पूज्यवर आचार्यश्री १०८ शांतिसागर जी महाराज ने अपने मुनिसंघ सहित वीर निर्वाण संवत् २४५७ (सन् १९३१) का चातुर्मास देहली नगर में किया था। उनके पुण्यमय दर्शन करने के लिए मैं भी देहली गया था।
उस संघ में मुनिराज श्री १०८ श्रुतसागर जी भी हैं। इन समस्त मुनिराजों को इन भक्तियों से सदा काम पड़ता रहता है कितनी ही भक्तियाँ तो प्रतिदिन बोलनी पड़ती हैं तथा कितनी ही विशेष-विशेष समय पर पढ़ी जाती हैं। इन भक्तियों के पढ़ते समय यदि इनका अर्थज्ञान हो, तो फिर और भी विशेष आनन्द आता है। इसीलिए इनके अर्थ जानने की मुनिराज श्री १०८ श्रुतसागर जी की प्रबल इच्छा थी। मुनियों की इच्छाएँ और प्रवृत्तियाँ सब धार्मिक ही होती हैं इसीलिए इन इच्छाओं की पूर्ति करना विशेष पुण्य का कारण समझा जाता है। यही समझकर मैंने वहाँ से आकर अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार यह हिन्दी टीका लिखी है।
इन भक्तियों में अधिकतर भक्तियाँ पूज्यपाद आचार्यश्री १०८ पूज्यपाद स्वामी की लिखी हुई हैं। आचार्य पूज्यपाद स्वामी कितने प्रौढ़ और प्राचीन उद्भट विद्वान् आचार्य थे, यह बात प्राय: समाज के समस्त जनसाधारण तक जानते हैं।
इन भक्तियों की एक संस्कृत टीका है जो आचार्य प्रभाचंद्र स्वामी की बनाई हुई है। उस टीका में चैत्यभक्ति की टीका के प्रारंभ में लिखा है कि—
श्री वर्द्धमानस्वामिनं प्रत्यक्षीकृत्य गौतमस्वामी ‘‘जयति भगवान्’’ इत्यादि स्तुतिमाह।
अर्थ—गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी के प्रत्यक्ष दर्शन कर ‘जयति भगवान्’ इन शब्दों से प्रारंभ करते हुए स्तुति की।
बृहद्द्रव्यसंग्रह की संस्कृत टीका में भी लिखा है :—
ततश्च जयति भगवान् इत्यादि नमस्कारं कृत्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा कचलोचनानन्तरमेव चतुर्ज्ञानसप्तर्द्धिसम्पन्नास्त्रयोपि (गौतम अग्निभूत वायुभूत नामान:) गणधरदेवा: संजाता:। गौतमस्वामी भव्योपकारार्थै: द्वादशांगश्रुतरचनां कृतवान्।
तदनन्तर गौतम—अग्निभूति—वायुभूति इन तीनों विद्वानों ने ‘‘जयति भगवान्’’ इत्यादि शब्दों से स्तुति करते हुए भगवान महावीर स्वामी को नमस्कार किया। जिनदीक्षा ग्रहण की और केशलोच करने के अनन्तर ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान चारों ज्ञान उनको प्रगट हो गये तथा सातों प्रकार की ऋद्धियाँ प्रगट हो गईं। इस प्रकार वे तीनों ही मुनि उसी समय भगवान् महावीर स्वामी के गणधर हुए। उनमें से गौतमस्वामी ने भव्य जीवों का उपकार करने के लिए द्वादशांग श्रुतज्ञान की रचना की।
इन दोनों कथनों से यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि इन भक्तियों में से चैत्यभक्ति भगवान् महावीर स्वामी के मुख्य गणधर भगवान् गौतम स्वामी की बनाई हुई है। इससे इसकी प्राचीनता और प्रौढ़ प्रमाणता भी स्वयं सिद्ध हो जाती है।
इस स्तुति में कृत्रिम—अकृत्रिम चैत्यालयों का भी वर्णन है। जिसमें भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, कल्पवासी आदि सब देवों के चैत्यालयों का तथा मध्यलोक के अकृत्रिम चैत्यालयों का भी वर्णन है। इससे सिद्ध होता है कि यह मूर्ति पूजा जैनियों ने ब्राह्मणों से नहीं ली है किन्तु अनादिकाल से चली आ रही है। जो लोग मूर्तिपूजा आदि को ब्राह्मणों से ली हुई बतलाते हैं, उनको इससे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। साथ में जो लोग जैन भूगोल को अप्रमाण और टीलों पर बैठकर लिखे हुए बतलाते हैं, उन्हें भी अपने नेत्र खोल लेना चाहिए।
इस ऊपर के कथन से यह भी सिद्ध हो जाता है कि यह चैत्यभक्ति महावीर स्वामी के केवलज्ञान के समय की बनी हुई है, अर्थात् चतुर्थकाल में जब तेतीस वर्ष साढ़े आठ महीना शेष रह गये थे, उस समय की यह रचना है। ऐसी-ऐसी चतुर्थकाल की रचनाएँ न जाने कितनी हैं, जो अज्ञानता के कारण हमें मालूम नहीं हैं। बहुत से लोग कहा करते हैं कि ‘‘वर्तमान के समस्त शास्त्र पंचमकाल के बने हुए हैं इसलिए उनमें कहा हुआ विषय भगवान महावीर स्वामी का कहा हुआ नहीं माना जा सकता’’ ऐसे लोगों को भी अनर्गल बोलना बंद कर कुछ दिन तक जानकार विद्वानों से अध्ययन करना चाहिए।
यह हिन्दी टीका मैंने संस्कृत टीका के आधार से की है। तथापि प्रमादवश या अज्ञानवश इसमें जो कुछ स्खलन हुआ हो, उसे विद्वानों को सुधार कर बाँच लेना चाहिए।
-लालाराम जैन शास्त्री, मोरेना (म.प्र.)
फाल्गुन शु. १२, वी. नि. सं. २४५८
(सन् १९३२)