोणेषु नीरपरिपूर्णं।
घृतदुग्धदधिभृतं नवशतदलच्छन्नमुखकमलं।।४३८।।
संक्षिप्त अर्थ-तदनंतर चारों कोनों में जल से भरे हुए चार कलश स्थापन करने चाहिए तथा मध्य में पूर्ण कलश स्थापन करना चाहिए। इनके अतिरिक्त घी, दूध, दही इनसे भरे हुए कलश भी स्थापन करने चाहिए। इन सब कलशों के मुख पर नवीन सौ दल वाले कमल रखने चाहिए।
उच्चरिऊण मंते अहिसेयं कुणउ देवदेवस्स।
णीरघयखीरदहियं खिवउ अणुक्कमेण जिणसीसे।।
उच्चार्य मंत्रान् अभिषेकं कुर्यात् देवदेवस्य।
नीरघृतक्षीरदधिकं क्षिपेत् अनुक्रमेण जिनशीर्षे।।४४१।।
तदनंतर देवाधिदेव भगवान अरहंत देव का अभिषेक करना चाहिए। वह अभिषेक अनुक्रम से जल, घी, दूध, दही आदि पदार्थों से मंत्रों का उच्चारण करते हुये भगवान के मस्तक पर से करना चाहिए।
ण्हवणं काऊण पुणो अमलं गंधोवयं च वंदित्ता।
सवलहणं च जिणिंदे कुणऊ कस्सीरमलएहिं।।
स्नपनं कारयित्वा पुन: अमलं गन्धोदकं च वन्दित्वा।
उद्वर्तनं च जिनेन्द्रे कुर्यात् काश्मीरमलयै:।।४४२।।
अर्थ-इस प्रकार अभिषेक कर निर्मल गंधोदक की वंदना करनी चाहिए फिर काश्मीरी केसर तथा चंदन आदि से भगवान का उद्वर्तन करना चाहिए। अभिषेक के अनंतर चन्दन, केसर आदि द्रव्यों की सर्वौषधि बनाकर उससे प्रतिमा का उबटन करना चाहिए। फिर कोण कलशों से तथा पूर्ण कलश से अभिषेक करना चाहिए। यह विधि अत्यंत संक्षेप से कही है। इसकी पूर्ण विधि अभिषेक पाठ से जान लेनी चाहिए।
इय संखेवं कहियं जो पूयइ गंधदीवधूवेहिं।
कुसुमेहि जवइ णिच्चं सो हणइ पुराणयं पावं।।
इति संक्षेपेण कथितं य: पूजयति गन्धदीपधूपै:।
कुसुमै: जपति नित्यं स हन्ति पुराणकं पापं।।४४७।।
अर्थ-इस प्रकार संक्षेप से सिद्धचक्र का विधान कहा। जो पुरुष गंध, दीप, धूप और फूलों से इस यंत्र की पूजा करता है तथा नित्य इसका जप करता है वह पुरुष अपने संचित किये हुये समस्त पापों का नाश कर देता है।
घृतक्षीरादिभि: पूर्णा: कलशा: कमलानना:।
मुक्तादामादिसत्कंठा रत्नरश्मिविराजिता:।।१४।।
जिनबिम्बाभिषेकार्थ-माहूता भक्तिभासुरा:।
दृश्यंते भोगिगेहेषु शतशोऽथ सहस्रश:।।१५।।
अर्थ-जो घी, दूध आदि से भरे हुए थे, जिनके मुख पर कमल ढके हुए थे, जिनके कण्ठ में मोतियों की मालाएँ लटक रही थी, जो रत्नों की किरणों से सुशोभित थे, जो नाना प्रकार के बेल-बूटों से देदीप्यमान थे तथा जो जिन-प्रतिमाओं के अभिषेक के लिए इकट्ठे किये गये थे, ऐसे सैकड़ों हजारों कलश गृहस्थों के घरों में दिखाई देते थे।
भावार्थ-लंका में स्थित शांतिनाथ चैत्यालय में भक्तिमान लंका के लोग घृत, दुग्ध, दधि आदि से भरे हुए कलश जिनके कि कंठ भाग मोतियों की माला से सुशोभित हो रहे हैं, जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक के लिए लाये।
पयोदधिक्षीरघृतादिपूर्णा फलाग्रपुष्पस्तवकापिधाना:।
घटावलीदामनिबद्धकंठा सुवर्णकारैर्लिखिता रराज।।२५।।
अष्टोत्तराशीतजलैर्प्रपूर्णा: सहस्रमात्रा: कलशा: विशाला:।
पद्मोत्पलोत्फुल्लविधानवक्त्रा जिनेन्द्रबिम्बस्नपनैक कार्या।।२६।।
भावार्थ-उस मंदिर में जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक के लिए लाये गये जल, दही, दूध, घृत से पूर्ण कलश महान शोभा को प्राप्त हुए, जिनके मुखाग्र भाग कमल पुष्पों से आच्छादित थे।
तथा चकारात् पाषाणघटितस्याऽपि जिनबिम्बस्य पंचामृतै: स्नपनं अष्टविधै: पूजाद्रव्यैश्च पूजनं कुरुत यूयम् वन्दनाभक्तिश्च कुरुत।
भावार्थ-पाषाण घटित भी जिनबिम्ब का पंचामृत से अभिषेक तथा आठ प्रकार के पूजन द्रव्यों से पूजन करना चाहिए।
द्राक्षाखर्जूरचोचेक्षु प्राचीनामलकोद्भवै:।
राजादनाम्रपूगोत्थै स्नापयामि जिनं रसै:।।३
भावार्थ-मैं इक्षु आदि रसों से भगवान का अभिषेक करता हूँ।
तद्विलेपनगंधांबुपुष्पाणि सा ददौ मुदा।
श्रीपालायांगरक्षेभ्य: पाणिभ्यां रुग्विहानये।।४
अर्थात् उस मैना सुंदरी से कुष्ट रोग से पीड़ित अपने पति श्रीपाल राजा तथा उनके सात सौ वीरों को उनके रोग के निवारणार्थ चंदन, अभिषेक का जल तथा पुष्प दिये।
प्राकृत निर्वाणभक्ति में श्री कुंदकुंददेव ने लिखा है-
गोम्मटदेवं वंदमि, पंचसयं धणुहदेहउच्चं तं,
देवा कुणंति वुट्ठी, केसरकुसुमाण तस्स उवरिम्मि।।२७।।
अर्थात् जिस गोम्मटेश की प्रतिमा के ऊपर देव लोग केशर और पुष्प की वर्षा किया करते हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ। इस तरह बड़े-बड़े विद्वान आचार्यों के बनाये हुए ग्रंथों में केशर और पुष्प का वर्णन मिलता है। जो यथार्थ एवं आर्षमार्गानुसार है।