पण्डित मरण के तीन भेद होते हैं-पादोपगमन, भक्त प्रतिज्ञा और इंगिनीमरण।
पादोपगमन – अपने पावों द्वारा संघ से निकलकर और योग्य प्रदेश में जाकर जो मरण किया जाता है, वह पादोपगमन मरण है। इसमें मुनिराज अपने शरीर की वैयावृत्य स्वयं भी नहीं करते हैं और इतर मुनियों द्वारा भी नहीं कराते हैं। विशिष्ट संहनन वाले मुनि ही इस मरण को स्वीकार करते हैं।
भक्त प्रतिज्ञा मरण – भक्त-आहार की प्रतिज्ञा-त्याग करना भक्त प्रतिज्ञा है। इस मरण में स्व-पर वैयावृत्य की अपेक्षा रहती है।
इंगिनी मरण – स्वाभिप्राय को इंगिनी कहते हैं, अपने अभिप्राय से युक्त होकर स्वयं ही स्व की शुश्रूषा करते हुए जो मरण किया जाता है, वह इंगिनीमरण है, इसमें मुनि दूसरे मुनियों से शुश्रूषा नहीं कराते हैं। इस काल में पादोपगमन और इंगिनीमरण करने योग्य संहनन का अभाव है अत: भक्त प्रतिज्ञामरण का यहाँ स्पष्टीकरण करते हैं।
भक्तप्रत्याख्यान मरण के दो भेद हैं-सविचार भक्त-प्रत्याख्यान और अविचार भक्त-प्रत्याख्यान। जो गृहस्थ अथवा मुनि उत्साह और बलयुक्त हैं, जिनका कुछ काल के अनन्तर मरण होगा, उनके सविचार भक्त-प्रत्याख्यान मरण होता है, इससे विपरीत अकस्मात् मरण के आ जाने पर पराक्रम रहित साधु का मरण अविचार भक्त-प्रत्याख्यान है। भक्त-प्रत्याख्यान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल द्वादश वर्ष प्रमाण है, अर्थात् कोई भी मुनि निमित्तज्ञानादि१ के द्वारा जब अपनी आयु को बारह वर्ष के भीतर निर्णीत कर लेते हैं, तब वे उत्कृष्ट सल्लेखना को ग्रहण कर लेते हैं। वे२ मुनिराज बारह वर्ष को किस प्रकार बितावें, सोे कहते हैं। इन बारह वर्षों में प्रारंभ के चार वर्ष तो नाना प्रकार के अनशन, अवमौदर्य, सर्वतोभद्र, एकावली, द्विकावली, रत्नावली, सिंहावलोकन आदि तपों का अनुष्ठान करते हुए पूर्ण करें। आगे के चार वर्ष रसपरित्याग नामक तप से पूर्ण करें पुन: दो वर्ष तक कभी अल्प भोजन, कभी नीरस भोजन करते हुए बितावें पुन: एक वर्ष तक कभी अल्प आहार करते हुए पूर्ण करें। आगे छह महीने तक अनुत्कृष्ट तप करें पुन: आगे छह मासपर्यंत सर्वोत्कृष्ट तप करते हुए पूरा करें। इस प्रकार विधि बतलाई गई है अर्थात् भक्त प्रत्याख्यान सल्लेखना कषायों को कृश करते हुए विधिवत् काय को भी कृश करता जावे, इसी का नाम सल्लेखना है। आचार्य अपनी सल्लेखना करने के लिए अपने योग्य शिष्य को अपना आचार्यपद देकर स्वयं संघ का त्याग कर अन्य संघ में जाकर सल्लेखना ग्रहण करते हैं अथवा कदाचित् अपने संघ में भी सल्लेखना लेते हैं। जो सल्लेखना ग्रहण करते हैं वे क्षपक कहलाते हैं और जो आचार्य उनकी सल्लेखना कराते हैं, वे निर्यापकाचार्य कहलाते हैं। आचार्यों ने एक मुनि की सल्लेखना के समय अड़तालीस मुनियों की आवश्यकता बतलाई है। योग्य वसति में क्षपक को सल्लेखना ग्रहण कराकर वे मुनि क्या-क्या करते हैं? उसको बताते हैं। चार मुनि क्षपक को उठाते, बिठाते आदि सेवा का काम करते हैं, जिससे संयम में बाधा न आवे। चार मुनि क्षपक को धर्मश्रवण कराते हैं। चार मुनि आचारांग के अनुकूल क्षपक को आहार कराते हैं। चार मुनि क्षपक को पान (पीने योग्य पदार्थ) की व्यवस्था करते हैं। चार मुनि क्षपक की रक्षा करते हैं। चार मुनि क्षपक के शरीर के मल को दूर करते हैं। चार मुनि क्षपक की वसतिका के द्वार के अधिकारी हैं। चार मुनि अन्य दर्शनार्थियों को सम्बोधन करते हैं। चार मुनि रात्रि में जागरण करते हुए क्षपक को संभालते हैं। चार मुनि देश की प्रवृत्ति देखते हैं। चार मुनि बाहर से आये जनों को कथादि सुनाते हैं। चार मुनि वाद करके अन्य मतों का निराकरण करते हैं। ऐसे ये अड़तालीस निर्यापक मुनि यत्नपूर्वक क्षपक की समाधि सिद्ध करते हुए संसार समुद्र से पार कराते हैं। यदि अधिक रूप में समाधि के समय इतने मुनियों का योग न मिले, तो जितने हों उतने में ही उपर्युक्त व्यवस्था बना देना चाहिए। कम-से-कम दो मुनि होना अत्यन्त आवश्यक ही है। इस प्रकार सल्लेखना से मरण करने वाले भव्य जीव अधिक से अधिक सात-आठ भव और कम से कम दो तीन भव ही ग्रहण करते हैं, अनन्तर मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेते हैं।