श्री गौतमगणधर स्वामी ने प्रतिक्रमण पाठ में पच्चीस भावनाओं के नाम दिए हैं—
चूलियं तु पवक्खामि भावणा पंचविंसदी।
पंच पंच अणुण्णादा एक्केक्कम्हि महव्वदे३।।१।।
मणगुत्तो वचिगुत्तो इरिया – कायसंयदो।
एसणा- समिदि – संजुत्तो पढमं वदमस्सिदो।।२।।
अकोहणो अलोहो य, भय – हस्स – विवज्जिदो।
अणुवीचि – भास – कुसलो, विदियं वदमस्सिदो।।३।।
अदेहणं भावणं चावि, उग्गहं य परिग्गहे।
संतुट्ठो भत्तपाणेसु, तिदियं वदमस्सिदो।।४।।
इत्थिकहा इत्थिसंसग्ग – हास – खेड – पलोयणे।
णियमम्मि ट्ठिदो णियत्तो य, चउत्थं वदमस्सिदो।।५।।
सचित्ताचित्त – दव्वेसु, बज्झंब्भंतरेसु य।
परिग्गहादो विरदो, पंचमं वदमस्सिदो।।६।।
पद्यानुवाद (गणिनी ज्ञानमती)
पच्चीस भावना है जिसमें ऐसी चूलिका कहूँगा मैं।
मानी हैं पाँच पाँच ये भी जो हैं एक एक महाव्रत में।।१।।
मनगुप्ति वचनगुप्ति ईर्यासमिती व कायसंयत रखना।
एषणसमिती ये पाँच भावना प्रथम महाव्रत की धरना।।२।।
क्रुध लोभ और भय हास्य त्याग अनुवीचीभाषा कुशल कही।
आगम अनुकूलवचन दूजे व्रत की ये पाँच भावना ही।।३।।
अदेहनं – यह तन ही धन है यह देह अशुचि आदी भावन।
अवग्रह- गतपरिग्रह अशन पान में संतुष्टी व्रत की तृतियन।।४।।
स्त्री की कथा व संसर्ग अरु हास्य व क्रीडा अवलोकन।
इन सबको राग से नहिं करना चौथे व्रत में स्थिरीकरण।।५।।
सचित्त अचित्त द्रव्य अरु बाह्य अभ्यंतर द्रव्य व परिग्रह से।
विरती ये पांच भावनाएं, पाँचवें महाव्रत की ही हैं।।६।।
भावार्थ—उक्त और अनुक्त अर्थ का चिन्तन करना चूलिका है। उसका अर्थ कहता हूँ। उसमें पच्चीस भावनाएँ हैं, जो कि एक एक महाव्रत में पाँच-पाँच स्वीकार की गई हैं।।१।।१
मन से गुप्त, वचन से गुप्त, गमन करते समय काय से प्राणियों की पीड़ा के परिहार में तत्पर तथा एषणा समिति से संयुक्त होता हूँ। अन्यत्र भावना कही गई हैं यहाँ उन भावनाओं से सहित व्यक्ति कहा गया है। जो कि अभिन्न होने से भावना ही है, क्योंकि भावनाओं से युक्त व्यक्ति के ही अहिंसा व्रत निर्मल होता है।।२।।
क्रोध से रहित, लोभ से रहित, भय से वर्जित, हास्य से वर्जित और आगमानुकूल बोलने में कुशल होऊं। ये पांच सत्य महाव्रत की भावनाएँ हैं। इनसे युक्त के सत्यमहाव्रत निर्मल होता है।।३।।
तृतीय अचौर्य व्रत को आश्रित मैं पांच भावनाओं में तत्पर होता हूँ। वे भावनाएं ये हैं अदेहन अर्थात् कर्मवश जो मैंने देह का उपार्जन किया है, वह ही मेरे धन है, अन्य परिग्रह नहीं है। ऐसी भावना भाता हूँ। यहां पृषोदरादि इत्यादि वाक्य से ध का लोप होकर अदेहधन के स्थान में अदेहन बन गया है। देह में ही अशुचित्व, अनित्यत्व आदि भावना है उसको भी भाता हूँ। परिग्रह में अवग्रह अर्थात् निवृत्ति की भावना भाता हूँ। भक्त, पान आदि चतुर्विध आहार में सन्तुष्ट अर्थात् गृद्धि-रहित होता हूँ। इन भावनाओं को भाने वाले के तीसरा महाव्रत निर्मल होता है।।४।।
मैथुन से विरति लक्षण चतुर्थ ब्रह्मव्रत को मैं आश्रित हुआ हूँ। मैं स्त्री कथा, स्त्री संसर्ग, स्त्रियों के साथ हास्य विनोद, स्त्रियों के साथ क्रीडन और उनके मुखादि अंगों का रागभाव से अवलोकन इन सब ब्रह्मचर्य के विघातकों में चूँकि नियम से स्थित हूँ इसलिए निवृत्त होता हूँ। इन भावनाओं से चतुर्थ व्रत निर्मल होता है।।५।।
परिग्रह से विरति लक्षण पंचम व्रताश्रित मैं दासी, दास आदि सचित्त द्रव्य में और धन-धान्य आदि अचित्त द्रव्य में तथा वस्त्र, आभरण आदि बाह्य द्रव्य में और ज्ञानावरणादि आभ्यन्तर द्रव्य में तथा गृह क्षेत्र आदि अन्य सब परिग्रह से विरत होता हूँ। इस प्रकार की पाँच भावनाओं को भाने वाले के परिग्रह विरति व्रत निर्मल ठहरता है। (ये पाँचों व्रत प्रतिज्ञारूप हैं, क्योंकि अभिसन्धि-पूर्वक किया हुआ नियम व्रत होता है ऐसा कहा गया है)।।६।।
तत्त्वार्थसूत्र में २५ भावना का वर्णन निम्न प्रकार हैं—
हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्१।।१।।
अर्थ—िंहसा, अनृत (झूठ), स्तेय (चोरी) अब्रह्म (कुशील) और परिग्रह से विरक्त होना व्रत कहलाता है।
व्रत के कितने भेद हैं ?
देशसर्वतोऽणुमहती।।२।।
अर्थ—व्रत के दो भेद हैं—अणुव्रत, महाव्रत। हिंसा आदि पाँच पापों का एकदेश त्याग करना अणुव्रत कहलाता है और सर्वदेश त्याग करना महाव्रत कहलाता है।
व्रतों की स्थिरता के लिए क्या करना चाहिए ?
तत्स्थैर्यार्थं भावनाः पञ्च पञ्च।।३।।
अर्थ—उन व्रतों की स्थिरता के लिए प्रत्येक की पाँच-पाँच भावनाएं हैं। किसी वस्तु का बार-बार चिन्तन करना सो भावना है।
अहिंसाव्रत की पाँच भावनाएँ कौन सी हैं?
वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च।।४।।
अर्थ—वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईयासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपान भोजन (सूर्य के प्रकाश में देखकर खाना, पीना) ये अहिंसाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं।
सत्यव्रत की पाँच भावनाएँ क्या हैं ?
क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च।।५।।
अर्थ—क्रोध, लोभ, भय, हास्य का त्याग करना और अनुवीचि भाषण (शास्त्र की आज्ञानुसार निर्दोष वचन बोलना) ये सत्यव्रत की पाँच भावनाएँ हैं।
अचौर्य व्रत की भावनाएँ कौन सी हैं ?
शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसधर्माऽविसंवादाः पञ्च।।६।।
अर्थ—शून्यागार अर्थात् पर्वत, गुफा, नदी, तट आदि स्थानों में निवास करना, विमोचितावास अर्थात् राजा आदि के द्वारा छुड़वाए हुए स्वामित्वहीन स्थानों में रहना, परोपरोधाकरण अर्थात् अपने स्थान में ठहरने से किसी को न रोकना, भैक्ष्यशुद्धि अर्थात् शास्त्रानुसार भिक्षा की शुद्धि रखना और सहधर्मी भाइयों से विसंवाद नहीं करना ये पाँच अचौर्यव्रत की भावनाएँ हैं।
ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएँ क्या हैं ?
स्त्रीरागकथाश्रवण-तन्मनोहरांगनिरीक्षण-पूर्वरतानुस्मरण-वृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च।।७।।
अर्थ—स्त्री राग की कथा-कहानी सुनने का त्याग, स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग, पहले भोगे हुए विषयों के स्मरण का त्याग, कामवर्धक गरिष्ट भोजन का त्याग और अपने शरीर के संस्कारों का त्याग करना, ये ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं।
परिग्रह त्याग व्रत की भावनाएँ क्या हैं ?
मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च।।८।।
अर्थ—पाँचों इन्द्रियों के मनोज्ञ (इष्ट) विषय में राग तथा अमनोज्ञ (अनिष्ट) विषयों में द्वेष का त्याग करना, ये पाँच परिग्रहत्याग व्रत की भावनाएँ हैं।
विशेष-यहाँ श्री गौतमस्वामी की भावनाओं से अचौर्यव्रत व अपरिग्रह व्रत की भावनाओं में अन्तर है।