-गणिनी ज्ञानमती माताजी
जिनप्रतिमाओं का पंचामृत अभिषेक एवं शासन देव-देवियों को मंदिर में विराजमान करना, उन्हें अर्घ्य आदि चढ़ाकर पूजा करना आदि परम्पराएं प्राचीन हैं, आगम सम्मत हैं, इनके लिए प्रमाणस्वरूप यह ‘‘अभिषेकपाठसंग्रह’’ ग्रंथ है।
इसमें सर्वप्रथम श्री पूज्यपाद आचार्य द्वारा रचित पंचामृत अभिषेक पाठ है। नंदिसंघ की पट्टावली के अनुसार श्री पूज्यपादस्वामी का समय विक्रम संवत् २५८ से ३०८ तक माना है एवं अन्य प्रमाणों से विक्रम संवत् ५५३ के लगभग माना जाता है।
कुछ साधु या विद्वान् कह देते हैं कि ‘‘पंचामृत अभिषेक’’ आदि परम्पराएं काष्ठासंघ के साधुओं द्वारा कथित है।
किन्तु काष्ठासंघ की उत्पत्ति विक्रम संवत् ७५३ में हुई है।
पुनश्च-वर्तमान में अपनी दिगम्बर जैन परम्परा में मुख्यरूप से दो पंथ चल रहे हैं-बीसपंथ और तेरहपंथ।
बीसपंथ परम्परा में पंचामृत अभिषेक, शासन देव-देवी की मान्यता और महिलाओं द्वारा जिनप्रतिमाओं का अभिषेक करना, हरे फल-फूल चढ़ाना आदि चलता है।
तेरहपंथ परम्परा में मात्र जल से भगवन्तों की प्रतिमाओं का अभिषेक, हरे फल-फूल नहीं चढ़ाना, महिलाओं द्वारा अभिषेक नहीं कराना आदि प्रथा प्रचलित है।
परन्तु कहीं-कहीं अधिकतम तेरहपंथ में भी शासन देव-देवी, क्षेत्रपाल, पद्मावती, चक्रेश्वरी आदि की मूर्तियों को मंदिर में रखना, पूजा, अर्घ्य आदि करना मान्य है। कहीं नहीं भी है। यह तेरहपंथ परम्परा बनारसीदास के अर्धकथानक आदि पुस्तकों के आधार से विक्रम संवत् १६८३ से प्रारंभ हुई है। पं. बखतराम साह ने वि.सं. १६८३ में तेरापंथ चलाया है। जिसमें १३ नियम बनाये हैं। उन्हें देखिए-
(१) दश दिग्पालों को नहीं मानना।
(२) भट्टारकों को गुरू नहीं मानना।
(३) भगवान के चरणों में केसर का लेपन नहीं करना।
(४) सचित्त फूल भगवान को नहीं चढ़ाना।
(५) दीपक से पूजा नहीं करना।
(६) आसिका नहीं लेना।
(७) फूलमाल नहीं करना।
(८) भगवान का अभिषेक (पंचामृत अभिषेक) नहीं करना।
(९) रात में पूजन नहीं करना।
(१०) शासन देव-देवी को नहीं पूजना।
(११) रांधा अन्न भगवान को नहीं चढ़ाना।
(१२) हरे फलों को नहीं चढ़ाना।
(१३) बैठकर पूजन नहीं करना।
बीसपंथ परम्परा-आगमपरम्परा व आर्ष परम्परा मानी जाती है। वर्तमान में बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज व महावीरकीर्ति जी महाराज (अंकलीकर आदिसागर महाराज) की परम्परा में बीसपंथ परम्परा चली आ रही है। अत: संक्षेप में समझें तो-
बीसपंथ परम्परा-विक्रम संवत् ३०८ या ५५३ से-इससे पूर्व से भी है।
काष्ठासंघ परम्परा-विक्रम संवत् ७५३ से है।
तेरहपंथ परम्परा-विक्रम संवत् १६८३ से हुई है।
इस ‘पंचामृत अभिषेक पाठ संग्रह’ ग्रंथ के अध्ययन से आप सभी आचार्य, मुनि-आर्यिकाओं को एवं श्रावक-श्राविकाओं को अपनी श्रद्धा दृढ़ रखते हुए बीसपंथ परम्परा-आर्ष परम्परा, आगम परम्परा को प्राचीन मानकर उसके अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए।जिन-जिन तीर्थों पर, शहरों में-दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई, लखनऊ आदि में या ग्राम, नगर आदि मंदिरों में जो पुरातन परम्परा चली आ रही है, उसी के अनुसार अभिषेक, पूजन आदि करें, करावें। आपस में अल्पसंख्यक जैन समाज में संगठन बनाये रखें। बीसपंथी परम्परा के तीर्थों को व मंदिरों को तेरहपंथी बनाने का प्रयास न करें। दुराग्रह को छोड़कर आगम के दर्पण में सही परम्परा को देखकर व ‘श्रवणबेलगोला’ तीर्थ पर बनी ‘गुल्लिकायिज्जी’ की मूर्ति को देखकर हजार वर्ष से पूर्व के इतिहास को साक्षी मानकर ‘आर्षपरम्परा’ के प्रति ‘आस्थावान’ बने रहें, यही मेरी भावना एवं प्रेरणा है।