भगवत् कल्प आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित पंचास्तिकायसंग्रह नामक ग्रंथ शौरसेनी प्राकृत भाषा का अनुपम ग्रंथ है। यह ग्रंथ जैन दर्शन के ‘द्वितीय श्रुतस्कन्ध’ के सर्वोत्कृष्ट आगमनों में से एक है। कुन्दकुन्द के पंच परमागमों में से प्राभृत त्रयी अथवा कुन्दकुन्द त्रयी कहे जाने वाले ग्रंथों में से पंचास्तिकाय एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। आचार्य कुन्दकुन्द एवं उनके पंच परमागम, डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट जयपुर, १९८८ प्रथमावृत्ति, पृ. ३१। इसकी रचना आज से लगभग २००० वर्ष पूर्व हुई थी। जिसमें जिनेन्द्र के शासन का संक्षेप में प्रतिपादन किया गया है। स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय संग्रह नामक ग्रंथ को ‘सर्वज्ञ महामुनि के मुख से कहे गये पदार्थों का प्रतिपादक, चतुर्गति नाशक एवं निर्वाण का कारण’ कहा है। पंचास्तिकाय, मूल. ग. २ १०३ . जिसमें जिनेन्द्र के प्रवचन का सार—संक्षेप निरुपित किया गया है।वही १०३ कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय का भारतीय दर्शन के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह ग्रंथ जैन दर्शन का अन्य दर्शनों से पृथक् एवं विशिष्ट स्थान (रूप) का आधार प्रस्तुत करता है। पंचास्तिकाय जैन सिद्धान्त एवं जैन अध्यात्म का प्राथमिक परिचय प्रस्तुत करने वाला आधारभूत ग्रंथ (Basic Holly Book) है। यह जिनागम का प्रवेश द्वार (Gate way) है। आचार्य कुन्दकुन्द एवं उनके पंच परमागम पृ. ७५ प्राच्य भारतीय ज्ञान विज्ञान के महामेरू आचार्य कुन्दकुन्द डॉ. राजाराम जैन, डॉ. विद्यावती जैन, प्राच्य भारती प्रकाशन, १९८९ पृ. २१ पंचास्तिकाय दीपिका, व्याख्याकार—पं. सुमेरूचंद दिवाकर, भगवान शांतिनाथ जैन ट्रस्ट (सिवनी), १९८६, भूमिका पृ. ५. यह वह कुंजी है जिसमें जिन सिद्धान्त एवं जिन अध्यात्म के रहस्य खुल जाते हैं। अंग्रेजी में हम यह कह सकते हैं “Panchaastikaya is the basic holy book which describes the foundamental and primary principles of jain philosophy.” 173 गाथाओं वाले इस ग्रंथ का मूल प्राकृत नाम ‘पंचत्थिय संगह’ (अर्थात् पंचास्तिकाय संग्रह) है। पंचास्तिकाय संग्रह गा. १०३, १७३ पूरा का पूरा (सम्पूर्ण) पंचास्तिकाय संग्रह ही दार्शनिक निरूपण से ओत—प्रोत है जिसमें गाथाबद्ध सूत्रों के रूप में जैन दर्शन के लगभग समस्त विषयों का प्रतिपादन किया गया है। व्यर्थ के विस्तार से रहित नप—तुले शब्दों में बात को कहना पंचस्तिकायसंग्रह की विशेषता है। कुन्दकुन्द भारती, सं. पन्नालाल साहित्याचार्य, श्रुत भण्डार एवं ग्रंथ प्रकाशन समिति, फल्टन, १९७०, प्रस्तावना पृ. ६ पंचास्तिकायसंग्रह की एक—एक गाथा दार्शनिक दृष्टि से निरूपित है। इसमें पंचास्तिकाय व्यवस्था वही गा. ३,४,५,२२,१०३,१७३ पंचास्तिकाय टीका, समय व्याख्या, आचार्य अमृतचन्द्र श्लोक ४। एवं षड्द्रव्यात्मक लोक व्यवस्थावही गा. १३, १५-२१, २३-२६, पंचास्तिकाय टीका, समय व्याख्या, श्लोक ४। अथवा जगत् के स्वरूप का वर्णनवही, ३, ५, २२। ‘‘समवाओ पंचण्हं समउत्ति जिणुत्तमेिंह पण्णत्तं। सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं।।’’ ‘‘……. जे होंति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेिंह तइलुक्कं।।’’— ५ ‘‘…….अमया अत्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स।’’ — २२ आत्म—प्ररूपणावही गा. १६, १७, १८, २७-४९, ५३-७२, १०९, १२२, नवपदार्थ—निरूपण वही गा. १०५-१७२., कर्म मीमांसावही गा. १२८-१३४, १४४-१५३, मोक्ष वही गा. १५३, १६०-१६५, १७०-१७२, सप्तभंगी,वही गा. १४ ज्ञान मीमांसा वही गा. ३९, ४०, ४१, ४३-५२, सत्ता वही गा. ८-१३, १९ आदि अनेक विषयों का चितन, कुन्दकुन्द की दर्शन जगत् को अद्वितीय एंव महत्त्वपूर्ण देन है। पंचास्तिकाय की विषय वस्तु को स्पष्ट करने में आचार्य कुन्दकुन्द ने अनेकान्त का वर्णन न करके भी अनेकान्त दृष्टि का परिचय दिया है। वस्तु जगत एवं पदार्थों का द्रव्र्यािथक—पर्यार्यािथक तथा निश्चय—व्यवहार की संधि पूर्वक वही गा. २७, ५६, १०८, १६०, १६१, कुन्दकुन्द भारती प्रस्तावना, पृ. १०-१६ बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है। शास्त्र के कथन की नयात्मक पद्धति यदि हमें सीखना हो तो पंचास्तिकाय ग्रंथ से सीखी जी सकती है। आगम दृष्टि एवं अध्यात्म दृष्टि का भी सुन्दर समन्वय प्रसतुत किया गया है।वही २.१०३, १०५-१७२, कुन्दकुन्द भारती प्रस्तावना पृ. ११, १२ विषय के प्रस्तुतीकरण एवं स्पष्टीकरण में इस ग्रंथ में सामान्य विशेषात्मक कथन शैली भी देखने को मिलती है। पंचास्तिकाय की दार्शनिक महत्ता के कारण ही इसकी अनेक भाषाओं में टीकायें रची गयी तथा पंचास्तिकाय में निरूपित दार्शनिक सिद्धान्तों को अनुसरण उत्तरकालीन आचार्यों ने भी किया। आचार्य नेमीचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती का द्रव्यसंग्रह पूर्णतया पंचास्तिकाय पर ही आधारित है। इसी तरह उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र पर भी पंचास्तिकाय का प्रभाव परिलक्षित होता है। पंचास्तिकाय पर अमृचन्द्राचार्य की समयव्याख्या, जयसेनाचार्य की तात्पर्यवृत्ति, ब्रह्मदेव की पंचास्तिकाय टीका, प्रभाचन्द्र की संस्कृत टीका, आचार्य मल्लिषेणकृत तमिल टीका, मलधारी पद्मप्रभ कृत कन्नड़ टीका, बालचंद्र मुनि कृत कन्नड़ टीका, भट्टारक ज्ञान भूषण, नरेन्द्र र्कीित, पं. खेमचन्द अध्यापक, देवजित आचार्य, पं. बुधजन, दोसी बेलसी वीरचंद, ब्र. शीतल प्रसाद, पं. सुमेरचन्द दिवाकर आदि के द्वारा हिन्दी टीकाएं रची गयी और संपादन किया गया। ए. चक्रवर्ती ने अंग्रेजी में (पंचास्तिकायसार) तथा पी. ई. पेमोलिनी द्वारा प्रेंच भाषा में पंचास्तिकाय का संपादन किया।आचार्य अमृतचंद्र व्यक्तित्व एवं कत्र्तृत्व, डॉ. उत्तम चंद जैन, पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, १९८८, पृ. ३२५, ३२६ इनके अतिरिक्त अज्ञातकर्तृक एक टब्बा टीका भी रची गयी।
विश्व का स्वरूप— पंचास्तिकाय की गाथा ३-५ में आचार्य कुन्दकुन्द ने पंच अस्तिकायों को ही लोकरूप अथवा विश्वरूप निरूपित किया है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, एवं आकाश से तीन लोक की रचना होती है। ये ही लोक के कारणभूत है। पाँच अस्तिकायों द्वारा लोक की रचना का सिद्धान्त दार्शनिक जगत में क्रान्ति पैदा करने वाला सिद्धान्त है। गाथा २२ में पाँच अस्तिकायों को लोक का कारण कहा जथा उन्हें अकृत्रिम (अमया) तथा सत्तावान अथवा अस्तित्वमयी बताया गया। इस तरह यहाँ जगत् के ईश्वर कर्तृत्व की मान्यता असिद्ध होती है।‘‘समवाओ पंचण्हं समउत्ति जिणुत्तमेिंह पण्णत्तं। सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं।। जे होंति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेिंह तइलुक्कं। जीवा पुग्गल काया आयासं अत्यिकाइया सेसा। अमया अत्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स।।’’आचार्य कुन्दकुन्द: व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व, डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल, श्री महावीर ग्रंथ अकादमी, जयपुर, १९९० पृ. ३३ यहाँ यह स्पष्ट कर दिया गया है कि लोक को किसी ने बनाया नहीं है। वह अकृत्रिम है। पंचास्तिकाय ही लोक का कारण है। जहाँ इन अस्तिकायों का अस्तित्व नहीं है वह अलोक (अलोकाकाश) है। पंचास्तिकाय गा. ३
पंच—अस्तिकाय निरूपण— पंचास्तिकाय संग्रह में पाँच अस्तिकायों के अस्तित्व एवं कायत्व का बखूब वर्णन किया गया है। उत्पाद—व्यय—ध्रौव्यत्व अथवा गुण पर्यायत्व के कारण अस्तित्ववही, गा. ४, ५, ९ तथा अणुमहंत अर्थात् बहुप्रदेशत्व के कारण कायत्व सिद्ध किया गया है।वही गा., ४ अस्तिकाय में अस्तित्व एवं कायत्व दोनों का समावेश है। अस्तित्व को सत्ता अथवा सत् भी कहते हैं। यही सत् द्रव्य का भी लक्षण है। ये अस्तिकाय अपने अस्तित्व अर्थात् सत्ता में सदा नियत तथा अभिन्न रूप हैं। पंचास्तिकाय की यह व्याख्या दर्शन—जगत् में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। जैन दर्शन के इतिहास में भी पंचास्तिकाय के सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाला यह प्रथम ग्रंथ है। जिसका अनुसरण उत्तरवर्ती अन्य आचार्यों ने भी किया।
सत्ता—पंचास्तिकाय में सत्ता की र्मािमक व्याख्या की गयी है। सत्ता अस्तित्व रूप है।वही गा. ८, द्रव्य भी तथा द्रव्य का लक्षण भी है।वही ले. सं. ४९६ से ४९९। वह सत्ता सर्व पदार्थों में स्थित, सविश्वरूप (अनेर रूप), अनन्त पर्याय सहित,भग—उत्पाद—व्यय—ध्रौव्यात्मक, प्रतिपक्ष सहित तथा एक है।वही ले. सं. ९२। समस्त पदार्थों में रहने वाली वह सत्ता सामान्य सत्ता अथवा महासत्ता है। सादृश्य अस्तित्व वाली महासत्ता या सामान्य सत्ता की दृष्टि से कुन्दकुन्द एकवादी है। उत्पाद—व्यय—ध्रौव्यात्म्क होने से यह सत्ता त्रिलक्षणात्मक है तथा गुण—पर्याय सहित होने से सत्ता द्विलक्षणात्मक है। अनन्त पर्यायों सहित अथवा गुण—पर्यायों सहित होने से सत्ता अनेक रूप भी है जिसे अवान्तर सत्ता कहा जाता है। पृथक्—पृथक् पदार्थ, पृथक्—पृथव गुण, तथा पृथक्—पृथक् पर्यायों का अस्तित्व बनाने वाली अवान्तर सत्ता भी है।वही ले. सं. ८८-८९। इस प्रकार पंचास्तिकाय में सत्ता की प्रथम बार दार्शनिक परिभाषा दी गयी।
द्रव्य विवेचन— इस सत्ता के कारण ही द्रव्य रहता है। अर्थात् सत्ता ही द्रव्य कहलाती है। पंचास्तिकाय परिवर्तन चिन्ह रूप काल के साथ मिलकर द्रव्य भाव (व्यवहार) को प्राप्त होते हैं।वही ले. सं. १३३। ये सभी छ: द्रव्य कहे जाते हैं। पर्यार्यािथक नय की अपेक्षा सभी अस्तिकाय त्रैकालिक पर्यायों में परिणमन होने से नित्य तथा द्रव्र्यािथक नय की अपेक्षा अपने स्वरूप में विश्रान्त होने के कारण नित्य हैं। द्रव्य सत् है अर्थात् सत्ता लक्षण से युक्त है, गुणपर्यायों के आश्रय है तथा उत्पाद—व्यय—ध्रौव्य—संयुक्त है।वही ले. सं. १३०। द्रव्य के इन्हीं लक्षणों को आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में ज्यों का त्यों व्यक्त किया है।वही ले. सं. २४। छहों द्रव्य एक क्षेत्र में रहते हुए, एक दूसरे में प्रवेश करते हुए, एक दूसरे को अवकाश (स्थान) देते, एक दूसरे से मिलते हुए भी एकमयी नहीं होते, अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते।वही ले. सं. ५१। द्रव्य का न तो उत्पाद होता है एवं न ही विनाश। वह अस्तित्व स्वभाव वाला है। पर्याय ही उत्पाद—व्यय—ध्रौव्यरूप परिणमन करती है। द्रव्य की गुणों तथा पर्यायों के साथ अभिन्नता होती है।वही ले. सं. ८४, ९६, १२९, १४४, १०८, ४५४, ४७६-७७, ४८४, ४९०, ४९८, ५००। यहाँ पर नयात्मक एवं आगमिक दृष्टि से द्रव्य की व्याख्या प्रस्तुत की गयी है तथा दर्शन के क्षेत्र में जगत अथवा वस्तु को सर्वथा नित्य या सर्वथा परिणामी (अनित्य) मान्यता वालों में नयात्मक दृष्टि से समन्वय कायम कर द्रव्य का परिणामी नित्य स्वरूपात्मक कथन किया गया है। द्रव्य दृष्टि से वस्तु नित्य है उसका उत्पाद—विनाश नहीं है जबकि पर्यार्यािथक नय की अपेक्षा द्रव्य उत्पाद व्यय—ध्रौव्य स्वभाव रूप है। यह जैन दर्शन की अनेकान्तवादी व्याख्या है। द्रव्य का विविक्षा भेद से सप्तभंगी होना भी स्वीकार किया गया है।वही ले. सं. ८७।
जीवद्रव्यास्तिकाय एवं जीव पदार्थ रूप आत्म—प्ररूपणा— पंचास्तिकाय में जीवद्रव्यास्तिकाय का वर्णन आगम—प्रधान शास्त्रीय दृष्टि से किया गया है तथा जीव पदार्थ का निरूपण आत्म—प्रधान अध्यात्मिक दृष्टिकोण से किया गया है। जीव द्रव्यास्तिकाय अथवा जीव पदार्थ के विवेचन में दर्शन के आगम दृष्टिकोण एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण का संगम किया गया है। पंचास्तिकाय की गाथा २७ से ७३ तक जीव द्रव्य का नय विविक्षा से वर्णन किया गया है। संसारी जीव जीवत्व, चेतना गुणवाला, उपयोगमयी, प्रभु, कर्ता, भोत्ता, देह—परिणाम वाला, अमूर्त तथा कर्म संयुक्त है।वही ले. सं. ९३। वही सिद्ध जीव (मुक्त जीव) कर्ममल से विमुक्त, सर्वज्ञ, ऊध्र्वगति स्वभाववान होने के कारण लोक के अंतिम भाग (लोकग्र) में पहुँचता है, वहाँ अनन्त, अतीन्द्रिय सुख को प्राप्त करता है।वही ले. सं. १३८। संसारी एवं मुक्त, जीव की दोनों की अवस्थाओं का वर्णन निश्चय एवं व्यवहार नय से किया गया है। जीव द्रव्य के भेदों को भी विभिन्न अपेक्षाओं से गिनाया गया है।वही ले. सं. ८६। जीव द्रव्य एक उपयोग रूप दो भेदवाला त्रिविध चेतना रूप तीन भेद वाला, चतुर्गति गमन रूप चार भेद वाला, पाँच लक्षण वाला (पाँच भाव वाला), छ: दशाओं में गमन करने वाला, सप्त भंग पूर्वक सद्भावना आठ सिद्धों के गुण (कर्माश्रय के आधार से) वाला, नौ पदार्थों के भेद से नौ प्रकार का एवं दश स्थानों के भेद से १० प्रकार वाला कहा गया है। आध्यात्मिक दृष्टि से रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग का कथन करते हुए नव पदार्थों का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान एवं समभाव (चारित्र) ही मोक्षमार्ग कहा।जै. शि. सं. भाग एक, ले. सं. ३६१। उपयोग लक्षणवाला एवं चेतनास्वभावी जीव पदार्थ दो प्रकार का कहा—१. संसार (देह—सहित) तथा २. सिद्ध (देह—रहित)।वही ले. सं. ९१। देह—सहित संसारी जव षट्निकाय अर्थात् छ: प्रकार के काय वाला (पृथ्वी कायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, एकेन्द्रिय जीव एवं त्रस कायिक) कहा गया तथा सिद्ध जीव देह—मुक्त।वही ले. सं. ९७। जीव पदार्थ का निश्चय एवं व्यवहारनय की दृष्टि से वर्णन पंचास्तिकाय की आगम दर्शन एवं अध्यात्म दर्शन को एक महत्त्वपूर्ण देन है। इन्द्रियां एवं छ: प्रकार के काय (शरीर) व्यवहार से जीव है लेकिन उनमें रहने वाला ज्ञान एवं चेतना ही निश्चय से जीव है। षट् जीव निकाय की धारणा का वर्तमान जीव विज्ञान को भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण के कारण जीव एवं आत्मा का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस जगत में सभी जीव सुख चाहते हैं तथा दुख दूर करना चाहते हैं। इसके लिए वे प्रतिक्षण प्रयासरत रहते हैं। लेकिन वास्तविक सुख क्या है ? जीव कौन है, आत्म तत्त्व कौन है ? मैं कौन हूँ ? इसके सम्यक्् और यथार्थ ज्ञान पूर्वक एवं श्रद्धान पूर्वक तथा उस मैं तत्त्व में स्थिरता पूर्वक ही वास्तविक अतीन्द्रिय सुख की उपलब्धि होती है। उसे अतीन्द्रिय सुख रूप शुद्धात्म तत्त्व की उपलब्धि हेतु ही जीव द्रव्यास्तिकाय एवं जीव पदार्थ निरूपण किया गया है।
त्रिविध चेतना—इसी संदर्भ में त्रिविध चेतना का विवेचन किया गया। जीव के वेदन स्वरूप वाली चेतना की इतनी महत्त्वपूर्ण व्याख्या किसी और दार्शनिक ग्रंथ में देखने को नहीं मिलती। जो चेतना मात्र ज्ञान का ही अनुभव करती है वह ज्ञान चेतना शुद्ध चेतना है जिसके स्वामी अरहंत—सिद्ध होते हैं। मात्र कर्मफल का ही वेदन करने वाली कर्मफल चेतना अशुद्ध चेतना है जिसके स्वामी स्थावर जीव होते हैं। इष्ट—अनिष्ट विकल्प रूप कर्म का अनुभव करने वाली कर्म चेतना (अशुद्ध चेतना) है जिसके स्वामी त्रस जीव है।वही ले. सं. १३१। अत: त्रविध चेतना की व्याख्या कुन्दकुन्द की मौलिक अभिव्यक्ति है।
पुद्गलद्रव्यास्तिकाय एवं अजीव पदार्थ— पंचास्तिकाय में पुद्गलास्तिकाय द्रव्य का अद्वितीय वर्णन प्रस्तुत किया गया है। स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश एवं परमाणु के रूप में पुद्गल के चार भेद हैं।वही ले. सं. ९४-९५। पूरन या गलन स्वभाव है जिनका वे पुद्गल कहे जाते हैं।वही ले. सं. ९८। पुद्गल के छ: भेद कर उनसे ही त्रैलोक्य की रचना का उल्लेख किया गया है। पुद्गल द्रव्य का विस्तार बताते हुए कहा गया है कि पाँचों इन्द्रियों, शरीर, मन, कर्म तथा अन्य रूपी मूर्त पदार्थ पुद्गल हैं।वही ले. सं. ८१। शब्द भी पुद्गल है जो पुद्गल स्कन्धों के परस्पर संघर्ष से उत्पन्न होता है।वही ले. सं. १३५। पुद्गल का सबसे छोटा अंश, अविभाज्य अंश परमाणु होता है।वही ले. सं. ४९२। पुद्गल अस्तिकाय, पुद्गल द्रव्य की अवधारणा दर्शन में एक नया िंचतन प्रस्तुत करती है। पुद्गल रस, गंध, वर्ण, स्पर्श वाला है, अचेतन है, मूर्त है। अचेतन होने से वह अजीव पदार्थ भी है।
धर्माधर्मास्तिकाय—धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय क्रमश: स्वयं गतिक्रिया से युक्त जीव एवं पुद्गलों के लिए गति में तथा स्वयं स्थिति के युक्त जीव एवं पुद्गलों के लिए स्थिति में कारण होते हैं।वही ले. सं. ६४। ये दोनों ही अस्तिकाय रस रहित, वर्ण रहित, गन्ध रहित, शब्द रहित, स्पर्श रहित है अत: अमूर्त हैं एवं समस्त लोक में व्याप्त है, असंख्यात प्रदेशी, अखण्ड प्रदेशी एवं विस्तृत, संख्या अपेक्षा एक—एक है।वही ले. सं. ६२। लोक एवं अलोक में भेद इन दोनों अस्तिकायों के काण ही है।वही ले. सं. ५६। यदि इनके अस्तित्व को नहीं माना जाता है तो जीव एवं पुद्गल की निरंकुश गति तथा स्थिति परिणाम को रोका नहीं जा सकता। धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय द्रव्य की अवधारणा भी दार्शनिक क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखती है।
आकाशास्तिकाय एवं द्रव्य— अन्य सभी द्रव्यों को अवकाश (स्थान) देने वाला आकाश है। आकाश लोक एवं अलोक दोनों ही स्थानों पर व्याप्त है।वही ले. सं. ११५। काल—काल द्रव्य है। वह अस्तित्ववान है लेकिन कायवान नहीं है। काल एक प्रदेशी है क्योंकि कालांश अणु अविभाज्य है। संख्या अपेक्षा अनन्त है। निश्चयकाल वर्ण, गंध, स्पर्श, तथा रस से रहित, अगुरुलघु अमूर्त तथा वर्तमना लक्षण वाला है।वही ले. सं. ३८१। जबकि व्यवहार काल समय, निमेष, कला, घड़ी, दिन—रात, मास, ऋतु, अयन और वर्ष से जाना जाता है।वही ले. सं. ६७। काल द्रव्य के अस्तित्व को पुद्गल द्रव्य के परिणमन से पहचाना जाता है। इस पंचास्तिकाय रूप अवबोध का उद्देश्य दुखों से मुक्त होना तथा रागद्वेष छोड़ना है।जैन शि. सं. भाग एक ले. सं. १४४
नव पदार्थ— जीव के अतिरिक्त अन्य सभी द्रव्य अजीव हैं, चेतनता रहित हैं, उन्हें सुख—दुख या हित अहित का ज्ञान नहीं है।वही ले. सं. ४९४। जबकि जीव अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, अशब्द, अर्नििदष्ट संस्थान, चेतना गुण वाला तथा इन्द्रियों द्वारा अग्राह्या है।वही ले. सं. १३६। जीव या पुद्गल के संयोग परिणाम से शेष सात पदार्थ उत्पन्न होते हैं। पंचास्तिकाय में सातों पदार्थों का द्रव्य तथा भव रूप से विवेचन किया गया है। द्रव्य पुण्य—पाप पुद्गल कर्म है तथा भाव पुण्य—पाप जीव के शुभाशुभ परिणाम है। प्रशस्त राग, अनुकंपा तथा चित्त की अकलुषता से पुण्यास्रववही ले. सं. ४४-५८। तथा विषयलोलुपता, प्रमादचर्या, पर को दुखी करना, चित्त भी कलुषता, संज्ञा, आर्तरौद्र ध्यान, दुष्ट भाव वाली धर्मक्रिया, इन्द्रियासक्ति, कृष्णादि तीन लेश्या पापास्रव के कारण हैं।वही ले. सं. ४९९। इन्द्रिय कषाय तथा संज्ञा पर विजय प्राप्त करने वाले के समभाव वाले के शुभाशुभा कर्मास्रव नहीं होता।श्री चामुण्डने राजे करवियले। ’जै. शि. सं. ीाग एक ले.सं. ७५)। योग के निरोध पूर्वक तप से एवं ध्यान से निर्जरा होती है।वही ले. सं. ११५। मोक्ष एवं मोक्षमार्ग का कथन भी द्रव्य एवं भाव के दृष्टि से तथा निश्चय एवं व्यवहार नय की दृष्टि से किया गा है। मोह—राग—द्वेष का पूर्णतया अभाव होने से कर्म का अभाव होता है। कर्म का अभाव होने से सर्वज्ञता, सर्वर्दिशत, अव्याबाध, इन्द्रियातीत अनंत सुख तथा जीवनमुक्ति रूप भाव मोक्ष होता है जो द्रव्य मोक्ष का हेतु है।वही ले. सं. ४४१। यहीं पर स्वचरित्र एवं परचरित्र की व्याख्या की गयीवही ले. सं. ४३७। जो पंचास्तिकाय की अनुपम व्याख्या है। पर द्रव्य में शुभाशुभ राग करने वाला परचरित्र है तथा जो सर्वसंसर्ग से मुक्त होकर आत्म स्वभाव में अनन्यमयता से स्थिर है, वह स्वचरित्र है।
अनेकान्त एवं नयात्मक दृष्टिकोण— पंचास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द ने अनेकान्त का वर्णन न करके भी अनेकान्त दृष्टि का परिचय दिया है। द्रव्र्यािथक—पर्यार्यािथक एवं निश्चय व्यवहार की संधि पूर्वक अनेकान्तमयी वस्तु स्वरूप का निरूपण किया गया है। मोक्षमार्ग का कथन निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से किया गया है।वही ले. सं. ५९। अस्तिकायों के स्वरूप की प्रतीति बारह अंग चौदह पूर्व का ज्ञान तथा तपश्चरण में प्रवृत्ति व्यवहार मोक्षमार्ग है तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्र से समाहित आत्मा जहाँ आत्मा के सिवाय अन्य किचित् मात्र भी नहीं करता, मात्र अनन्य आत्मामय है, वही निश्चय मोक्षमार्ग है। यह अध्यात्म दर्शन की विवेचना है। आगम दर्शन में द्रव्य की नित्यानित्यात्मकता, सत्—असत् का द्रव्र्यािथक—पर्यार्यािथक दृष्टि से विवेचन है। पंचास्तिकाय में अनेकान्त की मिसाल यह है कि असत् का जन्म तथा सत का विनाश नहीं होता—यह सनातन सत्य रूप एकान्त भी कुन्दकुन्द को स्वीकार्य नहीं है। वे कहते है कि मनुष्य मरकर देव हो जाता है। यहाँ सत् रूप पर्याय का नाश हुआ तथा असत् देव पर्याय का उत्पाद हुआ। मनुष्य पर्याय में मनुष्य सत्रूप ही है तथा देव पर्याय असतरूप ही है, क्योंकि एक ही काल में दो पर्यायों का सद्भाव नहीं हो सकता। इस प्रकार पर्यार्यािथक नय की अपेक्षा से सत् का विनाश तथा असत् की उत्पत्ति होती हैवही ले. सं. ४०। तथा सत् का विनाश तथा असत् की उत्पत्ति नहीं होती, यह कथन द्रव्र्यािथक नय की अपेक्षा से है।
ज्ञानमीमांसा— यद्यपि ‘‘आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रंथों में स्वतन्त्र भाव से प्रमाण की चर्चा नहीं की एवं न ही उमास्वामी की तरह शब्दश: पाँच ज्ञानों को प्रमाण की संज्ञा दी है फिर भी ज्ञान का जो प्रासंगिक वर्णन है उसमें दार्शनिक मौलिकता की मात्रा अधिक है। आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय में मतिज्ञान को अभिनिबोधक ज्ञान तथा कुअवधि को विभंग ज्ञान कहा है। पाँच प्रकार के ज्ञान के अतिरिक्त तीन कुज्ञान बताये हैं।वही ले. सं. ४७०। अभेदनय से आत्मा एवं ज्ञान गुण में अभिन्नता है, एकत्व है, अन्यत हे, दोनों में प्रदेश—भेद नहीं है। लेकिन भेदनय से अनेक ज्ञान (आठ भेद) के पर्याय भेदों से अनेक हैं। ज्ञान व ज्ञानी में एकता है लेकिन नाम, संख्या, संस्थान एवं विषयों से भेद किया जाता है। भेद व्यवहार से किया जाता है। निश्चय से ज्ञान एवं ज्ञानी में संयोग संबंध नहीं अपितु तन्मय भाव है। जीव और ज्ञान का संबंध अपृथक् सिद्ध (गुण—गुणी का प्रदेश भेद रहित समवाय संबंध) है।वही ले. सं. १३७।
कर्म मीमांसा—कर्म प्रकृतियों की चर्चा करते हुए पंचास्तिकाय की गाथा ५५ में कहा गया है कि नारक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव ये नाम कर्म की प्रकृतियाँ सत् का विनाश एवं असत् भाव का उत्पाद करती हैं। यहाँ कुन्दकुन्द पूर्णत: अनेकान्तात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। जीव अपने भावों का कर्ता है। लोक में ठसाठस भरे हुए पुद्गल स्कंधों में जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर कार्माणवर्गणा रूप पुद्गल स्कन्ध स्वयं ही कर्मभाव को प्राप्त होते हैं तथा जीव एवं कर्मरूप पुद्गल स्कन्धों का एक क्षेत्रावगाह संबंध परस्पर सघन रूप को प्राप्त हो जाता है, जो कर्म बंध कहलाता है। कर्म बंध की चार अवस्थाएँ हैं—प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध एवं प्रदेश बंध। कर्म अपने उदयकाल में झड़ने (बिछुडने) लगते हैं। तब जीव में (कर्मोदय के समय) सुख—दुख का वेदन होता है। इसी निमित्त नैमित्तिक संबंध से कहा जाता है कि कर्म सुख—दु:खरूप फल देते हैं और जीव उन्हें भोगते हैं। इस प्रकार यह जीव अपने ही शुभाशुभ कर्मों से मोह के द्वारा आच्छन्न होकर कर्ता—भोक्ता होता हुआ सान्त एवं अनन्त संसार में परिभ्रमण करता रहता है।वही ले. सं. १३४, तथा ४९९। तथा जो जीव मोह का उपशम होने से अथवा क्षीण होने से (उपशांत तथा क्षीण मोह) जिनेन्द्र द्वारा कथित मार्ग (मोक्षमार्ग) को प्राप्त हुआ है वह धीर शुद्ध ज्ञानाचारवान जीव निर्वाणपुर (सिद्ध पद) को प्राप्त होता है। इस प्रकार पंचास्तिकाय अति संक्षेप में समस्त वस्तु का प्रतिपादक होने पर भी अति विस्तृत जिनेन्द्र प्रवचन का सार है। ग्रंथ की रचना जिनमार्ग—प्रभावना हेतु भक्तिवश की गयी है, ताकि जगत के सभी प्राणी सुखी हो सके तथा सुख दूर कर सके। पंचास्तिकाय के अध्ययन के बिना जैन दर्शन का ज्ञान दुरूह है। पंचास्तिकाय की शैली अनुभवजन्य है तो आगम पर आधारित भी है। यथार्थवादी भी है तो अलौकिक सत्य का उद्घाटन भी करती है। एकान्तवादी दार्शनिक विचारधारा में समन्वय एवं सामन्जस्य बिठाकर अनेकान्तात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। पंचास्तिकाय संग्रह में जगत, आत्मा एवं जीवन संबंधी अनेक अवस्थाओं पर एक साथ मौलिक चितन प्रस्तुत किया गया है जो अन्यत्र दुर्लभ है, अनुपम है। इस ग्रंथ में अध्यात्म एवं आगम सिद्धान्त की सम्मिलित सरिता प्रवाहित हुई है।
६६. जै. शि. सं. भाग एक, ले. सं. ६८। ६७. वही ले. सं. ५२। ६८. वही ले. सं. ४१। ६९. वही ले. सं. ३९। ७०. वही ले. सं. ४३। ७१. वही ले. सं. ४२। ७२. वही ले. सं. ४७। ७३. वही ले. सं. ४८, ४०, ४१। ७४. वही ले. सं. ५१, ७५, ९०। ७५. वही ले. सं. ९०। ७६. वही ले. सं. ५१। ७७. वही ले. सं. ४३०। ७८. वही ले. सं. ४६।