अहो! जगतगुरु देव, सुनियो अरज हमारी।
तुम हो दीनदयालु, मैं दुखिया संसारी।।१।
इस भव वनके माहिं, काल अनादि गमायो।
भ्रमत चहूँगति माहिं, सुख नहिं दु:ख बहु पायो।।२।।
कर्म महारिपु जोर, एक न कान करैं जी।
मन मान्या दु:ख देहिं, काहूसों नाहिं डरै जी।।३।।
कबहूँ इतर निगोद, कबहूँ नर्क दिखावें।
सुर-नर-पशुगति माहिं, बहुविधि नाच नचावे।।४।।
प्रभु! इनके परसंग, भव भव माहिं बुरे जी।
जे दु:ख देखे देव! तुमसो नाहिं दुरे जी।।५।।
एक जनम की बात, कहि न सकों सुनि स्वामी।
तुम अनंत परजाय, जानत अंतरयामी।।६।।
मैं तो एक अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरे।
किया बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे।।७।।
ज्ञान महानिधि लूटि रंक निबल करि डार्यो।
इन ही तुम मुझ माहिं, हे जिन! अंतर पार्यो।।८।।
पाप पुण्य मिल दोइ, पायनि बेड़ी डारी।
तन कारागृह माहिं मोहि दिये दु:ख भारी।।९।।
इनको नेक विगार, मैं कुछ नाहिं कियो जी।
बिन कारन जगवंद्य! बहुविधि बैर लियो जी।।१०।।
अब आयो तुम पास सुनिकर सुजस तिहारो।
नीति निपुण महाराज, कीजे न्याय हमारो।।११।।
दुष्टन देहु निकार, साधुन को रख लीजै।
विनवै ‘भूधरदास’ हे प्रभु! ढील न कीजै।।१२।।